प्रेमाश्रम/५५

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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५५

बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आयें आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रात काल ही उन्होने लखनपुरवालो की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा- मैं तो आप ही की बाट जोह रहा था। पहले मुझे प्रत्येक काम में अपने ऊपर विश्वास होता था, पर आप सा सहायक पा कर मुझे पगपग पर आपके सहारे की इच्छा होती हैं। अपने ऊपर से विश्वास ही उठ गया। आपके विचार में अपील करने के लिए कितने रुपये चाहिए।

ज्वालासिंह-ज्यादा नही तो चार-पाँच हजार तो अवश्य ही लग जायेगे।

प्रेम--और मेरे पास चार-पाँच सौ भी नही है।

ज्वाला---इसकी चिन्ता नही। आपके नाम पर दस-बीस हज़ार मिल सकते हैं।

प्रेम--- मैं ऐसा कौन सा जाति का नेता हूँ जिस पर लोगों की इतनी श्रद्धा होगी?

ज्वाला–जनता आपको आपसे अधिक समझती है। मैं आज ही चन्दा वसूल करना शुरू कर दूंगा।

प्रेम-मुझे आशा नहीं कि आपको इसमे सफलता होगी। सम्भव है दो चार सौ रुपये मिल जायें, लेकिन लोग यही समझेंगे कि उन्होने भी कमाने का यह ढंग निकाला। चन्दे के साथ ही लोगो को सन्देह होने लगती है। आप तो देखते ही है, चन्दो ने हमारे कितने ही श्रद्धेय नेताओं को बदनाम कर दिया। ऐसा बिरला ही कोई मनुष्य होगा जो चन्दो के भँवर में पड़कर वेदाग निकल गया हो। मेरे पास श्रद्धा के कुछ गहने अभी बचे हुए हैं। अगर वह सब बेच दिया जाय तो शायद हजार रुपये मिल जायें।

इतने में शीलमणि इन लोगो के लिए नाश्ता लायी। यह बात उसके कानों में पड़ी। बोली--कभी उनकी सुधि भी लेते हैं या गहनो पर हाथ साफ करना ही जानते है? अगर ऐसी ही जरूरत है तो मेरे गहने ले जाइए।

ज्वाला—क्यों न हो, आप ऐसी ही दानी तो है। एक-एक गहने के लिए तो आप महीनो रूठती हैं, उन्हे ले कर कौन अपनी जान गाढे में डाले!

शील---जिस आग से आदमी हाथ सेंकता है, क्या काम पड़ने पर उससे अपने चने नहीं भून लेता। स्त्रियाँ गहने पर प्राण देती हैं लेकिन अवसर पड़ने पर उतार भी फेकती हैं।

मायाशंकर एक तरफ अपनी किताव खोले बैठा हुआ था, पर उसका ध्यान इन्हीं बातों की ओर था। एक कल्पना बार-बार उसके मन में उठ रही थी, पर संकोचवश। उसे प्रकट न कर सकता था। कई बार इरादा किया कि कहूँ, पर प्रेमशंकर की ओर देखते ही जैसे कोई मुँह बन्द कर देता था। आँखे नीची हो जाती थी! शीलमणि की [ ३५१ ] बात सुन कर वह अधीर हो गया। ज्वालासिंह की तरफ कातर नेत्रों से देखता हुआ। बोला--आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूँ।

