हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/अवधी और ब्रज

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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इस शताब्दी में जिस प्रकार एक नवीन धर्म का प्रवाह प्रवाहित होकर हिन्दू जाति की धार्मिक प्रवृत्ति में एक अभिनव स्फूर्ति उत्पन्न करने का साधन हुआ। उसी प्रकार हिन्दी भाषा सम्बन्धी साहित्य में ऐसी दो मुग्धकारी मूत्तियां भी सामने आई. जो उसको बहुत बड़ी बिशेषता प्रदान करने में समर्थ हुई । वे दो मूर्तियां ब्रजभाषा और अवधी की हैं। इन दोनों उपभाषाओं में जैसा सुन्दर और उच्चकोटि का साहित्य इस शताब्दी में विरचित हुआ फिर अब तक वैसा साहित्य हिन्दू संसार सर्वसाधारण के सामने उपस्थित नहीं कर सका। इसलिये इस काल के कविगण की चर्चा करने के पहले यह उचित ज्ञात होता है कि इन उपभाषाओं की विशेषता पर कुछ प्रकाश डाला जावे जिससे इनमें हुई रचनाओं की महत्ता और स्वाभाविकता स्पष्टतया बतलायी जा सके । इस विचार को सामने रखकर अब मैं इनकी विशेष प्रणालियों को यहां उपस्थित करता हूं। अवधी और ब्रजभाषा की कुछ विशेषतायें तो ऐसी हैं जो दोनों ही में देखिये बंग भाषा और साहित्य का पृ० २४३, २४४ । [ २०६ ] ( २०६ ) समान हैं। इस लिये मैं पहले उन्हों की चर्चा करता हूं बाद में उनकी भिन्नतायें भी बतलाऊंगा । इन दोनों भाषाओं में प्राकृत भाषा के समान संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिकतर नहीं देखा जाता। ये दोनों अर्द्धतत्सम विशेष कर तद्भव शब्दों ही पर अवलम्बित हैं । सुख, मन,धन जैसे थोड़े से संस्कृत के तत्सम शब्द ही इन में पाये जाते हैं। स्वरों में ऋ ऋ और ल तथा ल का प्रयोग होता हो नहीं । ऋके स्थानपर रि का ही प्रयोग प्रायः मिलता है। इनमें ऋतु और ऋजु रितु और ग्जुि बन जाते हैं। हाँ! कृपा जैसे शब्दों में संयुक्त ऋ का व्यवहार अवश्य देखा जाता है । इन दोनों में एक प्रकार से 'श', 'ण', और 'क्ष' का अभाव है। क्रमशः उनके स्थान पर स. न. और छ लिखा जाता है । केवल 'श्री' में शकार का उच्चारण सुरक्षित रहता है। प का प्रयोग होता है. पर पढ़ा वह ख जाता है। युक्त विकर्ष इनका प्रधान गुण है । अर्थात संयुक्त वर्णों को ये अधिकतर सस्वर कर लेती हैं, जैसे सर्व को सम्ब. गर्व को गरब, कर्म को करम. धर्म को धरम, स्नेह को सनेह इत्यादि । ऊर्ध्वगामी रेफ या रकार अवश्य सस्वर हो जाता है, परन्तु जो रकार उर्ध्वगामी नहीं पाद लग्न होता है वह प्रायः संयुक्त रूप हो में देखा जाता है, विशेष कर वह जो आदि अक्षर के साथ सम्मिलित होता है. जैसे क्रम इत्यादि। ऐसे ही कोई कोई संयुक्त वर्णसस्वर नहीं भी होता जैसे अस्त का स। यह देखा जाता है कि संयुक्त वर्ण को जहाँ सस्वर करने से शब्दार्थ भ्रामक हो जाता है वहाँ वह सुर-क्षित रह जाता है जैसे यदि क्रम को करम और अस्त को