हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/रहीम

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ २९८ ]

(ख)

अब मैं अकबर के दरबारी कवियों की चर्चा करूंगा। इनके दरबार में भी उस समय अच्छे-अच्छे सुकवि थे। मंत्रियों में रहीम खान ख़ाना,बीरबल, और टोडरमल भी कविता करते थे। दरबारी कवियों में गंग और नरहरि का नाम बहुत प्रसिद्ध है । रहीम खान खाना मुसल्मान थे। परन्तु हिन्दी भाषा के बड़े सरस हृदय कवि थे। उनकी रचनायें बड़े आदर की [ २९९ ]दृष्टि से देखी जाती हैं। वे बड़े उदार भी थे और सहृदय कवियों को लाखों दे देते थे। उन्होंने फ़ारसी में भी रचनायें की थी। उनका 'दीवान फ़ारसी'. और'वाकयाते बाबरी' का फ़ारसी अनुवाद बहुत प्रसिद्ध है। हिन्दी में भी उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है। उनकी कुछ हिन्दी-रचनायें देखियेः-

१- कहि रहीम इकदीप तें, प्रगट सबै दुति होय।
  तन सनेह कैसे दुरै, जरु दृग दीपक दोय।
              
२- छार मुंड मेलतु रहतु, कहि रहोम केहि काज।
  जेहि रज रिषि पत्नी तरी, सो ढूंढ़त गजराज।

३- रहिमन राज सराहिये,जो ससि के अस होय।
  रवि को कहा सराहिये, जो उगै तरैयन खोय।

४- योँ रहीम सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत।
  ज्यों बड़री अखियाँन लखि, आँखिन को सुख होत

५- ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
  बारे उँजियारो लगै, बढ़े अंधेरो होय।

६- बालम अस मन मिलयउं जस पय पानि।
  हंसिनि भई सवतिया लइ बिलगानि।
  भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप।
  एक घरी भरि सजनी रहु चुपचाप।
  सघन कुंज अमरैया सीतल छाँहि।
  झगरति आइ कोइलिया पुनि उड़ि जाहिं।
  लहरत लहर लहरिया लहर बहार।
  मोतिन जरी किनरिया बिथुरे बार।

[ ३०० ]

७- कलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था।
चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था।
कटि तट बिच मेला पीत सेला नवेला।
अलिबन अलबेला यार मेरा अकेला।

टोडरमल अकबर के कर-विभाग के प्रधान मंत्री थे। बही खाता का प्रचार सब से पहले इन्हीं के द्वारा हुआ। हिन्दी दफ्तर का,पहले पहल इन्होंने ही फ़ारसी में किया। ये प्रधान कवि नहीं हैं और न इनका कोई ग्रन्थ है। स्फुट कवितायें इनकी मिल जाती हैं। इनकी एक रचना देखिये।

गुन बिनु धन जैसे गुरु बिनु ज्ञान जैसे।
मान बिनु दान जैसे जल बिनु सर है।
कंठ बिनु गीत जैसे हित बिनु प्रीति जैसे।
वेश्या रस रीति जैसे फल बिनु तर है।
तार बिनु जंत्र जैसे स्याने बिनु मंत्र जैसे।
नर बिनु नारि जैसे पुत्र बिनु घर है।
टोडर सुकवि तैसे मन में विचार देखो।
धर्म बिनु धन जैसे पच्छी बिना पर है॥

बीरबल अकबर के प्रधान मंत्रियों में से थे। जाति के ब्राह्मण थे, बड़े बीर भी थे। कविता के रसिक थे और स्वयं कविता करते थे। अपने समय में कविजन के कल्पतरू थे। प्रत्युत्पन्नमति ऐसे थे कि अकबर की दृष्टि में इसी कारण उनका विशेष आदर था। बड़े सरस हृदय थे और ललित कविता भी करते थे। दो एक पद्य देखियेः-

१- उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर
उरग पै केकिन के लपटैं लहकि है।
केकिन के सुरति हिये की ना कछु है भय
एकी करी केहरि न बोलत बहकि है।