ज्वाला–हाँ-हाँ, शौक से कहो।

माया--इस महीने की भेरी पूरी वृत्ति अपील में खर्च कर दीजिए। मुझे रुपयों की कोई विशेष जरूरत नहीं है। शीलमणि और ज्वालासिंह दोनो ने इस प्रस्ताव को बालोचित आवेश समझ कर प्रेमशंकर की तरफ मुस्कुराते हुए देखा। माया ने उनका यह भाव देख कर समझा, मुझसे धृष्टता हो गयी। ऐसे महत्त्व के विण्य में मुझे बोलने का कोई अधिकार न था। चाचा जी मेरे दुस्मान पर अवश्य नाराज होगे। लज्जा से आँखे भर आयी और मुंह से एक सिसकी निकल गयी। प्रेमशंकर ने चौक कर उसकी तरफ देखा, हृदृगत भाव को समझ गये। उसे प्रेमपूर्वक छाती से लगा कर आश्वासन देते हुए बोले- तुम होते हो क्यों बेटा? तुम्हारी यह उदारता देख कर मेरा चित्त जितना प्रसन्न हुआ है वह प्रकट नहीं कर सकता। तुम मेरे पुत्रतुल्य हो, लेकिन मेरा जी चाहता है कि तुम्हारे पैरो पर सिर रख दें। तुम्हारे हृदय में दया और विवेक है और मुझे विश्वास है कि तुम्हारा जीवन परोपकारी होगा, लेकिन मैंने तुम्हारी शिक्षा के लिए जो व्यवस्थाएँ की है। उनका व्यय तुम्हारी वृत्ति से कुछ अधिक ही है।

माया को अब कुछ साहस हुआ। बोला, मेरी शिक्षा पर इतने रुपय खर्च करने की क्या जरूरत है?

प्रेम-क्यों, आखिर तुम्हें घर पर पढ़ाने के लिए अध्यापक रहेंगे या नहीं? एक अँगरेजी और हिसाब पढायेगा, एक हिन्दी और सस्कृत, एक उर्दू और फारसी, एक फ्रेंच और जर्मन, पाँचवाँ तुम्हे व्यायाम, घोड़े की सवारी, नाव चलाना, शिकार खेलना सिखायेगा। इतिहास और भूगोल में पढाया करूंगा।

माया- मेरी कक्षा में जो लड़के सबसे अच्छे हैं वे घर पर किसी मास्टर से नहीं पढ़ते। मैं उनको अपने से कम नही समझता।

प्रेम-तुम्हे हवा खाने के लिए एक फिटन की जरूरत है। सवारी के अम्यास के लिये दो घोड़े चाहिए।

माया–अपराध क्षमा कीजिएगा, मेरे लिए इतने मास्टरो की जरूरत नहीं है। फिटन, मोटर, पोलो को भी मैं व्यर्थ समझता हूँ। हाँ, एक घोड़ा गोरखपुर से मँगवा दीजिए तो सवारी किया करूँ। नाव चलाने के लिए मैं मल्लाहो की नाव पर जा बैठूँगा। उनके साथ पतवार घुमाने और डाँड चलाने में जो आनन्द मिलेगा वह अकेले अध्यापक के साथ बैठने में नहीं आ सकता। अभी से लोग कहने लगे है कि इसका मिजाज नहीं मिलता। पदमू कई बार ताने दे चुके है। मुझे नक्कू रईसों की भांति अपनी हँसी कराने की इच्छा नही है। लोग यही कहेंगे कि अभी कल तक तो एक मास्टर भी न था, आज दूसरो की सम्पत्ति पा कर इतना घमंड हो गया है।

प्रेम-प्रतिष्ठा का ध्यान रखना आवश्यक है। [ ३५२ ] माया—मैं तो देखता हूँ आप इन चीजों के बिना ही सम्मान की दृष्टि से देखें जाते है। सभी आपकी इज्जत करते है। मेरे स्कूल के लड़के भी आप का नाम आदर से लेते है, हालां कि शहर के और बड़े रईसों की हँसी उड़ाते हैं। मेरे लिए किसी विशेष चीज की जरूरत क्यों हो?

माया के प्रत्येक उत्तर पर प्रेमशंकर का हृदय अभिमान से फूला पड़ता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि इस लड़के में संतोष और त्याग का भाव क्योंकर उदित हुआ? इस उम्र में तो प्राय लड़के टीमटाम पर जान देते हैं, सुन्दर वस्त्रों से उनका जी नहीं भरता, चमक-दमक की वस्तुओं पर लट्ट हो जाते हैं। यह पूर्व संस्कार है। और कुछ नहीं निरुत्तर हो कर बोले--रानी गायत्री की यही इच्छा थी, नहीं तो इतने रुपयें क्यों खर्च करती?

