प्रेमाश्रम/४९

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३०४ ]

४९

गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी मे जी पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशक हो गये। लेकिन गायत्री की सान्त्वनाओं ने शनै शनै उन्हें सावधान कर दिया। उसने स्पष्ट कह दिया कि मेरा प्रेम पिता की आज्ञा के अधीन नहीं हो सकता। वह ज्ञानशंकर को अन्याय पीडित समक्षती थी और अपनी स्नेहमयी बातो से उनका क्लेश दूर करना चाहती थी। ज्ञानशंकर जब गायत्री की ओर से निश्चिन्त हो गये तो उसे बनारस के घाट और मन्दिरो की सैर कराने लगे। प्रात काल उसे ले कर गगा-स्नान करने जाते, संध्या समय बजरे पर या नौको पर बैठा कर घाटो की बहार दिखाते। उनके द्वार पर पंडों की भीड़ लगी रहती। गायत्री की दानशीलता की सारे नगर में धूम मच गयी। एक दिन वह हिन्दू विश्वविद्यालय देखने गयी और बीस हजार दे आयी। दूसरे दिन "इत्तहादी यतीमखाने का मुआइना किया और दो हजार रुपये विल्डिंग फड को प्रदान किये। सनातन धर्म के नेतागण गुरुकुल आश्रम के लिए चन्दा माँगने आये। चार हजार उनके नजर किये। एक दिन गोपाल मन्दिर में पूजा करने गयी और महन्त जी को दो हजार रुपये भेट कर आयी। आधी रात तक कीर्तन का आनन्द उठाती रही। उसका मन कीर्तन में सम्मिलित होने के लिए लालायित हो रहा था पर ज्ञानशंकर को यह अनुचित जान पड़ता था। ऐसा कीर्तन उसने कभी न सुना था।

इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। सन्ध्या हो गयी थी। गायत्री बैठी हुई बनारसी साड़ियों का निरीक्षण कर रही थी। वह उनमें से एक साड़ी लेना चाहती थी, पर रंग का निश्चय न कर सकती थी। एक-एक साड़ी को सिर पर ओढ़ कर आईने में देखती और उसे तह करके रख देती। कौन रंग सबसे अधिक खिलता है, इसका फैसला न होता था। इतने में श्रद्धा आ कर खड़ी हो गयी। गायत्री ने कहा, बहिन, भली आयी। बताओ, इसमे से कौन साड़ी लूँ? मुझे तो सब एक सी लगती है।

श्रद्धा ने मुस्कुरा कर कहा-मैं गँवारीन इन बातों को क्या समझूँ।

गायत्री-चलो, बातें न बनाओ। मैं इसका फैसला तुम्हारे ही उपर छोड़ती हूँ। एक अपने लिए चुनो और एक मेरे लिए।

श्रद्धा- आप ले लीजिए, मुझे जरूरत नहीं है। यह फिरोजी साड़ी आप पर खूब खिलेगी। [ ३०५ ] गायत्री--मेरी खातिर से एक साड़ी ले लो।

श्रद्धा--ले कर क्या करूंगी? धरे-धरे कीड़े खायेंगे।

श्रद्धा ने यह बात कुछ ऐसे करुण भाव से कही कि गायत्रों के हृदय पर चोट सी लग गयी। बोली, कब तक यह योग साधोगी। बाबू प्रेमशंकर को मना क्यों नही लेती?

श्रद्धा ने सजल नेत्रों से मुस्कुरा कर कहा-क्या करूँ, मुझे मनाना नहीं आता।

गायत्री-मैं मना लूँ?

श्रद्धा-—इससे बड़ा और कौन उपकार होगा, पर मुझे आपके सफल होने की आशा नहीं है। उन्हें अपनी टेक है और मैं धर्म-शास्त्र से टल नहीं सकती। फिर भला मेल क्योंकर होगा?

गायत्री-प्रेम से।

श्रद्धा--मुझे उनसे जितना प्रेम है वह प्रकट नहीं कर सकती, अगर उनको जरा भी इशारा पाऊँ तो आग में कूद पड़े। और मुझे विश्वास है कि उन्हें भी मुझसे इतना ही प्रेम है, लेकिन प्रेम केवल हृदयों को मिलाता है, देह पर उसका बस नहीं है।

इतने में ज्ञानशंकर आ गये और गायत्री से बोले, मैं जरा गोपाल मदिर की और चला गया था। वहीं कुछ भक्तों का विचार है कि आपके शुभागमन के उत्सव में कृष्ण लीला करें। मैंने उनसे कह दिया है कि इसी बँगले के सामनेवाले सहन मे नाट्यशाला घनायी जाय। गायत्री का मुख-कमल खिल उठा। बोली, यह जगह काफी होगी?