[ ३०१ ]

कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं
बैहर बहति बड़े जोर सों जहकि है।
तरनि के तावन तवासी भई भूमि रही
दसहू दिसान में दवारि सी दहकि है।
२- पेट में पौढ़ि के पौढ़े मही पर
पालना पौढ़ि के वाल कहाये।
आई जबै तरुनाई तिया सँग
सेज पै पौढ़ि के रंग मचाये।
छीर समुद्र के पौढ़नहार को
ब्रह्म कबौंचित तें नहिं ध्याये।
पौढ़त पौढ़त पौढ़त ही सों
चिता पर पौढ़न के दिन आये।

नरहरि अकबरी दरबार के प्रसिद्ध कवि थे। वे जिला फतहपूर-असनी गाँव के निवासी थे। शायद जाति के बंदीजन थे, कहा जाता है कि इनके एक छप्पे पर रीझ कर अकबर ने अपने समय में गावकुशी बंद कर दी थी। वह छप्प यह है: -

अरिहुं दन्त तृन धरैं ताहि मारत न सबल कोइ।
हम संतत तृन चरहिँ बचन उच्चरहिं दीन होइ।
अमृत पय नितस्रवहिं बच्छ महि थम्मन जावहिं।
हिन्दहिं मधुर न देहिं कटुक तुरकहिं न पियावहिं।
कह नरहरि कवि अकबर सुनो
बिनवत गऊ जोरे करन।
अपराध कौन मोहि मारियतु
मुयेहुं चाम सेवत चरन।

[ ३०२ ]एक पद्य उनका और देखियेः-

सरवर नीर न पीवहीं स्वाति वुन्द की आस।
केहरि कबहुँ न तृन चरै जो ब्रत करै पचास।
जो व्रत करै पचास विपुल गज-जूह बिदारै।
धन ह्वै गर्व न करै निधन नहिं दीन उचारै।
नरहरि कुलक सुभाउ मिटै नहिं जब लगि जीवै।
बरु चातक मरि जाय नीर सरवर नहिं पीवे।

कवि गंग अकबर-दरबार के एक नामी कवि थे। रचना जो इनकी मिलती है वह प्रौढ़ है। इनका कोई ग्रन्थ अब तक नहीं मिला है परन्तु जो स्फुट पद्य पाये गये हैं उनसे उनकी योग्यता का पूरा परिचय मिलता है। किसी किसी की यह सम्मति है कि इनका अन्तिम समय बड़ा दुःखद था। कहा जाता है कि वे हाथी के पैरों से रौन्दवा दिये गये। भिखारीदास का एक दोहा है जिसमें उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास जी के साथ इनकी भी प्रशंशा की है और इनको अच्छा कवि माना है। वह दोहा यह है-:

तुलसी गंग दुवौ भये, सुकबिन के सरदार।
इनकी कविता में मिली, भाषा विविध प्रकार।

रहीम खां खान खाना इनका बड़ा आदर करते थे. कवि गंग ने उनकी प्रशंसा में कुछ रचनायें भी की हैं। उनकी कुछ कवितायें नीचे लिखी जाती हैं:-

बैठी थी सखिन संग पिय को गवन सुन्यो,
सुख के समूह में वियोग आग भरकी।
गंग कहैत्रिविधि सुगंध लै पवन बह्यो,
लागतही ताके तन भई विथा जर की।

[ ३०३ ]

प्यारी को परसि पौन गयो मानसर पँह
लागत ही औरै गति भई मानसर की।
जलचर जरे औ सेवार जरि छार भयो,
जल जरि गयो पंक सूख्यो भूमि दरकी।
मृगहूं ते सरस विराजत बिसाल दृग देखिये,
न अस दुति कौलहृ के दल मैं।
गंग घन दुज से लसत तन आभूषन ठाढ़े
द्रुम छाँह देख ह्वै गई विकल मैं।
चख चित चाय भरे शोभा के समुद्र माहिँ
रही ना सँभार दसा औरै भई पल में।
मन मेरो गरुओ गयो री बूड़ि मैं न पायो,
नैन मेरे हरुये तिरत रूप जल में।