असत लिख दिया जाय तो जिस अर्थ में उनका प्रयोग होता है उस अर्थ की उपलब्धि दुस्तर हो जाती है। दोनों में जितने हलन्त वर्ण संस्कृत के आते हैं वे सब सस्वर हो जाते हैं, जैसे वग्न का न इत्यादि । ब्यंजनोंका प्रत्येक अनुनासिक अथवा पंचम वर्ण दोनोंहीमें अनुस्वार बन जाता है जैसे अङ्क, कलङ्क, पङ्कज, इत्यादि का क्रमशः अंक, कलंक पंकज लिखा जायगा । इसी प्रकार चञ्चल, सञ्चय, किञ्चित इत्यादि क्रमशः चंचल संचय और किंचित हो जाँयगे । कण्टक, खण्डन, मण्डन. पण्डितका रूप क्रमश कंटक : खंणडन, मंडन. पंडित होगा। आनन्द. अंत और सन्तका रूप क्रमशः आनंद. अंत और संत हो [ २०७ ] ( २०७ ) जायगा। और सम्पत्ति, दम्पति, कम्पित इत्यादि क्रमशः संपत्ति, दंपति, ओर कंपित बन जायगे। प्राकृत के कुछ प्राचीन शब्द ऐसे हैं जो दोनों में समान रूप से गृहीत हैं जैसे नाह, लोयन, सायर इत्यादि। कुछ शब्दों के मध्य का 'व', 'औ', से, और 'य' 'ऐ' से प्रायः बदल जाता है, जैसे पवन का पौन, भवन का भौन, रवन का रोन इत्यादि और नयन का नैन,बयन का बेन, सयन का सैन इत्यादि। परन्तु विकल्प से तत्सम रूप भी कहीं कहों वाक्य के स्वारस्य पर दृष्टि रख कर लिख दिया जाता है । अप-भ्रंश के प्रथमा द्वितीया ओर पष्ठी विभक्तियों का लोप प्रायः देखा जाता है । अवधी और ब्रजभाषा में इनका तो लोप होता ही है, सप्तमी विभक्ति का लोप भी होता है यथावसर अन्य विभक्तियों का भी। अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के एक वचन में प्रायः उकार का संयोग प्रातिपादिक शब्दों के अंतिम अक्षर में देखा जाता है । अवधी और प्रजभाषा में भी यह प्रणाली गृहीत है। कभी कभी विशेषण और अव्ययों में भी वह दिख- लाई पड़ता है। गुरु को लघु ओर लघु को गुरु आवश्यकतानुसार दोनों में कर दिया जाता है। पूर्व कालिक क्रिया बनाने के समय धातु का चिन्ह'ना' दूर करके उसके बाद वाले वण में इकार का प्रयोग दोनों करती हैं, जैसे करि' 'धरि' सुनि' इत्यादि। यह इकार तुकान्त में दोघ भी हो जाता है। प्रजभाषा में बहु वचन के लिये न का प्रयोग होता है। जैसे 'घोरा' का 'घोरान', और 'छोरा' का 'छोरान', परन्तु दूसरा रूप 'घोरन'और 'छोरन' भी बनता है। अवधी में केवल दूसरा ही रूप होता है । गोस्वामो जी लिखते हैं.-'तुरत सकल लोगन पँह जाहू', 'पुरवासिन देखे- दोउ भाई हरिभक्तन देखेउ दोउ भ्राता। परन्तु जाई सीको न के स्थान पर न्ह का प्रयोग ही बहुधा करते देखा जाता है। प्रकृति के साथ विभक्ति मिला कर लिखने को प्रणालो दोनों भाषाओं में समान रूप से पाई जातो है। ब्रजभाषा का पुराना रूप रामहि', 'बनहि', 'घरहिं और नये रूप 'राम' बनै', 'घरे' इसके प्रमाण हैं। अवधी में भी यह बात देखी जाती है, जैसे 'घरे जात बाटी का घरे', नैहरे जोय' १ का नैहरे' । ‘जाना', 'होना' के १-बन में अहिर नैहरे जोय । जल में केवट केहुक न होय । [ २०८ ] भूतकाल के