ज्ञान-हाँ, बहुत जगह है। उन लोगों की यह भी इच्छा है कि आप भी कोई पार्ट ले।

गायत्री--(मुस्कुरा कर) आप लेंगे तो मैं भी लूंगी।

ज्ञानशंकर दूसरे ही दिन से रंगभूमि के बनाने मे दत्तचित्त हो गये। एक विशाल मंडप बनाया गया। कई दिनों तक उसकी सजावट होती रही। फर्श, कुर्सियां, शीशे के सामान, फूलों के गमले, अच्छी-अच्छी तस्वीरें सभी यथा स्थान शोभा देने लगीं। बाहर विज्ञापन बाँटे गये। रईसों के पास छपे हुए निमन्त्रण-पत्र भेजे गये। चार दिन तक ज्ञानशंकर को बैठने का अवकाश न मिला। एक पैर दीवानखाने में रहता था, जहाँ अभिनेतागण अपने-अपने पार्ट का अभ्यास किया करते थे, दूसरा पैर शामियाने में रहता था, जहाँ सैकड़ो मजदूर, बढ़ई, चित्रकार अपने-अपने काम कर रहे थे। स्टेज की छटा अनुपम थी। जिधर देखिए हरियाली की बहार थी। पर्दा उठते ही बनारस में ही वृन्दावन का दृश्य आँखों के सामने आ जाता था। यमुना तट के कुंज, उनकी छाया में विश्राम करती हुई गाये, हिरनो के झुड, कदम की डालियों पर बैठे हुए मोर और पपीहे--सम्पूर्ण दृश्य काव्य रम में डूबा हुआ था।

रात के आठ बजे थे। बिजली की बत्तियो से सारा मंडप ज्योतिर्मय हो रहा था। सदर फाटक पर बिजली का एक सूर्य बना हुआ था, जिसके प्रकाश में जमीन पर रेंगनेवाली चीटियां भी दिखायी देती थी। सात ही बजे से दर्शकों का समारोह होने लगा।

२०

[ ३०६ ]लाला प्रभाशंकर अपना काला चोगा पहने, एक केसरिया पाग बाँधे, मेहमान का स्वागत कर रहे थे। महिलाओं के लिए दूसरी और पर्दे डाल दिये गये थे। यद्यपि श्रद्धा को इन लीला से विशेष प्रेम न था तथापि गायत्री के अनुरोध से उसने महिलाओं के आदर-सत्कार का भार अपने सिर ले लिया था। आठ बजते-बजते पडाल दर्शको से भर गया, जैसे मैले मै रेलगाडियाँ ठस जाती है। मायाशंकर ने सबके आग्रह करने पर भी कोई पार्ट ने लिया था। मंडप के द्वार पर खड़ा लोगो के जूतो की रखवाली कर रहा था। इस वक्त तक शामियाने में बाजार सा लगा हुआ था, कोई हँसता था, कोई अपने सामनेवालो को धक्के देता था, कुछ लोग राजनीतिक प्रश्नो पर वाद-विवाद कर रहे थे, कही जगह के लिए लोगों में हाथापाई हो रही थी। बाहर सर्दी से हाथपाँच अकड़े जाते थे, पर मंडप में खासी गर्मी थी।

ठीक नौ बजे पर्दा उठा। राधिका हाथ में वीणा लिये, कदम के नीचे खड़ी सूरदास का एक पद गा रही थी। यद्यपि राधिका का पार्ट उस पर फबता न था, उसकी गौरवशीलता, उसकी प्रौढता, उसकी प्रतिभा एक चंचल ग्वाल कन्या के स्वभावानुकूल में थी, किंतु जगमगाहट ने सबकी समालोचक शक्तियों को वशीभूत कर लिया था। सारी सभा विस्मय और अनुराग में डूबी हुई थी, यह तो कोई स्वर्ग की अप्सरा है! उसकी मृदुल वाणी, उसका कोमल गान, उसके अलंकार और भूषण, उसके हाव-भाव उसके स्वर-लालित्य, किस-किस की प्रशंसा की जाय! वह एक थी, अद्वितीय थी, कोई उसका सानी, उसकी जवाब में था।