इन प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त इस सोलहवीं सदी में नरोत्तमदास नामक एक बड़े सह्रदय कवि हो गये हैं। व जिला सीतापुर के रहने वाले ब्राह्मण थे। इनके दो ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। एक 'सुदामा चरित्र' और दूसरा 'ध्रुव चरित्र'। ये दोनों खण्ड काव्य हैं। इनमें से सुदामाचरित्र की कविता बड़ी ही सरस है। उसमें से दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं:-

१-कोदो समाँ जुरतौ भरि पेट न
चाहति तौ दधिदृध मिठौती।
सीत न बीतत जो सिसियात।
तौं हौं हठती पै तुम्हैं न हठौती।
जो जनती न हितृहरि से तो मैं
काहे को द्वारिका ठेलि पठौती।

[ ३०४ ]

या घर से कबहूं न गयो पिय
दूटो तवा अरु फूटी कटौती।
२- काहे बेहाल बिवाइन सों पुनि
कंटक जाल लगे पग जोये।
हाय महादुख पायौ सखा तुम
आये इतै न कितै दिन खोये।
देख सुदामा की दीन दसा
करुना करिकै करुना निधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयौ
नहिं नैनन के जल सों पग धोये।

केशवदास जी के बड़े भ्राता वलभद्र जी की चर्चा मैं पहले कर चुका हूं आप संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध विद्वान् थे। आप की संस्कृत रचनायें अधिक हैं। भागवत भाष्य और वलभद्री व्याकरण आप के उत्तम ग्रन्थ हैं। इनकी बनाई हुई हनुमन्नाटक एवं गोवर्धन सप्तशती की टीकायें भी बड़ी विशद् हैं । संस्कृत के इतने बड़े विद्वान् होने पर भी आप ने हिन्दी भाषा में दो ग्रन्थ लिखे, एक का नाम है दूषण विचार और दूसरा है नखशिख । दूषण विचार सुना है कि बड़ा उपयोगी ग्रन्थ है. परन्तु मैंने इस ग्रन्थ को नहीं देखा । नखशिख सुन्दर ग्रन्थ है, और इसकी रचना बड़ी प्रौढ़ है। इसके जोड़ का नृपशंभु का नखशिख नामक ग्रन्थ है. परंतु यह ग्रन्थ उक्त ग्रन्थ के अनुकरण से ही लिखा गया है-- और भी नखशिख के ग्रन्थ हैं, परन्तु वलभद्र जी के नखशिख की समता कोई नहीं कर सका। उसके दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं:-

पाटल नयन कोक नद के से दल दोऊ
बलभद्र बासर उनीदी लखी बाल मैं।
शोभा के सरोवर मैं बाड़वकी आभा कैधों
देवधुनि भारती मिली है पुन्य काल मैं।

[ ३०५ ]

काम कैवरत कैधों नासिका उडुंप बैठ्यो
खेलत सिकार तरुनी के मुखताल मैं।
लोचन सितासित मैं लोहित लकीर मानों
बाँधे जुग मीन लाल रेसम के जालमें।१।
मरकत के सूत कैघों पन्नग के पूत अति राजत
अभूत तमराज के से तार हैं।
मखतृल गुन ग्राम सोभित सरस श्याम
काम मृग कानन कै कुहू के कुमार हैं।
कोपकी किरिन कै जलज नाल नील तंत
उपमा अनंत चारु चँवर सिँगार हैं।
कारे सटकारे भींजे सोंधे सों सुगंध बास
ऐसे बलभद्र नव बाला तेरे बार हैं।२।