माया–यदि उनकी यह इच्छा होती तो क्या वह मुझे ताल्लुकेदारों के स्कूलों में नहीं भेज देती? मुझे आपकी सेवा में रखने से उनका उद्देश्य यही होगा कि मैं आपके ही पदचिह्न पर चलें।

प्रेम---जो यह रुपये खर्च क्यों कर होगे?

माया----इसका फैसला रानी अम्माँ ने आप पर ही छोड़ दिया है। मुझे आप उसी तरह रखिए जैसे आप अपने लड़के को रखते हैं। मुझे ऐसी शिक्षा न दीजिए और ऐसे व्यसनों में न डालिए कि मैं अपन दीन प्रजा के दुख-दर्द में शरीक न हो सके। आपके विचार में मेरी शिक्षा की यही सबसे उत्तम विवि है?

प्रेम----नहीं, मेरा विचार तो ऐसा नहीं, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिये ऐसा ही करना पड़ेगा। नहीं तो लोग यही कहेंगे कि मैं तुम्हारी वृत्ति का दुरुपयोग कर रहा हूं।

माया--तो आप मुझे इस ढंग पर शिक्षा देना चाहते है जिसे आप स्वयं उपयोगी नही समझते। लोगों के दुराक्षेपों से बचने के ही लिए आप ने यह व्यवस्थाएँ की हैं।

प्रेमशंकर शरमाते हुए बोले-ही, बात तो कुछ ऐसी ही है।

माया--मैंने अपने वजीफे के खर्च करने की और भी विधि सोची है। आप बुरा न माने तो कहूँ।

प्रेम–हाँ-ही, शौक से कहो। तुम्हारी बातों से मेरी आत्मा प्रसन्न होती है। मैं तुम्हें इतना विचारशील न समझता था।

ज्वालासिंह---इस उम्र में मैंने किसी को इतना चैतन्य नहीं देखा।

शीलमणि प्रेमशंकर की ओर मुँह करके मुस्कुरायी और बोली—इस पर आप की ही परछायी पड़ी है।

माया- मैं चाहता हूँ कि मेरा वजीफा गरीब लड़को की सहायता में खर्च किया जाय। दस-दस रुपये की १९९ वृत्तियाँ दी जाये तो मेरे लिए दस रुपये बच रहेंगे। इतने में मेरा काम अच्छी तरह चल सकता है।

प्रेमशंकर पुलकित हो कर बोले--बेटा, तुम्हारी उदारता घन्य है, तुम देवात्मा हो। [ ३५३ ]कितना देवदुर्लभ त्याग है! कितना संतोष। ईश्वर तुम्हारे इन पवित्र भाव को सुदृढ करें, पर मैं तुम्हारे साथ इतना अन्याय नहीं कर सकता।

माया- तो दो-चार वृत्तियां कम कर दीजिए, लेकिन यह सहायता उन्ही लड़को को दी जाय जो यहाँ आकर खेती और बुनाई का काम सीखे।

ज्वाला-मैं इस प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूँ। मेरी राय मैं तुम्हे अपने लिए कम से कम ५०० रु० रखने चाहिए। वाकी रुपये तुम्हारी इच्छा के अनुसार खर्च किये जाये। ७५ वृत्तियाँ बुनाई और ७५ खेती के काम सिखाने के लिये दी जायँ। भाई साहब कृषिशास्त्र और विज्ञान में निपुण है। बुनाई का काम मैं सिखाया करूंगा। मैंने इसका अच्छी तरह अभ्यास कर लिया है।

प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह का खंडन करते हुए कहा, मैं इस विषय में रानी गायत्री की आज्ञा और इच्छा के बिना कुछ नहीं करना चाहता।

