हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/जायसी

विकिस्रोत से
हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ २११ ] [ २१२ ]कवि ने। इन दोनों का समय पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्तिम काल ज्ञात होता है। ये दोनों भी सूफी कवि थे और इन्होंने भी अपने ग्रन्थों में स्थान स्थान पर अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का निरूपण बड़ी सरलता के साथ किया है। इन सूफी कवियों में कुछ ऐसी विशेषतायें हैं जो लगभग सब में पाई जाती हैं । पहली बात यह कि सब के ग्रन्थों की भाषा प्रायः अवधी है । सभी ने हिन्दी छन्दोंकोही लिया है, और दोहा-चौपाई में ही अपनी रचनायें की हैं। प्रेम-कहानी ही का कथन उनका उद्देश्य होता है, क्योंकि उसी के आधार से संयोग, वियोग और प्रेम के रहस्यों का निरूपण वे यथाशक्ति करते हैं। इस प्रेम का नायक और नायिका अधिकांश कोई उच्च कुल का हिन्दू प्रायः कोई राजा या रानी होती है। इन सुकवियों की विशेषता यह है कि वे सद्भाव के साथ अपने ग्रन्थ की रचना करते देखे जाते हैं. कटुता बिल्कुल नहीं आने देते । वर्णन में इतनी आत्मीयता होती है कि उनके पढ़ने से यह नहीं ज्ञात होता कि किसी दुर्भावना के वश होकर इनकी रचना की गयी है, या किसी विधर्मी या विजातीय की लेखनी से वह प्रसूत है। प्रेम-मार्गी होने के कारण वे प्रेममार्ग का निर्वाह ही अपनी रचनाओं में करते हैं और सूफी मत की उदारता पर आरूढ़ होकर उसमें ऐसी आकर्षिणी शक्ति उत्पन्न करते हैं जो अन्य लोगों के मानस पर बहुत कुछ प्रभाव डालने में समर्थ होती है। मलिक मुहम्मद जायसी इन सब कवियों में श्रेष्ठ हैं और उनकी कृतियां इस प्रकार के सब कवियों की रचनाओं में विशेषता और उच्चता रखती हैं।

जायसी बड़े सहृदय. कवित्व-शक्ति-सम्पन्न कवि थे। प्रतिभा भी उनकी विलक्षण थी. साथ ही धार्मिक कट्टरता उनमें नहीं पायी जाती। वे अपने पीर. पैग़म्बर और धर्मगुरु की प्रशंशा करते हैं और यह स्वाभाविकता है, विशेषता उनकी यह है कि वे अन्य धर्मवालोंके प्रति उदार हैं और उनको भी आदरकी दृष्टि से देखते हैं। उनका हिन्दू-धर्म का ज्ञान भी विस्तृत है । उसके भावों को वे बडी ही मार्मिकता से ग्रहण करते। पात्रों के चरित्र-चित्रण में उनकी इतनी तन्मयता मिलती है जो यह प्रतीति उत्पन्न करती है कि वे उस समय सर्वथा उन्हीं के भावों में लीन हो गये हैं। इन कवियों को [ २१३ ] ( २१३ ) भाषा अधिकतर साफ सुथरी है और सरसता उसमें पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है।

पहले कुतबन की रचना ही देखिये। वे लिखते हैं: ...

साहु हुसैन अहै बड़ राजा, छत्रसिंहासन उनकोछाजा ।
पंडित औ बुधिवंतसयाना, पढ़े पुरान अरथ सब जाना।
धरम जुधिष्ठिरउनकोछाजा, हमसिरछाँह कियो जगराजा।
दानदेह औ गनत न आवै, बलि औ करन न सरवरि पावै।

नायक के स्वर्गवास होजाने पर नायिकाओं की दशा का वर्णन वे यों करते हैं:-

रुक्मिनि पुनि वैसहि मरिगयी, कुलवंती सतसों सति भई
बाहर वह भीतर वह होई. घर बाहर को रहै न जोई ।
विधिकर चरित न जानइ आनू,जो सिरजासोजाहि नियानू

उर्दू की शाइरी में आप देखेंगे कि उसके कवि फ़ारस की सभ्यता के ही भक्त हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते है तो फ़ारस के ही दृश्यों को सामने लाते हैं। साक़ी व पैमाना बुलबुल व कुमरो, सगे व शमसाद, शमा व फानूस. जवांनाने चमन व उरूसाने गुलशन नरगिस वसुम्बुल, फरहाद व मजनू. मानी व बहज़ाद, ज़बाने सुराही व खन्दए कुलकुल वगैरः उनके सरमायये नाज़ हैं। आम तौर से वे इन्हीं पर फ़िदा हैं,शाज़ व नादिर की बात दूसरी है । हज़रत आज़ाद इन्हीं की तरफ़ इशारा कर के फ़रमाते हैं: -

"इनमें बहुत सी बातें ऐसी हैं जो खास फ़ारस और तुर्किस्तान के मुल्कों से तबई और जातो तअल्लुक रखती हैं। इसके अलावा बाज़ खाया- लात में अकसर उन दास्तानों या किस्सों के इशारे भी आगये हैं जो खास मुल्क फ़ारस से तअल्लुक रखते हैं । इन ख्यालों ने और वहां की तशबीहों [ २१४ ]ने इस कदर ज़ोर पकड़ा कि उनके मशाबेह जो यहां की बातें थीं उन्हें बिल्कुल मिटा दिया।”[१]

