प्रेमाश्रम/४८

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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४८

ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उसपर वादविवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमे उत्साह के साथ भाग न ले सके थे, पर उनके प्रबन्ध-कौशल ने परिषद् की सफलता मे कोई बाधा न होने दी। सन्ध्या हो गयी थी। विद्यावती अन्दर बैठी हुई एक पुराना शाल रफू कर रही थी। राय साहब ने उसके सैर करने के लिए एक बहुत अच्छी सेजगाडी दे दी थी और कोचवान को ताकीद की थी कि जब विद्या का हुक्म मिले, तुरन्त सवारी तैयार करके उसके पास ले जाये, लेकिन इतने दिनों से विद्या एक दिन भी कही सैर करने न गयी। उसका मन घर के धन्धो अधिक लगता था। उसे न थियेटर का शौक था, न सैर करने का, न गाने बजाने का। इनकी अपेक्षा उसे भोजन बनाने या सीने-पिरोने में ज्यादा आनन्द मिलता था। इस एकान्त-सेवन के कारण उसको मुखकमल मझया रहता था। बहुधा शिर-पीड़ा से ग्रसित रहती थी। वह परम सुन्दरी, कोमलागी रमणी थी, पर उसमे अभिमान का लेश भी न था। उसे माँग-चोटी, आइने-कची से अरुचि थी। उसे आश्चर्य होता था कि गायत्री क्योकर अपना अधिकाश समय बनाव सँवार में व्यतीत किया करती है। कमरे में अँधेरा हो रहा था, पर वह अपने काम मे इतनी रत थी कि उसे बिजली के बटन दबाने का भी ध्यान न था। इतने में राय साहब उसके द्वार पर आ कर खड़े हो गये और बोले-ईश्वर से बड़ी भूल हो गयी कि उसने तुम्हे दर्जिन बना दिया। अंधेरा हो गया, आँखो से सूझता नहीं, लेकिन तुम्हे अपने सुई-तागे से छुट्टी नहीं।

विद्या ने शाल समेट दिया और लज्जित हो कर बोली-थोड़ा सा बाकी रह गया था, मैंने सोचा इसे पूरा कर लें तो उठूँ।

राय साहब पलंग पर बैठ गये और कुछ कहना चाहते थे कि जोर से खाँसी आयी और थोड़ा सा खून मुंह से निकल पड़ा, आँखे निस्तेज हो गयी और हृदय मे विषम पीड़ा होने लगी। मुखाकार विकृत हो गया। विद्या ने घबरा कर पूछा–पानी लाऊँ? यह मरज तो आपको न था। किसी डाक्टर को बुला भेजूँ?

राय साहब-नहीं, कोई जरूरत नहीं। अभी अच्छा हो जाऊँगा। यह सब मेरे सुयोग्य, विद्वान् और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र बाबू ज्ञानशंकर की कृपा का फल है।

विद्या ने प्रश्नसूचक विस्मय से राय साहब की ओर देखा और कातर भाव से जमीन की ओर ताकने लगी। राय साहब संभल कर बैठ गये और एक बार पीड़ा से [ ३०० ]कराह कर बोले जी तो नहीं चाहता कि मुझपर जो कुछ बीती है वह मेरे और ज्ञानशंकर के सिवा किसी दूसरे व्यक्ति के कानो तक पहुँचे, किन्तु तुमसे पर्दा रखना अनुचित ही नही अक्षम्य है। तुम्हे सुनकर दुख होगा, लेकिन सम्भव है इस समय का शोक और खेद तुम्हे आनेवाली मुसीबतो से बचाये, जिनका सामान प्रारब्ध के हाथो हो रहा है। शायद तुम अपनी चतुराई से उन विपत्तियों का निवारण कर सको।

विद्या के चित्त मे भाँति-भाँति की शंकाएँ आन्दोलित होने लगी। वह एक पक्षी की भाँति डालियों-डालियों में उडनें लगी। मायाशंकर का ध्यान आया, कही वह बीमार तो नहीं हो गया। ज्ञानशंकर तो किसी चला मे नही हँस गये। उसने सशकर और सजल लोचनों से राय साहब की तरफ देखा।

