हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/दादूदयाल

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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(ग)

इसी शतक में दादूदयाल जी का आविर्भाव हुआ। उनकी गणना निर्गुणवादी संतों में की जाती है। कोई उनको ब्राह्मण संतान कहता है,कोई यह कहता है कि वे एक धुनियाँ थे जिनको एक नागर ब्राह्मण ने पाला पोसा था। वे जो हों, किन्तु उनका हृदय प्रेममय और उदार था। उनमें दयालुता की मात्रा अधिक थी, इसी लिये उनको दादूदयाल कहते हैं । उनको कलहविवाद प्रिय नहीं था। शान्तिमय जीवन ही उनका ध्येय था, इस लिये उनकी रचनाओं में वह कटुता नहीं मिलती जो कबीर साहब की उक्तियों में मिलती है। उनके ग्रन्थों के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे हिन्दू जाति से सहानुभूति रखते थे और उनके देवी-देवताओं और महात्माओं पर व्यंग वाण प्रहार करना उचित नहीं समझते थे। उनका विचार यह था कि संत होने के लिये संत भाव की आवश्यकता है। इस दृष्टि से वे किसी महापुरुष की कुत्सा करके अपने को सर्वोपरि बनाना नहीं चाहते थे। अतएव उनकी रचनाओं में यथेष्ट गंभीरता पायी जाती है। उनको यह ज्ञात था कि उस समय हिन्दू धर्म पर किस प्रकार आक्रमण हो रहा था. इस लिये उसके प्रति वे सहानुभूति पूर्ण थे और इसी कारण उन्होंने वह मार्ग नहीं ग्रहण किया जिससे उसका धर्म-क्षेत्र कंटकित हो और औरों को उस पर अयथा आक्रमण करने का अधिक अवसर प्राप्त हो। वे हिन्दू संतान थे। इसलिये उनका हिन्दू संस्कार जाग्रत था और यही कारण है कि वे उसके धर्म-याजकों पर अनुचित कटाक्ष करते [ ३१५ ]नहीं देखे जाते । वे जितने ही मिथ्याचार के विरोधी थे उतने ही मिथ्यावाद से दूर। वे यह जानते थे कि सत्य में बल है। इस लिये वे सत्य का प्रचार सत्य भाव ही से करते थे असंयत भावों के साथ नहीं। लगभग यह बात सभी हिन्दू निर्गुणवादियों में पायी जाती है, यहां तक कि कबीर साहब के प्रधान शिष्य धर्मदास, श्रुतगोपालदास आदि में भी यही भाव कार्यरत देखा जाता है। इन लोगों में भी हिन्दू धर्म के प्रति वह दुर्भाव नहीं देखा जाता जिससे हिन्दू धर्म के प्रति उनका असद्भाव प्रगट हो दादू- दयाल के हृदय का विनीत भाव इससे भी प्रगट होता है कि वे सब को दादा कहते थे और इसी लिये उनका नाम दादू पड़ा। उनकी कुछ रचनायें आप के सामने उपस्थित की जाती हैं। इनको पढ़ कर आप लोगों को स्वयं यह ज्ञात होगा कि वे क्या थेः-

(१) अजहुँ न निकसे प्रान कठोर।
दरसन बिना बहुत दिन बीते सुन्दर प्रीतम मोर।
चार पहर चारहुँ जुग बीते रैनि गंवाई भोर।
अवधि गये अजहूँ नहिं आये कतहुँ रहे चित चोर।
कबहूँ नैन निरख नहिं देखे मारग चितवत तोर।
दादू अइसहि आतुरिविरहिनि जैसहि चन्दचकोर।
(२) भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा अबरन एक अधारा।
वाद विवाद काहु सों नाहीं मैं हूँ जग थें न्यारा।
सम दृष्टी सूं भाइ सहज में आपहिँ आप बिचारा।
मैं तें मेरी यहु मति नाहीं निरवैरी निरविकारा।
पूरण सबै देखि आपा पर निरालंब निरधारा।
काहु के संगी मोह न ममता संगी सिरजन हारा।
मनही मनसू समझु सयाना आनँद एक अपारा।