राधा के पीछे तीन सखियाँ और आयी---ललिता, चन्द्रावली और श्यामा। सब अपनी-अपनी बिरह-कथा सुनाने लगी। कृष्ण की निष्ठुरता और कपट की चर्चा होने लगी। उस पर घरवालों की रोक-थाम, डाँट-डपट भी मारे डालती थी। एक बोली-- मुझे तो पनघट पर जाने की रोक हो गयी है, दूसरी बोली- मैं तो द्वार पर खड़ी हो कर झाँकने भी नहीं पातीं, तीसरी बोली–जब दही बेचने जाती हैं तब बुढ़िया साथ हो लेती है। राधिका ने सजल नेत्र हो कर कहा, मैं तो बदनाम हो गयी, अब किसी से उनकी बात नहीं हो सकती। ललिता बोली---वह आप ही निर्दयी है, नहीं तो क्या मिलने का कोई उपाय ही न था?

चन्द्रावली-उन्हें हमको जलाने और तड़पाने में आनन्द मिलता है।

श्यामा---यह बात नहीं, वह हमारे घरवालो से डरते हैं।

राधा---चल, तू उनको यों ही पक्ष लिया करती है। बड़े चतुर तो बनते हैं? क्या इन बुद्ध को भी घतार नहीं बता सकते? बात यह है कि उन्हें हमारी सुध ही नहीं है।

ललिता---चलो, आज हम सब उनको परखे।

इस पर सब सहमत हो गयी। इधर-उधर चौकन्नी आँखो से ताक-ताक कर हाथ से बता-बता कर, भौहे नचा-नचा कर आपस में सलाह होने लगी। परीक्षा में क्या रूप होगा, इसका निश्चय हो गया। चारो प्रसन्न हो कर एक गीत गाती हुई स्टेज से चली गयी। पर्दा गिर गया। फिर पर्दा उठा। बृक्षों के समूह मै एक छोटा सा गाँव दिखाई [ ३०७ ]दिया। फूस के कई झोपड़े थे, बहुत ही साफ-सुथरे, फूल-पत्तियों से सजे हुए। उनमें कहीं-कहीं गायें बँधी हुई थी, कहीं बछड़े किलोलें करते थे, कहीं दूध बिलोया जाता था। बड़ा सुरम्य दृश्य था। एक मकान में चन्द्रावली पलंग पर पड़ी कराह रही थी। उसके सिरहाने कई आदमी बैठे पंखा झल रहे थे, कई स्त्रियाँ पैर की ओर खड़ी थी। 'बैद! बैद।' की पुकार हो रही थी। दूसरी झोपड़ी में ललिता पड़ी थी। उसके पास भी कई स्त्रियाँ बैठी टोना-टोटका कर रही थी, कोई कहती थी, आसेव है, कोई चुडैल का फेर बतलाती थी। औझा जी को बुलाने की बातचीत हो रही थी। एक युवक खड़ा कह रह था- यह सब तुम्हारा ढकोसला है, इसे कोई हृद्रोग है, किसी चतुर वैद्य को बुलाना चाहिए। तीसरे झोपड़े मे श्यामा की खटोली थी, वहाँ भी यही वैद्य की पुकार थी। चौथा मकान बहुत बड़ा था। द्वार पर बड़ी-बड़ी गायें थी। एक और अनाज के ढेर लगे हुये थे, दूसरी और मटको में दूध भरा रखा था। चारो तरफ सफाई थी। इसमें राधिका रुग्णावस्था में बेचैन पड़ी थी। उसके समीप एक पंण्डित जी आसन पर बैठे हुए पाठ कर रहे थे। द्वार पर भिक्षुकों को अन्नदान दिया जा रहा था। घर के लोग राधिका को चिन्तित नेत्रों से देखते थे और 'बैद। बैद!' पुकारते थे।