मायाशंकर ने निराश भाव से ज्वालासिंह को देखा और फिर अपनी किताब देखने लगा।

इसी समय डाक्टर इर्फाअली के दीवानखाने में भी इसी विषय पर वार्तालाप हो रहा था। डाक्टर साहब सदैव अपने पेशे की दिल खोल कर निन्दा किया करते थे। कभी-कभी न्याय और दर्शन के अध्यापक बन जाने का इरादा करते। लेकिन उनके विचार में स्थिरता न थी, न विचारो को व्यवहार में लाने के लिए आत्मबल ही था। नही, अनर्थ यह था कि वह जिन दोषों की निन्दा करते थे उन्हें व्यवहार में लाते हुए जरा भी सकोच न करते, जैसे कोई जीर्ण रोगी पथ्यों से अव कर सभी प्रकार के कुपथ्य करने लगे। उन्हें इस पेशे को धन-लोलुपता से घृणा थी, पर आप मुवक्किलों को बड़ी निर्दयता से निचोड़ते थे। वकीलों की अनीति का नित्य रोना रोते थे। पर आप दुर्नीति के परम भक्त थे। अपने हलवे-माडे से काम था, मुवक्किले चाहे मरे या जिये। इनकी स्वार्थपरायणता और दुर्नीति के ही कारण लखनपुर का सर्वनाश हुआ था।

लेकिन जब से प्रेमशंकर ने उपद्रवकारियो के हाथों से उनकी रक्षा की थी तभी से उनकी रीति-नीति और आचार-विचार में एक विशेष जागृति सी दिखायी देती थी। उनकी धन-लिप्सा अब उतनी निर्दय न थी, मुवक्किलो से बड़ी नम्रता का व्यवहार करते, उनके वृत्तान्त को विचारपूर्वक सुनते, मुकदमे को दिल लगा कर तैयार करते, इतना ही नही, बहुधा गरीब मुवक्किलो से केवल शुकराना ले कर ही सन्तुष्ट हो जाते थे। इस सद्व्यवहार का कारण केवल यही नहीं था कि वह अपने खोये हुए सम्मान को फिर प्राप्त करना चाहते थे, बल्कि प्रेमशंकर का सन्तोषमय, निष्काम और नि स्पृह जीवन उनके चित्त की शान्ति और सहृदयता का मुख्य प्रेरक था। उन्हें जब अवसर मिलता प्रेमशंकर से अवश्य मिलने जाते और हर बार उनके सरल और पवित्र जीवन से मुग्ध हो कर लौटते थे। अब तक शहर में कोई ऐसा साधु, सात्विक पुरुष न था जो उनपर अपनी छाप बाल सके। अपने सहवर्गियो में वह किसी को अपने से अधिक विवेकशील, नीतिपरायण और सहृदय न पाते थे। इस दशा में वह अपने को ही सर्वश्रेष्ठ [ ३५४ ]समझते थे और वकालत की निन्दा करके अपने को धन्य मानते थे। उनकी स्वार्थ वृत्ति को उन्मत्त करने के लिए इतना ही काफी था, पर अब उनकी आँखो के सामने एक ऐसा पुरुष उपस्थित था जो उन्ही का सा विद्वान्, लेख और और वाणी मै उन्हीं का सा कुशल था; पर कितना विनयी, कितना उदार, कितना दयालु, कितना शातचित्त! जो उनकी असाधुता से दुखी हो कर भी उनकी उपेक्षा न करता था। अतएव अब डाक्टर साहब को अपने पिछले अपकारो पर पश्चात्ताप होता था। वह प्रायश्चित्त करके अपयश और कलंक के दाग को मिटाना चाहते थे। उन्हें लज्जावश प्रेमशंकर से अपील के लिए अनुरोध करने का साहस न होता था, पर उन्होने संकल्प कर लिया था कि अपील में अभियुक्तो को छुड़ाने के लिए दिल तोड़ कर प्रयत्न करूंगा। वह अपील के खर्च का बोझ भी अपने ही सिर लेना चाहते थे। महीनो से अपील की तैयारी कर रहे थे, मुकदमे की मिस्ले विचारपूर्वक देख ली थी, जिरह के प्रश्न निश्चित कर लिये थे और अपना कथन भी लिख डाला था। उन्हे इतना मालूम हो गया था कि ज्वालासिंह के आने पर अपील होगी। उनके आने की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रातः काल का समय था। डाक्टर साहब को ज्वालासिंह के आने की खबर मिल गयी थी। उनसे मिलने के लिए जा ही रहे थे कि सैयद ईजाद हुसेन का आगमन हुआ। उनकी सौम्यभूति पर काला चुगा बहुत खुलता था। सलाम-जन्दगी के बाद सैयद साहब ने ईजाद अली की ओर सन्देह की दृष्टि से देख कर कहा--- आपने देखा, इन दोनों भाइयो ने रानी गायत्री को कैसा शीशे में उतार लिया? एक साहब ने रियासत हाथ में कर ली और दूसरे साहब दो हजार रुपये के मौरूसी बसीकेदार बन गये। लौंडे की तालीम में ज्यादा से ज्यादा चार-पाँच सौ खर्च हो जायेंगे, और क्या? दुनिया मे कैसे-कैसै बगुला भगत छिपे हुए हैं।