इन सूफी कवियों की रचनाओं में ये दोष नहीं पाये जाते हैं। वे अपने को भारतवर्ष का समझते हैं और भारतवर्ष के उदाहरण आवश्यकता होने पर सामने लाते हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हैं उस समय भी भारत की सामग्रियों से ही काम लेते हैं। कुतबन ने हुसेन के वर्णन में उसकी धर्मज्ञता की समता युधिष्ठिर से ही की है। दान देने का महत्व बलि और कर्ण को ही सामने रख कर प्रगट किया है यद्यपि उसका प्रशंसापात्र मुसल्मान था। ऊपर के पद्यों में दो स्त्रियों का सती होना और उनकी दशा का वर्णन भी उसने हिन्दू सभ्यता के अनुसार ही किया है। इससे सूचित होता है कि इन सूफ़ी कवियों के हृदय में वह विजातीय भाव उस समय घर नहीं कर सका था जो बाद के मुसल्मानों में पाया जाता है । शाह हुसेन शेरशाह का पिता था और कुतवन उसीके समय में था। इस समय भी मुसलमानों का प्रावल्य बहुत कुछ था। फिर भी कुत- बन में हिन्दू भावों के साथ जो सहानुभूति देखी जाती है वह प्रेम-मार्गी सूफ़ी की उदारता ही का सूचक है। मंझन और मलिक मुहम्मद जायसी में यह प्रवृत्ति और स्पष्ट रूप में दृष्टिगत होती है। मैं पहले कह आया हूं कि सूफ़ी धर्म के विद्वान संसार की विभूतियों में परमात्मा की सत्ता को छिपी देखते हैं और उन्हीं के आधार से वे उसकी सत्ता का अनुभव करना चाहते हैं। मंझन कवि एक स्थानपर इस भाव को इस प्रकार प्रकट करता है: --

देखत ही पहचानेउँ तोही । एही रूप जेही छँदजयो मोही।
एही रूप बुत अहै छिपाना एही रूप रब सृष्टि समाना।
एही रूप सकती औ सीऊ । एही रूप त्रिभुवन कर जीऊ।
एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा ।

[ २१५ ]संयोग (वस्ल) के कामुक सूफ़ी प्रेमिकों ने वियोगावस्था का वर्णन भी

बड़ा ही मार्मिक किया है। वियोगावस्था में संयोग कामना कितनी प्रवल हो उठती है. इसका दृश्य प्रतिदिन दृष्टिगत होता रहता है । मानव-प्रेम-कहानियों में भी इसके बड़े सुन्दर वर्णन हैं। सूफ़ियों का वियोग यतः ईश्वर सम्बन्धी होता है. इसलिये वह अधिक उदात्त और हृदयग्राही हो जाता है और उसकी व्यापकता भी बढ़ जाती है। मंझन इस वियोग का वर्णन निम्न लिखित पद्यों में किस प्रकार करता है, देखियेः-

विरह अवधि अवगाह अपारा ।
         कोटि माहिं एक परै त पारा ।
बिरह कि जगत अबिरथा जाही?
        बिरह रूप यह सृष्टि सबाही।
नयन बिरह अंजन जिन सारा।
         बिरह रूप दर्पन संसारा ।
कोटि माहिं बिरला जग कोई।
         जाहि सरीर बिरह दुख होई ।
रतन कि सागर सागरहिँ ?
         गज मोती गज कोय
चॅदन कि बन बन उपजइ ?
         बिरह कि तन तन होय ?

अब मलिक मुहम्मद जायसी की कुछ रचनाओं को भी देखिये। प्रेम मार्गी सूफी कवियों में जिस प्रकार वे प्रधान हैं वैसी ही उनकी रचना में भी प्रधानता है। उनकी प्रेम-कहानी लिखने की प्रणाली जैसी सुन्दर है वेसा ही स्थान स्थान पर उसमें सूकी भावों का चित्रण भी मनोरम है। वे कवि ही नहीं थे, वरन् उन पीरों में उनकी गणना की जाती है जो उस समय पहुंचे हुये ईश्वर के भक्त समझे जाते थे। इसलिये उनकी रचनाओं [ २१६ ]में ईश्वर-परायणता की झलक भी स्थान स्थान पर बड़ी ही मधुर देख पड़ती है। पदमावत के अतिरिक्त उनका 'अखरावट' नामक भी एक ग्रन्थ है। इसमें उन्हों ने प्रेम-मार्ग के सिद्धान्तों और ईश्वर-प्राप्ति के साधनों का वर्णन बोध --सुलभ रीति से किया है। किन्तु उनका विशेष आद्रित ग्रन्थ पदमावत है। अतएव उसमें से विविध भावों के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूं। पहले संसार की असारता का एक पद्य देखियेः-

१-तौलहि साँस पेट महँ अही।
          जौ लहि दसा जाउ कै रही।
काल आइ दिखरायो साँटी।
          उठि जिउ चला छाँड़ि कै माटी।
काकर लोग कुटुम घर बारू ।
          काकर अरथ दरब संसारू ।
ओही घड़ी सब भयेउ परावा ।
          आपन सोइ जो परसा खावा ।
अहे जे हित साथ के नेगी।
         सबै लाग काढ़े तेहि बेगी।
हाथ झारि जस चलै जुआरी।
          तजा राज होइ चला भिखारी ।
जब लगि जीउ रतन सब कहा ।
          भा बिन जीउ न कौड़ी लहा।

पदमावती एवं नागमती के सती होने के समय का यह पद्य कितना मार्मिक है-

२-सर रचि दान पुन्न बहु कीन्हा ।
           सात बार फिर भाँवर लीन्हा ।

[ २१७ ]

एक जो भाँवर भंई बियाही।
          अब दुसरे होइ गोहन जाहीं ।
जियत कंत तुम्ह हम्ह गल लांई।
          मुये कंठ नहिं छोड़हिं सांई।
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई।
          पौढीं दुवौ कंत गल लाई।
और जो गाँठ कंत तुम जोरी।
          आदि अंत लहि जाइ न छोरी ।
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी।
          दीन्ह उड़ाइ पिरथवी झूठी।
यह जग काह जो अथइ न जाथी।
          हम तुम नाह दोऊ जग साथी।
लागीं कंठ अंग दै होरी।।
          छार भंई जरि अंग न मोरी।
३-राती पिउ के नेह की, सरग भयउ रतनार ।
जोरे उवा सो अथवा, रहा न कोइ संसार ।
४-तुर्की, अरबो, हिन्दवी, भाखा जेती आहि ।
जामें मारग प्रेम का, सबै सराहैं ताहि ।

