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लेखाञ्जलि/११—चित्रों द्वारा शिक्षा

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लेखाञ्जलि
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ९३ से – ९९ तक

 

११—चित्रों द्वारा शिक्षा

अभी कलतक हमलोग इस लायक भी न समझे जाने थे कि अपने देशके राज्य-प्रबन्धका थोड़ासा भी अंश हमारे सिपुर्द किया जा सके। सरकार कहती थी कि अभी तुम निरे बच्चे हो, राज-काज चलाने की योग्यता तुममें नहीं। जब होगी, तब तुम्हें वह काम दे दिया जायगा। अभी तो तुम हमीं को अपना माँ-बाप समझो। हमीं तुम्हारी रक्षा करेंगे—तुम्हें लिखावें, पढ़ावेंगे और तुम्हें बलाओंसे बचावेंगे। पर समयने पलटा खाया और सरकार हमें अपना राज्य संभालनेक कुछ-कुछ योग्य ही नहीं समझने लगी, किन्तु उसने राज्य-प्रबन्धसम्बन्धी बहुत-कुछ काम भी हमें दे डाला।

कुछ समय पूर्व, इधर तो सरकार हमारी अयोग्यताकी घोषणा कर रही थी, उधर इस देशकी कई रियासतें अपने राज्य-प्रबन्धकी खूबियोंसे हमारी अंगरेज-सरकारको, कई विषयोंमें मात कर रही थीं। मानों वे यह कह रही थीं कि भारतवासियोंपर अयोग्यताका कलङ्क लगाना नितान्त निराधार है। मौक़ा दिये जानेपर वे सरकारसे भी अच्छा राज्य-प्रबन्ध कर सकते हैं। शिक्षा-दानहीको लीजिये। देखिये, हमने इसका जैसा अच्छा प्रबन्ध किया है, वैसा अच्छा प्रबन्ध आजतक आपसे किसी एक भी प्रतिमें करते नहीं बना। माइसोर, ट्रावनकोर और बड़ौदाकी रियासत ऐसी ही रियासतोंमें हैं।

शिक्षाके सम्बन्धमें बड़ोदेकी रियासतें कई बातोंमें हमारी सरकारसे आगे बढ़ी हुई है। इसका एक उदाहरण सुनिये—

बड़ौदेमें एक बहुत बड़ा पुस्तकालय राज्यकी ओरसे संस्थापित है। उसकी स्थापना हुए बहुत समय हुआ। उसके नियम निर्दिष्ट करने और उसे सुव्यवस्थित रीतिपर चलानेके लिए महाराजा बड़ोदाने एक अनुभवी कर्मचारी अमेरिकासे बुलाया था। उसकी अधीनतामें रहकर अब तो कई भारतवासी भी उस कामको सीख गये हैं। ये अब पुस्तकालयको बड़ी योग्यतासे चला रहे हैं। उसका एक महकमा ही अलग कर दिया गया है। उसने बड़ौदा-राज्यके बड़े-बड़े गाँवों तकमें पुस्तकालय खोल दिये हैं और जहाँ पुस्तकालय नहीं खोले जा सकते वहां सफरी पुस्तकालयोंसे लाभ उठानेका प्रबन्ध कर दिया है। इससे छोटे-छोटे गाँवोंके निवासियोंके लिए भी ज्ञानार्जनका मार्ग सुलभ हो गया है। पुस्तकालयोंकी बदौलत पुस्तकावलोकनसे कितनी ज्ञानवृद्धि हो सकती है, उसे बतानेकी जरूरत नहीं। खेद है, इस तरहका प्रबन्ध अंग्रेजी शासनके अधीन रहनेवाले भारतवासियोंके लिए सुलभ नहीं।

बड़ौदेके इस पुस्तकालय-विभागने कुछ समयसे देहातियोंके लाभके लिए एक और भी काम आरम्भ कर दिया है। इस कामसे छोटे-छोटे गाँवोंके अपढ़ नर, नारी और बच्चे तक अपना मनोरञ्जन कर सकते हैं और साथ ही जानने योग्य अनेक नई-नई बातें जान सकते हैं। यह काम है—चित्रों द्वारा शिक्षा देना। इस विषयपर डी॰ एस॰ सवरकर नामके एक महाशयने एक छोटीसी पुस्तिका लिखी है। उसे भारतीय गवर्नमेन्टहीके "ब्यूरो आफ एजुकेशन" ने छापकर प्रकाशित किया है। इस पुस्तकोंमें थोड़ेमें यह बताया गया है कि बड़ौदा-राज्य किस प्रकार अपनी प्रजाको चित्रों द्वारा शिक्षा देता है—

