प्रेमाश्रम/५३

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद
[ ३३९ ]

५३

श्रद्धा और गायत्री मे दिन-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमे आत्मीयता का विकास हुआ, एक दूसरी से अपने हृदय की बात कहने लगी, आपस में कोई पर्दा न रहा। दोनो आधी-आधी रात तक बैठी अपनी बीती सुनाया करती। श्रद्धा की बीती प्रेम और वियोग की करुण कथा थी जिममें आदि से अन्त तक कुछ छिपाने की जरूरत न थी। वह रो-रो कर अपनी विरह-व्यथा का वर्णन करती, प्रेमशंकर की निर्दयता और सिद्धान्त प्रेम का रोना रोतीं, अपनी टेक पर भी पछतातीं। कभी प्रेमशंकर के सद्गुणो की अभिमान के साथ चर्चा करती। अपनी क्या कहने में, अपने हृदय के भावों को प्रकट करने में, उसे शान्तिमय आनन्द मिलता था। इसके विपरीत गायत्री की कथा प्रेम से शुरू हो कर आत्मग्लानि पर समाप्त होती थी। विश्वास के उद्गार में भी उसे सावधान रहना पड़ता था, वह कुछ न कुछ छिपाने और दबाने पर मजबूर हो जाती थी। उसके हृदय में कुछ ऐसे काले धब्बे थे जिन्हें दिखाने का उसे साहस न होता था, विशेषत श्रद्धा को जिसका मन और बचन एक था। वह उसके सामने प्रेम और भक्ति का जिक्र करते हुए शरमाती थी। वह जब ज्ञानशंकर के उस दुस्साहस को याद करती जो उन्होने रात को थियेटर से लौटते समय किया था तब उसे मालूम होता था कि उस समय तक मेरा मन शुद्ध और उज्ज्वल था, यद्यपि वासनाएँ अंकुरित हो चली थीं। उसके बाद जो कुछ हुआ वह सब ज्ञानशंकर की काम-तृष्णा और मेरी आत्म-दुर्वलता का नतीजा था जिसे मैं भक्ति कहती थी। ज्ञानशंकर ने केवल अपनी दुष्कामना पूरी करने के लिए मेरे सामने भक्ति का यह रंगीन जाल फैलाया। मेरे विषय में उनका यह लेख लिखना, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में मुझे आगे बढ़ाना उनकी वह अविरल स्वामि-भक्ति, वह तत्परता, वह आत्म-समर्पण, सब उनकी अभीष्टसिद्धि के मन्त्र थे। मुझे मेरे अहंकार ने डुबाया, मैं अपने ख्याति-प्रेम के हाथो मारी गयी। मेरा वह धर्मानुराग, मेरी वह विवेकहीन मिथ्या भक्ति, मेरे वह आमोद-प्रमोद, मेरी वह आवैशमयी कृतज्ञता जिसपर मुझे अपने संयम और व्रत को बलिदान करने में लेशमात्र भी संकोच न होता था, केवल मेरे अहंकार की क्रीडाएँ थीं। इस व्याध ने मेरी प्रकृति के सबसे भेद्य स्थान पर निशाना मारा। उसने मेरे व्रत और नियम को धूल में मिला दिया, केवल अपने ऐश्वर्य-प्रेम के हेतु मेरा सर्वनाश कर दिया। स्त्री अपनी कुवृत्ति का दोष सदैव पुरुष के सिर पर रखती हैं, अपने को वह दलित और आहेत समझती है। गायत्री के हृदय में इस समय ज्ञानशंकर का प्रेमालाप, वह मृदुल व्यवहार, वह सतृष्ण चितवने तीर की तरह लग रही थी। वह कभी-कभी शोक और क्रोध हैं इतनी उत्तेजित हो जाती कि उसका जी चाहता कि उसने जैसे मेरे जीवन को भ्रप्ट किया है वैसे ही मैं भी उसका सर्वनाश कर दूँ।

एक दिन वह इन्हीं उद्दड विचारों में डूबी हुई थी कि श्रद्धा आकर बैठ गयी और [ ३४० ]उसके मुख की ओर देख कर बोली--मुख क्यों लाल हो रहा है। आँखों में आँसू क्यों भरे हैं?