इसी समय में हरिनाथ, तानसेन. प्रवीण राय, होलराय, करनेस, लालनदास, मनोहर, रसिक आदि ऐसे कवि भी साहित्य क्षेत्र में आये, जो बहुत प्रसिद्ध नहीं हैं, परन्तु उनकी रचनायें सुन्दर और भावमयी हैं। सब की रचनाओं के नमूने के लिये इस ग्रन्थ में स्थान का संकोच है। जो रचनायें अधिक मधुर हैं और जिनमें कुछ विशेषता है, उनमें से कुछ नीचे लिखी जाती हैं:-

बलि बोई कीरति लता कर्ण करी द्वैपात,
सींची मान महीप ने जब देखी कुम्हलात।
जाति जाति ते गुन अधिक सुन्यो न कबहूँ कान।

सेतु बाँधि रघुवर तरे हेलादे नृप मान।

हरिनाथ

खात हैं हरामदाम करत हराम काम धाम

धाम तिनही के अपजस छावैंगे।

[ ३०६ ]

दोजख में जैहैं तब काटि काटि कीड़े खैहैं
खोंपड़ी को गूद काक टोंटन उड़ावैंगे।
कहै करनेस अबैघूस खात लाजै नाहिं
रोजा औनेवाज अंत काम नहिँ आवैंगे।
कबिन के मामिले में करै जौन खामी
तौन निमक हरामी मरे कफन न पावैंगे।

करनेस


दीप कैसी जाकी जोति जगर मगर होति
गुलाबास बादर मैं दामिनी अलूदा है।
जाफरानी फूलन मैं जैसे हेमलता लसै।
तामैं उग्यो चन्द्र लेन रूप अजमूदा है।
लालन जू लालन के रंग से निचोरि रँगी
सुरँग मजीठ ही के रंगन जमूदा है।
बकि न बहूदा लखिछबिन को तूदाओप
अतर अलूदा अंगना का अंग ऊदाहै।

लालनदास

स्वामी हितहरिवंस की शिष्य परम्परा और शिष्यों में तथा हरिदास स्वामी आदि महात्माओं के संसर्ग से अनेक सहृदय कवि इस शतक में उत्पन्न हुये. उनकी रचनायें बड़ी सरस हैं। उनमें से हितरूप लाल,गदाधर भट्ट, भगवान हित, नागरीदास. बिहारिन दास, भट्ट महाराज, ब्यासजी. सेवक जी, हरिवंस अली, और बिट्ठल बिपुल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनमें से कुछ लोगों को रचायें भी देखियेः-

विथुरी सुथरा अलकैं झलकैं
बिच आनि कपोल परी जुछली।

[ ३०७ ]

मुसुकात जबै दसनावलि देखि
लजात तबै तब कुन्द कली।
अति चंचल नैनफिरै चहुघां नित
पोखत लाल है भांति भली।
तिन के पद पंकज को मकरंद

सुनित्य लहै हरिबंस अली।

हरिवंस अली


जैसे गुरु तैसे गोपाल।
हरि तौ तबहीं मिलिहैं जबहीं श्रीगुरु होयँ कृपाल।
गुरु रूठे गोपाल रूठि हैं वृथा जात है काल।

एक पिता बिन गनिका सुत को कौन करे प्रतिपाल।

व्यासजी


सजनी नवल कुंज बन फूले।
अलिकुल संकुल करत कुलाहल सौरभ मनमथ मूले।
हरखि हिंडोरे रसिक रास बर जुगुल परस्पर झूले।
विट्ठल बिपुल बिनोद देखि नभ देव विमानन भूले।

यह बिट्ठल विपुल जी का पद्य है। स्वामी हरिदास जी के आप शिष्य थे, उनका स्वर्गारोहण होने पर आप ही उनकी गद्दी पर बैठे । गुरु के चरणों में आप का इतना अनुराग था कि उनके शरीर का पात होने पर उन्होंने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। एक रास के समय कहा जाता है कि स्वयं श्रीकृष्णजी ने उनकी आँखों की पट्टी खोली। एक बार रास में आप इतने प्रेमोन्मत्त हुये कि तत्काल देहान्त हो गया।