सहसा दूर से आवाज आयी बैद। बैद। सब रोगो का बैद, काम का बैद, क्रीडा का बैद, मोह का बैद, लोभ का बैद, धर्म का बैद, कर्म का बैद, मोक्ष का बैद! अर का मैल निकाले, अज्ञान का मैल निकाले, ज्ञान की सीगीं लगाये, हृदय की पीर मिटाये। बैद! बैद!! लोगो ने बाहर निकल कर वैद्य जी को बुलाया। उसके काँधे पर झोली थी, सिर पर एक लाल गोल पगडी, देह पर एक ही बनात की गोटेदार चपकने दी। आँखों में सुरमा, अघरो पर पान की बाली, चेहरे पर मुस्कुराहट थी। चाल-ढाल से बकापन बरसता था स्टेज पर आते ही उन्होंने झोली उतार कर रख दी और बाँसुरी बजा बजा कर गाने लगे----

मैं तो हरत विरह की पीर।

प्रेमदाह को शीतल करता जैसे अग्नि को नीर।

में तो हरत••••••

निर्मल ज्ञान की बूटी दे कर देत हृदय को धीर

मैं तो हरत•••

राधा के घरवाले उन्हें हाथो हाथ अन्दर ले गये। राधिका ने उन्हें देखते ही मुस्कुरा कर मुँह छिपा लिया। वैद्य जी ने उसकी नाड़ी देखने के बहाने से उसकी गोरी गोरी कलाई पकड़ कर धीरे से दबा दी। राधा ने झिझक कर हाथ छुड़ा लिया; तब प्रेमनीति की भाषा में बाते होने लगी।

राघा-नदी में अथाह जल है।

वैद्य–जिसके पास नौका है उसे जल का क्या भय?

राधा–आँधी है, भयानक लहरे हैं और बड़े-बडे भयंकर जलजन्तु हैं।

बैद्य मल्लाह अतुर है। [ ३०८ ] राघा–सूर्य भगवान निकल आये, पर तारे क्यो जगमगा रहे हैं?

वैद्य-प्रकाश फैलेगा तो वह स्वय लुप्त हो जायेगे।

वैद्य जी ने घरवालो को आँखो के इशारे से हटा दिया। जब एकान्त हो गया तब राधा ने मुस्कुरा कर कहा—प्रेम का धागा कितना दृढ है?

ज्ञानशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया।

गायत्री फिर बोली-—आग लकड़ी को जलाती है, पर लकड़ी जल जाती है तो आगे भी बुझ जाती है।

ज्ञानशंकर ने इसका भी कुछ जवाब न दिया।

गायत्री ने उसके मुख की ओर विस्मय से देखा, यह मौन क्यों? अपना पार्ट भूल तो नहीं गये? तब तो बड़ी हँसी होगी।

ज्ञानशंकर के होठ बन्द ही थे, साँस बड़े वेग से चल रही थी। पाँव काँप रहे थे, नेत्रों में विषम प्रेरणा झलक रही थी और मुख से एक भयंकर संकल्प प्रकट होता था, मानो कोई हिंसक पशु अपने शिकार पर टूटने के लिए अपनी शक्तियों को एकाग्र कर रहा हो। वास्तव में ज्ञानशंकर ने छलाँग मारने का निश्चय कर लिया था। इसी एक छलाँग में वह सौभाग्य शिखर पर पहुँचना चाहते थे, इसके लिए महीनों से तैयार हो रहे थे, इसीलिए उन्होने यह ड्रामा खेला था, इसलिए उन्होने यह स्वाँग भरा था। छलॉग मारने का यही अवसर था। इस वक्त चूकना पाप था। उन्होने तोते को दाना खिला कर परचा लिया था, नि शंक हो कर उनके आंगन में दाना चुगता फिरता था। इन्हे विश्वास था कि दाने की चाट उसे पिंजरे में खीच ले जायगी। उन्होने पिंजरे का द्वार खोल दिया था। तोते ने पिंजरे को देखते ही चौक कर पर खोले और मुँडैरे पर उड़ कर जा बैठा। दाने की चाट उसकी स्वेच्छावृत्ति का सर्वनाश न कर सकी थी। गायत्री की भी यही दशा थी। ज्ञानशंकर की यह अव्यक्त प्रेरणा देख कर झिझकी। यह उसका इच्छित क्रम न था। वह प्रेम का रस-पान कर चुकी थी, उसकी शीतल दाह और सुखद पीड़ा का स्वाद चख चुकी थी, वशीभूत हो चुकी थी, पर सतीत्व-रक्षा की आन्तरिक प्रेरणा अभी शिथिल न हुई थी। वह झिझकी और उसी भाँति उठ खड़ी हुई जैसे किसी आकस्मिक आमत को रोकने के लिये हमारे हाथ स्वयं अनिच्छित रूप से उठ जाते है। वह घबरा कर उठी और वैग से स्टेज के पीछे की ओर निकल गयी। वहाँ पर चारपाई पड़ी हुई थी, वह उस पर जा कर गिर पड़ी। वह संज्ञा-शून्य सी हो रही थी जैसे रात के सन्नाटे से कोई गीदड़ बादल की आवाज सुने और चिल्ला कर गिर पड़े। उसे कुछ ज्ञान था तो केवल भय का।