रूप ‘गवा' भवा' में से व' निकालने पर जैसे अवधी में 'गा' 'भा' रूप बनते हैं वेसे हो ब्रजभाषा में भी 'य' को हटा कर गो' 'भो' बनाया जाता है जो बहुबचन में 'गे' भे' हो जाता है । ब्रजभाषा के करण का चिन्ह 'ते' और अवधो के करण का चिन्ह 'से' भूतकालिक कृदन्त में हो लगते हैं, जैसे किये ते' और 'किये से' जिनका अर्थ है 'करने से' । ब्रजभाषा और अवधी दोनों में कृदन्त का रूप समान अर्थात् लध्वन्त होता है, जैसे 'गावत', 'खात', 'अलसात', 'जम्हात' इत्यादि । अन्तर इतना हो है कि ब्रजभाषा में ‘गावतो', 'खातो', 'अलसातो', 'जम्हातो' इत्यादि भी लिख सकते हैं । व्रजभाषा में धातु के चिन्ह तीन हैं—एक के अन्त में 'नो'होता है जैसे ‘करनो' 'कहनो' आदि; दूसरे के अन्त में 'न' पाया जाता है जैसे लेन' 'देन इत्यादि और तीसरे के अन्त में 'बो' होता है, जैसे दैबो' 'लैबो' । देना लेना के दीबा, लोबो भो रूप बनते हैं। इन तीनों रूपों में से पहला रूप कारक चिन्ह-ग्राहो नहीं होता। शेष दो में कारक चिन्ह लगते हैं, जैसे लेन को, देन को, लैबे को, देवे को इत्यादि। अवधी में साधारण क्रिया के अन्त में केवल 'ब' रहता है, जैसे आउब' 'जाब' 'करब' इत्यादि । मध्यम पुरुष का विधि 'ब' में ई मिला कर ब्रज के दक्षिण भाग में बुन्देलखण्ड तक बोलते हैं, जैसे 'आयबी' करबी' इत्यादि। यह ब्रजभाषा का व्यापक प्रयोग है।

अब मैं ब्रजभाषा और अवधी के उन प्रयोगों को बतलाता हूं जिनमें भिन्नता है। ब्रजभाषा में भूत काल को सकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ 'ने' का चिन्ह आता है। हाँ. यह अवश्य है कि इस भाषा के कुछ कवियों ने हो इसका प्रयोग कदाचित किया है। सूरदासादि महाकवियों ने प्रायः ऐसा प्रयोग नहीं किया। अवधो में ने' का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता। बचन के सम्बन्ध में यह देखा जाता है कि ब्रजभाषा में एक बचन का बहु बचन सभो अवस्था में होता है, जैसे 'लड़का' का 'लड़के' अलि का अलियां इत्यादि। अवधो में एक बचन का बहु बचन कारक-चिन्ह लगने पर हो होता है । ब्रजभाषा में भविष्य काल को क्रिया केवल तिङन्त ही नहीं होतो, उसमें खड़ी बोली के समान 'ग' का व्यवहार भी होता है। [ २०९ ] ( २०९ ) जैसे, ‘गावैगे।' इत्यादि । परन्तु अवधीमें ‘करिहइ' 'कहिहइ' आदि तिड्न्त रूप हो बनता है । अवधी इकार-बहुला और ब्रजभाषा यकार-बहुला है। पूर्व- कालिक क्रियाका अवधी रूप ‘उठाई', 'लगाइ' बनाइ'. होइ'. 'रोइ' इत्यादि होगा। किन्तु व्रजभाषाका रूप 'उठाय', 'लगाय', बनाय'. होय'. गेय आदि बनेगा । इसी प्रकार अवधी का 'करिहइ', 'चलिहइ'. 