प्रेमाश्रम/५१

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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५१

रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुंड रखा हुआ था, उसमे हवन हो रहा था। हवनकुड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और माया। एक [ ३२५ ]पंडिताजी वेद-मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। गायत्री का चम्पई वर्ष अग्नि-ज्वाला से प्रतिविम्वित हो कर कुन्दन हो रहा था। फिरोजी रंग में साड़ी उसपर खूब खिल ही थी। सबकी आँखे उसी के मुख-दीपक की ओर लगी हुई थी। यह माया को गोद लेने का संस्कार था, वह गायत्री का धर्मपुत्र बन रहा था। कुछ सज्जुन आपस में कानाफूनी कर रहे थे, कैसा भाग्यवान लड़का है। लाखो की सम्पत्ति को स्वामी बनाया जाता है, यहाँ आज तक एक पैसा भी पड़ा हुआ न मिला। कुछ लोग कह रहे थे—ज्ञानशंकर एक ही बना हुआ आदमी हैं, ऐसा हत्थे पर चढाया कि जायदाद ले कर ही छोड़ा। अब मालूम हुआ कि महाशय ने स्वांग किस लिए रचा था। यह जटाएँ इसी दिन के लिए बढायी थी। कुछ सज्जनों का मन था कि ज्ञानशंकर इससे भी कहीं मलिनहृदय है।

लाला प्रभाशंकर ने पहले यह प्रस्ताव सुना तो बहुत बिगड़े, लेकिन जब गायत्री ने वही नम्रता से सारी परिस्थिति प्रकट की तो वह भी नीमराजी में हो गये। हृवन के पश्चात् दावत शुरु हुई। इसका सारा प्रबंध उन्हीं के हाथों में था। उनकी अर्धस्वीकृति को पूर्ण बनाने का इससे उत्तम कोई अन्य उपाय न था। उन्हें पूरा अधिकार दे दिया गया था कि वह जितना चाहे वर्ष करें, जो पदार्थ चाहे पकवायें। अतएव इस अवसर पर उन्होंने अपनी सम्पूर्ण पाककला प्रदर्शित कर दी थी। इस समय खुशी से उनकी बाँछें खिली जाती थी, लोगों के मुंह में भोजन की सराहना सुन सुन कर फूले न समाते थे। इनमे कितने ही ऐसे सज्जन थे जिन्हें भोजन से नितान्त अरुचि रहती थी। जो दावतों में शरीक होना अपने ऊपर अन्याय समझते थे। ऐसे लोग भी थे जो प्रत्येक वस्तु को गिन कर और तौल कर खाते थे। पर इन स्वादयुक्त पदार्थों ने तीव्र और मन्द अग्नि में कोई भेद न रखा था। रुचि ने दुर्बल पाचनशक्ति को भी सबल बना दिया था।

दावत समाप्त हो गयी तो गाना शुरू हुआ। अलहदीन एक सात वर्ष का बालक था, लेकिन गानशास्त्र का पूरा पंडित और संगीत कला में अत्यन्त निपुण। यह उसकी ईश्वरदत्त शक्ति थी। जलतरंग, ताऊस, सितार, सरोद, वीणा, पखावज, सारंगीसभी यन्त्रको पर उसका विलक्षण आधिपत्य था। इतनी अल्पावस्था में उनकी यह अलौकिक सिद्धि देख कर लोग विस्मित हो जाने थे। जिन गायनाचार्यों ने एक एक यन्त्र की सिद्धि में अपना जीवन बिता दिया वह भी उसके हाथों की सफाई और कोमलता पर सिंर धुनते थे। उसकी बहुज्ञता उनकी विशेषता को लज्जित किये देती थी। इस समय समस्त भारत में उसकी ख्याति थीं, मानो उसने दिग्विजय कर लिया हो। ज्ञानशंकर ने उस उत्सव पर उसे कलकत्ते से बुलाया था। बह बहुत दुर्बल, कुत्सित, कुरूप बालक था, पर उसका गुण उसके रूप को भी चमत्कृत कर देता था। उसके स्वर में कोयल की कूक का सा माधुर्य था। सारी सभा मुग्ध हो गयी।