गायत्री--कुछ नही, मन ही तो है।

श्रद्धा--मुझसे कहने योग्य नहीं है।

गायत्री-तुमसे छिपा ही क्या है जो तुम पूछती हो। मैंने अपनी तरफ से छिपाया हैं, लेकिन तुम सब कुछ जानती हो। यहाँ कौन नहीं जानता है? उन बातों को जब याद करती हूँ तो ऐसी इच्छा होती है कि एक ही कटार से अपनी और उसकी गर्दन काट ड़ालूँ। खून खौलने लगता है। मुझे जरा भी भ्रम न था कि वह इतना बड़ा धूर्त और पाजी हैं। बहिन, अब चाहे जो कुछ ही मैं उससे अपनी आत्महत्या की बदला अवश्य लूंगी। मर्यादा तो यही कहती है कि विद्या की भाँति बिष खा कर मर जाऊँ, लेकिन यह तो उसके मन की बात होगी, वह अपने भाग्य को सराहेगा और दिल खोल कर विश्व का भोग करेगा। नहीं, मैं यह मूर्खता न करूंगी। नहीं, मैं उच्च धुला-भुला कर और रटा-रटा कर मारूंगी। मैं उसका सिर इस तरह कुचलूंगी जैसे साँप का सिर कुचला जाता है। हा! मुझ जैसी अभागिनी संसार में न होगी।

यह कहते-कहते गायत्री फूट-फूट कर रोने लगीं। जरा दम ले कर फिर उसी प्रवाह में बोली, श्रद्धा, तुम्हें विश्वास न आयेगा, यह मनुष्य पक्का जादूगर है। इसने मुझ पर ऐसा मंत्र मारा कि मैं अपने को बिलकुल भूल गयी। मैं तुमसे अपनी सफाई नहीं कर रही हूँ। वायुमंडल में नाना प्रकार के रोगाणु उड़ा करते हैं। उनका विष उन्हीं प्राणियों पर असर करता हैं, जिनमें उनके ग्रहण करने का विकार पहले से ही मौजूद रहता है। मच्छर के डंक से सबको ताप और जुड़ी नहीं आती। वह बाह्य उत्तेजना कैनल भीतर के विकार को उभार देती है। ऐसा न होता तो आज समस्त संसार में एक भी स्वस्थ प्राणी न दिखायी देता। मुझमें यह विकृत पदार्य था। मुझे अपने आत्म-बल पर घमंड था। मैं एँद्रिक भोग को तुच्छ समझती थी। इस दुरात्मा ने उसी दीपक से जिससे मेरे अँधेरे घर में उजाला था घर में आग लगा दी, जो तलवार मेरी रक्षा करती थी वहीं तलवार मेरी गर्दनपर चला दी। अब मैं वहीं तलवार उसकी गर्दन पर चलाऊँगी। वह समझता होगा कि मैं अबला हूँ, निर्बल हूँ उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। लेकिन मैं दिखा दूंगी कि अबला पानी की भाँति इत्र हो कर भी पहाडों को छिन्न-भिन्न कर सकती है। मेरे पूज्य पिता आत्मदर्शी हैं। उन्हें उसकी बुरी नीयत मालूम हो गयी थी, इसी कारण उन्होंने मुझे तसे दूर रहने की ताकीद की थी। उन्होंने अवश्य विद्या से यह बात कही होगी। इसीलिए विद्या यहाँ मुझे सचेत करने आयीं थीं। लेकिन शोक! मैं नशे में ऐसी चूर थी कि पिता जी की चेतावनी की भी कुछ परवाह न की। इस चूर्त ने मुझे उनकी नजरों में भी गिरा दिया। अब वह मेरा मुँह देखना भी न चाहेंगे।