लेकिन उसमे तोते की सी स्वाभाविक शंका थी, तो इसी तोते का सा अल्प आत्मसम्मान भी था। जैसे तोता एक ही क्षण में फिर दाने पर गिरता है और अन्त में पिंजर-बद्ध हो जाता है उसी भॉति गायत्री भी एक ही क्षण में अपनी झिझक पर लज्जित हुई। उसकी मानसिक पवित्रता कब की विनष्ट हो चुकी थी। अब वह अनिच्छित प्रतिकार की शक्ति भी विलुप्त हो गयी। उसके मनोभाव का क्षेत्र अब बहुत [ ३०९ ]विस्तृत हो गया था। पति-प्रेम उसके एक कोने में पैर फैला कर बैठ सकता था, अब हुद्देश पर उसका आधिपत्य न था। एक क्षण में वह फिर स्टेज पर आयी, शरमा रही थी कि शानशंकर मन में क्या कहते होगे। हा! मैं भक्ति के बैग में अपने को न भूल सकी। यहाँ भी अहंकार को न मिटा सकी। दर्शक-वृन्द मन में न जाने क्या विचार कर रहे होगे! वह स्टेज पर पहुँची तो ज्ञानशंकर एक पद गा कर लोगों का मनोरंजन कर रहे थे। उसके स्टेज पर आते ही पर्दा गिर गया।

आध घटे के बाद तीसरी बार पर्दा उठा। फिर वही कदम का वृक्ष था, वहीं सघन कुंज। चारो सखियाँ बैठी हुई कृष्ण के वैद्य रूप धारण की चर्चा कर रही थी। वह कितने प्रेमी, किंतने भक्तवत्सल है, स्वयं भक्तो के भक्त है।

इस वार्तालाप के उपरान्त एक पच-बद्ध रामायण होने लगा जिसमें ज्ञान और भक्ति की तुलना की गयी और अन्त में भक्ति पक्ष को ही सिद्ध किया गया। चारो सखियों ने आरती गायी और अभिनय समाप्त हुआ। पर्दा गिर गया। गायत्री के भाव-चित्रण, स्वर-लालित्य और अभिनय-कौशल की सभी प्रशसा कर रहे थे। कितने ही सरल हृदय भक्तजनों को तो विश्वास हो गया कि गायत्री को राधिका को इष्ट है। सभ्य समाज इतना प्रगल्भ तो न था, फिर भी गायत्री की प्रतिभा, उसके विशाल गाम्भीर्य, उसकी अलौकिक मृदुलता का जादू सभी पर छाया हुआ था। ज्ञानशंकर के अभिनय-कौशल की भी सराहना हो रही थी। यद्यपि उनका गाना किसी को पसन्द न आया, उनकी आवाज में कोच का नाम भी न था, फिर भी उनकी वैद्य-लीला निर्दोष बतायी जाती थी।

गायत्री अपने कमरे में आ कर कोच पर बैठी तो एक बज गया था। वह आनन्द से फूली ने समाती थी, चारो तरफ उसकी वाह-वाह हो रही थी, शहर के कई रसिक सज्जनों ने चुलते समय आ कर उसके मानव चरित्र-आन की प्रशंसा की थी, यहां तक कि श्रद्धा भी उसके अभिनय नैपुण्य पर विस्मित हो रही। उसका गौरवशील हृदय इस विचार से उन्मत्त हो रहा था कि आज सारे नगर में मेरी ही चर्चा, मेरी ही धूम है। और यह सब किसके सत्संग को, किसकी सत्य प्रेरणा का फल था? गायत्री के रोम-रोम से ज्ञानशंकर के प्रति श्रद्धध्वनि निकलने लगी। उसने ज्ञानशंकर पर अनुचित सन्देह करने के लिए अपने को तिरस्कृत किया। मुझे उनसे क्षमा माँगनी चाहिए, उनके पैरों पर गिर कर उनके हृदय से इस दुख को मिटाना चाहिए। मैं उनकी प्रदरज हैं, उन्होंने मुझे धरती से उठा कर आकाश पर पहुँचाया है। मैंने उनपर सन्देह किया। मुझसे बही कृतघ्न और कौन होगा? वह इन्हीं विचारो में मग्न थी कि ज्ञानशंकर आ कर खड़े हो गये और बोले--आज आपने मजलिस पर जादू कर दिया।