उनके कुछ ऐसे पद्यों को भी देखिये जिनमें उनकी सूफ़ियाना रंगत बड़ी सरसता के साथ प्रतिबिम्बित हो रही है:-

५-आजु सर दिन अथयेउ ।
        आजु रयनि ससि बूड़ ।
आजु नाथ जिउ दीजिये ।
        आजु अगिन हम जूड़ ।

[ २१८ ]

६-उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा।
          वेधि रहा सगरौ संसारा ।
गगन नखत जो जाहिं न गने ।
          वै सब बान ओहि के हने ।
धरती बान बेधि सब राखी ।
          साखी ठाढ़ देहिं सब साखी ।
रोम रोम मानुस तनु ठाढ़े।
          सूतहि सूत बेध अस गाढ़े।
वरुनि बान अस ओपँह,
          बेधे रन बन ढाँख ।
सौजहि तन सब रोआँ,
          पंखिहिं तन सब पाँख ।
पुहुप सुगंध करइ यहि आसा ।
          मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ।
७-पवन जाइ तहँ पहुंचइ चहा ।
          मारा तैस लोट भूँइ रहा ।
अगिनि उठी जरि उठी नियाना।
          धुवाँ उठा उठि बीच बिलाना ।
पानि उठा उठि जाइ न छूआ।
          बहुरा रोइ आइ भुंई चूआ।
८-करि सिंगार तापहं का जाऊं।
       __ ओही देखहुँ ठावहिं ठाऊँ।
जौ पिउ महँ तो उहै पियारा।
          तन मन सों नहिं होइ निनारा ।

[ २१९ ]

नैन माँह है उहै समाना।
देखहुँ तहाँ नाहिं कोउ आना।
९-देखि एक कौतुक हौं रहा।
रहा अँतर पट पै नहिं रहा।
सरवर देख एक मैं सोई।
रहा पानि औ पानि न होई।
सरग आइ धरती महँ छावा।
रहा धरति पै धरति न आवा।

पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने इन प्रेम मार्गी सूफ़ी कवियों और मलिक मुहम्मद जायसी के विषय में जो कुछ लिखा है वह अवलोकनीय है। इस लिये मैं यहाँ उसको भी उद्धृत कर देता हूँ:-

"कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुसल्मानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया वह अधिकतर चिढ़ानेवाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करनेवाला नहीं। मनुष्य मनुष्य के बीच जो रागात्मक सम्बन्ध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदय-साम्य का अनुभव मनुष्य कभी कभी किया करता है उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम-कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुये उन सामान्य जीवन-दशाओं को सामने रक्खा जिनका मनुष्यमात्र के हृदय पर एक सा प्रभाव दिखायी पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसल्मान हृदय आमने-सामने करके अजनबी- पन मिटाने वालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसल्मान हो कर हिन्दुओं की कहानियां हिन्दुओं ही की बोली में पूरी सहृदयता से कह कर उनके जीवन की मर्म-स्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामञ्जस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की [ २२० ]एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।"[२]