बने बन ललित त्रिभंग बिहारी।
बंसीधुनि मनु बंसी लाई आई गोपकुमारी।

[ ३०८ ]

अरप्यो चारु चरन पद ऊपर लकुट कच्छ तरधारी।
श्री भट मुकुट चटक लटकनि मैं अटकि रहे दृगप्यारी।

श्री भट्ट


रक्त पीतसित असित लसत अंबुज बन सोभा।
टोल टोल मद लोल भ्रमत मधुकर मधु लोभा।
सारस अरु कलहंस कोक कोलाहल कारी।
पुलिन पवित्र विचित्र रचित सुन्दर मनहारी।

गदाधर भट्ट


सबै प्रेम के साधन तरु हरि।
निकसत उमग प्रगट अंकुर बर पात पुराने परिहरि।
गुन सुनि भई दास की आसा दरस्यो परस्यो भावै।
जब दरस्यो तब बोलै चाहै बोले हूँ हंसि आवै।

बिहारिनिदास


जसुमति आनंद कन्द नचावति।
पुलकि पुलकि हुलसाति देखि मुख अतिसुख पुंजहिँ पावति
बाल जुवा वृद्धा किसोर मिलि चुटकी दै दै गावति।
नुपुर सुर मिश्रित धुनि उपजति सुर विरंचि विसमावति।
कुंचित ग्रंथित अलक मनोहर झपकि वदन पर आवति।
जन भगवान मनहुँ धनविधु मिलि चाँदनि मकर लजावति।

हितभगवान


दिन कैसे भरूं री माई बिनदेखे प्रान अधार।
ललित तृभंगी छैल छबीलो पीतम नंद कुमार।
सुन री सखी कदमतर ठाढ़ो मुरली मंद बजावै।
गनिगनि प्यारी गुनगन गावै चितवत चितहिं रिझावै।

[ ३०९ ]

जियरा धरत न धीरज सजनी कठिन लगन की पीर।
रूप लाल हित आगर नागर सागर सुख की सीर।

हितरूप लाल

इन महात्माओं में अधिकतर ग्रन्थकार हैं, और एक एक ने कई कई ग्रन्थ लिखे हैं, इन सब बातों की चर्चा करने से अधिक विस्तार और विषयान्तर होगा अतएव मैं इस विषय को यहीं छोड़ता हूं। नाभादास जी के गुरु अग्रदास जी भी इसी शताब्दी में हुये। आप ने भी कई ग्रन्थों की रचना की है, 'राम भजन मंजरी' और'भाषा हितोपदेश' उनके सुन्दर ग्रन्थ हैं । एक कविता उनकी भो देखिये:-

कुण्डल ललित कपोल जुगुल अरु परम सुदेसा।
तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा।
मेचक कुटिल विसाल सरोरुह नैन सुहाये।
मुख पंकज के निकट मनो अलि छौना आये।

इन उद्धरणों को देखकर आप सोचते होंगे, कि यह व्यर्थ विस्तार किया गया है. परन्तु आवश्यकताओं ने मुझको ऐसा करने के लिये विवश किया। मैं यह दिखलाना चाहता हूं कि सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा कैसे समुन्नत हुई. किस प्रकार व्रजभाषा को प्रधानता मिली और उसका क्या स्वरूप स्थिर हुआ। अतएव मुझको सब प्रकार की रचनाओं का संकलन करना पड़ा। इस शताब्दी में अवधी और ब्रजभापा दोनों का सर्वांगीण श्रृंगार हुआ, दोनों में ऐसे लोकोत्तर ग्रन्थ लिखे गये. जैसे आज तक दृष्टिगोचर न हो सके। परन्तु एक बात देखी जाती है, वह यह कि ब्रजभाषा का विकास बाद की शताब्दियों में भी बहुत कुछ हुआ, वह आगे चल कर भी अच्छी तरह फूली. फली और फैली, किन्तु अवधी को यह गौरव नहीं प्राप्त हुआ। प्रेम मार्गी सूफियों के कुछ ग्रन्थ गोस्वामी जी के पश्चात् भी अवधी भाषा में लिखे गये हैं, परन्तु प्रथम तो उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है. दूसरे व्रजभाषा की ग्रंथावली के सामने वे शून्य के [ ३१० ]बराबर हैं । बाबा रघुनाथ दास का विश्राम सागर भी अवधी भाषा में लिखा गया है, और इसमें सन्देह नहीं कि यह भी अवधी भाषा का उत्तम ग्रन्थ है। उसका प्रचार भी हुआ। परन्तु इन कतिपय ग्रन्थों के द्वारा उस न्यूनता की पूर्ति नहीं होती जो ब्रजभाषा की विशाल ग्रंथमालाओं के सामने अवधी को प्राप्त हुई । जब यह विचार किया जाता है कि ब्रजभाषा के इस व्यापकता और विस्तार का क्या कारण है तो कई बातें सामने आती हैं। मैं उनको प्रगट करना चाहता हूं।

