प्रेमाश्रम/५०

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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५०

रात का एक बजा था। गायत्री वीणा पर गा रही थी कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। उन्होने आज देवी से वरदान मांगने का निश्चय कर लिया था। लोहा लाल हो रहा था, अब आगा-पीछा करने का अवसर न था, ताबडतोड चोंटों की जरूरत थी। एक दिन की देर भी बरसो के अविरल उद्योग पर पानी फेर सकती थी, जीवन की समस्त आशाओं को मिट्टी में मिला सकती थी। विद्या की एक अनुचित बात सारी बाजी को पलट सकती थी, उसका एक द्वेपमूलक सकेत उनके सारे हवाई किलो को विध्वंस कर सकता था। कदाचित् किसी सेनापति को रणक्षेत्र में इतना महत्त्वपूर्ण और निश्चयकारी अवसर न प्रतीत होगा, जितना इस समय ज्ञानशंकर को मालूम हो रहा था। उनकी अवस्था उस सिपाही की सी थी जो कुछ दूर पर खडा शस्त्रशाला में आग की चिनगारी पडते देखें और उसको बुझाने के लिए बेतहाशा दौडै। उसका द्रुतवेग कितना महत्त्वपूर्ण, कितना मूल्यवान है। एक क्षण का विलंभ सेना के सर्वनाश, दुर्ग के दमन, राज्य के निक्षेप और जाति के पददलित होने का कारण हो सकता है। ज्ञानशंकर आज दोपहर से इसी समस्या के हल करने मे व्यस्त थे। क्योकर विषय को छेड़े? ऐसा अन्दाज होना चाहिए कि मेरी निष्काम-वृत्ति का पर्दा न खुलने पाये। उन्होने अपने मन में विषय-प्रवेश का ऐसा क्रम बाँधा था कि मायाशंकर को गोद लेने का प्रस्ताव गायत्री की ओर से हो और मैं उसके गुण-दोषो की निस्वार्थ भाव से व्याख्या करूं। मेरी हैसियत एक तीसरे आदमी की सी रहे, एक शब्द से भी पक्षपात न प्रकट हो। उन्होने अपनी बुद्धि, विचार, दूरदर्शिता और पूर्व-चिन्ता से कभी इतना काम न लिया था। सफलता मे जो बाधाएँ उपस्थित होने की कल्पना हो सकती थी उन सभी की उन्होने योजना कर ली थी। अपने मन में एक-एक शब्द, एक-एक इशारें, एक-एक भाव का निश्चय कर लिया था। वह एक केशरिया रंग की रेशमी चादर ओढ़े हुए थे, लम्बे केश चादर पर बिखरे [ ३१४ ]पड़े थे, आँखो से भक्ति का आनन्द टपक रहा था और मुखारबिन्द प्रेम की दिव्यज्योति से आलोकित था।

उन्होंने गायत्री को अनुराग दृष्टि से देख कर कहा--आपके पदो में गजब का जादू है। हृदय में प्रेम की तरणें उठने लगती है, चित्त भक्ति से उन्मत्त हो जाता है।

गायत्री ने मुस्कुरा कर कहा, यह जादू मेरे पद में नहीं है, आपके कोमल हृदय में है। बाहर का काफी नीरस ध्वनि भी अन्दर जा कर सुरीली और रसमयी हो जाती हैं। साधारण दीपक भी मोटे शीशे के अन्दर बिजली का लैम्प बन जाता है।

ज्ञानशंकर--मेरे चित्त की आजकल एक विचित्र दशा हो गयी है। मुझे अब विश्वास हो गया है कि मनुष्य में एक ही साथ दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का समावेश नहीं हो सकता, एक आत्मा दो रूप नही धारण कर सकती।

गायत्री ने उनकी ओर जिज्ञासा भाव से देखा और वीणा को मेज पर रख कर उनको मुँह देखने लगी।