अब मैं इन प्रेममार्गी सूफी कवियों की भाषा पर कुछ विचार करना चाहता हूं। प्रेममार्गी कवि लगभग सभी मुसल्मान और पूर्व के रहने वाले थे। इस लिये इनके ग्रन्थों की भाषा पूर्वी अथवा अवधी है। किन्तु यह देखा जाता है कि वे कभी कभी ब्रजभाषा शब्दों का प्रयोग भी कर जाते हैं। कारण यह है कि अवधी जहाँ व्रजभाषा से मिलती है वहां वह उससे बहुत कुछ प्रभावित है। दूसरी बात यह कि अवधी अर्द्ध मागधी ही का रूपान्तर है । और अद्ध मागधी पर शौरसेनी का बहुत कुछ-प्रभाव है। शौरसेनी का ही रूपान्तर ब्रजभाषा है। इस लिये इटावा इत्यादि के पास जहां अवधी ब्रजभाषा से मिलती है वहां की अवधी यदि ब्रजभाषा से प्रभावित हो तो यह स्वाभाविक है और उन स्थानों के निवासी यदि इस प्रकार की भाषा में रचना करें तो यह बात लक्ष्य योग्य नहीं । परन्तु देखा तो यह जाता है कि पूर्व प्रान्त के रहने वाले कवि भी अपनी अवधी की रचनाओं में व्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं। मेरी समझ में इसका कारण यही है कि अवधी और ब्रजभाषा का घनिष्ट सम्बन्ध है । अधिकांश कवियों को यह ज्ञात भी नहीं होता कि वे किस भाषा के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं और अज्ञातावस्था में एक भाषा के शब्दों का प्रयोग दूसरी भाषा में कर देते हैं। वे अधिक पठित नहीं थे. इसलिये अपने आसपास की बोलचाल की भाषा में ही रचना करते थे परन्तु अपने निकटवर्ती प्रान्त के लोगों का कुछ संसर्ग उनका रहता ही था इसलिये उनकी बोलचाल की भाषा का प्रभाव कुछ न कुछ पड़ ही जाता था। संकीर्ण स्थलों पर कवि को समुचित शब्द विन्यास के लिये जिस उधेड़ बुन में पड़ना होता है वह अविदित नहीं । ऐसी अवस्था में अन्यभाषाओं के कुछ शब्द उपयुक्त स्थलों पर कवियों की भाषा में आये बिना नहीं रहते। जिस समय प्रेम-मार्गी कवियों ने अपनी रचना प्रारम्भ की थी उस समय कुछ धार्मिक रुचि, कुछ संस्कृत के विद्वानों के संसर्ग आदि से, संस्कृत तत्सम शब्द भी हिन्दी [ २२१ ]भाषा में गृहीत होने लगे थे। इस कारण इन कवियों की रचनाओं में सँस्कृत के तत्सम शब्द भी पाये जाते हैं। इन प्रेम मार्गी कवियों में प्रधान मलिक मुहम्मद जायसी हैं। अतएव मैं उन्हीं की रचना को ले कर यह देखना चाहता हूं कि वे किस प्रकार की हैं। आवश्यकता होने पर अन्य कवियों की रचनाओं पर भी दृष्टि डालने का उद्योग करूंगा। पदमावत के जिन पद्यों को मैंने ऊपर उद्धृत किया है उन्हें देखिये। मैं पहले लिख आया हूं कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों अधिकतर तद्भव शब्दों में लिखी जाती हैं। उनके पद्यों में यह बात स्पष्ट दिखाई देती है । तत्सम शब्द उनमें काल', 'दान', 'बहु'. आदि', 'संसार', 'प्रेम', नाथ', 'सूर' इत्यादि हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय संस्कृत के तत्सम शब्द हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। मैं यह भी बतला आया हूं कि इन दोनों भाषाओं में पंचम वर्ण अनुस्वार के रूप में लिखे जाते है; कंत, कंठ, अंत और अंग इस बात के प्रमाण हैं। इन दोनों भाषाओं का नियम भी यह है कि इनमें संयुक्त वर्ण सस्वर हो जाते हैं, 'अरथ', 'अगिन','सरग', 'मारग', 'रतन आदि में ऐसा ही हुआ है। यह भी नियम मैं ऊपर बतला आया हूं कि इन दोनों भाषाओं में शकार का सकार और णकार का नकार और क्षकार का छकार हो जाता है। 'दसा और ससि' का 'स', 'पुन्न', का 'न' और 'छार' का छ ऐसे ही परिवर्तन हैं। इन- दोनों भाषाओं का यह नियम भी है कि प्रथमा द्वितीया, षष्ठी. सप्तमी के कारक चिन्ह प्रायः लोप होते रहते हैं । इन पद्यों में भी यह बात पाई जाती है। 'आज सूरदिन अथयो', 'आज ग्यनि ससि बूड', और रहा न कोई संसार' में सप्तमी विभक्ति लुप्त है। दिन में'. या दिनमँह . रयनि में या 'रयनि मँह' और 'संसार में' या संसार मँह' होना चाहिये था। 'हम गल लायो' में द्वितीया का ‘को', 'लागो कंठ' में तृतीया का ‘से या सों नदारद है । 'गगन नखत जो जाहिं न गने' और ' रोम रोम ‘मानुस तनु' ठाढ़े, में षष्ठी विभक्ति का लोप है. 'गगन नखत और मानुस तनु के नोच में सम्बन्ध-चिन्ह की आवश्यकता है। काल आइ दिखराई सांटी', 'जियत कंत तुमहम गल लायीं' इन दोनों पद्यों में प्रथमा विभक्ति नहीं आई है। [ २२२ ]'काल और तुम' के साथ ने' का प्रयोग होना चाहिये था। सच्ची बात यह है कि और विभक्तियां तो आती भी हैं. परन्तु प्रथमा की 'ने' विभक्ति अवधी में आती ही नहीं । ह्रस्व का दीर्घ और दीर्घ का ह्रस्व होना दोनों भाषाओं का गुण है। उपरि लिखित पद्यों में बारू, 'संसारू, 'आना'.संसारा', 'ठांऊ' ह्रस्व से दीर्घ हो गये हैं और अंतरपट', धरति', 'बरुनि' 'पानि', सिंगार' आदि दीर्घ से ह्रस्व बन गये हैं। इन पद्यों में जो प्राकृत भाषा के शब्द आये हैं वे भी ध्यान देने योग्य हैं जैसे 'नाह', तुम्हे', हम्ह' 'पुहुप', मकु' इत्यादि। इनमें अवधी की जो विशेषतायें हैं उनको भी देखिये, 'पियारा'. 'बियाही' ठेठ अवधी भाषा के प्रयोग हैं। ब्रजभाषा में इनका रूप 'प्यारा' और 'ब्याही होगा। काकर , ओहो' 'जिउ', 'आपन' 'जस'. 'होइ'. 'हुत', 'गर', जाइ'. लेइ'. देई. 'पिउ', उवा', 'अथवा','उठाइ', 'उड़ाइ', 'उहै', 'भुइ'. बहुरा', रोइ', 'आइ', 'उन्ह', 'बानन्ह' 'अस', रो रोअं', ओपहं', 'हिरकाइ' इत्यादि भी ऐसे शब्द हैं. जिनमें अवधी अपने मुख्यरूप में पाई जाती है। जायसीने ब्रजभाषाा और खड़ी बोली के शब्दों का भी प्रयोग किया है, कहीं वे कुछ परिवर्तित हैं और कहीं अपने असली रूप में मिलते हैं --

बेधि रहा सागरै संसारा।
    भादौ विरह भयउ अति भारी
औ किँगरी कर गहेउ वियोगी ।
    तेइ मोहि पिय मो सौं हरा ।
लागेउ माघ परै अब पाला ।।
    ऐस जानि मन गरब न होई ।