इधर तो यह राग-रंग था, उधर विद्या अपने कमरे में बैठी हुई भाग्य को रो रहीं थी। तबले की एक-एक थाप उसके हृदय पर हथौड़े की चोट के ममाने लगती थी। [ ३२६ ]वह एक गर्वशीला, धर्मनिष्ठा, सन्तोष और त्याग के आदर्श का पालन करनेवाली महिला थी। यद्यपि पति की स्वार्थभक्ति से उसे घृणा थी, पर इस भाव को वह अपनी पति-सेवा में बाधक न होने देती थी। पर जब से उसने रायसाहब के मुँह से ज्ञानशंकर के नैतिक एवं पतन का वृतांत सुना था तब से उसकी पति-श्रद्धा क्षीण हो गयी थी! सब का लज्जास्पद दृश्य देख कर बची-खुची श्रद्धा भी जाती रही। जब ज्ञानशंकर को देख कर गायत्री दीवानखाने के द्वार पर आकर फिर उनके पास चली गयी तो विद्या वहाँ न ठहर सकी। वह उन्माद की दशा में तेजी से ऊपर आयी और अपने कमरे में फर्श पर गिर पड़ी। यह ईर्षा का भाव न था जिससे अहिं चिन्ता होती है, यह प्रीति का भाव न था जिससे रक्त की तृणा होती है। यह अपने आपको जलानेवाली आग थी, यह वह विघातक रोष था जो अपना ही होठ चबाता है, अपना ही चमड़ा नौचता हैं, अपने ही अंगों को दांतों से काटता है। वह भूमि पर पड़ी सारी रात रोती रही। अब मैं किसकी हो कर रहूँ? मेरा पति नहीं, मेरा घर अब मेरा घर नहीं। मैं अब अनाथ हूँ, कोई मेरा पूछनेवाला नहीं। ईश्वर! तुमने किस पाप का मुझे दंड दिया? मैंने तो अपने जानमे किसी का बुरा नहीं चेता। तुमने मेरा सर्वनाश क्यों किया? मेरा सुहाग क्यो लूट लिया? यही एक मेरे धन था, इसी का मुझे अभिमान था, इसी का मुझे बल था। तुमने मेरा अभिमान तोड़ दिया, मेरा बल हर लिया। जब आग ही नहीं तो राख किस काम की। यह सुहाग की पिटारी हैं, यह सुहाग की डिबिया है, उन्हें लेकर क्या करू? विद्या ने सुहाग की पिटारी ताक पर से उतार ली और उसी आत्म-वेदना और नैराश्य की दशा में उनकी एक-एक चीज़ खिड़की से नीचे बाग में फेंक दी। कितना कल्पाजनक दृश्य था? आँखो से अश्रु-धारा बह रही थी और वह अपनी चूड़ियाँ तोड़-तोड़कर जमीन पर फेंक रही थी। वह उसके निर्बल क्रोध की चरम सीमा थी! वह एक ऐश्वर्यशाली पिता की पुत्री थी, यहाँ उसे इतना आराम भी न था जो उसके मैके की महरियों को था, लेकिन उसके स्वभाव में संतोष और धैर्य था। अपनी दशा से संतुष्ट थी। ज्ञानशंकर स्वयं-सेवी थे, लोभी थे, निष्ठुर थे, कृर्तव्यहीन थे, इसका उसे शोक था। मगर अपने थे, उनको सुमझाने का, उनको तिरस्कार करने का उसे अधिकार था। उनकी दुष्टता, नीचता और भोग-विलास का हाल सुन कर उसके शरीर मे आग सी लग गयी थी। वह लखनऊ से दामिनी बनी हुई आयी। वह ज्ञानशंकर पर तड़पना और उसकी कुकृतियों को भस्मीभूत कर देना चाहती थी, वह उन्हें व्यंग-धारों से छेदना और कटु शब्दों से उनके हृदय को बेधना चाहती थी। इस वक्त तक उसे अपने सोहाग का अभिमान था। रात के आठ बजे तक वह ज्ञानशंकर को अपना समझती थीं, अपने को उन्हें कोसने की, उन्हें जलाने की अधिकारिणी समझती थी, उसे उनको लज्जित, अपमानित करने का हक था, क्योंकि वह अपने थे! हमसे अपने घर में आग लगते नहीं देखी जाती। घर चाहे मिट्टी का ढेर ही क्यों न हो, खण्डहर ही क्यों न हो, हम उसे आग में जलते नहीं देख सकतें। लेकिन जब किसी कारण से यह घर अपना न रहे तो फिर चाहे अग्नि-शिखा आकाश तक जाये, हमको [ ३२७ ]शोक नही होता। रात के निन्छ घृणित दृश्य ने विद्या के दिल से इस अपने-पन को, इस ममत्व को मिटा दिया था। अब उसे दुख था तो अपने अभाग्य का, शोक था तो अपनी अवलम्ब-हीनता का। उसकी दशा उस पतंग सी थी, जिसकी डोर टूट गयी हो, अथवा उस वृक्ष सी जिसकी जड़ कट गयी हो।