गायत्रीं यह कह कर फिर शोकमग्न हो गयी। श्रद्धा की समझ में न आता था कि इसे कैसे सांत्वना दें। अकस्मात् गायत्री उठ खड़ी हुई। सन्दूक में से कलम, दावात, कागज निकाल लायी और बोली, बहिन, जो कुछ होना था हो चुका; इसके लिए जीवन [ ३४१ ]पर्यन्त रोना है। विद्या देवी थी, उसने अपमान से भर जाना अच्छा समझा। मैं पिशाचिनी हैं, मौत से डरती हैं। लेकिन अब से यह जीवन त्याग और पश्चात्ताप पर समर्पण होगा। मैं अपनी रियासत से इस्तीफा दे देती हूँ, मेरा उस पर कोई अधिकार नही है। तीन साल से उस पर मेरा कोई हक नहीं है। मैं इतने दिनो तक बिना अधिकार ही उसका उपभोग करती रहीं। रियासत मेरे पतिव्रत-पालन का उपहार थी। यह ऐश्वर्य और सम्पत्ति मुझे इसलिए मिली थी कि कुलमर्यादा की रक्षा करती हूँ, मेरी पतिभक्ति अचल रहे। वह मर्यादा कितने महत्त्व की वस्तु होगी जिसकी रक्षा के लिए मुझे करोड़ो की सम्पत्ति प्रदान की गयी। लेकिन मैंने उस मर्यादा को भंग कर दिया, उस अमूल्य रत्न को अपनी विलासिता की भेंट कर दिया। अब मेरा उस रियासत पर कोई हक नहीं है। उसे घर मै पाँव रखने का भी मुझे स्वत्व नहीं, वहाँ का एकएक दाना मेरे लिये त्याज्य है। मैं इतने दिनो मे हराम के माल पर ऐश करती रही हूँ।

यह कह कर गायत्री कुछ लिखने लगी, लेकिन श्रद्धा ने कागज उठा लिया और बोली—खूब सोच-समझ लो, इतना उतावलापन अच्छा नहीं।

गायत्री----खूब सोच लिया है। मैं इसी क्षण ये मँगनी के वस्त्र फेकूँगी और किसी ऐसे स्थान पर जा बैठूँगी, जहाँ कोई मेरी सूरत न देखे।

श्रद्धा-भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी? लोग भाँति-भाँति की मनमानी कल्पनाएँ करेंगे। मान लिया तुमने इस्तीफा ही दे दिया तो यह क्या मालूम है कि जिनके हाथों में रियासत जायेगी वे उसका सदुपयोग करेंगे। अब तो तुम्हारे लोक और परलोक की भलाई इसी में है कि शेष जीवन भगवत भजन में काटो, तीर्ययात्रा करो, साधु-सन्त। की सेवा करो। सम्भव है कि कोई ऐसे महात्मा मिल जाये, जिनके उपदेश से तुम्हारे चित्त को शान्ति हो। भगवान् ने तुम्हे घन दिया है। उससे अच्छे काम करो। अनाथो और विधवाओं को पालो, धर्मशालाएँ बनवाओं, भक्ति को छोड़ कर ज्ञान पर चलो। भक्ति का मार्ग सीधा है, लेकिन काँटों से भरा हुआ है। ज्ञान का मार्ग टेढ़ा है लेकिन साफ है।

श्रद्धा का ज्ञानोपदेश अभी समाप्त न होने पाया था कि एक महरी ने आकर कहा बहू जी, वह डिपटियाइन आयी हैं, जो पहले यहीं रहती थी। यहीं लिया लाऊँ?

श्रद्धा- शीलमणि तो नही है?

महरी–हाँ-हाँ, वही है साँवली! पहले तो गहने से लदी रहती थी, आज तो एक मुंदरी भी नही है। बड़े आदमियों का मन गहने से भी फिर जाता है।

श्रद्धा--हाँ, यही लिया लाओ।

एक क्षण में शीलमणि आ कर खड़ी हो गयी। केवल एक उजली साडी पहने हुए थी। गहनों का तो कहना ही क्या, अघरों पर पान की लाली भी न थी। श्रद्धा उठ कर उनसे गले मिली और पूछा--सीतापुर से कब आयी।

शीलमणि आज ही आयी हैं, और इसी लिए आयी हूँ कि लाला ज्ञानशंकर से दो-दो बाते करूँ। जब से बेचारी विद्या के विष खा कर जान देने का हाल सुना है [ ३४२ ]कलेजे में एक आग सी सुलग रही है। यह सब उसकी उसी बहिन की करामात है। जो रानी बनी फिरती है। उसी ने विष दिया होगा।

