प्रेमाश्रम/५४

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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५४

बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्राय शोक और चिन्ता में पड़े रहते। इन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उसके बिना उनका यहाँ जरा भी जी न लगता। सारे दिन अपने कमरे में पड़े कुछ न कुछ सोचते या पढ़ते रहते थे। न कहीं सैर करने जाते, न किसी में मिलते-जुलते। कृष्णमन्दिर की ओर भूल कर भी न जाते। उन्हें बार-बार यहीं पछतावा होता कि मैंने गायत्री को बनारस जाने में क्यों नहीं रोका! यह सब उसी भूल का फल है। श्रद्धा, प्रेमशंकर और बड़ी बहू ने यह सारा विष बोया है। उन्होने गायत्री के कान भरे, मेरी और से मन मैला किया। कभी-कभी उन्हें उद्भ्रान्त वासनाओं पर भी क्रोध आता और वह इस नैराश्य मे प्रारब्ध के [ ३४७ ]कायल हो जाते थे। हरि-इच्छा भी अवश्य कोई प्रबल वस्तु है, नही तो क्या मेरे सारे खेल यो बिगड़ जाते? कोई चाल सीधी ही न पड़ती? धनलालसा ने मुझसे क्या-क्या नहीं कराया। मैंने अपनी आत्मा की, कर्म की, नियमों की हत्या की, और एक सतीसाध्वी स्त्री के खून से अपने हाथो को रंगा, पर प्रारब्ध पर विजय न पा सका। अभीष्ट का मार्ग अवश्य दिखायी दे रहा है, पर मालूम नहीं वहाँ तक पहुँचना नसीब होगा या नहीं। इस क्षोभ और नैराश्य की दशा में उन्हें बार-बार गायत्री की याद आती, उसकी प्रतिभा-मूत ऑखो में फिरा करतीं, अनुराग में डूबी हुई उसकी बातें कानो में गूंजने लगती, हृदय से एक ठंडी आह निकल जाती।

ज्ञानशंकर को अब नित्य यह धड़का लगा रहता था कि कहीं गायत्री मुझे अलग न कर दे। वह चिट्ठियाँ खोलते डरते थे कि कहीं गायत्री का कोई पत्र न निकल आये। उन्होने उसको कई पत्र लिखे थे, पर एक का भी उत्तर न आया था! इससे उन्हें और भी उलझन होती थी। मायाशंकर के पत्र अवश्य आते थे, पर इससे उन्हें शान्ति न मिलती थी। बनारस में क्या हो रहा है यह जानने के लिए वह व्यग्न रहते थे, पर ऐसा कोई न था जो वहाँ के समाचार विस्तारपूर्वक उनको लिखता। कभी-कभी वह स्वयं बनारस जाने का विचार करते, लेकिन डरते किं न जाने इसका क्या नतीजा हो। यहाँ तो उसकी आँखों से दूर पड़ा हैं, सम्भव हैं कि कुछ दिनों में उसका क्रोध शान्त हो जाय। मुझे देख कर वह कही और भी अप्रसन्न हो जाये तो रही-सही आशा भी जाती रहें।