ज्ञानशंकर ने कहा- हम जो रूप धारण करते हैं उसका हमारी बातचीत और आचार व्यवहार पर इतना असर पड़ता है कि हमारी बास्तविक स्थिति लुप्त सी हो जाती हैं। अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोग क्यों तहको को नाटक में स्त्रियों का रूप धरने, नाचने और भाव बताने पर आपत्ति करते है। एक दयालु प्रकृति का मनुष्य सेना में रह कर कितना उद्दड और कठोर हो जाता है। परिस्थितियाँ उसकी दयालुता का नाश कर देती है। मेरे कानों मे अब नित्य घशी की मधुर-ध्वनि गुंजा करती है और आँखों के सामने गोकुल और बरसाने की छटा फिरा करती है। मेरी सत्ता कृष्ण में विलीन होती जाती हैं, राधा अब एक क्षण के लिए भी मेरे ध्यान से नहीं उतरती। कुछ समझ में नहीं आता कि मेरा मन मुझे किधर लिये जाता है।

यह कहते-कहते ज्ञानशंकर की आँखो से ज्योति सी निकलने लगी, मुखमहल पर अनुराग छा गया और वाणी माधुर्यं रस में डूब गयी। बोले- गायत्री देवी, चाहे यह छोटा मुँह और वही बात हो, पर सच्ची बात यह है कि इस आत्मोत्सर्ग की दशा में तुम्हारा उच्च पद, तुम्हारा धन-वैभव, तुम्हारा नाता सब मेरी आँखो से लुप्त हो जाता है और तुम मुझे वही राधा, वही वृन्दावन की अलबेली, तिरछी चितवनवाली, मीठी मुस्कानवाली, मृदुल भावोवाली, चंचल-चपल राघा भालूम होती हो। मैं इन भावनाओ को हृदय से मिटा देना चाहती हैं लाखो यत्न करता हैं, पर वह मेरी नही मानता। मैं चाहता हूँ कि तुम्हे रानी गायत्री समझें जिसका मैं एक तुच्छ सेवक हैं, पर बार-बार भूल जाता हूँ। तुम्हारी एक आवाज, तुम्हारी एक झलक, तुम्हारे पैरों की आहट, यहाँ तक कि केवल तुम्हारी याद मुझे इस वाह्य जगत् से उठा कर किसी दूसरे जगत में पहुँचा देती है। मैं अपने को बिलकुल भूल जाता हैं। अव तक इस चित्तवृत्ति को तुमसे गुप्त रखा था, लेकिन जैसे मिजराब की चोट से सितार ध्वनित हो जाता है उसी भाँति प्रेम की चोट से हृदय स्वरयुक्त हो जाता है। मैंने आपसे अपने चित्त की दशा कह [ ३१५ ]सुनायी, सन्तोप हो गया। इस प्रीति का अन्त क्या होगा, इसे उसके सिवा और कौन जानता है जिसने हृदय में यह ज्वाला प्रदीप्त की है।