शीलमणि ने गायत्री की ओर देखा न था और देखा भी हो तो पहचानती न थी। श्रद्धा ने दांतो तले जीभ दवायी और छाती पर हाथ रख कर आँखो से गायत्री को इशारा किया। शीलमणि ने चौक कर बायी तरफ देखा तो एक स्त्री सिर झुकाये बैठी हुई थी। उसकी प्रतिभा, सौन्दर्य और वस्त्राभूषण देख कर समझ गयी कि गायत्री यही है। उसकी छाती धक से हो गयी, लेकिन उसके मुख से ऐसी बाते निकल गयी थी कि जिनको फेरना या सँभालना मुश्किल था। वह जलता हुआ ग्रास मुंह में रख चुकी थी और उसे निगलने के सिवा दूसरा उपाय न था। यद्यपि उसको क्रोध न्याय-संगत था, पर शायद गायत्री के मुंह पर वह ऐसे कटु शब्द मुंह से न निकाल सकती। लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था इसलिए उसके क्रोध ने हेकड़ी का रूप धारण किया, लज्जित होने के बदले और उद्दड हो गयी। गायत्री की ओर मुंह करके बोली—अच्छा, रानी साहिबा तो यही विराजमान हैं। मैंने आपके विषय में जो कुछ कहा है वह आपको अवश्य अप्रिय लगा होगा, लेकिन उसके लिए मैं आप से क्षमा नहीं माँग सकती। यही बाते मैं आपके मुंह पर कह सकती थी और एक मैं क्या संसार यही कह रहा है। मुंह से चाहे कोई न कहे, किन्तु सब के मन में यही बात है। लाला ज्ञानशंकर से जिसे एक बार भी पाला पड़ चुका है, वह उसे अग्राह्य नहीं समझ सकता। मेरे बाबू जी इनके साथ के पढे हुए हैं और इन्हें खूब समझे है।

जब वह मैजिस्ट्रेट थे, तो उन्होने अपने असामियों पर इजाफा लगान का दावा किया था। महीनो मेरी खुशामद करते रहे कि मैं बाबू जी से डिगरी करवा दूं। मैं क्या जानू, इनके चकमे में आ गयी। बाबू जी पहले तो बहुत आनाकानी करते रहे, लेकिन जब मैंने जिद्द की तो राजी हो गये। कुशल यह हुई कि इसी बीच में मुझे उनके अत्याचार का हाल मालूम हो गया और डिगरी न होने पायी, नही तो कितने दीन असामियों की जान पर बन आती। दावा डिसमिस हो गया। इस पर यह इतने रुष्ट हुए कि समाचार-पत्रों में लिख लिख कर बाबू जी को बदनाम किया। वह अब पत्रों में इनके धमत्साह की खबरे पढते थे तो कहते थे, महाशय अब जरूर कोई न कोई स्वाँग रच रहे है। गौरदपुर में सनातन धर्म के उत्सव पर जो घूम-धाम हुई और बनारस में कृष्णलीला का जो नाटक खेला गया उनका वृतान्त पढ़ कर बाबू जी ने खेद के साथ कहा था, यह महाशय रानी साहेबा को सब्ज वाग दिखा रहे है। इसमें अवश्य कोई न कोई रहस्य हे। लाला जी मुझे मिल जाते तो ऐसा आड़े हाथों लेती कि वह भी याद करते।

गायत्री खिड़की की ओर ताक रही थी, यहाँ तक कि उसकी दृष्टि से खिड़की भी लुप्त हो गयी। उनके अन्त करण से पश्चात्ताप और ग्लानि की लहरें उठ उठ कर कंठ तक आती थी और उसके नेत्र-रूपी नौका को झकोरे दे कर लौट जाती थी। वह नशा-हीन हो गयी थी। सारी चैतन्य शक्तियां शिथिल हो गयी थी। श्रद्धा ने उसके मुझ की ओर देखा, आँसू न रोक सकी। इस अभागिनी दुखिया पर उसे कभी इतनी [ ३४३ ]दया न आयी। वहाँ बैठना तक अन्याय था। वह और कुछ न कर सकी, शीलगणि को अपने साथ ले कर दूसरे कमरे में चली गयी। वहाँ दोनो में देर तक बातचीत होती रही। श्रद्धा हत्या का सारा भार ज्ञानशंकर के सिर रखती थी। शीलमणि गायत्री को भी दोष का भागी समझती थी। दोनों ने अपने-अपने पक्ष को स्थिर किया! अन्त में श्रद्धा का पल्ला भारी रहा। इसके बाद शीलमणि ने अपना वृत्तान्त सुनाया। सन्तानोत्पत्ति के निमित्त कौन-कौन से यल किये, किन-किन दाइयो को दिसाया, किनकिन डाक्टरों से दवा करायी? यहाँ तक कि वह श्रद्धा को अपने गर्भवती हो जाने का विश्वास दिलाने में सफल हो गयी, किन्तु महाशोक! सातवे महीने गर्भपात हो गया, सारी आशाएँ धूल में मिल गयी। श्रद्धा ने सन्चे हृदय से समवेदना प्रकट की। फिर कुछ देर तक इधर-उधर की बातें होती रही। श्रद्धा ने पूछा-अव डिप्टी साहब का क्या इरादा है?