'सगरौ व्रजभाषा का स्पष्ट प्रयोग है । 'सकल से 'सगर' पद बनता है। प्राकृत नियम के अनुसार क' का 'ग' हो जाता है और ब्रजभाषा और अवधी के नियमानुसार 'ल का 'र'। इसलिये अवधी में उसका पुल्लिङ्ग रूप 'सगर' होगा और स्त्रीलिंग रूप 'सगरी' । एक स्थान [ २२३ ]पर जायसी लिखते भी हैं –-'भई अहा सगरी दुनियाई।' इसलिये 'सगरौ' रूप जब होगा तब ब्रजभाषा ही में होगा । उसके नीचे की चौपाइयों में 'भयउ' और गहेउ' पद आया है ये दोनों शब्द भी ब्रजभाषा के 'भयो' और 'गह्यो' शब्दों के रूपान्तर हैं । तेहि मोहि पिय मो सौं हरा इस पद्य में दो शब्द ब्रजभाषा के हैं एक पिय' और दूसरा ‘सौं'। 'पिय' शब्द ब्रजभाषा का और पिउ' शब्द अवधी का है । पदमावत में वैसेही दोनों का प्रयोग देखा जाता है जैसे 'प्रेम' शब्दको जायसी अपनी रचना में 'प्रेम' भी लिखते हैं और पेम' भी देखिये-किरिन करा भा प्रेम अँकरू और पेम सुनत मन भूल न राजा' । 'सौं' शब्द भी ब्रजभाषा से ही अवधोमें आया है। विद्वानों ने इस सौं को पश्चिमी अवधी के 'कर्ण' का चिन्ह माना है। पश्चिमी अवयो ब्रजभाषासे प्रभावित है इसलिये उसमें यह सौं शब्द पाया जाता है। ठेठ अवधी के 'कर्ण' का चिन्ह है से' और 'सन'। 'लागेउ माघ पर अब पाला' में 'लागेउ' का अवधी रूप होगा 'लागा। यह 'लागेउ' ब्रजभाषा के लाग्यो का ही रूपान्तर है। ऐस जानि मन गरव न होई ' में ब्रजभाषा का ऐसो', 'जैसो', तैसो' अवधी में 'अस', 'जस', 'तस' लिखा जाता है। वास्तव में ऐस' अवधी शब्द नहीं है । यह ब्रजभापासे ही उसमें आया है और ऐसो' की एक मात्रा कम करके बना लिया गया है। इस शब्द का प्रयोग ऐस', 'ऐस' आदि के रूप में पदमावत में बहुत अधिक पाया जाता है । और ऐसे ही कैसो' जैसो. तेसो के स्थान पर केस, जैस, लेस इत्यादि भी। कुछ विद्वानों को सम्मति है कि ऐम. केस. जैस. तस आदि भी अवधो ही के रूप हैं, किन्तु में इस विचार से सहमत नहीं हूं। सच बात यह है कि ब्रजभाषा के बहुत से शब्द अवधी में पाये जाते हैं. जिनका प्रयोग इन प्रेम-मार्गी कवियों ने स्वतंत्रता से किया है।

पदमावत में ब्रजभाषा शब्दों के अतिरिक्त अन्य प्रान्तिक भाषाओं के कुछ शब्द भी मिलते हैं। 'स्यों' बुंदेलखण्डी है और हिन्दीके 'सह' और से के स्थान पर लिखा जाता है। कविवर केशव दास ने इसका प्रयोग किया है। देखिये -- अलिस्यों सरसोरुह गजत है। [ २२४ ]जायसी को भी इस शब्द का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे "रुण्ड मुण्ड अब टूटहिं स्यो बख्तर औ फूड", "विरिछ उपारि पेडि स्यों लेई। बंगला में 'आछे' है' के अर्थ में आता है। इस शब्द का प्रयोग जायसी को भी करते देखा जाता है। जैसे, ‘कवँल न आछै आपनि बारी', 'का निचिंत रे मानुष आपनि चीते आछुं। वे अरबी फारसी के शब्दों का प्रयोग भी इच्छानुसार करते देखे जाते हैं। कुछ ऐसे पद्य नीचे लिखे जाते हैं:-

अबूबकर सिद्दीक़ सयाने।
   पहले सिदिक दीन ओइ आने ।
पुनि सो उमरि खिताब सुहाये।
   भा जग अदल दीन जो आये।
सेरसाह देहली सुलतानू ।।
   चारो खण्ड तपै जस भानू ।
तहं लगि राज खरग करि लीन्हा।
   इसकंदर जुल करन जो कीन्हा।
नौसेरवाँ जो आदिल कहा ।
   साहि अदल सरि सोउ न अहा।

जिन शब्दों के नीचे रेखा खींची गई है वे फारसी और अरबी के दुर्बोध शब्द हैं। एक स्थान पर तो उन्होंने फारसी के सरतापा' को अपनी कविता में पूरी तरह खपा दिया है देखिये-

केस मेघावरि सिर ता पाई।

उनको सर्वसाधारण में अप्रचलित संस्कृत भाषा के तत्सम शब्दों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। निम्न लिखित पद्यों के उन शब्दों को देखिये जिन के नीचे लकीर खींच दी गई है। सवै नास्ति वह अहथिर ऐस साज [ २२५ ] जेहिकेर', 'बेनी छोरिझार जो बाग' बेधे जनौ मलैगिरि बासा', 'चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा', 'जनु घन महं दामिनि परगसी' का सरवर तेहि देहिं मयंकू' 'कनकपाट जनुबैठा राजा', 'मान सरोदक उलथहिँ दोऊ', 'उठहिं तुरंग लेहि नहिं बागा' 'अधर सुरंग अमी रस भरे', हीरा लेइ सो विद्रुम धारा', 'केहि कहँ कँवल बिगासा, को मधुकर रस लेइ । रसना कहौं जो कह रस बाता', क्षुद्र घंटिका मोहहिं राजा' 'नाभि कुंड सो मलय समीरू', 'पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ वे ऐसे शब्दों का व्यवहार भी करते हैं जिनका व्यवहार न तो किसी ग्रन्थ में देखा जाता है. न वे जनता की बोलचाल में गृहीत हैं। ऐसे शब्द या तो कविता-गत संकीर्णता के कारण. वे स्वयं गढ़ लेते हैं. या अनुप्रास का झमेला उन्हें ऐसा करने के लिये विवश करता है। अथवा इस प्रकार की तोड़-मरोड़ एवं उच्छृंखलता को वे अनुचित नहीं समझते। नीचे के पद्यों के वे शब्द इसके प्रमाण हैं जिनपर चिन्ह बना दिये गये हैं ..