ईजाद हुसेन को बदगुमामी का मर्ज था। जब से उन्हें यह बात मालूम हुई थी, उनकी छाती पर साँप लौट रहा था, मानो उन्ही की जेब से रुपये निकाले जाते हैं। यह कितना अनर्थ था कि प्रेमशंकर को तो दो हजार रुपये महीने बिना हाथ पैर हिलाये घर बैठे मिल जायें और उस गरीब को इतना छल-अपच करने पर भी रोटियों की चिन्ता लगी रहे!

डाक्टर महाशय ने व्यंग भाव से कहा---इस मौके पर आप चूक गये। अगर आप रानी साहिबा की खिदमत में डेपुटेशन ले कर जाते तो इत्तहादी यतीमखाने के लिए एक हजार का वसीका जरूर बँध जाता।

ईजाद हुसेन—-अप तो जनाब मजाक करते हैं। मैं ऐसा खुशनसीब नही हैं। मगर दुनिया में कैसे-कैसे लोग पड़े हुए है जो तर्क का नूरानी जाल फैला कर सोने की चिड़िया ला लेते है।

डाक्टर साहब ने तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा--लाला ज्ञानशंकर की निस्बत

-त्याग।
[ ३५५ ]आप जो चाहे ख्याल करें, लेकिन बाबू प्रेमशंकर जैसे नेकनीयत आदमी पर आपका शुबहा करना बिलकुल बेजा है और जब वह आपके मददगारो में हैं तो आपका उनसे बदगुमान होना सरासर बेइन्साफी है। मैं उन्हें अर्से से जानता हूँ और दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा वेलौस आदमी इस शहर में क्या इस मुल्क में मुश्किल से मिलेगा। वह अपने को मशहूर नही करते, लेकिन कौम की जो वह खिदमत कर रहे हैं काश और लोग भी करते तो यह मुल्क रश्के फिस हो जाता। जो आदमी दस रुपये माहवार पर जिन्दगी बसर करें, अपने मजदूरों से मसावत का बर्ताव करे, मजलूमा की हिमायत करने में दिलोजान से तैयार रहे, अपने उसूलों पर अपनी जायदाद तक कुर्बान कर दे, उसकी निस्बत ऐसा शक करना शराफत के खिलाफ है। आप उनके मुलाजिमों को सौ रुपये माद्वार पर भी रखना चाहे तो न आयेंगे। वह उनके नौकर नहीं है, बल्कि पैदावार में बराबर के हिस्सेदार हैं। गायत्री गजब की मर्दुमशनास औरत मालूम होती है।

ईजादहुसेन ने चकित हो कर कहा--वाकई वह दस रुपये माहवार पर बसर करते हैं? यह क्योंकर?

