कहानी खत्म हो गई/प्रतिशोध

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प्रतिशोध

वेश्या जैसे पापलिप्त व्यक्तियों के हृदय भी आघात से एकाएक बदल सकते हैं। 'प्रतिशोध' एक ऐसी ही कहानी है।

मैं रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करने के समय अपने सहयोगियों से बहुत कम बोलता हूं। आसपास के प्राकृतिक सौन्दर्य-दर्शन से जब जी उचटता है तो कोई पुस्तक पढ़ने लगता हूं या आंखें मूंदकर सो जाता हूं। इसलिए जब कलकत्ता से दिल्ली के लिए चलने लगा तो अलमारी से कुछ अच्छे उपन्यास और दो-तीन मासिक पत्र हैण्डबेग में रख लिए, ताकि कल सवेरे पटना से आगे की यात्रा प्रारम्भ होने पर साहित्य-चर्चा में ही समय बिता दूंगा। परन्तु मेरी यह भविष्य-चिन्ता बिलकुल बेकार साबित हुई। क्योंकि पटना जंकशन पर गाड़ी के डिब्बे का द्वार खोलकर अन्दर पैर रखते ही पंडित मुरलीधर ने उच्च स्वर से 'स्वागतम् महाभाग' कहने के पश्चात् प्रश्न किया-क्यों, कहां चले?

मैंने हाथ जोड़कर पंडितजी को प्रणाम करने के बाद कहा-मैं तो दिल्ली जा रहा हूं और आप?

'मैं भी कानपुर होकर मथुरा जाऊंगा। यमद्वितीया के अवसर पर विश्रामघाट पर स्नान होंगे। यहां एक मित्र से मिलने आया था। आप खूब मिले, आनन्द से यात्रा होगी।'

इसके बाद विस्तरा खोलकर उन्होंने खाली बेंच पर फैला दिया और इतमीनान से बैठकर सूंघनी सूंघने लगे। तीर्थ-स्थानों का प्रसंग छिड़ा। पंडितजी ने बाबा विश्वनाथ की पुरी का वर्णन प्रारम्भ किया। काशी तीन लोक से न्यारी है। कहने को तो लोग प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं, शास्त्रों ने उसकी महिमा का भी बहुत बखान किया है। परन्तु काशी-सी चहल-पहल वहां कहां? काशी को देख लिया तो समझ लो कि सारे भारतवर्ष की सैर हो गई! क्यों आपकी क्या राय है? [ ५१ ]मैंने मुस्कराते हुए कहा--इसमें क्या सन्देह ।

इसके बाद मथुरा तो आपने देखा ही होगा। कानपुर कैसा शहर है? लखनऊ के नवाबों ने भी खूब ऐश किए। भई, सच पूछो तो नवाबी का आनन्द जैसे वाजिदअलीशाह ने लूटा वैसा शायद ही किसी वादशाह या नवाब को नसीब हुआ हो। इसके बाद स्वराज्य कब मिलेगा, आन्दोलन का क्या हाल है ? कलकत्ता में क्या हो रहा है ? इत्यादि।

तात्पर्य यह कि पण्डितजी का प्रत्येक प्रश्न एक विस्तृत विवरण का मुहताज था। मैं अपनी जानकारी के अनुसार उन प्रश्नों का उत्तर देता रहा। बीच-बीच में जिरह भी होती रही और प्रतिवाद भी।

दिल्ली एक्सप्रेस अपनी पूरी चाल से जा रहा था। मैं प्रकृति की शोभा देखता और पण्डितजी के गूढ़ प्रश्नों का यथासाध्य उत्तर भी देता जाता था । पण्डितजी ने पटना का वर्णन प्रारम्भ किया। उसका ऐतिहासिक विवरण भी सुनाने लगे और एक से एक कठिन प्रश्न भी करते जाते थे। अन्त में उनकी बातों और प्रश्नों से ऊबकर मैंने हैण्डबेग खोलकर 'विशाल भारत' की एक प्रति निकाली और पण्डित बनारसीदासजी चतुर्वेदी का लिखा हुआ 'श्रद्धेय गणेशजी' शीर्षक लेख पढ़ने लगा। अमर शहीद की पवित्र स्मृति ने हृदय में एक विचित्र स्पन्दन पैदा कर दिया। चतुर्वेदी जी के सीधे-सादे शब्दों में, आडम्बरहीन भाषा में एक गम्भीर वेदना भरी हुई थी। पढ़ते-पढ़ते मेरी आंखें छलछला उठीं। इतने में पण्डितजी ने पास ही पड़ी हुई 'माधुरी' की प्रति खींच ली और द्विजश्याम की 'गङ्गे' शीर्षक कविता उच्च स्वर से गा-गाकर पढ़ने लगे। हमारी गाड़ी मुगलसराय की ओर दौड़ रही थी। उसकी घड़घड़ाहट और पण्डितजी के पंचम स्वर ने एक विचित्र ध्वनि पैदा कर दी और दो यात्री जो पास की बेंचों पर मुंह छिपाए सो रहे थे, कुलबुलाने लगे।पहले एक वृद्धा ने रज़ाई से मुंह निकाला। इसके बाद दूसरी बेंच में दुशाला से मुंह निकालकर एक युवती ने चकित दृष्टि से पहले पण्डितजी की ओर फिर मेरी ओर देखा । महिला की दृष्टि में स्वाभाविकता थी। वह अंगड़ाई लेकर उठ बैठी और मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके बोली--बाबूजी, क्षमा कीजिएगा। क्या पटना का स्टेशन निकल गया?