शीलमणि—अब तो इस्तीफा दे कर आये हैं और बाबू प्रेमशकर के साथ रहना चाहते हैं। उन्हें इन पर असीम भक्ति है। पहले जब इस्तीफा देने की चर्चा करते तो समझती थी काम से जी चुराते है, राजी न होती थी, लेकिन इन तीन वर्षों में मुझे अनुभव हो गया कि इस नौकरी के माथ आत्म-रक्षा नहीं हो सकती। जाति के नेतागण प्रजा के उपकार के लिए जो उपाय करते है सरकार उसी में विघ्न डालती है, उसे दबाना चाहती है। उसे अब भय होता है कि कहीं यहाँ के लोग इतने उन्नत न हों जाउँ कि उसका रोब न माने। इसीलिए वह प्रजा के भावों को दवाने के लिए, उसका मुंह बन्द करने को नये-नये कानून बनाती रहती है। नेताओं ने देश को दरिद्रता के चगुल से छुड़ाने के लिए चरो और करो की व्यवस्था की। सरकार उसमें बाधा डाल रही है। स्वदेशी कपड़े का प्रचार करने के लिए दुकानदारों और ग्राहकों को समझाना अपराध ठहरा दिया गया है। नशे की चीजो का प्रचार कम करने के लिए नवाजो और ठेकेदारों से कुछ कहना-सुनना भी अपराध है। अभी पिछले साल जव यूरोप में लड़ाई हुई थी तो सरकार ने प्रजा से कर्ज लिया। कहने को तो कर्ज था पर असल में जरूरी टैक्स था। अधिकारियों ने दीन दरिद्र प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये, तरह-तरह के दबाव डाले, यहाँ तक कि उन्हें अपने हल-बैल बेच कर सरकार को कर्ज देने पर मजबूर किया। जिमने इन्कार किया उसे या तो पिटवाया या कोई झूठा इलज़ाम लगा कर फंसा दिया। बाबू जी अपने इलाके में किसी के साथ सख्ती नहीं की। कह दिया, जिसका जी चाहे कर्ज दे, जिमका न जी चाहे न दे। नतीजा यह हुआ कि और इलाकों में तो लाखों रुपये वसूल हुए, इनके इलाके में बहुत कम मिला। इस पर जिले के हाकिम ने नाराज हो कर इनकी शिकायत कर दी। इनमें यह ओहदा छीन लिया गया, दर्जा घटा दिया गया। जब मैंने यह हाल देखा तो आप ही जिद्द करके इस्तीफा दिलवा दिया। जब प्रजा की कमाई खाने है तो प्रजा के फायदे का ही काम करना चाहिए। यह क्या कि जिमकी कमाई खायें, उसी का गला दबाये। यह तो नमकहरामी हैं, घोर नीचता। [ ३४४ ]यह तो वह करे जिसमें आत्मा मर गयी हो, जिसे पेट पालने के सिवा लोक-परलोक की कुछ भी चिन्ता न हो। जिसके हृदय में जाति-प्रेम का लेशमात्र हैं वह ऐसे अन्याय नहीं कर सकता। भला तो होता है सरकार का, रोब तो उसका बढ़ता है, जैव तो अँगरेज व्यापारियों के भरते हैं और पाप के भागी होते हैं यह पेट के बन्दे नौकर, यह स्वार्थ के दास अधिकारी, और फिर में नौकरी की परवाह ही क्या है। घर में खाने को बहुत है। दो-चार को खिला कर खा सकते हैं। अब तो पक्का इरादा करके आयें हैं कि यही वादू प्रेमशंकर के साथ रहें और अपने से जहाँ तक हो सके प्रजा की भलाई करें। अब यह बतानो तुम कब तक रहोगी? क्या इसी तरह रो-रो कर उम्र काटने की ठान ली है?