गायत्री बोली-यह जादू आपका ही सिखाया हुआ है।

ज्ञानशंकर—सुना करता था कि मनुष्य को जैसा नाम होता है वैसे ही गुण भी उसमे आ जाते है, पर विश्वास न आता था। अब विदित हो रहा है कि यह कथन सर्वथा निस्सार नहीं है। मुझे दो बार से अनुभव हो रहा है कि जब अपना पार्ट [ ३१० ]ऐलने लगता हूँ तब किसी दूसरे ही जगत में पहुँच जाता हूँ। चित्त पर एक विचित्र आनन्द छा जाता है, ऐना भ्रम होने लगता है कि मैं वास्तव मै कृष्ण हूँ।

गायत्रीं-मैं भी यही कहनेवाली थीं। मैं तो अपने को बिलकुल भूल ही जाती हैं।

ज्ञान-सम्भव हैं उस आत्म-विस्मृति की दशा मे मुझसे कोई अपराध हो गया हो तो उसे क्षमा कीजिएगा।

गायत्री सकुचाती हुई बोली--प्रेमोद्गार में अन्त करण निर्मल हो जाता है, बासनाली का लेश भी नहीं रहती।

ज्ञानशंकर एक मिनट तक खड़े इन शब्दो के आशय पर विचार करते है और तब बाहर चले गये।

दूसरे दिन विद्यावती बनारस पहुँची। उसने अपने आने की सूचना न दी थी, केवल एक भरोसे के नौकर को साथ लेकर चली आयी थी। ज्यों ही द्वार पर पहुँची उसे वृहत् पंडाल दिखायी दिया। अन्दर गयी तो श्रद्धा दौड़ कर उससे गले मिली। गहरयां दौड़ी आयी। वह सब की सव विद्या को करुणा-सूचक नेत्रो से देख रही थी। गायत्री गंगा स्नान करने गयी थी। विद्या के कमरे में गायत्री का राज्य था। उसके बन्दूक और अन्य सामान चारों और भरे हुए थे। विद्या को ऐसा ओघ आया कि गायत्री का सुद नामान उन कर बाहर फेंक दे, पर कुछ सोच कर रह गयी। गायत्री के साथ कई महरियाँ भी आयी थी। वे वहाँ की महरियो पर रोब जमाती थी। विद्या को देख्न कर व इधर-उधर हट गयी, कोई कुशल-समाचार पूछने पर भी न आयी। दिया इन परिस्थितियों को उसी दृष्टि से देख रही थी जैसे कोई पुलिस का अफसर किसी घटना के प्रमाण को देखता है। उसके मन में जो शका आरोपित हुई थी उसकी पग-पग पर पुष्टि होती जाती थी। ज्यों ही एकान्त हुआ, विद्या ने श्रद्धा से पूछा---यह शामियाना कैसा सना हुआ है?

श्रद्धा--रात को वहां कृष्णलीला हुई थी।

विद्या-बहिन ने भी कोई पार्ट लिया?

श्रद्धा- वह राधिका बनी थी और बाबू जी ने कृष्ण का पार्ट लिया था।

विद्या-बहिन से खेलते तो न बना होगा?

श्रद्धा---वाह! वह इन कला में निपुण है। सारी सभा लट्ट, हो गयी। आती होगी, आप ही कहेगी।

विद्या-क्या नित्य गगा नान करने जाती हैं?

श्रद्धा----हाँ, प्रातः काल गंगा स्नान होता हैं, भव्या को कीर्तन सुनने जाती है।

इतने में मायाशंकर में आकर माना के चरण स्पर्श किये। विद्या ने उसमें छाती से लगाया और बोली-बेटा, आगम ने तो रहे।

मामा-जी हां, खूब आराम में था।

विद्या----बहिन, देखो इतने ही दिनों में इसकी आवाज कितनी बदल गयी है। बिल्कुल नहीं पहचानी जाती। मौसी जी के क्या रंग-ढंग है? खूब प्यार करती है न? [ ३११ ] माया–हाँ, मुझे बहुत चाहती है, बहुत अच्छा मिजाज है।

विद्यावहाँ भी कृष्णलीला होती थी कि नहीं?