कीन्हेसि राकस भूत परीता,
         कीन्हेसि भोकम देव दईता ।
औ तेहि प्रोति सिहिटि उपराजी
         वह अवगाह दीन्ह तेहि हाथी ।
उंहे धनुस किरसुन पहँ अहा ।
       बेग आइ पिय बाजहु गाजहु होइ सदर ।
जोबन जनम करै भममंत् ।
            कैसे जियै विछोही पखी ।
तन तिनउर भा डोल।
बिरिध खाइ नव जोबन सै तिरिया सों ऊड़।
रिकवँछ कीन नाइ के हींग मरिच औ आद ।

[ २२६ ]वतलाइये, 'प्रेत' के स्थान पर 'परीत' 'दैत्य' के स्थान पर 'दईत' 'सृष्टि' के स्थान पर सिहिटि 'हाथ' के स्थान पर हाथो', 'कृष्ण' के स्थान पर 'किरसुन', 'शार्दुल' के स्थान पर 'सदुर', भस्म के स्थान पर 'भसमंतू', 'पंखी' के स्थान पर 'पखी', 'तिनका' के स्थान पर 'तिनउर', ऊढ़ा'‌ के स्थान पर 'उड़', और आदो' के स्थान पर आदी लिखना कहां तक संगत है, आप लोग स्वयं इसका विचार सकते हैं। इस प्रकार के प्रयोगों का अनुमोदन किसी प्रकार नहीं किया जा सकता। उनको चारणों के ढंग पर भी कुछ शब्दों का व्यवहार करते देखा जाता है जिनमें राजस्थानी की रंगत पाई जाती है। नीचे कुछ पद्य ऐसे लिखे जाते हैं जिन में इस प्रकार के शब्द व्यवहृत हैं। शब्द चिन्हित कर दिये गये हैं:

दीन्ह रतन बिधि चारि नैन बैन सर्वन्नमुख
गंग जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ।
हँसत दसन अस चमके पाहन उठे छरकि।
दरिऊं जोन कैमका, फाट्या हिया दरक्कि।
'सुक्ख सुहेला उग्गवै दुःख झरै जिमि मेंह।'
'बीस सहम घुम्मरहिं निसाना।'
जौ लगि सधै न तप्पु. करै जो मीस कलप्पु'

ग्रामीणता के दोष से तो इनका ग्रन्थ भरा पड़ा है। इन्होंने इतने ठेठ ग्रामीण शब्दों का प्रयोग किया है जो किसी प्रकार बोध सुलभ नहीं। ग्रामीण शब्दों का प्रयोग इसलिए सदोष माना गया है कि उनमें न ना व्यापकता होती है और न वे उतना उपयोगी होते हैं जितना कविता की भाषा के लिये उन्हें होना चाहिये देखा जाना है, मलिक मुहम्मद जायसी ने इसका विचार बहुत कमकिया है। कहीं कहीं उनकी भाषा बहुत गँवारी हो गयो है जो उनके पद्यों में अरुचि उत्पन्न करने का कारण होती है नीचे लिखे पद्यों के चिन्हित शब्दों को देखिये: [ २२७ ] ( २२७ )

मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ।
हिलगि मकोय न फारहु कंथा।'
दोठि दवंँगरा मेरवहु एका।'
औ भिउं जस दुरजोधन मारा।'
अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधे ।'
तन तन बिरह न उपनै सोइ ।'
जो देखा तीवइ है साँसा।'
घिरित परेहि रहा तस हाथ पहुँच लगि वूड़ ।