'होइहइ' व्रजभाषा में 'करिहय', 'चलिहय', 'होइहय' हो जायगा । परन्तु अन्तर यह होता है कि लिखने अथवा व्यवहार के समय ब्रजभाषा में हय' है' हो जाता है । इस लिये उसको ‘करिहै' चलिहै' होयहै' इत्यादि लिखते हैं। इसी प्रकार अवधी का इहां' व्रजभाषा में यहां' बन जाता है । अवधो का 'उ' व्रजभाषा में 'व' हो जाता है जैसे उहां' का वहां ओर हुआं' का ह्वां' ब्रजभाषा के शब्द प्राय खड़ो बोलो के समान दोन्ति होते हैं। बड़ो बोली की ऐसी पुलिङ्ग संज्ञायें, जो कि आकागन्त हैं. वृजभाषा में ओकारान्त बन जाती हैं। विशेषण एवं सम्बन्ध कारक के सर्वनाम भी इसी रूप में दृष्टि त होते हैं । जैसे गरो' झगरो' छोरो थोरो' 'साँवरो' 'गोगे' के.सो' जैसो' 'तैसो' 'बड़ो' छोटा हमागे' 'तुम्हारो' 'आपनो' इत्यादि । इसी प्रकार आकारान्त साधारण भूत कालिक कृदन्त क्रियायं भी ओकारान्त बनती हैं. जैसे आयो', दावो', लीवो' इत्यादि। पर अवधी के शब्द अधिकतर लवन्त या अकारान्त होते हैं जिससे लिंग भेद का प्रपंच कम होता है जैसे, ‘अस', जस'. 'तस', 'छोट'. 'बड़'. 'थोड़', 'गहिर'. 'साँवर', 'गोर', 'ऊँच', 'नीच' हमार', तोहार' इत्यादि । मोट . दूबर', 'पातर इत्यादि बिशेषण और आपन. मार. तोर, सर्वनाम एवं कर', 'सन', तथा कहँ','महँ' कारक के चिन्ह भी इसके प्रमाण हैं। अवधी में साधारण क्रिया का रूप भी प्रायः लध्वन्त ही होता है जैसे करव', 'धरब'. हँसब', 'बोलब', इत्यादि । अवधीके हियां' सियार'. कियारी'. 'वियाह', 'बियाज'. 'नियाव','पियास' आदि शब्द ब्रजभाषा में ‘ह्यां', 'स्यार'. 'क्यारी', 'ब्याह', 'ब्याज', 'न्याव', 'प्यास', आदि बन जाते हैं। अर्थान ऐसे शब्दों के आदि बर्ण का इकार स्वर लोप हो जाता है और वह हलन्त होकर परवण में मिल जाता है । ऐसा अधिकांश उसी शब्द में होता है जिसके मध्य में 'या' होता है । [ २१० ] ( २१० ) 'उ' के पश्चात् ‘आ का उच्चारण भी ब्रजभाषा के अनुकूल नहीं है । अवधी भाषा का 'दुआर' और 'कुँआर' व्रजभाषा में द्वार और कारू अथवा 'कारों बन जाता है। ऐ और औ का उच्चारण अवधी में अइ और 'अउ' के समान होता है, जैसे 'अउर 'अइसा' कउआ' 'हउआ। परन्तु ब्रजभाषा में उसका उच्चारण प्रायः ऐ और औ' के समान होता है, जैसे 'ऐसा', 'कन्हैया, और कौआ इत्यादि। ब्रजभाषा ओर अवधी दोनों में वर्तमान काल और भविष्य काल के तिङन्त रूप भी मिलते हैं। और उनमें लिंग भेद नहीं देखा जाता। किन्तु व्रजभाषा के वर्तमानकालिक क्रिया के रूप में यह विशेष बात पाई जाती है कि उनमें इस प्रकार की क्रियायें ‘होना धातु के रूप के साथ बोली जाती हैं । पढ़ना' क्रिया का रूप उत्तम पुरुषमें 'पढ़ै हौं' या पठूँ हूँ. मध्यम पुरुप में पढ़ौ हो' ओर अन्य पुरुष में पढ़ै है' होगा । अवधी में भी इसी प्रकार का प्रयोग होता है। गोस्वामी जी लिखते हैं:-

'गहै घाण बिनु बास अशेषा'
         'पंगु चढ़ै गिरवर गहन'