शिक्षाका यह क्रम खासकर स्कूलके छात्रोंके लिए नहीं। हाँ, किसी गांवमें यदि यह शिक्षा दी जा रही हो तो स्कूलके छात्र भी वहाँ जाकर उससे लाभ उठा सकते हैं। स्कूलोंके लिए तो इस प्रकारकी शिक्षाका प्रबन्ध अलग ही है। शिक्षा-विभागके अधिकारियोंने प्रत्येक देहाती-स्कूलको कार्डोंपर छपे हुए तथा और प्रकारके भी सैकड़ों चित्र दिये हैं। उन्होंने स्टीरियस्कोप नामके यन्त्र भी दिये हैं। इन यन्त्रों की सहायतासे देखनेपर छोटे भी चित्र बहुत बड़े देख पड़ते हैं और उनका प्रत्येक दृश्य खूब अच्छी तरह ध्यानमें आ जाता है। अध्यापक चित्र दिखा-दिखाकर उनके सम्बन्धकी सारी बातें छात्रोंको विस्तारपूर्वक समझाते आर उनकी ज्ञानवृद्धि करते हैं। अँगरेजी सरकार द्वारा शासित किसी भी प्रदेशके स्कूलोंमें इस तरहका कुछ प्रबन्ध नहीं।

बड़ोदा-राज्यमें देहातियोंकी शिक्षाके लिए जो चित्र-प्रदर्शिनी शाखा खुली है उसका सीधा सम्बन्ध बड़ौदेके राजकीय पुस्तकालयसे है। इस शाखाको खुले कोई ८ वर्ष हुए। यह शाखा कार्ड चित्र, स्टीरियोग्राफ, मैजिक लेनटर्न स्लाइड और सीनामेटोग्राफ फिल्म—इन चार प्रकारके चित्रोंके द्वारा देहातियों को शिक्षा देती है। उसके पास दो सीनिमा मैशीनें, तीन बिजलीकी मैशीनें, दो मैजिक लैनटर्न और एक रेडियोपटिकन नामकी मैशीन—इतनी कलें हैं। इनके सिवा ५० स्टीरियस्कोप और उनकी सहायतासे दिखानेके लिए कोई ५ हजार चित्र हैं। आठ-सौके लगभग मैजिक लैनटर्नके स्लाइड और कोई एक-सौके लगभग सीनामेटोग्राफ फिल्म हैं। इन्हीं चित्रों और मैशीनों आदिके द्वारा बारी-बारीसे सारे राज्यके देहातियों का मनोरञ्जन और ज्ञानवर्धन किया जाता है। सुनते हैं, १९१८-१९१९ ईसवीमें डेढ लाखसे भी अधिक लोगोंने इस शिक्षासे लाभ उठाया।

इस कामके लिए दो इन्स्पेक्टर नियत हैं। वे राजकीय पुस्तकालयके अधिकारियों की मातहतीमें काम करते हैं। एककी तनख्वाह ३० से ५० रुपये तक और दूसरेकी ६० से १०० रुपये तक है। ये लोग चित्रों द्वारा शिक्षा देनेका भी काम करते हैं और देहाती पुस्तकालयोंका निरीक्षण भी करते हैं। देहातमें गांव-गांव भेजी जानेवाली पुस्तकों (ट्रेवलिंग लाइब्रेरीज़) की देख-भाल भी ये लोग करते हैं। इनके पास जो चित्र रहते हैं उनके दृश्योंके वर्णन आदि इनके पास पुस्तकाकार रहते हैं। ये वर्णन सब गुजराती भाषामें हैं, क्योंकि यही भाषा राज्यके अधिकांश निवासियोंकी मातृभाषा है। जब ये लोग किसी गाँवमें पहुँचते हैं तब पास-पड़ोसके गांवोंको भी खबर भेज दी जाती है। और तमाशेके रूपमें शिक्षादान या लेक्‌चरका समय बता दिया जाता है। बस, समयपर झुण्डके झुण्ड लोग बच्चे, बूढ़े, स्त्रियाँ एक हो जाते तब लेक्‌चर आरम्भ होता है और कोई एक घंटे तक होता रहता है। बड़े-बड़े गांवों और कसबोंमें खास तौरपर लेक्‌चरका प्रबन्ध किया जाता है। लेक्‌चर देनेवाला निर्दिष्ट विषयके चित्र दिखाता जाता है और उनका मर्म अपने पासकी पुस्तक देख-देखकर समझता जाता है जैसे यदि अमेरिकाकी खेतीके सम्बन्धके चित्र दिखाये जाते हैं तो भी खेती करनेके ढंग ओर फसल काटने, माँड़ने, उड़ाने इत्यादिके यन्त्रोंके चित्र दिखाते समय लेक्चर देनेवाला उनके उपयोग आदि भी समझाता जाता है। इस समय इस शाखाके पास जो चित्र हैं उनका अधिक सम्बन्ध योरप और अमेरिकासे ही है। उनमें उन्हीं महादेशोंके दृश्य दिखाये गये हैं। यह बात हम लोगोंके लिए भी लाभदायक है, पर बहुत अधिक नहीं। ऐसे ही चित्रोंकी अधिकता होनी चाहिये जिनका सम्बन्ध अपने देशसे हो। अमेरिका के बाजारोंके दृश्य और ब्रिटानीके गुलाबके बागके दृश्य देखकर देखनेवालों को उतना लाभ नहीं हो सकता जितना कि ताजमहल, अजंताकी गुफाओं, सांची और सारनाथके स्तूपों, और काशीके घाटोंके दृश्य देखकर हो सकता है! इस त्रुटिको पुस्तकालयके अधिकारी भी समझते हैं और शायद वे इसे दूर करने की फिक्र भी कर रहे हैं।