मैंने उत्तर दिया--हां, बड़ी देर हुई।

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने पण्डितजी की ओर देखकर प्रश्न किया-[ ५२ ]अब चाय कहां मिलेगी?

परन्तु जब पण्डितजी ने उसके प्रश्न का कुछ उत्तर देने के बदले भ्रू कुञ्चित करके उसकी ओर से अपना मुंह फेर लिया तो मैंने कहा-मुगलसराय आ गया है, वहां आपको चाय मिल जाएगी।

उसने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखकर पूछा-आप कहां जा रहे हैं ?

मैंने उत्तर दिया-दिल्ली।

इसके बाद और कई प्रश्न हुए। जैसे वहां आप क्या करते हैं ? निवास-स्थान कहां है ? आपका शुभ नाम ? इत्यादि ।

मैं बहुत थोड़े शब्दों में उसके प्रश्नों का उत्तर देता जा रहा था । इतने में गाड़ी आकर मुगलसराय के स्टेशन पर खड़ी हो गई। स्त्री ने एक हिन्दू चायवाले से एक कुल्हड़ चाय लेकर पी। इसके बाद एक सिगरेट जलाकर पीते-पीते बोली-पण्डितजी, आपका गाना तो बड़ा सुन्दर हो रहा था, परन्तु आपने बन्द क्यों कर दिया ? गाइए!

बेचारे पण्डितजी तो पहले से ही उसकी लापरवाही और बातचीत करने का ढंग देखकर नाक-भौं सिकोड़ बैठे थे । उसपर से गाने की फरमाइश सुनी तो और भी अप्रसन्न हुए और घृणासूचक दृष्टि से उसकी ओर देखकर मुंह फेर लिया।

पण्डितजी का यह भाव देखकर बड़ी मुश्किल से मुझे अपनी हंसी रोकनी पड़ी। थोड़ी देर के बाद मैंने पण्डितजी से पूछा-आखिर आप नाराज़ क्यों हो रहे हैं ?

उन्होंने क्रुद्ध होकर उत्तर दिया-चुप भी रहो । एक भ्रष्टा, कुलटा से बातें करते तुम्हें लज्जा भी नहीं आती ! राम-राम !

पण्डितजी की इस बात पर मैं तो मुस्कराकर चुप हो गया। परन्तु बेचारी रमणी कुछ खिन्न-सी हो गई और वेदना-भरे स्वर में बोली-हां पण्डितजी, मैं एक कुलटा स्त्री हूं, रण्डी हूं। भगवान ने मुझे इस अवस्था में डाल दिया है।

अन्तिम बात कहते-कहते उसकी आंखों से दो बूंद प्रांसू निकलकर उसके गुलाबी गालों पर लुढ़क गए।

मेरे लिए वह दृश्य बड़ा ही मर्मवेधी था, परन्तु पण्डितजी ने घृणा-व्यंजक हंसी के साथ मुझसे कहा-ओहो, देखा यह ढोंग !

अब मुझसे नहीं रहा गया। मैंने किंचित् भर्त्सना के साथ पण्डितजी से कहा[ ५३ ]जाने दीजिए, क्यों बेचारी को तंग कर रहे हैं। कोई अच्छा हो या बुरा, आपका क्या लेता है ?

इसके बाद स्त्री को आश्वासन देता हुआ मैं बोला-आप नाहक दुखी हो रही हैं । यह तो संसार है। कोई किसीको अच्छा समझता है और कोई बुरा। वास्तविक अच्छाई या बुराई की परख करनेवाले यहां बहुत थोड़े हैं।

उसने एक दीर्घ निःश्वास के बाद कहा-वास्तव में मैं एक भ्रष्टा स्त्री हूं और आबरू बेचकर पेट पालती हूं। परन्तु मैंने क्यों इस निकृष्ट पथ का आश्रय लिया है, यह पूछनेवाला इस संसार में कोई नहीं है, मुझे यही दुःख है ।

पण्डितजी एक विजयी वीर की तरह उसकी बातें सुनकर मुस्करा रहे थे।परन्तु मैंने उसके कष्ट का अनुभव किया और इस प्रसंग को यहीं समाप्त कर देने की इच्छा से बोला-आप कितनी ही पथ-भ्रष्ट क्यों न हों, परन्तु आपके अन्दर एक पवित्र हृदय है।

'और नसों में रक्त भी!'