माया--हाँ, वहाँ तो रोज ही होती रहती थी। कीर्तन नित्य होता था। मथुरावृन्दावन से रासबाले बुलाये जाते थे। बाबू जी भी कृष्ण का पार्ट खेलते हैं। उनके केश खूर्द बढ़ गये हैं। सूरत से महन्त मालूम होते है। तुमने तो देखा होगा?

विद्या--हीं, देखा क्यों नहीं। बहिन अब भी उदास रहती है?

माया--मैंने तो उन्हें कभी उदास नही देखा। हमारे घर में तो ऐसा प्रसन्नचित्त कोई है ही नही।

विद्या यह प्रश्न यो पूछ रही थी जैसे कोई वकील गवाह है जिरह कर रहा हो। प्रत्येक उत्तर उसके सन्देह को दृढ करता था। दस बजे द्वार पर मोटर की आवाज सुनायी दी। सारे घर में हलचल मच गयी। कोई महरी गायत्री का पलंग बिछाने लगी, कोई उमके स्लीपरो को पोछने लगी, किसी ने फर्श झाड़ना शुरू किया, कोई उसके जलपान की सामग्रियाँ निकाल कर तश्तरी में रखने लगी और एक ने लौटा-गिलास माँज कर रख दिया। इतने में गायत्री ऊपर आ पहुँची। पीछे-पीछे ज्ञानशंकर भी थे। विद्या अपने कमरे से न निकली, लेकिन गायत्री लपक कर उसके गले से लिपट गयी और बोली---तुम कब आयी। पहले से खत भी न लिखा?

विद्या गला छुड़ा कर अलग खड़ी हो गयी और रुखाई से बोली-खत लिख कर क्या करती? यहाँ किसे फुरसत थी कि मुझे लेने जाता। दामोदर महाराज के साथ चली आयी।

ज्ञानशंकर ने विद्या के चेहरे की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा। उत्तर मोटे अक्षरों में स्पष्ट लिखा हुआ था। विद्या भावों को छिपाने में कच्ची थी। सारी कथा उसके चेहरे पर अंकित थी। उसने ज्ञानशंकर को आँख उठा कर भी न देखा, कुशल-समाचार पूछने की बात ही क्या। नंगी तलवार बनी हुई थी। उसके तेवर साफ कह रहे थे कि वह भरी-भरी बैठी है और अवसर पाते ही उबल पड़ेगी। ज्ञानशंकर को चित्त उद्विग्न हो गया। वे शकाएँ, वह परिणाम-चिन्ता जो गायत्री के आने से दब गयी थी, फिर जागे उठी और उनके हृदय में काँटों के समान चुभने लगी। उन्हें निश्चय हो गया कि विद्या सब कुछ जान गयी, अब वह मौका पाते ही ईर्ष्या वेग में गायत्री से सब कुछ कह सुनायेगी। मैं उसे किसी भांति नही रोक सकता। समझाना, डराना, घमकाना, बिन। और चिरौरी करना सब निष्फल होगा। बस अगर अब प्राण-रक्षा की कोई उपाय है। तो यही कि उसे गायत्री से बात-चीत करने का अवसर ही न मिले। या तो आज ही शाम की गाड़ी से गायत्री को ले कर गोरखपुर चला जाऊँ या दोनों बहनों में ऐसा मनमुटाव करा दें कि एक दूसरी से खुल कर मिल ही न सकें। स्त्रियों को ला देना कौन सा कठिन काम है! एक इशारे में तो उनके तेवर बदलते है। ज्ञानशंकर को अभी तक यह ध्यान भी न था कि विद्या मेरी भक्ति और प्रेम के मर्म तक पहुँची हुई है। [ ३१२ ]वह केवल अभी तक राय साहब वाली दुर्घटनाओं को ही इस मनोमालिन्य का कारण समझ रहे थे।

विद्या ने गायत्री मे अलग हट कर उसके नख-शिख को चुभती हुई दृष्टि से देखी। उमने उसे छह साल पहले देखा था। तब उसका मुख-कमल मुझया हुआ था, वह सन्ध्याकाल के सदृश उदास, मलिन, निश्चेष्ट थी। पर इस समय उसके सुख पर खिले हुए कमल की शोभा थी। वह उषा की भाँति विकसित, तेजोमय, सचेप्ट स्फूति से भरी हुई दीख पड़ती थी। विद्या इस विद्युत प्रकाश के सम्मुख दीपक के समान ज्योतिहीन मालूम होती थी।

गायत्री ने पूछा--संगीत सभा का तो खूब आनन्द उठाया होगा?