मेंने इनकी कविता की भाषा पर विशेष प्रकाश इस लिये डाला है कि जिसमें उसके विषय में उचित मीमांसा हो सके । कहा जाता है कि उनके ग्रन्थ की भाषा ठेठ अवधी है। परन्तु जितने प्रमाण मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूं उनसे स्पष्ट है कि उनमें अन्य भाषाओं औरों बोलियों के अति-रिक्त अधिकतर सँस्कृत के तत्सम शब्द भी सम्मिलित हैं, जो ठेठ अवधी में कभी व्यवहत नहीं हुये. एसी अवस्था में उसे हम ठेठ अवधी में लिखा गया स्वोकार नहीं कर सकते। हां यह कहना संगत होगा कि पदमावत की मुख्य भाषा अवधी है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि पदमावत के रचयिता ने ही पहिले पहिल अवधी भाषा लिखने में वह सफलता प्राप्त की जिसका उनके पूर्ववर्ती कवि कुतबन और मंझन आदि नहीं प्राप्त कर सके थे। अब तक प्रेम-मार्गी कवियों के जितने ग्रन्थ हिन्दी संसार के सामने आये हैं उनके, आधार से यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि अवधी भाषा का प्रथम कवि होने का सेहरा कुतवन के सिर है । मैं पहले लिख आया हूं कि प्रान्तिक भाषा में रचना करने का सूत्र पात मैथिल- कोकिल विद्यापति ने किया। उनके दिखाये मार्ग पर चल कर अवधी में कविता करने वाला पहला पुरुष कुतवन है। उसकी रचना और उसके बाद की मंझन को कविता पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि अवधी भाषा में कविता करने का जो माग इन लोगों ने ग्रहण किया था उसी मार्ग पर [ २२८ ] मलिक मुहम्मद जायसी भी चले, किन्तु प्रतिभा और भावुकता में उनका स्थान इन लोगों से बहुत ऊँचा है । जिस उच्च कोटि का कवि-कम्र्म पद- मावत में दृष्टिगत होता है उन लोगों के ग्रन्थ में नहीं। उन लोगों की रचनाओं में वह कमी पायी जाती है जो आदिम कृतिओं में देखी जाती है। उन लोगों को यदि मार्ग-प्रदशन करने का गौरव प्राप्त है तो पदमावत के कवि को उसे पुष्टता प्रदान करने का। यह बात देखी जाती है कि हिन्दी भाषा में हिन्दू जाति की प्रेम-कथाओं को अंकित करने में प्रेम- मार्गी सूफ़ी कवियों ने जैसे हिन्दू भावों के सुरक्षित रखने की चेष्टा की है वैसे ही मुख्य भाषा को हिन्दी रखने का भी उद्योग किया है। और इसी मनोवृत्ति के कारण उन्होंने आवश्यकतानुसार सँस्कृत शब्दों को भो ग्रहण किया। उस समय उर्दू भाषा का जन्म भी नहीं हुआ था । इसलिये उन्होंने अपनी रचनाओं में थोड़े से आवश्यक फ़ारसी अरबी शब्दों को ही स्थान दिया, जिससे हिन्दी भाषा के मुख्य रूपमें व्याघात नहीं हुआ। जो आधार इस प्रकार पहले निश्चित हुआ था उसके सबसे प्रभावशाली प्रवर्त्तक मलिक मुहम्मद जायसी हैं । उनके बाद भा प्रेम-कथायें अवधी भाषा में लिखी गई । परन्तु कोई उस उच्च पद को नहीं प्राप्त कर सका जिस पर मलिक मुहम्मद जायसो अब तक आसीन हैं। मैंने ऊपर लिखा है कि जायसो की भाषा कई कारणों से सदोष हो गयी है और उनको भाषा में ग्रामीणतादोष भी प्रवेश कर गया है। परन्तु अवधी भाषा पर उनका जो अधिकार दृष्टिगत होता है और उन्होंने जिस उत्तमता में इस भाषा में रचना करने में योग्यता दिखलाई है, वे उनके उक्त दोषों और त्रुटियों का पूरा प्रतिकार कर देती हैं। जायसो की भावव्यञ्जना, मार्मिकता और कवि-सुलभप्रतिभा उल्लेखनीय है। उनकी रचना में हिन्दू भाव की मर्मज्ञता. हिन्दू पुराणों और शास्त्रों से सम्बन्ध रखनेवाले विषयों की अभिज्ञता जैसी दृष्टिगत होती है वह विलक्षण और प्रशंसनीय है। उन्होंने जिस सहानुभूति और निरपेक्षता के साथ हिन्दु जीवन के रहस्यों का चित्रण किया है और वर्णनोय विषय के अन्तस्तल में प्रवेश कर के जैसी सहृदयता दिखलायी है उसके लिये उनकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती [ २२९ ]( २२६ ) है। उनको रहस्यवाद-चित्रण-प्रणाली. वर्णन-शैली उनका निरीक्षण और उनकी कवि-कम्म्र कुशलता हिन्दी संसार के लिये गौरव की वस्तु है । मैं समझता हूं, हिन्दी भापा जब तक जीवित रहेगी तब तक उसके साहित्य भाण्डार का एक रत्न पदमावत' भी रहेगा। .. मलिक मुहम्द जायसी के सम्बन्ध में डाक्टर ग्रियर्सन की यह सम्मति है १:--- वे ( मलिक मुहम्मद जायसी ) पदमावत के रचयिता थे, जो. मेरी समझ में, मौलिक विषय पर गौड़ी भाषा में लिखी हुई पहली ही नहीं प्रायः एक मात्र कविता पुस्तक है। मैं नहीं जानता कि कोई अन्य ग्रन्थ भी ऐसा होगा जो पदमावत की अपक्षा अधिक परिश्रमपूर्ण अध्ययन का पात्र हो। निस्सन्देह परिश्रमपूर्ण अध्ययन इसके लिये आवश्यक है क्योंकि साधारण विद्यार्थी के लिये इस पुस्तक की एक पंक्ति का भी कठिनाई से हो बोध गम्य होना सम्भव है, क्योंकि यह जनता की ठेठ भाषा में लिखी गयी है। परन्तु काव्यसौन्दर्य और मौलिकता दोनों के उद्देश्य से इस पुस्तक के अध्ययन में जितना भा परिश्रम किया जाय उचित है।" ___ मलिक मुहम्मद जायसी के बाद की भी रचनायें प्रेम-मार्गी कवियों को मिलती हैं और यह परम्परा अठारहवीं शताब्दी तक चलती देखी जाती है। परन्तु मलिक मुहम्मद जायसी के समान कोई दूसरा कवि प्रेम-मार्गी कवियों में नहीं उत्पन्न हआ. इन कवियों में उसमान' सत्रहवीं शताब्दी में और नूर मुहम्मद एवं निसार अठारहवीं में हुये हैं. जिनकी रचनायें प्राप्त हुई हैं। सत्रहवीं शताब्दीमें शेख नबो और अठारहवीं शताब्दी में कासिम शाह ) “He was the author of the Padmaval (Rag) which is, I belicve, the first poem and almost the only one written in a Gaudian vernacular on an original subject. I do not know a work more deserving of hard study than the Padmavat. It certainly requires it, for scarcely a line is intelligibl to the ordinary scholar, it being couched in the veriest langu age of the people. But it is well worth any amount, both for its originality and for its postical beauty." [ २३० ] ( २३० ) और फ़ाजिलशाह भी हुये । इन लोगों ने भी अवधी भाषा में प्रेम-मार्गी कवियों को प्रणाली ग्रहण कर रचनायें की हैं. किन्तु उनमें कोई विशेषता नहीं है और वे रचनायें मुझे हस्तगत भी नहीं हुई । इस लिये उनके विषय में विशेष कुछ नहीं लिखा जा सकता। उसमान चित्रावली' नामक ग्रन्थ का• रचयिता है । इसकी रचना का कुछ अंश नीचे उद्धृत किया जाता है:-

'सरवर ढ्ढ़ि सबै पचि रहीं।
         चित्रिनि खोज न पावा कहीं
   निकसी तीर भईं वैरागी।
         धरे ध्यान सब बिनवै लागीं।
   गुपुत तोहि पावहिं का जानी ।
         परगट महँ जो रहै छपानी।
   चतुरानन पढ़ि चारौ वेदृ ।
         रहा खोजि पैपाव न भेदृ ।
   हम अंधी जेहि आपु न सूझा ।
         भेद तुम्हार कहाँ लौं बूझा।
   कौन सो ठाँउँ जहां तुम नाहीं ।
         हम चख जोति न देखहिं काही ।
   पावै खोज तुम्हार सो, जेहि दिखरावहु पंथ।
         ___ कहा होइ जोगी भये, औ बहु पढ़े गरंथ।"

नूर महम्मद ने इन्द्रावतो' नामक ग्रंथ की रचना की है। कुछ उनकी रचना का नमूना भी देखियेः ---

मन दृग सों इक राति मँझारा।
          सृझि परा मोहिं सब संसारा ।
     उँ नीक एक फुलवारी।
           देखेउँ तहां पुरुष औ नारी।

[ २३१ ] ( २३१ )