जिस प्रकार प्यास से तड़पता हुआ मनुष्य ठंडा पानी पी कर तृप्त हो जाता है, एक-एक घूट उसकी आँखो में प्रकाश और चेहरे पर विकास उत्पन्न कर देता है, उसी प्रकार यह प्रेम वृत्तान्त सुन कर गायत्री का मुखचन्द्र उज्ज्वल हो गया, उसकी आँखे उन्मत्त हो गयी, उसे अपने जीवन में एक नयी स्फूर्ति का अनुभव होने लगा। उसके विचारों में यह आध्यात्मिक प्रेम था, इसमें वासना का लैश भी न था। इसके प्रेरक कृष्ण थे। वहीं ज्ञानशंकर के दिल में बैठे हुए उनके कठ मे से यह प्रेम-स्वर अलाप रहे थे। उसके मनमें भी ऐसे भाव पैदा होते थे, लेकिन लज्जावश उन्हें प्रकट न कर सकती थी। राधा का पार्ट खेल चुकने के बाद वह फिर गायत्री हो जाती थी, किन्तु इस समय ये बाते सुन कर उस पर एक नशा सा छा गया। उसे ज्ञात हुआ कि राधा मेरे हृदय-स्थल में विराज रही हैं, उसकी वाणी लज्जा के बन्धन से मुक्त हो गयी। इस आध्यात्मिक रत्न के सामने समग्र संसार, यहाँ तक कि अपना जीवन भी तुच्छ प्रतीत होने लगा। आत्म-गौरव से आँखें चमकने लगी। बोली-प्रियतम, मेरी भी यह दशा है। मैं भी इसी ताप से फेंक रही हैं। यह तन और मन अब तुम्हारी भेद है। तुम्हारे प्रेम जैसा रत्न पा कर अब मुझे कोई आकांक्षा, लालसा नहीं रही। इस आत्म-ज्योति ने माया और मोह के अन्धकार को मिटा दिया, सासारिक पदार्थों से जी भर गया। अब यही अभिलाषा है कि यह मस्तक तुम्हारे चरणो पर हो और तुम्हारे कीर्ति-गान में जीवन समाप्त हो जाय। मै रानी नहीं हैं, गायत्री नहीं हैं, मैं तुम्हारे प्रेम की भिखारिनी, तुम्हारे प्रेम की मतवाली, तुम्हारी चेरी राधा हैं। तुम मेरे स्वामी, मेरे प्राणाधार, मेरे इष्टदेव हो। मैं तुम्हारे साथ बरसाने की गलियो मे विचरूंगी, यमुना के तट पर तुम्हारे प्रेम-पग गाऊंगी। मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं हैं, अभी मेरा चित्त भोग-विलास का दास है। अभी मैं धर्म और समाज के बन्धनों को तोड़ नहीं सकी हैं, पर जैसी कुछ हूँ अब तुम मेरी सेवाओं को स्वीकार करो। तुम्हारे ही सत्संग ने इस स्वर्गीय सुख का रस चखाया है, क्या वह मन के विकारों को शान्त न कर देगा?

यह कहते-कहते गायत्री के लोचन सजल हो गये। वह भक्ति के आवेग में ज्ञानशंकर के पैरों पर गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने उसे तुरन्त उठा कर छाती से लगा लिया। अकस्मात् कमरे का द्वार धीरे से खुला और विद्या ने अन्दर कदम रखा। ज्ञानशंकर और गायत्री दोनों ने चौक कर द्वार की ओर देखा और झिझक कर अलग खड़े हो गये। दोनों की आँखे जमीन की तरफ झुक गयी, चेहरे पर हवाई उड़ने लगी। ज्ञानशंकर तो सामने की अलमारी में से एक पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगें, किन्तु गायत्री ज्यों की त्यों अवाक् और अंचल, पाषाण मूर्ति के सदृश खड़ी थी। माथे पर पसीना आ गया। जी चाहता था, धरती फट जाय और मैं उसमे समा जाऊँ। वह कोई बहाना, कोई हीला न कर सकी। आत्मग्लानि ने दुस्साहस का स्थान ही न [ ३१६ ]छोड़ा था। उसे फर्श पर मोटे अक्षरों में यह शब्द लिखे हुए दीखते थे, 'अब तू कहीं की न रही, तेरे मुंह में कालिख पुत गयी!' यही विचार उसके हृदय को आन्दोलित कर रहा था, यही ध्वनि उसके कानों में आ रही थी। वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। अभी एक क्षण पहले उसकी आँखो से आत्माभिमान वरस रहा था, पर इस वक्त उससे दीन, उससे दलित प्राणी संसार में न था। क्षण मात्र में उसकी भक्ति और अनुराग, उसके प्रेम और ज्ञान का पर्दा खुल गया। उसे ज्ञात हुआ कि मेरी भक्ति के स्वच्छ जल के नीचे कीचड़ था, मेरे प्रेम के सुरम्य पर्वत शिखर के नीचे निर्मल अन्धकारमय गुफा थी। मैं स्वच्छ जल में पैर रखते ही कीचड़ मे आ फँसी, शिखर पर चढ़ते ही अँधेरी गुफा में आ गिरी। हा! इस उज्ज्वल, कंचनमय, लहराते हुए जल में मुझे धोखा दिया, इन मनोरम शुभ्र शिखरों ने मुझे ललचाया और अब मैं कहीं की न रही। अपनी दुर्बलता और क्षुद्रता पर उसे इतना खेद हुआ, लज्जा और तिरस्कार के भावों ने उसे इतना मर्माहत किया कि वह चौख मार कर रोने लगी हो। विद्या मुझे अपने मन में कितना कुटिल समझ रही होगी। वह मेरा कितना आदर करती थीं, कितना लिहाज करती थी, अब मैं उसकी दृष्टि में छिछोरी हैं, कुलकलकिनी हैं। उसके सामने सत्य और व्रत की कैसी डिंगे मारती थी, सेवा और सत्कर्म की कितनी सराहना करती थी। मैं उसके सामने साध्वी, सतीं बनती थी, अपने पातिव्रत्य पर घमंड करती थी, पर अब उसे मुंह दिखाने योग्य नहीं हैं। हाय! वह मुझे अपनी सौत समझ रही होगी, मुझे आँखो की किरकिरी, अपने हृदय का काँटा ख्याल करती होगी! मैं उसकी गृह-विनाशिनी अग्नि, उसकी हौड़ी मैं मुंह डालने वाली कुतिया हूँ। भगवान्! मैं कैसी अन्ची हो गयी थी। यह मेरी छोटी बहिन है, मेरी कन्या के समान है। इस विचार ने गायत्री के हृदय को इतने जोर से मसोसा कि वह कलेजा थाम कर बैठ गयीं। सहसा वह रोती हुई उठी और विद्या के पैरों पर गिर पड़ी।