यह देखा जाता है कि चिरकाल से मध्यदेश की भाषा को ही प्रधानता मिलती आयी है। जिस समय संस्कृत भाषा का गौरवकाल था। उस समय भी इस प्रान्त से ही उसका प्रचार अन्य प्रदेशों में हुआ । जब प्राकृत भाषा का प्रचार हुआ तब भी शौरसेनी को ही अन्य प्राकृतों पर विशिष्टता मिली और उसी का अधिक विस्तार अन्य प्रदेशों में हुआ। संस्कृत के नाटकों में शिष्ट भाषा के रूप में शौरसेनी ही गृहीत हुई है। कारण इसका यह है कि आर्य सभ्यता इसी स्थान से अन्य प्रदेशों में फैली। और इसी स्थान से आर्यों के विशिष्ट दलों ने जाकर अन्य प्रदेशों पर अधिकार किया। ऐसी अवस्था में उनकी भाषाओं का महत्व जो अन्य प्रान्तवालों ने स्वीकार किया तो यह आश्चर्यजनक नहीं, क्योंकि यह देखा जाता है कि राज्यभाषा ही प्रधानता लाभ करती है। जिस समय व्रज- भाषा का उदय हुआ उस समय भी मध्यदेश की ही राज्य-सत्ता का प्रभाव भारतवर्ष पर था। उन दिनों अकबर सम्राट् था और उसकी राजधानी अकबराबाद या आगरे में थी। जो व्रजप्रान्त के अन्तर्गत है। अतएव वहां की भाषा का प्रभाव अन्य प्रदेशों पर पड़ना स्वाभाविक था. विशेष कर उस अवस्था में जब कि अकबर के समस्त बड़े अधिकारी व्रजभाषा से स्नेह करते थे। इतना ही नहीं वे व्रजभाषा में स्वयं रचना करके भी उन दिनों

उसे समादृत बना रहे थे। मैं राजा बीरबल, राजा टोडरमल और रहीम खां खानखाना की रचनाओं को ऊपर उद्धृत कर आया हूं। वे ही मेरे कथन के प्रमाण हैं, अकबर स्वयं व्रजभाषा में कविता करता था। कुछ पद्य उसके भी देखियेः [ ३११ ]

"जाको जस है जगत में सबै सराहै जाहि।
ताको जीवन सफल है कहत अकब्बर साहि।
साहि अकब्बर एक समै चले,
कान्ह बिनोद बिलोचन बालहिं।
आहट ते अबला निरख्यो चकि
चौंकि चली करि आतुर चालहिं।
त्यों बलि बेनी सुधारि धरी सुभई,
छबियों ललना अरु लालहिं।
चम्पक चारु कमान चढ़ावत,
काम ज्यों हाथ लिये अहि बालहिं।"