इर्फान--अपनी जरुरतो को घटा कर। हम और आप तकल्लुफ की चीज को जरूरियात में शामिल किये हुए हैं और रात-दिन उसी फिक्र में परेशान रहते हैं। यह नफ्रू की गुलामी है। उन्होने इसे अपने काबू में कर लिया है। हम लोग अपनी फुर्सत का वक्त जमाने और तकदौर की शिकायत करने में सर्फ करते हैं। रातदिन इसी उधेड़-बुन में रहते हैं कि क्योंकर और मिले। और की हवस में हलाल और हराम का भी लिहाज नहीं करते। उन्हें मैंने कभी अपनी तकदीर के दुखड़े रोते हुए नहीं पाया। वह हमेशा खुश नजर आते हैं गया कोई गम हीं नही. . .

इतने में बाबू ज्वालासिंह आ पहुँचे। डाक्टर साहब ने उठ कर हाथ मिलाया। शिष्टाचार के बाद पूछा--अब तो आप का इरादा यहाँ मुस्तकिल तौर पर रहने का है न?

ज्वालाजी हो, आया तो इसी इरादे से हैं।

इर्फान–फरमाइए, अपील कब होगी?

ज्याला—-इसका जिक्र पीछे करूँगा। इस वक्त तो मुझे सैयद से कुछ अर्ज करना है। हुजूर के दौलतखाने पर हाजिर हुआ था। मालूम हुआ आप यहाँ तशरीफ रखते हैं। मुझे बाबू प्रेमशंकर ने आप से यह पूछने के लिए भेजा है कि आप मायाशंकर को उर्दू फारसी पढ़ाना मंजूर करेंगे।

इर्फान-मंजूर क्यों न करेंगे, घर बैठे-बैठें क्या करते है? जल्ले तो साल में दसपाँच ही होते है और रोटियो की फिक्र चौबीसो घंटे सिर पर सवार रहती है। तनख्वाह क्या तजवीज की है?


१—स्वर्गतुल्य। २—बराबरी। ३—आदमियों को पहचाननेवाली। ४—अन्याय पीडित। ५—सिद्धान्तो। ६—विलास। ७—इन्द्रिय। [ ३५६ ] ज्वाला—अभी १००रु० माहवार मिलेंगे।

इर्फान—बहुत माकूल है। क्यों मिर्जासाहब, मंजूर है न? ऐसा मौका फिर आपको न मिलेगा।

ईजाद हुसेन ने कृतज्ञ भाव से कहा—दिलोजान से हाजिर हूँ। मेरी जवान मे ताकत नही है कि इस एहसान का शुक्रिया अदा कर सकूँ। हैरत तो यह है कि मुझे उनसे एक ही बार नियाज हासिल हुमा और उन्हे मेरी परवरिश का इतना खयाल है।

ज्वाला—वह आदमी नही, फरिश्ते हैं। आपके यतीमखाने का कई बार जिक्र कर चुके है। शायद यतीमो के लिए कुछ वजीफे मुकर्रर करना चाहते हैं। इस वक्त सब कितने यतीम है।

उपकार ने ईजाद हुसेन के हृदय को पवित्र भावो से परिपूरित कर दिया था। अति-शयोक्ति से काम न ले सके। एक क्षण तक वह असमंजस में पड़े रहे, पर अन्त में सद्भावों ने विजय पायी। बोले-जनाब, अगर आपने किसी दूसरे मौके पर यह सवाल किया होता तो मैं उसका कुछ और ही जवाब देता, पर आप लोगो की शराफत और हमदर्दी का मुझ जैसे दगाबाज आदमी पर भी असर पड़ ही गया। मेरे यहां दो किस्मो के यतीम है। एक मुस्तकिल और दूसरे फसली। जरूरत के वक्त इन दोनो की ताय-दाद पचास से भी बढ़ जाती है, लेकिन फसली यतीमो को निकाल दीजिए तो सिर्फ दस यतीम रह जाते है। मुमकिन है आप इनको यतीम न खयाल करे, लेकिन मैं समझता हूँ गरीब आदमी के अजीजो के लड़के सच्चे यतीम है।