राय साहब बोले, मैं आज तक ज्ञानशंकर को एक धर्मपरायण, सच्चरित्र और सत्य-निष्ठ युवक समझता था। मैं उनकी योग्यता पर गर्व करता था और अपने मित्रों से उनकी प्रशंसा करते कभी न थकता था। पर अबकी मुझे ज्ञात हुआ कि देवता के स्वरूप में भी पिशाच का वास हो सकता है।

विद्या की तेवरियों पर अब बल पड गये। उसने कठोर दृष्टि से राय साहब को देखा, पर मुँह से कुछ न बोली। ऐसा जान पड़ता था कि वह इन बातो को नही सुनना चाहती।

राय साहब ने उठ कर बिजली का बटन दबाया और प्रकाश में विद्या की अनिच्छा स्पष्ट दिखायी दी, पर उन्होंने इसका कुछ परवाह न करके कहा- यह मेरा बहत्तर साल है। हजारो आदमियो से मेरा व्यवहार रहा, किन्तु मेरे चरित्रज्ञान ने मुझे कभी धोखा नही दिया। इतना बड़ा घोखा खाने का मुझे जीवन में यह पहला ही अवसर है। मैंने ऐसा स्वार्थी आदमी कभी नहीं देखा।

विद्या अधीर हो गयी, पर मुंह से कुछ न बोली। उसकी समझ में ही न आता था कि राय साहब यह क्या भूमिका बाँध रहे हैं, क्यों ऐसे अपशब्दों का प्रयोग कर रहे है?

राय साहब---मेरा इम मनुष्य के चरित्र पर अटल विश्वास था। मेरी ही प्रेरणा से गायत्री ने इसे अपनी रियासत को मैनेजर बनाया। मैं जरा भी सचेत होता तो गायत्री पर उसकी छाया भी न पडने देना। ज्ञान और व्यवहार में इतना घोर विरोध हो सकता है इसका मुझे अनुमान भी न था। जिसकी कलम मे इतनी प्रतिभा हो, जिसके मुख में स्वच्छ, निर्मल भावों की धारा बहती हो, उसका अन्तःकरण ऐसा कलुपित, इतना मलीन होगा यह मैं बिलकुल न जानता था। विद्या से न रहा गया। यद्यपि वह ज्ञानशंकर की स्वार्थ-भक्ति से भली-भाँति परिचित थी, जिसका प्रमाण उसे कई बार मिल चुका था, पर उसका आत्म-सम्मान उनको अपमान सह न सकता था। उनकी निन्दा का एक शब्द भी वह अपने कानों से न सुनना चाहती थी। उनकी धर्मनीति में यह धौर पातक था। तीव्र स्वर से बोली-आप मेरे सामने उनकी बुराई [ ३०१ ]न कीजिए। यह कहते-कहते उसका गला रुंध गया और वह भाव जो व्यक्त न हो सके थे आँखो से बह निकले।

राय साहब ने संकोच-पूर्ण शब्दों में कहा—बुराई नहीं करता, यथार्थ कहता हूँ। मुझे अब मालूम हुआ कि उसने महात्माओं का स्वरूप क्यों बनाया है, और धार्मिक कार्यों में क्यों इतना प्रवृत्त हो गया है। मैंने उसके मुंह से सब कुछ निकलवा लिया। यह रंगीन जाल उसने भोली-भाली गायत्री के लिए बिछाया है और वह कदाचित् इसमें फँस भी चुकी है।