विद्या सारी रात इसी उद्विग्न दगी में पड़ी रही। कभी सोचती लखनऊ चली जाऊ और वहाँ जीवनक्षेप करू, कभी सोचती जीकर करना ही क्या है, ऐसे जीने से मरना क्या बुरा है? सारी रात आँखो में कट गयी। दिन निकल आया, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था। इतने में श्रद्धा आ कर खड़ी हो गयी और उसके श्रीहीन मुख की ओर देख कर बोली—क्या आज सारी रात जागती रही? आँखे लाल हो रही हैं।

विद्या ने आँखे नीची करके कहा- हाँ, आज नींद नहीं आयी।

श्रद्धा---गायत्री देवी से कुछ बातचीत नहीं हुई। मुझे तो ढंग ही निराले दीखते है। तुम तो इनकी बड़ी प्रशसा किया करती थी।

विद्या-क्यों, कोई नयी बात देखी क्या?

श्रद्धा-नित्य ही देखती हूँ। लेकिन रात जो दृश्य देखा और जो बाते सुनी वह कहते लज्जा आती है। कोई ग्यारह बजे होगे। मुझे अपने कमरे में पड़े-पड़े नीचे किसी के बोल-चाल की आहट मिली। डरी कि कहीं चोर न आयें हो। धीरे से उठ कर नीचे गयी। दीवानखाने में लैम्प जल रहा था! मैंने शीशे के अन्दर झाँका तो मन में कट कर रह गयी। अब तुमसे क्या कहूँ, मैं गायत्री को इतनी चंचल न समझती थी। कहाँ तो कृष्ण की उपासना करती है, कहाँ छिछोरापन। मैं तो उन्हें देखते ही मन में खटक गयी थी, पर यह न जानती थी कि इतने गहरे पानी में हैं।

विद्या-मैने भी तो कुछ ऐसा तमाशा देखा था। तुम मेरे आने के बहुत देर पीछे गयी थी। मुझे लखनऊ में ही सारी कथा मालूम हो गयी थी। इसी भयंकर परिणाम को रोकने के लिए मैं वहाँ से दौड़ी आयी, किन्तु यहाँ का रंग देख कर हताश हो गयी। ये लोग अब मेंझधार में पहुँच चुके है, उन्हें बचाना दुस्तर है। लेकिन मैं फिर कहूँगी कि इसमें गायत्री बहिन का दोष नहीं, सारी करतूत इन्ही महाशय की है जो जटा बढाये, पीताम्बर पहने भगत जी बने फिरते है। गायत्री बेचारी सीधी-सादी, सरल स्वभाव की स्त्री है। धर्म की ओर उसकी विशेष रुचि है, इसीलिए यह महाशय भी भगत बन बैठे और यह भेष धारण करके उसपर अपना मत्र चलाया। ऐसा पापात्मा संसार में न होगा। बहिन, तुमसे दिल की बात कहती हूँ, मुझे इनकी सूरत से घृणा हो गयी। मुझपर ऐसा आघात हुआ है कि मेरा बचना मुश्किल है। इस घोर पाप का दंड अवश्य मिलेगा। ईश्वर न करे मुझे इन आँखों से कुल का सर्वनाश देखना पड़े। वह सोने की घड़ी होगी जब संसार से मेरा नाता टूटेगा।

श्रद्धा--किसी की बुराई करना तो अच्छा नहीं है और इसी लिए मैं अब तक सब कुछ देखती हुई भी अन्धी बनी रही, लेकिन अब बिना बोले नहीं रहा जाता। मेरा वश चले तो ऐसी कुटिलाओं का सिर कटवा लें। यह भोलापन नहीं है, बेहयाई [ ३२८ ]है। दिखाने के लिए भोली बन बैठी हुई है। पुरुष हजार रसिया हो, हजार चतुर हो, हजार धातिया हो, हजार डोरे डाले, किन्तु सती स्त्रियों पर उसका एक मन्त्र भी नहीं चल सकता। वह आँख ही क्या जो एक निगाह में पुरुष की चाल ढाल को ताड़ न ले। जलाना आग का गुण हैं, पर हरी लकड़ी की भी किसी ने जलते देखा है? ह्या स्त्रियों की जान है, इसके बिना वह सुखी लकड़ी हैं जिन्हें आग की एक चिनगारी जला कर राख कर देती है। इसे अपने पति देव की आत्मा पर भी दया न आयी। उसे कितना क्लेश हो रहा होगा इसके आने से मेरा घर अपवित्र हो गया। रात को दोनो प्रेमियों की बातों की भनक जो मेरे कान में पड़ी, उससे ऐसा कुछ मालूम होता है कि गायत्री माया को गोद छेना चाहती है।

विद्या ने भयभीत हो कर कहा-माया को?