उसने उत्तेजित स्वर से मेरे अधूरे वाक्य को पूरा किया। उसका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा था और गालों की लालिमा स्वाभाविकता की सीमा का उल्लंघन कर रही थी।

उसने एक बार तीव्र दृष्टि से पण्डितजी की ओर देखकर कहा- मुझे भ्रष्टा कहनेवाले हैं, नीच हैं। अपने को पवित्रता और भद्रता के बाह्याडम्बर में छिपानेवाले भ्रष्ट हैं। धर्म-ढोंगी, दूसरों को पवित्रता का उपदेश देनेवाले सब नीच हैं। सारा समाज नीच है । मैंने समाज को, विशेषकर हिन्दू समाज को, जहां पवित्रता की डींग मारनेवालों की भरमार है, अच्छी तरह देख लिया है। सारे समाज में 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' भरे पड़े हैं । वे दूसरे की आंखों की फूली देखते हैं, परन्तु अपनी आंखों का शहतीर नहीं देखते। यहां पण्डित के वेष में, धर्म-ध्वजी के वेष में, साधु और महात्मा के वेष में, हज़ारों नहीं, लाखों पापी, पाखण्डी मौजूद हैं । वे लोगों की आंखों में धूल झोंककर दुराचार करते हैं और मैं प्रत्यक्ष'

बोलते-बोलते उसकी आवाज़ लड़खड़ाने लगी, आंखें लाल हो गईं और शरीर थरथराने लगा। मुझे भय हुआ कि कहीं उसे गश न आ जाए। मैंने उसके साथ की बुढ़िया से कहा-देखती क्या हो, एक गिलास पानी पिलाकर इन्हें लिटा दो। इनका मस्तिष्क कुछ गरम हो गया है। अब अधिक बोलेंगी तो बेहोश हो [ ५४ ]जाएंगी।

बुढ़िया ने मेरे आदेश का अक्षरशः पालन किया। पण्डितजी सन्नाटे में आकर मेरा मुंह ताक रहे थे । थोड़ी देर के बाद बोले-अगले स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हो तो हम लोगों को दूसरे डिब्बे में चले जाना चाहिए। इस स्त्री का मस्तिष्क कुछ विकृत मालूम पड़ता है।सम्भव है, कोई उत्पात कर बैठे।

मैंने पण्डितजी की बातों का कोई उत्तर नहीं दिया। मन में विचित्र प्रकार की भाव-तरंगें उठ रही थीं। हिन्दू-समाज पर रमणी ने जो आक्षेप किए थे, वे मानो कानों में गूंज रहे थे। मैं अपनी सामाजिक अवस्था पर विचार करने लगा। मेरी दृढ़ धारणा हो गई कि यह रमणी समाज की सताई हुई है। किसी सामाजिक रूढ़ि ने ही इसे वेश्या--जीवन व्यतीत करने के लिए विवश किया है। यह कैसे वेश्या बनी, पहले कौन थी, यह जानने के लिए मैं उत्सुक होने लगा। गाड़ी वेतहाशा भागी जा रही थी और मेरे मन-महाराज भी अपने खयाली घोड़ों पर चढ़े सरपट दौड़ रहे थे । अगला स्टेशन पाया और निकल भी गया।

एक घण्टा योंही गुज़र गया। रमणी फिर उठ बैठी। उसके चेहरे पर स्वाभाविक शान्ति विराज रही थी। भीषण तूफान के बाद मानो प्रकृति ने निस्तब्ध भाव धारण कर लिया हो। मैंने उससे पूछा--कहिए, आपकी तबियत अब कैसी है ?

उसने मुस्कराकर उत्तर दिया--मैं बीमार थोड़े ही हूं। मैं एक अत्याचार-पीड़िता स्त्री हूं। मेरी पवित्र भावना निर्दयतापूर्वक कुचल डाली गई है। मेरा हृदय पका फोड़ा बन गया है, इसीसे ज़रा भी ठेस लगते ही वह फूट पड़ता है।

मैंने संकुचित भाव से कहा--मुझे क्षमा कीजिएगा। आपका परिचय जानने के लिए मेरा मन बहुत उत्सुक हो रहा है। अगर आपको कोई आपत्ति न हो तो

उसने बीच में ही बात काटकर कहा--मैं एक साधारण वेश्या हूं। बस यही मेरा परिचय है।

मैंने कहा--परिचय से मेरा मतलब आपके वर्तमान जीवन से पूर्व की कथा से था। परन्तु मैं आपको इसके लिए विशेष कष्ट नहीं देना चाहता।

थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद उसने कहा-मेरी राम-कहानी सुनना चाहते हैं ? अच्छा ठहरिए, ज़रा हाथ-मुंह धोकर खा लूं तो सुनाती हूं। परन्तु मेरी पापपूर्ण राम--कहानी में कोई रोचकता न होगी। [ ५५ ]मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया।

वह कहने लगी--मैं कौन हूं, किसकी लड़की हूं और कहां की रहनेवाली हूं,यह न बताऊंगी। क्योंकि अपने पूज्य पिता-माता के नाम को कलंकित करना मुझे स्वीकार नहीं है और न उनका नाम-धाम जानने के लिए आपको ही कोई उत्सुकता होनी चाहिए।

मैंने कहा--अच्छी बात है, आप जो कुछ सुनाएंगी, वही काफी होगा। उससे अधिक कुछ जानने की मैं बिलकुल चेष्टा न करूंगा।

वह कहने लगी :