विद्यावती इस वक्त केवल संयोग से यहाँ आ गयी थी। वह अमर अपने कमरे में बैठी सोच रही थी कि गायत्री बहिन को क्या हो गया है? उसे क्यों कर समझाऊँ कि यह महापुरुष (ज्ञानशंकर) तुझे प्रेम और भक्ति के सब्ज बाग दिखा रहे हैं। यह सारा स्वाँग तेरी जायदाद के लिए भरा जा रहा है। न जाने क्यों धन-सम्पत्ति के पीछे इतने अन्धे हो रहे हैं कि धर्म और विवेक को पैरो तले कुचले डालते हैं। हृदय का कितना धूर्त, कितना लोभी, कितना स्वार्थान्ध मनुष्य हैं कि अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए किसी की जान, किसी की आबरू की भी परवाह नहीं करता। बात तो ऐसी करता है मानो ज्ञान-चक्षु खुल गये हो, मानो ऐसी साघु-चरित्र, ऐसा विद्वान् परमार्थी पुरुष संसार में न होगा, पर अन्त करण में कूट-कूट कर पशुता, कपट और कुकर्म भरा हुआ है। बस, इसे यही घुन है कि गायत्री किसी तरह माया को गोद ले ले, उसको लिखापढ़ी हो जाय और इलाके पर मेरा प्रभुत्व जम जाय, उसका सम्पूर्ण अधिकार मेरे हाथो में आ जाय। इसी लिए इसने ज्ञान और भक्ति का यह जाल फैला रखा है, भगत बन [ ३१७ ]गया है, बाल बढ़ा लिये है, नाचता है, गाता है, कन्हैया बनता है। कितनी भयंकर धूर्तता है, कितना घृणित व्यवहार, कितनी आसुरी प्रवृत्ति।