ज्ञानशंकर का हृदय धकाधक करने लगा। उन्होंने विद्या की ओर बढ़ी दीन दृष्टि से देखा पर उसकी जमीन की तरफ थी, बोली–मैं तो कभी संगीत के जलसे में गयी ही नहीं। हाँ, इतना जानती हैं कि जलसा कुछ फीका रहा। लाला जी बहुत बीमार हो गये और एक दिन भी जलसे मैं शरीक न हो सके।

गायत्री---मेरे न जाने में नाराज तो अवश्य ही हुए होगे?

विद्या--तुम्हें उनके नाराज होने की क्या चिन्ता है? वह नाराज हो कर तुम्हारा क्या बिगाड़ सकते हैं?

यद्यपि यह उत्तर काफी तौर पर द्वेषमूलक था, पर गायत्री अपनी कृष्णलीला की चर्चा करने के लिए इतनी उतावली हो रही थी कि उसने इस पर कुछ ध्यान न दिया। बोली, क्या कहूँ तुम कल न आ गयी नहीं तो यहाँ कृष्णलीला का आनन्द उठाती। भगवान् की चुछ ऐसी दया हो गयी कि सारे शहर में इस लीला की वाह-वाह मच गयी। किसी प्रकार की त्रुटि न रही। रंगभूमि तो तुमको अभी दिखाऊँगी पर उसकी मजावद ऐसी मनोहर थी कि तुमसे क्या कहूँ। केवल पर्यों के बनवाने में हजारो रुपये पर्च हो गये। बिजली के प्रयाग से सारा मंडप ऐसा जगमगा रहा था कि उसकी शोभा देखती ही बनती थी। मैं इतनी बड़ी सभी के सामने आते डरती थी, पर कृष्ण भगवान् ने ऐमी कृपा की कि मेरा पार्ट बने बढ़ कर रहा। पूछो बाबू जी से, शहर में उसका वैसी चर्चा हो रही है। लोगों ने मुझमें एक-एक पद कई-कई बार गवाया।

विद्या ने व्यक्त भाव से कहा--मेरा अभाग्य था कि कल न आ गयी।

गायत्री-एक बार फिर वही लीला करने का विचार है। अबकी तुम्हे भी कोई न कोई पार्ट देंगी।

विद्या--नहीं, मुझे क्षमा करना। नाटक खेल कर स्वर्ग में जाने की मुझे आशा नहीं है।

गायत्री विस्मित हैं। कर विद्या का मुंह ताकने लगी। लेकिन ज्ञानशंकर मन में मुग्ध हुए जाते थे। दोनो बहिनों में वह जो भेद-भाव डालना चाहते थे वह आप ही आप आरोपित हो रहा था। ये शुभ लक्षण थे। गायत्री से बोले-मेरे विचार में यहाँ [ ३१३ ]अब आपको कष्ट होगा। क्यों न बँगले में एक कमरा आपके लिए खाली करा दें? वहाँ आप ज्यादा आराम से रह सकेगी।

गायत्री ने विद्या की तरफ देखते हुए कहा—क्यो विद्या, बंगले में चली जाऊँ? बुरा तो न मानोगी? मेरै यहाँ रहने से तुम्हारे आराम में विघ्न पडेगा। मैं बहुधा भजन गाया करती हूँ।

विद्या—तुम मेरे आराम की चिन्ता मत करो, मैं इतनी नाजुक दिमाग नही हूँ। हाँ, अगर तुम्हें यहाँ कोई असमंजस हो तो शौक से बँगले में चली जाओ।

ज्ञानशंकर ने गायत्री का असवाव उठा कर बँगले में रखवा दिया। गायत्री ने भी विद्या से और कुछ न कहा। उसे मालूम हो गया कि यह इस समय ईर्षा के मारे मरी जाती है। और ऐसा कौन प्राणी होगा, जो ईर्षा की क्रीडा का आनन्द न उठाना चाहे? उसने एक बार विद्या को सगर्व नेत्रों से देखा और जीने की तरफ चली गयी।