इस भाँति तीन-चार महीने बीत गये। भादो का महीना था। जन्माष्टमीं आ रही थी। शहर में उत्सव मनाने की तैयारी हो रही थी। कई वर्षों से गायत्री के यहाँ यह उत्सव वडी धूमधाम से मनाया जाता था। दूर-दूर से गवैये आते थे, रासलीला की मडलियों बुलायी जाती थी, रईसो और हाकिमो को दावत दी जाती थी। ज्ञानशंकर ने समझा, गायत्री को यहाँ बुलाने का यह बहुत ही अच्छा बहाना है। एक लम्बा पत्र लिखा और बड़े आग्रह के साथ उसे बुलाया। कृष्णमन्दिर की सजावट होने लगी लेकिन तीसरे ही दिन जवाब आया, मेरे यहाँ जन्माष्टमी न होगी, कोई तैयारी न की जाय। यह शौक का साल है, मैं किसी प्रकार का आनन्दोत्सव नहीं कर सकती, चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो। ज्ञानशंकर के हृदय पर विजली सी गिर गयी। समझ गये कि यहाँ से विदा होने के दिन निकट आ गये। नैराश्य का रंग और भी गहरा हो गया। शंका ने ऐसा उग्र रूप धारण किया कि डाकिये की सूरत देखते ही उनकी छाती घड़-धड़ करने लगती थी। किसी बग्घी या मोटर की आवाज सुन कर सिर में चक्कर आ जाता था, कही गायत्री न हो। रात और दिन में बनारस से चार गाडियो आती थी। यह ज्ञानशंकर के लिए कठिन परीक्षा की धड़ियां थी। गाड़ियों के आने के समय उनकी नींद आप ही आप खुल जाती थीं। चार दिन तक उनकी यह हालत रही। पांचवे दिन की डाक से गायत्री की रजिस्टरी चिट्ठी आयी। शिरनामा देखते ही ज्ञानशंकर के पाँव तले से जमीन सरक गयी। निश्चय हो गया कि यह मुझे हटाने का [ ३४८ ]परवाना है, नही तो रजिस्टर चिट्ठी भेजने की क्या जरूरत थी? काँपते हुए हाथो से पत्र खोला। लिखा था---मैं आज बद्रीनाथ जा रही हूँ। आप सावधानी से रियासत का प्रबन्ध करते रहिएगा। मुझे आपके ऊपर पूरा भरोसा है, इसी भरोसे ने मुझे यह यात्रा करने पर उत्साहित किया है। इसके बाद वह आदेश था जिसका ऊपर जिक्र किया जा चुका है। ज्ञानशंकर का चित्त कुछ शान्त हुआ। लिफाफा रख दिया और सोचने लगे, बात वहीं हुई जो वह चाहते थे। गायत्री सब कुछ उनके सिर छोड़ कर चली गयी। यात्रा कठिन है, रस्ता दुर्गम है, पानी खराब है, इन विचारों ने उन्हें जरा देर के लिए चिन्ता में डाल दिया। कौन जानता है क्या हो। वह इतने व्याकुल हुए कि एक बार जी मे आया, क्यो न मैं भी बद्रीनाथ चलूँ। रास्ते में भेंट हो जायगी। वहाँ तो उसके कोई कान भरनेवाला में होगा। सम्भव है मैं अपना खोया हुआ विश्वास फिर जमा हो, प्रेम के बुझे हुए दीपक को फिर जला दें, इस सन्दिग्ध दशा का अन्त हो जाय। गोयत्री के बिना अब उन्हें सब कुछ सुना मालूम होता था। यह विपुल सम्पत्ति अगर सुख-सरिता थी तो गायत्री उसकी नौका थी। नौका के बिना जलविहार का आनन्द कहाँ? पर थोड़ी देर में उनका यह आवेग शान्त हो गया। सोचा, अभी वह मुझसे भरी बैठी है, मुझे देखते ही जल जायगी। मेरी और से उसका चित्त कितना कठोर हो गया है। माया को मुझसे छीने लेती हैं। अपने विचार में उसने मुझे कड़े से कड़ा का दंड दिया है। ऐसी दशा में मेरे लिए सबसे सुलभ यही है। कि अपनी स्वामि-भक्ति से, सुप्रबन्ध से, प्रजा-हित से, उसे प्रसन्न करूं। प्रेमशंकर ने अच्छा निशाना मारा। बगुला भगत हैं, बैठे-बैठे दो हजार रुपये मासिक की जागीर बना ली। बेचारा माया कही को न रहा। प्रेमशंकर उसे कुशल कृषक बना देंगे, लेकिन चतुर इलाकेदार नहीं बना सकतें। उन्हें खबर ही नही कि रईसों की शिक्षा कैसी होनी चाहिए। खैर, जो कुछ हो, मेरी स्थिति उतनी शौचनीय नहीं है जितना मैं समझता था।

ज्ञानशंकर ने अभी तक दूसरी चिट्ठियाँ न खोली थीं। अपने चित्त को यों समझा कर उन्होने दूसरा लिफाफा उठाया तो राय साहब को पत्र थी। उनके विषय में ज्ञानशंकर को केवल इतना ही मालूम था कि विद्या के देहान्त के बाद वह अपनी दवा कराने के लिए मसुरी चले गये हैं। पत्र खोल कर पढने लगे-