अच्छा तो सुनिए ! मेरे पिता संयुक्त प्रान्त के एक शहर के प्रतिष्ठित हिन्दू थे। मैं और मेरी बड़ी बहिन के सिवा उनके और कोई सन्तान न थी। इसलिए वे हमें पुत्र की तरह मानते थे। यथासाध्य उन्होंने हमें कुछ पढ़ाया-लिखाया भी था। मेरी माता का देहान्त मेरे बचपन में ही हो गया था। घर में पिताजी की एक वृद्धा चाची थी, वही हम दोनों बहिनों की देख-रेख किया करती थीं। साथ ही पिताजी को दूसरा विवाह कर लेने का परामर्श दिया करती थीं।पहले तो पिताजी इसके लिए राजी नहीं होते थे, परन्तु अन्त में अपने चाची तथा अन्यान्य शुभचिन्तकों के बहुत समझाने-बुझाने पर राजी हो गए।

विवाह हो गया, हमारी सौतेली मां घर आ गईं। साथ ही हम लोगों के लिए दुर्भाग्य भी लेती आईं। क्योंकि उनके आने के कुछ दिनों बाद से ही पिताजी के स्वभाव में विशेष परिवर्तन दिखाई देने लगा। अब वे पहले की तरह हम लोगों से स्नेह नहीं करते थे। हम लोगों के भरण-पोषण का भार भी सौतेली मां पर छोड़- कर निश्चिन्त हो गए। दादी अर्थात् पिताजी की वृद्धा चाची की भी अब कुछ नहीं चलती थी। हम सभी एक तरह से माताजी के गुलाम बन गए। उनकी आज्ञाओं का पालन करना और उनकी जली-कटी बातें बर्दाश्त करना हम लोगों का परम कर्तव्य हो गया। पिताजी उनके विरुद्ध एक शब्द भी सुनना नहीं चाहते थे। सुनकर भी कुछ प्रतिकार करने की शक्ति उनमें न थी। क्योंकि हमारी नवीन मां समय-समय पर उन्हें भी फटकार दिया करती थीं।

अन्त में बहिन का विवाह हो गया। और वे अपनी ससुराल चली गईं।बुढ़िया दादी का देहान्त हो गया। उस समय मेरी उम्र चौदह-पन्द्रह साल की [ ५६ ] थी। माता-पिता में कभी-कभी मेरे विवाह की भी चर्चा होने लगी। बहुधा इस विषय को लेकर दोनों में घण्टों तर्क-वितर्क भी हो जाता था। मैंने छिपकर कई बार उनकी बातें सुनने का प्रयत्न भी किया, पर कुछ समझ न सकी। अन्त में पता चला कि यह झगड़ा रुपये-पैसे को लेकर हुआ करता था। क्योंकि माताजी मेरे विवाह में अधिक रुपये खर्च करने का विरोध किया करती थीं और पिताजी को मेरे लिए ऐसा वर ढूंढ़ने का परामर्श देती थीं, जो साधारण स्थिति का हो और थोड़े तिलक-दहेज़ पर ही विवाह करने को राजी हो जाए।

मेरी सौतेली माता के नैहर का एक अधेड़ मनुष्य अक्सर हमारे घर आया करता था। माताजी उसे अपना भाई बताया करती थीं और न जाने क्यों उससे उनकी खूब बनती थी। उसके आने पर बड़ी तत्परता से उसकी आवभगत किया करती थीं। माताजी का धर्म-भाई होने के कारण मैं भी उसके सामने होती थी। सुनने में आया कि वह पुलिस का दारोगा है और बड़ा मालदार आदमी है।

एक दिन दाई की ज़बानी मालूम हुआ कि माताजी उसीके साथ मेरा विवाह कर देना चाहती हैं। पहले तो मुझे इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ।

परन्तु बाद में मालूम हुआ कि खबर सोलह आने सच थी। यद्यपि पिताजी इस बात पर राज़ी न थे, परन्तु माताजी के आदेश के विरुद्ध कुछ करना भी उनके लिए सम्भव न था।

मैंने यह हाल सुना तो मुझे बड़ा दुःख हुआ। क्योंकि मैं उसे फूटी आंख भी नहीं देखना चाहती थी। उसकी सूरत-शक्ल भी अच्छी न थी। चेहरे पर और बातचीत में उद्दण्डता भरी थी। परन्तु माताजी मेरे सामने उसके रूप-रंग और विद्या-बुद्धि की बड़ी प्रशंसा किया करती थी। मानो मेरे लिए उससे बढ़कर उपयुक्त वर संसार में दूसरा कोई था ही नहीं।

एक दिन उसी दाई की ज़बानी मालूम हुआ कि दारोगाजी के साथ मेरे विवाह की बातचीत पक्की हो गई। मेरे सिर पर मानो वज्रपात हो गया। कलेजा धड़कने लगा। मैं घण्टों तक छिपकर रोती रही। अन्त में कई दिनों के बाद मैंने अपनी बहिन को एक पत्र लिखा।मुझे विश्वास था कि बहिन कदापि इस विवाह का समर्थन न करेगी। परन्तु मालूम नहीं, वह पत्र मेरी बहिन को मिला ही नहीं।