यही नहीं, उनके दरबार के राजे महाराजे भी इस रँग में रँगे हुये थे । उनकी ब्रजभाषा की रचनायें बतलाती हैं कि जो राजे ब्रजप्रान्त से दूर के थे वे भी उसके प्रभाव से प्रभावित थे। बीकानेर के राजा के भाई पृथ्वीराज की एक रचना देखिये । आप अकबर के प्रसिद्ध दरबारी थे। उन्होंने तीन ग्रन्थ लिखे थे। उनमें से एक ग्रन्थ 'प्रेम-प्रदीपिका' का एक पद्य यह है:-

"प्रेम इकंगी नेम प्रेम गोपिन को गायो।
बचनन विरह विलाप सखी ताकी छवि छायो।
ज्ञान जोग वैराग मधुर उपदेसन भाख्यो।
भक्ति भाव अभिलाष मुख्य बनि तनु मन राख्यो।
वहुविधि वियोग संयोग सुख सकल भाव समुझै भगत।
यह अद्भुत 'प्रेम-प्रदीपिका' कहि अनंत उद्दित जगत।"

कुछ लोगों ने यह लिखा है कि महाराज मानसिंह भी ब्रजभाषा में कविता करते थे, परन्तु उनकी कोई कविता मेरे देखने में नहीं आयी। [ ३१२ ]मैंने अब तक जो लिखा, उससे यह पाया जाता है कि उस समय अकबर के दरबार में व्रजभाषा की बड़ी चर्चा थी। यह मैं स्वीकार करूंगा कि रहीम खां खान खाना ने अवधी भाषा में भी रचना की है, पर उनकी अधिकांश रचनायें व्रजभाषा की ही हैं। 'नरहरि' और 'गंग' की जो रचनायें ऊपर उद्धृत की गई हैं। उनकी भाषा भी प्रौढ़ ब्रजभाषा है । इससे ब्रजभाषा के अधिक प्रचार होने का रहस्य समझ में आ जाता है। इसके अतिरिक्त उन दिनों मथुरा वृन्दावन में कृष्णावत संप्रदाय के ऐसे प्रसिद्ध महात्मा हुये. जिनका बहुत बड़ा प्रभाव अन्य प्रदेशों पर भी पड़ा । इन महात्माओं में से अधिकांश की रचनायें मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूं। उनके पढ़ने से आप को ज्ञात होगा कि उस समय व्रजभाषा कविता का प्रवाह कितना प्रबल था। जिस भाषा के सहायक सम्राट से लेकर उनके मंत्रि-मण्डल. उनके दरबारी राजे महाराजे और सामयिक अधिकांश महात्मागण हों उसका विशेष आदृत और विस्तृत हो जाना आश्चर्यजनक नहीं। मीराबाई के भजनों को भी आप पढ़ चुके हैं। वह भी भगवान कृष्णचन्द्र के प्रेम में ही रँगी थी। उनकी रचनाओं से यह बात स्पष्ट तथा विदित होती है। उस समय ब्रजभाषा की समुन्नति में उनका भी कम प्रभाव नहीं पड़ा । यह सच है कि उनकी भाषा में राजस्थानी शब्द मिलते हैं। परन्तु उनकी अधिकतर रचनायें ब्रजभाषा के ही रङ्ग में रँगी हैं। व्रजभाषा के विस्तार का एक बहुत बड़ा हेतु और भी है। वह यह कि कृष्णावत सम्प्रदाय जहाँ जहाँ गया वहाँ वहाँ उस सम्प्रदाय की प्रिय भाषा व्रजभाषा भी उसके साथ गई। भगवान् कृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका जिनके आराध्यदेव हों वे उनकी प्रिय भाषा का आदर क्यों न करते ? भगवान कृष्णचन्द्र के गुणगान का अधिक सम्बन्ध ब्रजलीला ही से है। फिर ब्रजप्रान्त की भाषा आदृत क्यों न होती ? कृष्ण-भक्ति के साथ ब्रजभाषा का घनिष्ट सम्बन्ध है। इसलिये वह भी उनकी भक्ति के साथ साथ ही उत्तरीय भारत में, राजस्थान और गुजरात में, अपना प्रभाव विस्तार करने में समर्थ हुई।