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काम कलपना कदे न कीजे पूरण ब्रह्म पियारा।
यहि पथ पहुँचि पार गहि दादूसोतत सहज संभारा।

(३) यह मसीत यह देहरा सत गुरु दिया देखाय।
भीतर सेवा बन्दगी बाहर काहे जाय।

(४) सुरग नरक संसय नहीँ, जिवन मरण भय नाहिँ।
राम विमुख जे दिन गये सो सालै मन माहिँ।

(५) जे सिर सौंप्या राम कों, सो सिर भया सनाथ।
दादू दे ऊरण भया जिसका तिसके हाथ।

(६) कहताँ सुनताँ देखताँ लेताँ देताँ प्राण।
दादू सो कतहृं गया माटी भरी मसाण।

(७) आवरे सजणा आव सिर पर धरि पाँव।
जाणी मैंडा जिंद असाड़े
तू रावैंदा राव वे सजणा आव।
इत्थां उत्थां जित्थां कित्थां हौं जीवां तो नाल वे।
मीयां मैंडा आव असाड़े
तूलालों सिर लाल वे सजणा आव।

(८) म्हारे ह्वाला ने काजे रिदै जो वानेहूं ध्यान धरूँ।
आकुल थाए प्राणम्हारा को ने कही पर करूँ।
पीबे पाखे दिन दुहेलां जाए घड़ी बरसांसौं केम भरूँ।
दादू रे जन हरिगुण गातां पूरण स्वामी ते बरूँ ।

दादू दयाल में यह विशेषता थी कि वे पंजाबी और गुजराती भाषा में भी कविता कर सकते थे। उनकी इस प्रकार की रचनायें भी ऊपर उद्धृत की गयी हैं। नम्बर ७ की रचना पंजाबी और नम्बर ८ की गुजराती [ ३१७ ]भाषा की है। इस प्रकार की उनकी रचनायें थोड़ी हैं। अधिकांश रचनायें ब्रज भाषा की ही हैं जिसमें अधिकतर शब्द राजस्थानी भाषा के और थोड़े अवधी के आये हैं। उनकी भाषा भी संतों की भाषा के समान स्वतंत्र है। उसमें विशेष बन्धन नहीं। जब जहाँ आवश्यक समझते हैं अन्य भाषा के उपयुक्त शब्दों को ग्रहण कर लेते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा पर व्रज भाषा और राजस्थानी भाषा का ही विशेष प्रभाव है। पहले पद्य को देखिये । वह बहुत ही प्रांजल है और इस भाव से लिखा गया है कि ज्ञात होता है कि वे सूरदासजी का अनुकरण कर रहे हैं। ऐसी उनकी कितनी ही रचनायें हैं। दूसरा पद्य ऐसा है जिसमें राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। फिर भी उसकी भाषा साफ़ और चलती है। दादूदयाल के विचार निर्गुणवादियों के से हैं, परन्तु अन्य निर्गुणवादियों के समान वे भी सगुणोपासक हैं और परमात्मा में अनेक गुणों की कल्पना करते रहते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने पूर्व के कबीर साहब इत्यादि निर्गुणवादियों को भी स्मरण किया है और स्थान स्थान पर पौराणिक महात्माओं को भी। स्वर्ग नरक इत्यादि का वर्णन भी उनकी रचनाओं में है और पौराणिक उन पापियों का भी जो पतितपावन के अपार अनुग्रह से पाप-मुक्त हो कर अच्छे पद को प्राप्त हो सके। इस लिये उनके विचार भी पौराणिक भावों से ही ओतप्रोत हैं जो समय पर दृष्टि रख कर उनके द्वारा प्रकट किये गये हैं। राजस्थान में उनके पंथवाले अधिक हैं. उनका कार्यक्षेत्र भी आजीवन राजस्थान ही रहा है।