क्योंकि उसका कोई उत्तर नहीं आया। परन्तु इस घटना के बाद से मेरी सौतेली मां मुझसे तनी-सी रहने लगी और समय-समय पर ताने देने लगी। [ ५७ ]इतने में एक दिन सुना कि विवाह का दिन निर्धारित हो चुका है और शीघ्र ही तिलक भेजा जानेवाला है । अब तो मेरी बेचैनी और भी बढ़ गई। यहां तक कि चिन्ता के मारे मैंने कई दिन तक भोजन नहीं किया। दिन-रात एक कोठरी में पड़ी-पड़ी रोया करती थी। पिताजी को शायद यह मालूम हो गया था कि मैं इस विवाह से प्रसन्न नहीं हूं। क्योंकि एक दिन उनमें और माताजी में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। यहां तक कि अन्त में दोनों में झगड़ा भी हो गया । माता रूठ बैठीं और बार-बार नैहर चली जाने के लिए धमकी देने लगीं । परन्तु फिर सारा झगड़ा तय हो गया और सुनने में आया कि पिता को कोई कठिन रोग हो गया है,इसलिए दवा कराने के लिए कलकत्ता जानेवाले हैं। मुझे विश्वास हो गया कि विवाह कम से कम इस साल के लिए तो टल गया। परन्तु पिताजी के जाने के तीसरे रोज़ ही हमारी सौतेली मां के एक भाई आए और उन्होंने पुरोहितजी के मार्फत तिलक भेजवा दिया। आठ दिन के बाद ही विवाह का दिन निर्धारित हो गया।

मेरी तमाम आशा-भरोसा पर पानी फिर गया । रहस्य कुछ समझ में नहीं आया। पिताजी के हठात् रोगग्रस्त होकर चले जाने पर भी बड़ा आश्चर्य हुआ।मेरे लिए रोने के सिवा और कोई उपाय नहीं रह गया। विवाह की तैयारी खूब जल्दी-जल्दी होने लगी। इधर माताजी मेरे ऊपर सतर्क दृष्टि भी रखने लगीं।कोई मेरे पास नहीं आने पाता था। विवाह की नेवता भी शायद किसी रिश्तेदार को नहीं दिया गया। गांव में प्रचार कर दिया गया कि पिताजी की बीमारी के कारण विवाह में उत्सव आदि नहीं होगा। वर महोदय केवल पुरोहित और नाई के साथ आकर बिना आडम्बर के विवाह करके बहू को ले जाएंगे। ये बातें सुनकर मेरी चिन्ताग्नि और भी धधक उठी। दिन-रात रोते-रोते मेरी आँखें सूज गईं।माताजी ने पिता की बीमारी का जिक्र करके मुझे बहुत समझाया-बुझाया। उनके भाई ने भी मुझे समझाने-बुझाने और वर महोदय के धन-ऐश्वर्य का बखान करने में कोई बात उठा न रखी। परन्तु चिन्ता बढ़ती ही गई। जी में आता था कि आत्महत्या कर लूं। परन्तु माताजी सदैव सतर्क रहती थीं, अन्त में हल्दी-तेल चढ़ने का दिन आया। प्रांगन में मंगल-घट स्थापित हुआ । मैं जबर्दस्ती घसीटकर वहां लाई गई । अन्यान्य कृत्यों के बाद जब नाइन हल्दी-तेल लेकर आगे आई, मैंने उसके हाथ से पात्र लेकर दूर फेंक दिया। माताजी इसपर बहुत नाराज हुई, और बलपूर्वक [ ५८ ]मुझे गिराकर हल्दी-तेल चढ़ाने की रस्म अदा की गई। इसी तरह एक दिन विवाह की रस्म भी अदा हो गई। मैंने 'गौर गनेश' को तोड़ डाला, पैरों की ठोकर से मंगल-घट फोड़ दिया और जब वर महोदय सिन्दूर-द-दान करने आए तो उन्हें ऐसा धक्का दिया कि बेचारे चारों खाने चित ज़मीन पर भहरा पड़े। जब मैं किसी तरह काबू में न आई, तो मेरी सौतेली मां मेरे हाथ-पैर बांधकर मुझे एक कोठरी में ढकेलकर किवाड़ बन्द करती हुई बोलीं -अब रोश्रो चाहे गाओ, जो होना था, वह हो गया।

मैं उस समय क्रोध, चिन्ता और ग्लानि से अधमरी-सी हो रही थी। कई दिनों तक भोजन आदि न करने के कारण मेरा शरीर अवसन्न हो गया था। मैं थोड़ी देर के बाद बेहोश हो गई । जब होश हुआ तब देखा बन्धन खुले हुए हैं।

घर में दिया जल रहा है और वर महोदय दरवाजे की सिटकिनी बन्द कर रहे हैं । मैं देखते ही बड़े जोरों से चीख उठी और वहां से निकल भागने के लिए दरवाजे की ओर लपकी, परन्तु उन्होंने बीच में मुझे पकड़कर ज़बर्दस्ती घसीटते ले जाकर पलंग पर लिटा दिया। मैं बहुतेरा चीखी-चिल्लाई, अपने आबरू की रक्षा के लिए कई जगह उन्हें दांतों से काट डाला। इस हाथा-पाई में मुझे भी चोटें आईं ; परन्तु मैंने उनकी मनोकामना पूरी न होने दी। इसके बाद उन्होंने माताजी को बुलाया, मैं उनके पैरों पर गिर पड़ी और बड़ी प्रारजू-मिन्नत की कि मुझे यहां से निकल जाने दो, परन्तु उन्होंने एक न सुनी, मैं फिर बलपूर्वक ज़मीन पर गिरा दी गई और मेरे हाथ-पैर रस्सी से बांध दिए गए। माताजी ने मेरे मुंह में कपड़ा लूंस दिया और मुझे वहीं छोड़ कमरे से बाहर चली गई।