अदा–हाँ, शायद आज ही उसकी तैयारी हैं। शहर में नेवता भेजे जा रहे है।

विद्या की आँखो में आँसू की बड़ी-बड़ी बूंदे दिखायी दी जैसे मटर की फली में दाने होते हैं। बोली, बहिन तब तो मेरी नाव डूब गयी। जो कुछ होना था हो चुका। अब सारी स्थिति समझ में आ गयी। इस धूर्त ने इसीलिए यह जाल फैलाया था, इसीलिए इसने यह भेष रचा है, इसी नीयत से इसने गायत्री की गुलामी की थी। मैं पहले ही डरती थी। कितना समझाया, कितना मना किया, पर इसने मेरी एक सुनी। अब मालूम हुआ कि इसके मन में क्या ठनी थी। आज सात साल से यह इसी बुन में पड़ा हुआ है। अभी तक में यह समझती थी कि इसे गायत्री के रंग-रूप, बनाव-चुनाव, बातचीत ने मोहित कर लिया है। वह निन्द्य कर्म होने पर भी घृणा के योग्य नहीं है। जो प्राणी प्रेम कर सकता है वह घर्म, दया, विनय आदि सद्गुणो से शून्य नहीं हो सकता, प्रेम की ज्योति उसके हृदय को प्रकाशित करती रहती है, लेकिन जो प्राणी प्रेम का स्वांग भर कर उससे अपनी कुटिल अर्थ सिद्ध करता है, जो टट्टी की आड़ से शिकार खेलता है उमसे ज्यादा नीच नराधम कोई हो ही नही सकता। वह उस डाकू से भी गया बीता है जो धन के लिए लोगो के प्राण हर लेता है। वह प्रेम जैसी पवित्र वस्तु का अपमान करता है। उसका पाप अक्षम्य है। मैं बेचारी गायत्री को अब भी निर्दोष समझती हूँ। बहिन, अब इस कुल का सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं है। जहाँ इतना अधर्म, इतना पाप, इतना छल-कपट हो वहाँ कल्याण कैसे हो सकता है? अब मुझे पिता जी की चेतावनी याद आ रही है। उन्होने चलते समय मुझसे कहा था--अगर तूने यह आग न बुझायी तो तेरे वंश का नाम मिट जायगा। हाय। मेरे रोएँ खड़े हो रहे हैं। बेचारे माया पर क्या बीतेगी? यह हराम का माल, यह हराम की जायदाद उसकी जान की ग्राहक हो जायेगी, सर्प बनकर कर उसे डंस लेगी? बहिन, मेरा कलेजा फटा जाता है। मैं अपने माया को इस आग से क्योंकर बचाऊँ? वह मेरी आँखों की पुतली है, वही मेरे प्राणों का आधार हैं। यह निर्दयी पिशाच, यह अधिक मेरे लाल की गर्दन पर छुरी चल रहा है। कैसे उसे गोद में छिपा लूँ? कैसे उसे हृदय में बिठा लूँ? बाप हो कर उसको विष दे [ ३२९ ]रहा है। पाप का अग्नि कुंड जला कर मेरे लाल को उसमें झोक देता है। मैं अपनी आँखो यह सर्वनाश नहीं देख सकती? बहिन, तुमसे आज कहती हूँ, मुन्नी के जन्म के बाद इस पापी ने मुझे न जाने क्या खिला कर मेरी कोख हर ली, न जाने कौन सा अनुष्ठान कर दिया? वहीं बिप इसने पहले ही खिला दिया होता, वहीं अनुष्ठान पहले ही करा दिया होता तो आज यह दिन क्यों आता? बांझ रहना इमसे कहीं अच्छा है कि सन्तान गोद से छिन जाय। हाय मेरे लाल को कौन बचायेगा? मैं अब उसे नहीं बचा सकती। आग की लहरें उसकी ओर दौड़ी चली आती है। बहिन, तुम जा कर उस निर्दयी को समझाओ। अगर अब भी हो सके तो मेरे माया को बचा लो। नहीं, अब तुम्हारे बस की बात नहीं है, यह पिशाच अब किसी के समझाने से ने मानेगा। उसने मन में ठान लिया है तो आज ही सब कुछ कर डालेगा।