श्रद्धा---प्रारब्ध मे जो कुछ है उसे कौन मिटा सकता है?

शील कुछ नहीं, यह तुम्हारी व्यर्थ की टेक है। मैं अबकी तुम्हें घसीट ले चलूँगी। इस उजाड़ में मुझने अकेले न रहा जायगा। हम और तुम दोनों रहेगी तो सुख से दिन करेंगे। अवसर पाते ही मैं उन महाशय की भी खबर लूँगी। संसार के लिए तो जान देते फिरते हैं और घरवालो की खबर ही नहीं लेते। जरा सा प्रायश्चित करने में क्या शान घटी जाती है?

श्रद्धा---तुम अभी उन्हें जानती नहीं हो। थह सब कुछ करेंगे पर प्रायश्चित न करेंगे। वह अपने सिद्धान्त को न तोड़ेगे! जिस पर भी वह मेरी और से निश्चिन्त नहीं हैं। ज्ञानशंकर जब से गोरखपुर रहने लगे तब से वह प्रायः यहाँ एक बार आ जाते हैं। अगर काम पड़े तो उन्हें यहाँ रहने में भी आपत्ति न होगी, लेकिन अपने नियम उन्हें प्राणो भी प्रिय हैं।

शीलमणि ने आकाश की तरफ देखा तो बादल घिर आये थे। घबरा कर बोलीं-- कही पानी न बरसने लगे। अब चलूँगी। श्रद्धा ने उसे रोकने की बहुत चेष्टा की, लेकिन शौलमणि ने नहीं माना। आखिर उसने कहा-जरा चल कर उनके आँसू तो पोंछ दो। बेचारी तभी ने बैठी रो रहीं होगी।

शीलमणि---रोना तो उनके नसीब में लिखा है। अभी क्या रोयी हैं! ऐसे आदमी की यही सजा है। नाराज हो कर मेरा क्या बना लेंगी? रानी होगी तो अपने घर की होंगी।

शीलमणि को विदा करके श्रद्धा झेपती हुई गायत्री के पास आयी। वह डर रही थी, ही गायत्री मुझपर सन्देह न करने लगीं हो कि सारी करतूत इसी की है। उसने डरते-डरते अपराधी की भाँति कमरे में कदम रखा। गायत्री ने प्रार्थी दृष्टि से उसे देखा, पर कुछ बोली नहीं। बैठी हुई कुछ लिख रही थी। मुख पर शौक के साये दृढ़ संकल्प की झलक थी। कई मिनट तक बहू लिखने में ऐसी मग्न थी मानो श्रद्धा के आने का उसे ज्ञान ही न था। सहसा बोली---बहिन, अगर तुम्हें कष्ट न हो तो जरा माया को बुला दो और मेरी महरियों को भी पुकार लेना।

श्रद्धा समझ गयी कि इसके मन में कुछ और ठन गयी। कुछ पूछने का साहस [ ३४५ ]न हुआ। जा कर माया और महरियों को बुलाया। एक क्षण मे माया आ कर गायत्री के सामने खड़ा हो गया। महरियाँ बाग में झूल रही थी। भादो का महीना था, घटा छायी थी, कजली बहुत सुहावनी लगती थी।

गायत्री ने माया को सिर से पाँव तक देख कर कहा--तुम जानते हो कि किसके लड़के हो?

माया ने कुतूहल से कहा-इतना भी नही जानता?

गायत्री–मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हैं जिसमें मुझे मालूम हो जाय कि तुम मुझे क्या समझते हो?