इर्फानअली ने मुस्कुरा कर कहा—तो हजरत, आपने क्या यतीमखाने का स्वांग ही खड़ा कर रखा है? कम से कम मुझसे तो पर्दा न रखना चाहिए था। तभी आपने अपनी सारी जायदाद यतीमखाने के नाम लिख दी थी।

ईजाद हुसेन ने शर्म से सिर झुका कर कहा—किबला, जरूरत इन्सान से सब कुछ करा लेती है। मैं वकील नही, बैरिस्टर नही, ताजिर नही, जागीरदार नही, एक मामूली लियाकत का आदमी हूँ। मुझ बदनसीब के वालिद टोक की रियासत मे ऊँचे मसबदार थे। हजारो की आमदनी थी, हजारो का खर्च। जब तक वह ज़िन्दा रहे मैं आजाद धूमता रहा, कनकये और बटेरो से दिल बहलाता रहा। उनकी आँखे बन्द होते ही खानदान की परवरिश का भार मुझ पर पड़ा और खान्दान भी वह जो ऐश का आदी था। मेरी गैरत ने गवारा न किया कि जिन लोगो पर वालिद मरहम ने अपना साया कर रखा था उनसे मुंह मोड़ लूं। मुझमे लियाकत न हो, पर खान्दानी गैरत मौजूद थी। बुरी सोहबतो ने दगा और मक्र को फन मे पुख्ता कर दिया। टोक मे गुजरान की कोई सूरत न देखी तो सरकारी मुलाजमत कर ली और कई जिलो की खाक छानता हुमा यहाँ आया। आमदनी कम थी, खर्च ज्यादा। थोड़े दिनो मे घर की लेई-पूंजी गायब हो गयी। अब सिवाय इसके और कोई सूरत न थी कि या तो फाके करूं या गुजरान की कोई राह निकालूं। सोचते-सोचते यही सूझी जो अब कर रहा हूँ।

इर्फानअली—अन्दाजन आपको सालाना कितने रुपये मिल जाते होंगे? [ ३५७ ] ईजाद—अब क्या कुछ भी पर्दा न रहने दीजिएगा?

इर्फान—अधूरी कहानी नहीं छोड़ी जाती।

ईजाद- तो जनाब, कोई बँधो हुई रकम है नही, और न मैं हिंसाब लिखने का आदी हूँ। जो कुछ मुकद्दर में हैं मिल जाता है। कभी-कभी एक-एक महीने में हजारो की याफत हो जाती है, कभी महीनो रुपये की सूरत देखनी नसीब नहीं होती। मगर कम हो या ज्यादा, इस कमाई में बरकत नहीं है। हमेशा शैतान की फटकार रहती है। कितनी ही अच्छी गिजा खाइए, कितने ही कीमती कपडे पहिनिए, कितने ही शान से रहिए, पर वह दिली इतमीनान नही हासिल होता जो हलाल की रूखी रोटियो और गजी-गाढ़ों में हैं। कभी-कभी तो इतना अफसोस होता है कि जी चाहता है जिन्दगी का खतमा हो जाये तो बेहतर। मेरे लिए सौ रुपये लाखो के बराबर है। इन्शा अल्लाह, इर्शाद भी जल्द ही किसी न किसी काम में लग जायगा तो रोज की फिक्र से निजात हो जायगी। बाकी जिन्दगी तोबा और इबादत मे गुजरेगी। 'इत्तहाद' की खिदमत अब भी करता हूँगा, लेकिन अब से यह सच्ची खिदमत होगी, खुदगर्जी से पाक। इसका सवाब खुदा बाबू प्रेमशंकर को अदा करेगा।

थोड़ी देर अपील के विषय में परामर्श करने के बाद ज्वालासिंह मिर्जासाहब को साथ ले कर हाजीपुर चले। डाक्टर साहब भी साथ हो लिये।