विद्या की भौहे तन गयी, मुखराशि रक्तवर्ण हो गयी। गौरवयुक्त भाव से बोली---- पिता जी, मैंने सदैव आपको अदब किया है और आपकी अवज्ञा करते हुए मुझे जितना दुख हो रहा है वह वर्णन नहीं कर सकती, पर यह असम्भव है कि उनके विषय में यह लाछन अपने कानों से सुनें। मुझे उनकी सेवा में आज सत्रह वर्ष बीत गये, पर मैंने उन्हें कभी कुवासना की और झुकते नहीं देखा। जो पुरुष अपने यौवन-काल में भी संयम से रहा हो उसके प्रति ऐसे अनुचित सन्देह करके आप उसके साथ नहीं, गायत्री बहिन के साथ भी घोर अत्याचार कर रहे हैं। इससे आपकी आत्मा को पाप लगता है।

राय साहब तुम मेरी आत्मा की चिन्ता मत करो। उस दुष्ट को समझाओ, नहीं तो उसकी कुशल नहीं है। मैं गायत्री को उसकी काम-धेष्टा का शिकार न बनने दूंगा। मैं तुमको वैधव्य रूप में देख सकता हूँ, पर अपने कुल-गौरव को यो मिट्टी में मिलते नही देख सकता। मैंने चलते-चलते उससे ताकीद कर दी थी, गायत्री से कोई सरोकार न रखे, लेकिन गायत्री के पत्र नित्य चले आ रहे हैं, जिससे विदित होता है कि वह उसके फन्दो से कैसी जकड़ी हुई है। यदि तुम उसे बचा सकती हो तो बचाओ, अन्यथा यही हाथ जिन्होने एक दिन उसके पैरो पर फूल और हार चढ़ाये थे, उसे कुल गौरव की वेदी पर बलिदान कर देंगे।

विद्या रोती हुई बोली—आप मुझे अपने घर बुला कर इतना अपमान कर रहे है, यह आपको शोभा नहीं देता। आपका हृदय इतना कठोर हो गया है। जब आपके मन मे ऐसे-ऐसे भाव उठ रहे हैं तब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं रहना चाहती। मैं जिस पुरुष की स्त्री हूँ उसपर सन्देह करके अपना परलोक नहीं बिगाड़ सकती। वह आपके कथनानुसार कुचरित्र सही, दुरात्मा सही, कुमार्गी सही, परन्तु मेरे लिए पूज्य और देवतुल्य है। यदि मैं जानती कि आप मेरा इतना अपमान करेंगे तो भूल कर भी न आती। अगर आपका विचार है कि मैं रियासत के लोभ से यहाँ आती हैं और आपको फन्दे में फंसाना चाहती हैं तो आप बड़ी भूल करते हैं। मुझे रियासत की जरा भी परवाह नहीं। मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हैं कि मैं अपनी स्थिति से सन्तुष्ट हूँ और मुझे पूरा विश्वास है कि मायाशंकर भी सन्तोषी बालक है। उसे आपके चित्त की यह वृत्ति मालूम हो गयी तो वह इस रियासत की और आँख उठा कर भी न देखेगा। आपको इस विषय में आदि से अन्त तक धोखा हुआ है। [ ३०२ ]इस तिरस्कार से राय साहब कुछ धीमे पड़ गये। लज्जित हो कर बोले, हाँ, सम्भव है, इसलिए कि अब मैं बूढा हुआ। कुछ का कुछ देखता हैं, कुछ को कुछ सुनता हूँ। अधिक लोभी, अधिक शक्की हो गया हूँ। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारी आँखो मैं तुम्हारे पति को उससे ज्यादा गिराऊँ जितना कि उसकी प्राण-रक्षा के लिए आवश्यक हैं, पर तुम्हारी मिथ्या पति-भक्ति मुझे मजबूर कर रही है कि उसके कुकृत्यों को सविस्तार बयान कहीं। तुमने मुझे पहले भी देखा था, क्या मेरी यह दशा थी? मैं ऐसा ही दुर्बल, रुग्ण और जर्जर था? क्या इसी तरह मुझे एक पग चलना भी कठिन था? मैं इसी तरह रुधिर थूकता था? यह सब उसी का किया हुआ है। उसने मुझे भोजन के साथ इतना विष खिला दिया कि यदि उसे वीस आदमी खाते तो एक की भी जान न बचती। यह केवल भ्रम नहीं है। मैं उसका संदेह प्रमाण बना बैठा हूँ। उसने स्वयं इस पापाचार को स्वीकार किया। पहला ग्रास खाते हो मुझपर सारा रहस्य खुल गया। पर मैंने केवल यह दिखलाने के लिए कि मुझे मारना इतना सुलभ नहीं है जितना उसने समझा था, पूरी थाली साफ कर दी। मुझे विश्वास था कि मैं योग क्रियाओं द्वारा विप को शरीर से निकाल डालूंगा, पर क्षण मात्र में विष रोम-रोम में घुस गया, मैं उसे निकाल न सका। मैंने अपनी स्वास्थ्य-रक्षा और दीर्घ जीवन के लिए वह सब कुछ किया जो मनुष्य कर सकता है और जिसका फल यह था कि मैं बहत्तर साल का बुड्ढा हो कर एक पच्चीस वर्ष के युवक से अधिक बलवान और साहसी था। मैं अपने जीवन को चरम सीमा तक ले जाना चाहता था। इसके लिये मैंने कितना सयंम किया, कितनी योग क्रियाएँ की, साधु-सन्तों की कितनी सेवा की, जडी-बूटियों की खोज मे कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा, तिब्बत और काश्मीर की खाक छानता फिरा, पर इस नराधम ने मेरी सारी आयोजनाओं पर पानी फेर दिया। मैंने अपनी सारी सम्पत्ति कार्य-सिद्धि पर अर्पण कर दी थी। योग और तन्त्र का अभ्यास इसी हेतु से किया था कि अक्षय यौवन तेज का आनन्द उठाता हूँ। विलास-भोग ही मेरे जीवन को एक मात्र उद्देश्य था। चिन्ता को मैं सदैव काला नाग समझता रहा। मेरे नौकर-चाकर प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार करते, पर मैंने उनकी फरियाद को कभी अपने सुख-भोग मैं बाधक नहीं होने दिया। अगर कभी अपने इलाके में जाता भी था तो प्रजा का कष्ट निवारण करने के लिए नहीं बल्कि केवल सैर और शिकार के लिए, किन्तु इस निर्दयी पिशाच की बदौलत सारे गुनाहू बेलज्जत हो गये। अब मैं केवल एक अस्थिपंजर हैं—प्राण-शून्य शक्तिहीन।