माया पहले इस प्रश्न का आशय न समझता था। इतना इशारा पा कर सचेत हो गया। बोला—पहले लाला ज्ञानशंकर का लड़का था, अब आपका लड़का हूँ।

गायत्र—-इसीलिए तुम्हे प्रत्येक विषय में ईश्वर के पीछे मेरी इच्छा को मान्य समझना चाहिए।

माया--निस्सन्देह।

गायत्री बाबू ज्ञानशंकर को तुम्हारे पालन-पोषण, दीक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह मेरा अधिकार है।

माया--आपके ताकीद की जरूरत नहीं, मैं स्वयं उनसे दूर रहना चाहता हूँ। जब से मैंने अम्माँ को अन्तिम समय उनकी सूरत देखते ही चीख कर भागते देखा तभी से उनका सम्मान मेरे हृदय से उठ गया।

गायत्री तो तुम उससे कहीं ज्यादा चतुर हो जितनी मैं समझती थी। मैं आज बद्रीनाथ की यात्रा करने जा रही हूँ। कुछ पता नहीं कब तक लौटू। मैं समझती हैं कि तुम्हें बाबू प्रेमशंकर की निगरानी में रखें। यह मेरी आशा है कि तुम उन्हें अपना पिता समझो और उनके अनुगामी बनों। मैंने उनके नाम यह पत्र लिख दिया है। इसे ले कर तुम उनके पास जाओ। वह तुम्हारी शिक्षा की उचित व्यवस्था कर देंगे। तुम्हारी स्थिति के अनुसार तुम्हारे आराम और जरूरत की आयोजना भी करेगे। तुमको थोड़े ही दिनो मे ज्ञात हो जायगा कि तुम अपने पिता से कहीं ज्यादा सुयोग्य हाथो में हो। संभव है कि लाला प्रेमशंकर को तुमसे उतना प्रेम न हो जितना तुम्हारे पिता को है, लेकिन इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि तुम्हें अपने आनेवाले कर्तव्यों का पालन करने के लिए जितनी क्षमता उनके द्वारा प्राप्त हो सकती है, तुम्हारे आचार, विचार और चरित्र का जैसा उत्तम संगठन वह कर सकते है, कोई और नहीं कर सकता। मुझे आशा है कि वह इस भार को स्वीकार करेंगे। इसके लिए तुम और मैं दोनो ही उनके बाध्य होंगे। यह दूसरा पत्र मैंने बाबू ज्ञानशंकर को लिखा है। मेरे लौटते तक वह रियासत के मैनेजर होगे। मैंने उन्हें ताकीद कर दी है कि बाबू प्रेमशंकर के पास प्रति मास दो हजार रुपये भेज दिया करे। यह पत्र डाकखाने भिजवा दो।

इतने में चारो महरियाँ आयी। गायत्री ने उनसे कहा मैं आज बद्रीनाथ की यात्रा करने जा रही हूँ। तुममें से कौन मेरे साथ चलती है? [ ३४६ ] महरियों ने एक स्वर से कहा- हम सब की सब चलेंगी।

'नहीं, मुझे केवल एक की जरूरत हैं। गुलाबी, तुम मेरे साथ चलोगी?'

‘सरकार जैसा हुक्म दें। बाल-बच्चों को महीने से नहीं देखा है।'

तो तुम घर जाओ। तुम चलोगी केसरी?'

कद तक लौटना होगा?'

यह नहीं कह सकती है।

‘मुझे चलने में कोई उजुर नही है, पर सुनती हूँ वहाँ का पहाड़ी पानी बहुत लगता है।'

'तो तुम भी धर जाओ। तू चलोगी अनसूया?"

सरकार, मेरे घर कोई मर्द-मानुस नहीं है। घर चौपट हो रहा है। वहाँ चलूंगी तो छटाँक भर दाना भी न मिलेगा।

तो तुम भी घर जाओ। अब तो तुम्ही रह गयी राधा, तुमसे भी पूछ लें, चलोगी मेरे साथ?'

हाँ, सरकार चलूंगी।'

'आज चलना होगा।'

जब सरकार का जी चाहे, चले।

'तुम्हें बीस बीधे मुआफी मिलेगी।

तीन महरिययों ने लज्जित हो कर कहा- सरकार, चलने को हम सभी तैयार हैं। आपका दिया खाती हैं तो साथ किसके रहेगी?

'नहीं, तुम लोगो की जरूरत नहीं। मेरे साथ अकेली राधा रहेगी। तुम सब कृतघ्न हो, तुमसे अब मेरा कोई नाता नहीं।

यह कह कर गायत्री यात्रा की तैयारी करने लगी। राधा खड़ी देख रही थी, पर कुछ बोलने का साहस न होता था। ऐसी दशा में आदमी अव्यवस्थित सा हो जाता है। जरा सी बात पर झुंझला पड़ता है और जरा सी बात पर प्रसन्न हो जाता है।