इसके बाद क्या हुआ, उसका वर्णन करना मेरी जैसी एक वेश्या के लिए भी सम्भव नहीं है।

यह कहते-कहते फिर उसका चेहरा तमतमा उठा। आंखों से मानो क्रोध की चिनगारियां निकलने लगीं। बेचारे पण्डितजी उसकी यह हालत देखकर सहम गए।मैं भी बड़े पशोपेश में पड़ गया और बुढ़िया से फिर एक गिलास पानी देने का इशारा करके बोला--वस, अब रहने दीजिए। फिर कभी आपकी कहानी सुन लूंगा। इस समय ज़रा-सा लेट जाइए।

उसने एक लम्बी सांस खींचकर उत्तर दिया-आप घबराइए नहीं, मेरी तबियत ठीक है। [ ५९ ]इसके बाद उसने फिर एक पान खाया और मेरी ओर मुंह करके कहने लगी--जब आपने छेड़ा है तो पूरी कहानी सुनाकर ही दम लूंगी। इससे अनुताप की जो भीषण ज्वाला मेरे अन्दर धधक रही है, कुछ शान्त होगी।

मैंने भी एक ठण्डी सांस ली और एक सिगरेट जलाकर अबला की करुण कहानी सुनने को तैयार हो गया।

वह कहने लगी--उसके बाद मुझपर क्या बीती, मुझे मालूम नहीं क्योंकि मैं बेहोश थी और उसी दशा में छोड़ दी गई। सवेरे दरवाजा खुलने की आहट पाकर आंखें खुली तो देखा कि आगे-आगे माताजी और पीछे दारोगाजी कमरे में प्रवेश कर रहे हैं।

मैं कपड़े संभालकर उठ बैठी। माताजी मेरे पास बैठकर मुझे समझाने लगीं। दारोगाजी विजयी वीर की तरह बैठे मुस्करा रहे थे। उनकी ओर दृष्टि पड़ते ही मेरा सारा शरीर क्रोध से कांप गया। पास ही एक कांसे का लोटा पड़ा था, मैंने उसे उठाकर उनके मूंड पर दे मारा।सिर फूट गया और खून बहने लगा। इसके बाद वे उठकर वहां से चले गए और तब से आज तक मैंने उनकी सूरत नहीं देखी।

गाड़ी कानपुर के स्टेशन पर आकर ठहर गई । मुझे यहां उतरकर अपने एक मित्र से मिलना था। पण्डितजी भी कानपुर देखना चाहते थे। मैंने उठकर बिस्तर समेटते हुए रमणी से कहा--क्षमा कीजिएगा, मैंने आपको बड़ी तकलीफ दी। साथ ही आपकी पूरी कहानी भी न सुन सका।

इतने में पण्डितजी बोल उठे--इन्हें भी तो दिल्ली ही जाना है, अगर कोई क्षति न हो तो हम लोगों के साथ उतर पड़ें। कल फिर साथ ही चले चलेंगे।

मैंने कहा --प्रस्ताव तो आपका ठीक है, बशर्ते कि एक रोज़ यहां ठहर जाने में इनका कोई हर्ज न हो।

रमणी ने कहा--हर्ज क्या है। एक दिन ठहरकर ज़रा कानपुर भी देख लूंगी। यह कहकर उसने भी अपनी संगिनी बुढ़िया को बिस्तर आदि उठाने का आदेश प्रदान किया।

दूसरे दिन गाड़ी पर सवार होकर हम लोग एकसाथ ही दिल्ली के लिए रवाना हुए। कुछ आगे चलकर मेरे अनुरोध करने पर उसने फिर अपनी राम[ ६० ]कहानी आरम्भ की:

विवाह के पन्द्रहवें दिन पिताजी कलकत्ता से वापस आ गए। माताजी ने और शायद दारोगाजी ने भी उन्हें सब हाल पहले ही लिख दिया था। रात को उनसे और माताजी से बड़ी कहा-सुनी हुई। उन लोगों की बातचीत से यह भी मालूम हुआ कि दारोगाजी ने मुझे सदा के लिए परित्याग कर दिया है और मेरे भरण- पोषण के लिए दस रुपये मासिक देने को तैयार हैं। मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि किसी तरह उस पशु से पिण्ड तो छूटा । परन्तु पिताजी को इससे बड़ा दुःख हुआ । वे उसी दिन से अन्न-जल त्यागकर खाट पर पड़े तो फिर नहीं उठे । कुछ लोगों का अनुमान है, उन्होंने जहर खाकर आत्महत्या कर ली।