बाबू ज्ञानशंकर, आशीर्वाद। दो-एक महीने पहले मेरे मुँह से तुम्हारे प्रति आशीवाद का शब्द न निकलता, किन्तु अब मेरे मन की वह दशा नही हैं। ऋषियो का वचन है कि बुराई से भलाई पैदा होती है। मेरे हक में यह वचन अक्षरश चरितार्थ हुआ। तुम मेरे शत्रु हो कर परम मित्र निकले। तुम्हारी बदौलत मुझे आज यह शुभ अवसर मिला। मैं अपनी दवा कराने के लिए मसूरी आया, लेकिन यहाँ मुझे वह वस्तु मिल गयी जिस पर मैं ऐसे सैकड़ो जीवन न्यौछावर कर सकता हूँ। मैं भोगबिलास का भक्त था। मेरी समस्त प्रवृत्तियाँ जीवन का सुख भोगने में लिप्त थी। लौकपरलोक की चिन्ताओं को मैं अपने पास न आने देता था। यहाँ मुझे एक दिव्य आत्मा [ ३४९ ]के सत्संग का सौभाग्य प्राप्त हो गया और अब मुझे यह ज्ञात हो रहा है कि मेरा सारा जीवन नष्ट हो गया। मैंने योग का अभ्यास किया, शिव और शक्ति की आराधना की, अपनी आकर्षण-शक्ति को बढ़ाया यहां तक कि मेरी आत्मा विद्युत का भंडार हो गयी, पर इन सारी क्रियाओं का उद्देष्य केवल वासनाओं की तृप्ति थी। कभी-कभी भोग ने आनन्द में मग्न हो कर मैं समझता था यही आत्मिक शान्ति है, पर अब ज्ञात हो रहा है कि मैं भ्रमजाल में फँस हुआ था! उसी अज्ञान की दशा में अपने को आत्मज्ञानी समझता हुआ मैं सार में प्रस्थान कर जाता, लेकिन तुमने वैद्य की तलाश में घर से बाहर निकाला और देवयोग से शारीरिक रोगों के वैद्य की जगह मुझे आत्मिक रोगों का वैद्य मिल गया। मेरे हृदय से तुम्हारे कल्याण की प्रार्थना निकलती है; लेकिन याद रखो, मेरी शुभ कामनाओं में तुम्हारा जितना हित होगा उससे कहीं ज्यादा हित गायत्री की ठंडी साँसो से होगा। विद्या के आत्मघात ने उसे सचेत कर दिया है। ऐसी दशा में अन्य स्त्रियाँ प्रमन्न होती, लेकिन गायत्री की आत्मा सम्पूर्णत: निर्जीव नहीं हुई थी। उसने तुम्हारे मन्त्र को विफल कर दिया। तुम्हारा अन्तःकरण अद्र गायत्री के लिये बुला हुआ पृष्ठ हैं। तुम उसकी गापारिन से किसी तरह बच नहीं सकते। तुम्हें जल्द अपनी तृष्णाओं को साथ लिये ही संसार से जाना पड़ेगा। अतएव मुनासिब है कि तुम अपने जीवन के गिने-गिनाये दिन आत्म-शुद्धि में व्यतीत करो। तुम्हारे कल्याण का यही मार्ग है। मैं अपनी कुछ जायदाद मायाशंकर को देती हूँ। वह होनहार बालक हैं और कुल को उज्ज्वल करेगा। उनके वयस्कत्व तक तुम रियासत का प्रबंध करते रहो। मुझे अब उसने कोई प्रयोजन नही है।

यह पत्र पढ़कर ज्ञानशंकर के मन में हर्ष की जगह एक अव्यक्त शंका उत्पन्न हुई। वह भविष्यवाणी के कायल न थे, लेकिन ऐसे पुरुष के मुँह से अनिष्ट की बातें सुन कर जिसके त्याग ने उसके आत्मज्ञानी होने में कोई सन्देह न रखा हो उनका हृदय कातर हो गया। इस समय उनके जीवन की चि-सचित अभिलाषा पूरी हुई थीं। उन्हें स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी जल्द रायसाहब की विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँगा। नहीं, वह उनकी और से निराश हो चुके थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि राय साहब उसे दृस्ट के हवाले कर जायेंगे। यह सब शकाएँ मिथ्या निकली। लेकिन तिस पर भी इस पत्र है उन्हें वहीं दुश्शका हुई जो किसी स्त्री को अपनी दाई आँख फड़कने से होती है। उनकी दशा इस समय उस मनुष्य की सी थी जिसे डाकुओं की कैद में मिठाइयाँ खाने को मिलें। सुखें ठूँठे का कुसुमित होना किसे शिकित नहीं कर देगा? वह एक घंटे तक चिन्ता में डूबे रहे। इसके बाद वह कृष्णमन्दिर में गये और बड़े उत्ताह में जन्माष्टमी के उत्सव की तैयारियाँ करने लगे।

ज्ञानशंकर के जीवनाभिनय में अब से एक नये दृश्य का सूत्रपात हुआ, पहले से कहीं ज्यादा शुत्र, मंजू और मुत्तद। अभी दम मिनट पहले उनकी आशा-नौका मक्षधार में पड़ी चक्कर ला रही थी, पर देखते-देखते लहरे शान्त हो गयी। वायु अनुकूल [ ३५० ]हो गयी और नौका तट पर आ पहुँची, जहाँ दृष्टि की परम सीमा के निधियों का भव्य विस्तृत उपवन लहरा रहा था।