परन्तु भविष्य काल के तिङन्त रूप अवधी और व्रजभाषा में एक ही प्रकार के होंगे। अवधी में होगा 'करिहइ' होइहइ । और ब्रजभाषा में होगा करिहय=करिहै. होइहय=होयहै या है । अवधी के उत्तम पुरुष में होगा खइहउँ किन्तु ब्रजभाषा में होगा खयहै=खैहो' । अन्तर केवल यही होगा कि जहाँ अवधी में ३ का प्रयोग होगा वहाँ व्रजभाषा में य का । पहले सर्वनाम में जब कारक चिन्ह लगाया जाता था तव अवधा और व्रजभाषा दोनों में 'हि का प्रयोग कारक के पहले होता था। परन्तु अब दोनों में हि' को स्थान नहीं मिलता है । जैमें अवधो 'कहिकर और जेहिकर' ‘केकर' और 'जेकर' बन गया है उसी प्रकार व्रजभाषाका काहि- को जाहि को' अब 'काको' जाको बोला जाता है। ब्रजभाषा में आवहिं 'जाहि' का प्रयोग भी मिलता है और उसके दूसरे रूप आवै, 'जाँय' का भी। कुछ लोगों का विचार है कि पहला रूप प्राचीन है और दूसरा आधुनिक । इसी प्रकार 'इमि'. 'जिमि , तिमि के स्थान पर यों 'ज्यों'. [ २११ ] ( २११ ) त्यों का व्यवहार भी देखा जाता है। इनमें भी पहले रूप को प्राचीन और दूसरे को आधुनिक समझते हैं । परन्तु अब तक दोनों रूप ही गृहीत हैं, कुछ लोग आधुनिक काल में दूसरे प्रयोगों को ही अच्छा समझते हैं । कुछ भाषा मर्मज्ञ कहते हैं कि ब्रज की बोलचाल की भाषा में केवल सर्व- नाम के कर्म कारक में ह कुछ रह गया है जैसे जाहि ताहि' या जिन्हैं, तिन्हैं. आदि में । परन्तु दिन दिन उसका लोप हो रहा है और अब ‘जाहि', वाहि' के स्थान पर जाय वाय' बोलना हो पसंद किया जाता है। किन्तु यह मैं कहूंगा कि 'जाय बाय' आदि को बोलचाल में भले ही स्थान मिल गया हो, पर कविता में अब तक जाहि 'वाहि का अधिकतर प्रयोग है। अवधी और ब्रजभापा को समानता और विशेषताओं के विषय में मैंने अब तक जितना लिखा है वह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता, परन्तु अधि-कांश ज्ञातव्य बातें मैंने लीख दी हैं। अवधि और ब्रजभाषा के कवियों एवं महाकवियों की भाषा का परिचय प्राप्त करने और उनके भाषाधिकार का ज्ञान लाभ करने में जो विवेचना की गई है मैं समझता हूँ उसमें वह कम सहायक न होगी। इस लिये अब मैं प्रकृत विषय की ओर प्रवृत्त होता हूं।

                  (४)

इस शताब्दी के आरम्भ में सब से पहले जिस सहृदय कवि पर दृष्टि पड़ती है वह पद्मावत के रचयिता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। यह सूफ़ी कवि थे और सूफ़ी सम्प्रदाय के भावों को उत्तमता के साथ जनता के सामने लाने के लिये ही उन्होंने अपने इस प्रसिद्ध ग्रन्थ को रचना की है। जिन्होंने इस ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़ा है वे समझ सकते हैं कि स्थान स्थान पर उन्होंने किस प्रकार और किस सुन्दरता से सूफ़ी भावों का प्रदर्शन इसमें किया है।

  इनके ग्रन्थ के देखने से पाया जाता है कि इनके पहले 'सपनावती', 'मुगधावती'. 'मृगावती', 'मधुमालती' और प्रेमावती' नामक ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी। इनमें से मृगावती और मधुमालती नामक ग्रन्थ प्राप्त हो चुके हैं । शेप ग्रन्थों का पता अब तक नहीं चला।'मृगावती की रचना कुतबन ने की है और मधुमालती की मंझन नामक