अस्तु, पिताजी के मरने पर माताजी अपने वैधव्य के दिन काटने के लिए अपने नैहर चली गईं। मुझे भी अपने साथ ले जाना चाहती थीं ; परन्तु मैंने इन्कार कर दिया और एक दाई को साथ लेकर अपनी बहिन के यहां चली आई। बहिन ने सारा हाल सुना तो छाती पीटकर ज़मीन पर गिर गई। परन्तु मुझे पिताजी की मृत्यु के सिवा और किसी बात का अफसोस न था। बस, दिन-रात यही सोचा करती थी कि किस तरह दारोगाजी से अपने अपमान का बदला लूं । कुछ दिनों के बाद ही एक सुयोग मिला । मेरी बहिन का देवर मुझे बड़ी कुत्सित दृष्टि से देखा करता था। पहले तो मैं उससे घृणा करती थी और बहुत कम बोलती थी, परन्तु अन्त में मैंने उसीको बलिदान का बकरा बनाकर दारोगाजी से अपने अपमान का बदला लेने का विचार किया और धीरे-धीरे उससे घनिष्ठता बढ़ाने लगी। आखिर मैंने एक दिन उससे साफ-साफ कह दिया कि अगर तुम दारोगाजी का खून कर डालो तो जो कुछ तुम कहोगे, मैं करने को तैयार हूं। वह अनायास ही राजी हो गया। परन्तु अन्त में धोखा देकर निकल गया। साथ ही धीरे-धीरे यह बात सारे मुहल्ले में फैल गई कि बहिन के देवर के साथ मेरा अवैध सम्बन्ध है । एक दिन बहिन ने मुझे एकान्त में ले जाकर वहुत-कुछ बुरा-भला कहा और आगे के लिए सावधान भी कर दिया। मैंने उसे सब सच्ची बातें बता दीं और साथ ही यह भी बता दिया कि केवल दारोगाजी से अपने अपमान का बदला लेना ही मेरा इस कुत्सित और अपवित्र जीवन का उद्देश्य है, इसीलिए मैं जीवित हूं: अन्यथा अब तक आत्महत्या कर लेती।

बहिन ने मुझे बहुत समझाया और बदला लेने का भार ईश्वर को सौंपकर [ ६१ ] विधवाओं की तरह पवित्र जीवन व्यतीत करने का परामर्श दिया। परन्तु मेरी प्रतिज्ञा अटल थी। दिन-रात मैं यही सोचा करती थी कि किस तरह पापी दारोगा से बदला लिया जाए। आखिर, एक दिन एक छोकरा मुझे एक पत्र दे गया। पत्र मुहल्ले के एक युवक ने लिखा था, जो कभी-कभी मेरी बहिन के घर पाया करता था। उसने लिखा था कि अगर तुम मेरी होकर रहो तो मैं दारोगाजी से तुम्हारे अपमान का बदला ले सकता हूं। मैं फौरन राजी हो गई और एक दिन सुयोग पाकर उसके साथ चल निकली। उसने शहर से दूर एक गांव में मुझे ले जाकर रखा। चार-पांच महीने तक हम दोनों पति-पत्नी की तरह रहे। वह बराबर मुझे भरोसा देता रहा, मैं भी उसके विश्वास पर थी और दारोगा की मृत्यु-कामना किया करती थी। परन्तु ईश्वर को मेरी छीछालेदर ही मंजूर थी।

फलतः इस दूसरे युवक ने भी मुझे धोखा दिया और एक दिन बिना कुछ कहेसुने न जाने कहां गायब हो गया। हाय! अब मैं दीन-दुनिया कहीं की न रही। एक बार फिर बहिन की शरण में जाने का विचार किया, परन्तु साहस न हुआ। इसी उधेड़-बुन में कई दिन बीत गए।

मेरे पड़ोस में एक बुढ़िया रहती थी वह कभी-कभी मेरे पास आया करती थी और घण्टों बैठकर इधर-उधर की बातें किया करती थी। उसने युवक के धोखा देकर भाग जाने का समाचार सुना तो बड़ी सहानुभूति प्रकट की और फिर आश्वासन देकर बोली कि तुम्हें चिन्ता किस बात की है। भगवान ने तुम्हें रूप और जवानी दी है। तुम चाहो तो, खुद दस आदमियों को खिला सकती हो। पहले तो उसकी बात मेरी समझ में न आई। परन्तु अन्त में मेरे प्रश्न करने पर उसने साफ-साफ शब्दों में मुझे वेश्यावृत्ति करने की सलाह दी और साथ ही इस सम्बन्ध में मेरी सहायता करने का भी वचन दिया। यद्यपि मुझे पहले इस काम में बड़ी हिचकिचाहट मालूम हुई; परन्तु बुढ़िया ने मुझे समझा दिया कि इसके सिवा और कोई पथ नहीं है। अन्य उपाय न देखकर, मैं राजी हो ही गई।

शहर में उपयुक्त स्थान पर बुढ़िया ने किराये पर एक मकान ले दिया और आवश्यक सामान अपने पास दे दिया। मेरा रोज़गार चलने लगा और बुढ़िया भी मेरी अभिभाविका बनकर मेरे साथ ही रहने लगी। एक उस्तादजी को बुलाकर उसने मुझे गाने और नाचने की भी तालीम दिलाई।

बस बाबू जी, यही मेरी संक्षिप्त राम-कहानी है और यही वह बुढ़िया है। अब [ ६२ ] प्रतिशोध स्वयं विचार कीजिए कि मैं पतिता हूं या मुझे पतित बनानेवाले पतित हैं?

मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया। चित्त ग्लानि से भर गया था। कुछ पढ़ने की चेष्टा की परन्तु तबियत नहीं लगी।

शाम को दिल्ली स्टेशन पर उतरकर उससे विदा होने के समय मैंने उसका पता नोटकर लिया और फिर कभी मिलने का वादा करके उसे पवित्र जीवन व्यतीत करने का परामर्श दिया। पण्डितजी आगरा होकर पहले ही मथुरा चले गए थे। इस बात को बहुत दिन बीत चुके थे। मैं दिल्ली से कलकत्ता लौट आया था। रविवार का दिन था और मई का महीना; सख्त गरमी पड़ रही थी। शाम को भांग-बूटी छानकर हम लोग किले के मैदान की ओर टहलने जा रहे थे। रास्ते में एक पुराने मित्र मिल गए। जब मैं बनारस रहता था तो इनसे बड़ी घनिष्ठता थी।

कुशल-प्रश्न तथा अन्यान्य बातों के बाद पण्डित मुरलीधर का ज़िक्र आया तो आश्चर्य से बोल उठे-अरे तुम्हें मालूम नहीं? वे तो एक खून के मामले में गिरफ्तार हैं।

मैंने आश्चर्य से पूछा-खून के मामले में?

वे बोले-हां भई, उन्होंने पुलिस के दारोगा को मार डाला है।

मैंने कहा-क्या बक रहे हो?

कहां पं० मुरलीधर और कहां दारोगा का खून।

उन्होंने कहा-बक नहीं रहा हूं, बिलकुल सच्ची बात बता रहा हूं।

'तो क्या किसी राजनीतिक उद्देश्य से पण्डितजी ने दारोगा को मार डाला है?

'नहीं जी, राजनीति से उनका क्या वास्ता।'

'तो आखिर बेचारे दारोगा ने उनका बिगाड़ा ही क्या था?'

'उनका नहीं, बल्कि किसी और का ही बिगाड़ा था।'

'अच्छा, तो अब पूरी कथा सुनाओ।'

-सुना तो रहा हूं, परन्तु तुम सुनते कहां हो? बात यह है कि गत यमद्वितीया के अवसर पर पण्डितजी मथुरा जा रहे थे। रास्ते में एक वेश्या से मुलाकात हो गई, जो गाड़ी के उसी डिब्बे में बैठी थी। बातचीत के सिलसिले में उसने अपनी आत्मकथा सुनाना प्रारम्भ किया, जिससे मालूम हुआ कि वह कोई साधारण वेश्या नहीं, वरन किसी उच्चवंश की लड़की थी। दारोगाजी ने ढलती उम्र में जबर्दस्ती [ ६३ ] उससे विवाह कर लिया था। इसलिए पहली ही रात को पति-पत्नी में कुछ ऐसी अनबन हो गई कि दारोगाजी को सदा के लिए परित्याग कर देना पड़ा। परन्तु पत्ली ने दारोगाजी से अपने सतीत्वापहरण का बदला लेने की ठान ली। यह बदला लेने की धुन यहां तक सिर पर सवार हो गई कि उसीके लिए अन्त में उसे वेश्या बन जाना पड़ा। कई युवकों से इसी शर्त पर उसने दुराचार भी कराया। पण्डित मुरलीधर ने यह सारी कहानी सुनी तो एकदम आपे से बाहर हो गए। मथुरा से दिल्ली चले गए और वहां उसी वेश्या के पास ठहरकर उसके पति का पता लगाया। इसके बाद किसी तरह उक्त दारोगा के पास पहुंचे और एक दिन मौका देखकर उसके पेट में छुरी घुसेड़ दी।

पण्डितजी ने अदालत के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है और बड़ी प्रसन्नता से फांसी पर चढ़ जाने को तैयार हैं।

मैंने कहा-यह रेलगाड़ीवाली घटना तो मेरे सामने की है। उस समय मैं दिल्ली जा रहा था और पण्डितजी यमद्वितीया नहाने मथुराजा रहे थे। बल्कि सच पूछो तो मेरे ही अनुरोध से उस वेश्या ने अपनी राम-कहानी हम लोगों को सुनाई थी। खैर, तो क्या उस स्त्री को भी यह सब मालूम है?

'हां, वह भी पण्डितजी के साथ ही दिल्ली से आई थी। पहले उसने दारोगाजी को देखकर अच्छी तरह पहचान लिया तब यह घटना हुई। पण्डित मुरलीधर ने तो अपने बयान में उसके आने का कोई जिक्र नहीं किया था। परन्तु इनके गिरफ्तार हो जाने पर वह खुद कोतवाली में आई और बयान दिया कि यह खून मैंने कराया है। इसकी सारी जिम्मेदारी मुझपर है।

'पुलिस ने उसे गिरफ्तार करके हिरासत में ले लिया। परन्तु वहां जाने से पहले उसने जहर खा लिया था, इसलिए उसी रात को उसका देहान्त हो गया।'

मैंने कहा--पण्डित मुरलीधर तो विचित्र मनुष्य निकले। उनके मुकदमे के सम्बन्ध में तुम्हारा क्या अनुमान है?

उन्होंने कहा- उन्हें फांसी की सजा होगी।