यह कहते-कहते वह उठी और खिड़की से नीचे देखा। दीवानखाने के सामने वाले सहन की सफाई हो रही थी, दरिया झाड़ी जा रही थी। उसकी आँखें माया को खोज रही थी, वह माया को अपने हृदय में चिपटाना चाहती थी। माया न दिखायी दिया। एक क्षण में मोटर सहन में आयी, गायत्री और ज्ञानशंकर उस पर आ बैठे। माया भी एक मिनट में दीवानखाने से निकला और मोटर पर आ बैठा। विद्या ने आतुरता से पुकारा-माया, माया! यहाँ आओ! लेकिन या तो माया ने सुना ही नहीं या सुन कर ध्यान ही नहीं दिया। वह बड़ी पुकारती ही रही और मोटर हवा हो गयी। विद्या को ऐसा जान पड़ा मानो पानी में पैर फिसल गये। वह तुरत पछाड़ खा कर गिर पड़ी। लेकिन श्रद्धा ने संभाल लिया, चौट नही आयी।

थोडी देर तक विद्या मूर्छित दशा में पड़ी रही। श्रद्धा उसका सिर गोद में लिय बैठी रोती रही। मैं अपने को अभागिनी समझती थी। इस दुखिया की विपत्ति और भी दुस्सह है। किसी रीति से उन्हें (प्रेमशंकर को) यह खबरे होती तो वह अवश्य गायत्री को समझाते। गायत्री उनका आदर करती है। शायद मान जाती, लेकिन इस महापुरुष के सामने उनकी भेट तो गायत्री से नही हो सकती। इसी भय से तो घर के बाहर निकल गये हैं कि काम में कोई विघ्न-बाधा न पड़े। कुछ नहीं, यह सब इसी की भूल है। ज्यों ही मैंने इससे गोद लेने की बात कही, इसे उसी क्षण बाहर जा कर दोनों को फटकारना और माया का हाथ पकड़ कर खीच लाना चाहिए था। मजाल थी कि मेरे पुत्र को कोई मुझसे छीन ले जाता। सहसा विद्या ने आँखे खोल दी और क्षीण स्वर से बोली-बहिन, अब क्या होगा?

श्रद्धा होने को अब भी सब कुछ हो सकता हैं। करनेवाला चाहिए।

विद्या--अब कुछ नहीं हो सकता। सब तैयारियाँ हो रही हैं, चाचा जी न जाने कैसे राजी हो गये।

श्रद्धा- मैं जरा जा कर कहारो से पूछती हूँ कि कब तक आने को कह गये है।

विद्या—-शाम होने के पहले ये लोग कभी न लौटेंगे। माया को हटा देने के [ ३३० ]लिए ही यह चाल चली गयी है। इन लोगों ने जो बात मन में ठान ली है वह हो कर रहेगी। पिता जी का शाप मेरी आँखो के सामने है। यह अनर्थ होना है और होगा।

श्रद्धा-जब तुम्हारी यही दशा हे तो जो कुछ हो जाय वह थोडा है।

विद्या ने कुतूहल से देख कर कहा--भला मेरे बस की कौन सी बात है?

श्रद्धा--बस की बात क्यों नहीं है? अभी शाम को जब यह लोग लौटे तब नीचे चली जाओ और माया का हाथ पकड़ कर खीच लायो। वह न आये तो सारी बाते खोल कर उससे कह दो। समझदार लड़का है, तुरन्त उनसे उसका मन फिर जायगा।

विद्या---(सोच कर) और यदि समझाने से भी न आये? इन लोगों ने उसे खूब सिखा-पढ़ा रखा होगा।

श्रद्धा--तो रात को जब शहर के लोग जमा हो, जा कर भरी सभा में कह दो, यह सब मेरी इच्छा के विरुद्ध है। मैं अपने पुत्र को गोद नहीं देना चाहती। लोगो की सब चाले पट पड़ जाये। तुम्हारी जगह मैं होती तो वह महनामथ मचते कि इनके दाँत खट्टे हो जाते हैं क्या करूँ, मेरा कुछ अधिकार नहीं है, नही तो इन्हें तमाशा दिखा देती।

विद्या ने निराश भाव से कहा---बहिन, मझसे यह न होगा। मुझमे न इतनी सामर्थ्य है, न साहस। अगर और कुछ न हो, माया ही मेरी बातों को दुलख दे तो उसी क्षण मेरा कलेजा फट जायगई। भरी सभा में जाना तो मेरे लिए असम्भव है। उधर पैर ही न उठेंगे। उठे भी तो वहाँ जा कर जवान बन्द हो जायेगी।

श्रद्धा---पता नही ये लोग किधर गये हैं। एक क्षण के लिए गायत्री एकान्त मे मिल जाती तो एक बार मैं भी समझा देखती।