दोउ मुख सोभा बरनि न जाई।
      चंद सुरुज उतरे भुंइ आई।
तपी एक देखेउँ तेहि ठाँऊँ।
       पूछेउँ तासों तिनकर नाऊँ।
कहाँ अहैं राजा औ रानी।
      इन्द्रावति औ कुंवर गियानो ।

निसार ने 'मसनवी युसुफ़-जुलेखा' नामक ग्रंथ लिखा है। उसकी कुछ पंक्तियाँ ये हैं:-

ऋतु बसंत आये बन फूला।
    जोगी जती देखि रंग भूला
पूरन काम कमान चढ़ावा ।
    बिरही हिये बान अस लावा ।
फूलहिं फूल सुखी गुंजारहिं ।
    लागे आग अनार के डारहिं ।
कुसुम केतकी मालति वासा ।
    भूले भंवर फिरइँ चहुँ पासा ।
मैं का करउँ कहाँ अब जाँऊ।
    मां कहं नाहिं जगत महं ठाँऊ ।
टेसू फूल तो किन उँजेरा ।
    लागे आग जरैं चहु ओरा।
तैसे धन बाउर भई,
    बौरे आम लतान।
मै बौरी दौरी फिरऊँ,
     सुनि कोयल कै तान।

[ २३२ ] ( २३२ ) .

इस कवि का एक छन्द भी देखियेः-

ऋतु असाढ़ घन घेर आयो लाग चमकै दामिनी ।
ऋतु सुहावन देखि मन महँ हरष बाढै भामिनी ।
ऋतु घमंड सोंँ मेघ धाये दिवस में जस जामिनी ।
रैनि दिन करुना करैं घर में अकेली कामिनी ।

जो रचनायें मैंने ऊपर उद्घृत की हैं उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि प्रेम-मार्गी सभी कवियों ने अवधी भाषा में लिखने को चेष्टा को है ओर अधिकतर अपना परम्परा को सुरक्षित रखा है। सब की भाषा 'पदमावत' का अनुकरण करती है और उस ग्रन्थ की अन्य प्रणाली भी इन रचनाओं में गृहोत मिलती है। रहस्यवाद और सूफ़ी सम्प्रदाय के विचार भी सब रचनाओं में ही कुछ न कुछ दृष्टिगत होते हैं। इस लिये इस निश्चय पर पहुँचना पड़ता है कि मुहम्मद जायसी के परवर्ती कवियों ने कोई नई उद्भावना नहीं को और न अपनी रचनाओं में कोई ऐसी विशेषताये दिखलायी. जिससे साहित्य में उनका विशेष स्थान होता । यह अवश्य है कि निसार और फ़ाज़िल शाह ने अपने ग्रन्थों के लिये स्व- धर्मी पात्रों को चुना । निसार ने यदि यूसुफ़-जुलेखा को कहानी लिखी है तो फ़ाजिल शाह ने नूरशाह और मेहर मुनीर को परन्तु इसने अपने ग्रंथ का हिन्दी नाम कारण हो किया है. अर्थात् अपने ग्रन्थका नाम 'प्रेम-ग्तन' रखा है। परवर्ती कवियों की भाषा मुहम्मद जायसी की भाषा से कुछ प्राञ्जल अवश्य है और उनका रचनाओं में संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी अधिक देखा जाता है । परन्तु जो प्रवाह जायसी की रचना में मिलता है इनलोगों को रचनाओं में नहीं। अवधी भाषा को जो सादगी सरसता और स्वाभाविकता उनको कविता में मिलती है इन लोगों की कविता में नहीं। यह मैं कहूंगा कि परवर्ती कवियों की रचनाओं में गँवारी शब्दों की न्यू- नता है किन्तु उनका कुछ झुकाव ब्रजभाषा की प्रणाली और खड़ी बोली के वाक्य-विन्यास और शब्दों की ओर अधिक पाया जाता है। उनकी रच[ २३३ ].( २३३ ) नाआ को पढ़ कर यह ज्ञात होता है कि वह उद्योग कर के अपनी भाषा को अवधी बनाना चाहते हैं । उनकी लेखनो स्वतः उसको ओर प्रवृत्त नहीं होती, अनुकरण में जो कमी और अवास्तवता होती है वह उनमें पाई जाती है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्हों ने हिन्दी भाषा और हिन्दू भावों की ओर अपना अनुराग प्रगट किया है और यथाशक्ति अपने यत्न में सफलता लाभ करने की चेष्टा भी की है। ____ मैंने मलिक मुहम्मद जायसो के परवर्ती कवियों की चर्चा यहां इस लिये कर दी है कि जिससे यह ज्ञात हो सके कि प्रेम-मार्गी कवियों की कविता-धारा कहां तक आगे बढ़ी और किस अवस्था में। इनको चर्चा सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दो के अन्य कवियों के साथ की जा सकती थी किन्तु ऐसा करना यथास्थान न होता, इसलिये यहां पर ही जो कुछ उनके विषय में ज्ञातव्य बात थीं, लिख दी गई। यहां पर यह प्रगट कर देना भी आवश्यक है कि इसी काल में कुछ और प्रेम-कहानियां भी हिन्दुओं द्वारा लिखी गई। इनमें से लक्ष्मण सेन की बनाई ‘पदमावती' की कथा हो उल्लेख योग्य है । उसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। पौराणिक कथाओं के आधार से कुछ अन्य रचनायें भी हुई हैं, जैसे ढोलामारू. की चउपद्दी इत्यादि परन्तु उनमें अधिकतर पौरा- णिक प्रणाली ही का अनुकरण किया गया है और कहानी कहने की प्रवृत्ति ही पाई जाती है। इसलिये उनमें वह विशेषता उपलब्ध नहीं होती जो उनका उल्लेख्य विशेष रीति से किया जाय। अतएव उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।

  1. देखिये-चतुर्दश हिन्दी साहित्य सम्मेलनके सभापतित्वपदसे लेखकका भाषणपृ०२४
  2. देखिए हिन्दी साहित्य का इतिहास १०३, १०४ पृष्ट