जो दो सीनिमा-मैशीनें चित्र-शिक्षाके काम आती हैं उनमेंसे "पाथे" की मैशीन दूसरी मैशीनसे अच्छी है। उसका पूरा नाम, अँगरेजीमें है—"पाथेज़ सेल्फ़ कन्टेन्ड सिनेमा ग्रूप। उसकी कीमत दो हज़ार रुपया है। उसके एंजिनमें पेट्रोल जलाया जाता है।


एंजिनकी शक्ति दोसे तीन घोड़ेतककी है । यह मैशीन एक गाड़ीपर रक्खी रहती है, जिसे पक्की सड़कपर आदमी आसानीसे खींच सकते हैं। इसका वजन कोई ४ मन है। इस मशीनकी सहा- यतासे ६५ फिल्म दिखाये जा सकते हैं।

दुसरी मैशीनका नाम है---कोक । यह पहलीसे छोटी है। कीमत इसकी कोई ४०० रुपया है। यह आसानीसे उठाई जा सकती है। यह अपने ही भीतर बिजलीकी रोशनी पैदा करती है और इसके दस्तेको जग घुमा देनेहीसे चलने लगती है। वजन इसका दस बारह सेर है। ३ फुट लम्बे और उतने ही चौड़े चित्र इसके प्रकाशकी सहायतासे दिखाये जा सकते हैं। इसके फिल्मोंकी संख्या ४५ है। कृषि, उद्योग-धन्धे, विज्ञान, सफाई, युद्ध और हंसी-मज़ाक आदि कई विषयोंके दृश्य इसके फिल्मोंके द्वारा देखनेको मिलते हैं।

तीसरी मैशीन,"रेडिओपटिकन” नामकी बहुत छोटी है। उसका वज़न सेर भरसे अधिक न होगा। काडौंपर ही छपे हुए चित्र उसकी सहायतासे दिखाये जा सकते हैं। इस मैशीनकी कीमत कोई १०० रुपया है। इसमें एक दोष है । एक तो इसका माल-मसाला चुक जानेपर देहातमें नहीं मिल सकता, दूसर इसके बिगड़ जानेका डर भी लगा रहता है। इस कारण यह बाहर देहातको, कम भेजी जाती है।

युद्धके समय मैजिक लेनटर्नके लेक्चरोंका प्रबन्ध इस प्रान्तकी गवर्नमेंटने भी कुछ दिनोंतक किया था। उसने कुछ आदमियोंको इस कामपर नियत कर दिया था। वे देहातमें गाँव-गाँव---विशेषकर उन गाँवोंमें जहाँ मदरसे हैं---जाकर चित्र दिखाते फिरे थे। पर ये चित्र
प्रायः सबके सब, युद्धसम्बन्धी थे और अंगरेजी गवर्नमेंटकी जल, थल और व्योम-विहारणी शक्तिके द्योतक थे। उनका दिखानेका मतलब कुछ और ही था, शिक्षा-दान नहीं। तथापि उनसे भी मनोरञ्जनके सिवा, कितनी ही नई-नई बातों का ज्ञान देखनेवालोंको हो सकता था। जैसा प्रबन्ध महाराज बड़ोदाने अपने राज्यों देहातियोंकी ज्ञानवृद्धिके लिए किया है वैसा, इस देशमें अन्यत्र कहीं भी सुनने में नहीं आया। शिक्षा विभागका सूत्र अब भारतीयोंहीके प्रतिनिधि, मन्त्रियों के हाथमें आ गया है। अतएव, वे चाहें तो शिक्षा-दान की इस प्रणालीका प्रचार अपने-अपने प्रान्तों में कर सकते हैं।

[अप्रैल १९२१]