एक बात और है, वह यह कि भगवान कृष्णचन्द्र श्रृंगार रस के देवता [ ३१३ ]हैं। पहले कुछ रीति ग्रन्थ के आचार्यों ने विष्णु भगवान को देवता माना। परन्तु उत्तर-काल में भगवान कृष्णचन्द्र की ही प्रधानता हुई। इस लिये श्रृंगार रस के वर्णन में उनकी व्रजलीला को अधिकतर स्थान दिया गया। और व्रजलीला के साथ ही व्रजभाषा भी सादर गृहीत हुई । सत्रहवीं से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक जहां थोड़े से अन्य साहित्य के ग्रन्थ लिखे गये वहां श्रृंगार रस के ग्रन्थों की भरमार रही। पहले श्रृंगार रस के वर्णन में कुछ संकोच भी होता था परन्तु उसके कृष्ण-लीलामय होने के कारण जब यह भाव भी आकर उसमें सम्मिलित हो गया कि यह रूपान्तर से कृष्ण गुणगान है १जो पवित्र और निर्दोष है तो बड़े असंयत भाव और अधिकता से श्रृंगार रस की रचनायें होने लगीं । काल पाकर साहित्य पर उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा । कृष्ण गुणगान करने के बहाने उच्छृंखलताओं और अयथा वर्णनों ने स्थान ग्रहण किया. जिससे श्रृंगार-सम्बन्धी ग्रन्थ अनेक अंशों में कलुपित होने से न बचे और यह उक्त त्यागशील महात्माओं के उत्तम आदर्शों का बहुत बड़ा दुरुपयोग हुआ जो बाद की अनेक लांछनों का कारण बना । अष्टछाप के वैष्णवों में जो भक्ति और पवित्रता पायी जाती है. स्वामी हित हरिवंश, स्वामी हरिदास आदि महात्माओं में जो सच्ची भक्ति और तन्मयता अथच तदीयता देखी जाती है, विठ्ठल विपुल में जो प्रेमोन्माद और तल्लीनता मिलती है. उसका शतांश भी उत्तर काल के श्रृंगार रस के ग्रन्थकारों में दृष्टिगत नहीं होता। इसलिये उनकी रचनाओं का कुछ अंश ऐसा बन गया जो निंदनीय कहा जा सकता है। यह मैं कहूँगा कि उस काल के कुछ रसिक राजा-महाराजाओं ने इस रोग को बढ़ाया और कुछ ,उस काल के उर्दू और फ़ारसी साहित्य के संसर्ग ने। परन्तु यह सत्य है कि जहाँ व्रजभाषा की रचनाओं के विस्तार के और कारण हुये वहां एक कारण यह श्रृंगार रस का व्यापक प्रवाह भी हुआ। ऊपर जो पद्य उद्धृत किये गये हैं उनमें से ‘करनेस' 'लालनदास' की रचनाओं

१ भिखारीदासजी लिखते हैं:-

'आगे के सुकवि रीझि हैं तो कविताई,
ना तौ राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है।'

[ ३१४ ]की ओर मैं आपलोगों को दृष्टि विशेष रूप से आकर्षित करता हूं। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात होगा कि इसी शताब्दी में ही कुछ कवियों ने ब्रजभाषा की रचना में फ़ारसी और अरबी के अधिकतर शब्दों को भरना आरम्भ किया था। परन्तु ऐसे कवियों को सफलता प्राप्त नहीं हुई और न उनका अनुकरण हुआ। फ़ारसी अरबी के शब्दों के ग्रहण करने के वही नियम गृहीत रहे । अपनी आदर्श रचना द्वारा जिनका प्रचार सूरदास जी और गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया था अर्थात् ब्रज-

भाषा की कविता में वे ही शब्द आवश्यकतानुसार लिये गये जो अधिकतर बोलचाल में आते अथवा प्रचलित थे।