यह कहते-कहते राय साहब विषम पीड़ा से कराह उठे। जोर से खाँसी आयी और खून के लोथड़े मुंह से निकल आये। कई मिनट तक वह मूछवस्या में पड़े रहे। सहसा लपक कर उठे और बोले तुम प्रात काल बनारस चली जाओ और हो सके तो अपने पति को अग्निकुड में गिरने से बचाओ। तुम्हारी पति-भक्ति ने मुझे शात कर दिया। मैं उसे प्राण-दान देता हूँ। लेकिन सरल-हृदय गायत्री की रक्षा का भार तुम्हारे ही ऊपर है। अगर उसके सतीत्व पर जरा भी धब्बा लगे तो तुम्हारे कुल का सर्वनाश [ ३०३ ]हो जायगा। यही मेरी अंतिम चेतावनी है। इस पाप का निवारण गायत्री की सतीत्व रक्षा से ही होगा। तुम्हारे कल्याण की और कोई युक्ति नहीं है।

यह कह कर राय साहब धीरे से उठे और चले गये। तब विद्या ग्लानि, लज्जा और नैराश्य से मर्माहत हो कर पलंग पर लेट गयी और बिलख-बिलख कर रोने लगी। रायसाहब के पहले आक्षेप का उसने प्रतिबाद किया था, पर इसे दूसरे अपराध के विपय मे वह अविश्वास का सहारा न ले सकी। अपने पति की स्वार्थ नीति से वह खूब परिचित थी, पर उनकी वक्रता इतनी घोर और घातक हो सकती है इसका उसे अनुमान भी न था। अब तक उनकी कुवृत्तियों का पर्दा ढंका हुआ था। जो कुछ दु ख और सन्ताप होता था वह उसी तक रहता था, पर यहाँ आ कर पर्दा खुल गया। वह अपने पिता की निगाह में गिर गयी, उसके मुंह में कालिख लग गयी। राय साहब का यह समझना स्वाभाविक था कि इस दुष्कर्म में विद्या का भी कुछ न कुछ भाग अवश्य होगा। कदाचित् यही समझ कर वह उसे यह वृत्तान्त कहने आये थे। वह सारा दोष पति के सिर मढ़ कर अपने को क्योंकर मुक्त कर सकती है इस उधेड़-बुन में विद्या का ध्यान जब पाप-परिणाम की ओर गया तो वह काँप उठी। भगवान्! मैं दुखिया हैं, अभागिनी हूँ, मुझपर दया करो, तुम्हारी शरण हैं। भाँति-भाँति की शकाएँ उसके चित्त को विचलित करने लगी। मायाशंकर की सूरत आँखो में फिरने लगीं। ऐसा जी चाल्ला था कि पैरो मे पर लग जायँ और बड़ कर उसके पास जा पहुँचें। रह-रह कर हृदय में एक हुक सी उठती थी और अनिष्ट कल्पना से चित्त विकल हो जाता था।

एक क्षण में इन ग्लानि और शंकाओं ने उग्र रूप धारण किया। आग की बिखरी हुई चिनगारियाँ एक प्रचंड ज्वाला के रूप में ज्ञानशंकर की ओर लपकी। तुम इतने नीच, इतने क्रूर, इतने दुर्बल हो। तुमने कही का न रखा। तुम्हारे कारण मेरी यह दुर्दशा हो रही है और अभी न जाने क्या-क्या होगी। तुम धूर्त हो। न जाने पूर्व जन्म में ऐसा क्या पाप किया था कि तुम्हारे पल्ले पड़ी। उसने ज्ञानशकर को उसी दम एक पत्र लिखने का निश्चय किया और सोचने लगी, उसकी शैली क्या हो? इसी सोच में पड़े-पड़े उसे नींद आ गयी। वह बहुत देर तक पड़ी रही। जब सर्दी लगी तो चौकी, कमरे में सन्नाटा था, सारे घर में निस्तब्धता छायी थी। महरियाँ भी सो गयी थी। उसके व्यालू का थाल सामने मेज पर रखा हुआ था और एक पालतू बिल्ली उसके निकट उन चूहों की ताक में बैठी हुई थी जो भोज्य पदार्थों का रसास्वादन करने के लिए आलमारी के कोने से निकल कर आते थे और अज्ञात भय के कारण आधे रास्ते से लौट जाते थे। विद्या कई मिनट तक इस दृश्य में मग्न रही। निद्रा ने उसके चित्त को शांत कर दिया था। उसे चूहे पर दया आयी जो एक क्षण में बिल्ली के मुँह का ग्रास बन जायगा। इसके साथ ही उसकी कल्पना चूहे से ज्ञानशंकर की अवस्था की तुलना करने लगी। क्या उसकी दशी भी इसी चूहे की-सी नहीं है? उन पर क्रोध क्यों करूं? वह दया के योग्य है। वह इसी चूहे की भाँति स्वाद के वश हो कर काल के मुँह में दौड़े जा रहे है, और माया लोभ के हाथो में काठ की पुतली बने हुए नाच रहे है। मैं जा कर उन्हें [ ३०४ ]समझाऊँगी, उनसे विनय करूंगी कि मुझे इसी सम्पत्ति की लालसा नही है जिस पर आत्मा और विवेक का बलिदान किया गया हो। ऐसी जायदाद को मैरी तिलांजलि है। मेरा लड़का गरीब रहेगा, अपने पसीने की कमाई खायेगा, लेकिन जब तक मेरा थश चलेगा मैं उसे इस जायदाद की हवा भी न लगने दूँगी।