यह इन्ही विचारो में मग्न थी कि उसके कानों में गायत्री के गाने की आवाज आयी। वह वीणा पर सूरदास का एक पद गा रही थी, राग इतनी सुमधुर और भावमय था, ध्वनि में इतनी करुणा और आकांक्षा भरी हुई थी, स्वर में इतना लालित्य और लोच था कि विद्या का मन सुनने के लिए लोलुप हो गया, वह विवश हो गयी, स्वर-लालित्य ने उसे मुग्ध कर दिया। उसने सोचा, सच्चे अनुराग और हार्दिक वेदना के बिना गाने मे यह असर, यह विरक्ति असम्भव है। इसकी लगन सच्ची है, इसकी। भक्ति सच्ची है। इस पर मंत्र डाल दिया गया है। मैं इस मंत्र को उतार दें, हो सके तो उसे गार में गिरने से बचा लें, उसे जता दें, जगा दें। निसन्देह यह महोदय मुझ से नाराज होगे मुझे वैरी समझेंगे, मेरे खून के प्यासे हो जायँगे, कोई चिन्ता नहीं। इस काम में अगर मेरी जान भी जाय तो मुझे विलम्ब न करना चाहिए। जो पुरुष ऐसा खूनी, ऐसा विघातक, ऐसा रँगा हुआ सियार हो उससे मेरा कोई नाता नहीं। उसका मुंह देखना, उसके घर में रहना, उसकी पत्नी कहलाना पाप हैं।

वह ऊपर से उतरी और धीरे-धीरे गायत्री के कमरे मे आयी; किन्तु पहला ही फ्ग अन्दर रखा था कि ठिठक गयी। सामने गायत्री और ज्ञानशंकर आलिंगन कर रहे थे। वह इस समय बड़ी शुभ इच्छाओं के साय आयी थी, लेकिन निर्लज्जता का यह दृश्य देख कर उसका खून खौल उठा, आँखों में चिनारियाँ सी उड़ने लगी, अपमान और तिरस्कार के शब्द मुंह से निकलने के लिए जोर मारने लगे। उसने आग्नेय नेत्रो से पति को देखा। उसके शाप मे यदि इतनी शक्ति होती कि वह उन्हे जला कर भस्म कर देता तो वह अवश्य शाप दे देती है उसके हाथ में यदि इतनी शक्ति होती कि वह एक ही बार में उनका काम तमाम कर दे तो वह अवश्य वार करती। पर उसके बश में इसके सिवाय और कुछ न था कि वह वहाँ से टल जाय। इस उद्विग्न दशा में बह वहाँ वह न सकती थी। वह उल्टे पाँव लौटना चाहती थी। खलिहान में आग लग चुकी थी, चिड़िया के गले पर छुरी चल चुकी थी, अब उसे बचाने का उद्योग करना व्यर्थ था। गायत्रीं से उसे एक क्षण पहले जो हमदर्दी हो गयी थी वह लुप्त हो गयी, अब वह सहानुभूति की पात्र न थीं। हम सफेद कपड़ो को छीटो से बचाते है, लेकिन जब छोटे पड़ गये तो उसे दूर फेक देते हैं, उसे छूने से घृणा होती है। उसके विचार में गायत्रीं अब इसी योग्य थी कि अपने किये का फल भोगे। मैं इस भ्रम में थी कि इस दुरात्मा ने तुझे बहका दिया, तेरा अन्त करण शुद्ध हैं, पर अब यह बिश्वास जाता रहा। कृष्ण की भक्ति और प्रेम का नशा इतना गाढ़ा नहीं हो सकता कि सुकर्म और कुकर्म का विवेक न रहे। आत्म-पतन की दशा में ही इतनी बेहयाई हो सकती है। हा अभागिनी! अघी अवस्था बीत जाने पर तुझे यह सूझी। जिस पति को तू देवता समझती थी, जिसकी पवित्रस्मृति की तू उपासना करती थी, जिसका माम लेते ही आत्म गौरव से तेरे मुखपर लाली छा जाती थी उसकी आत्मा को तूने [ ३१८ ]यो भ्रष्ट किया, उसकी मिट्टी यो खराब की!

किन्तु जब उसने गायत्री को सिर झुका कर चीख-चीख कर रोते देखा तो उसको हृदय नम्र हो गया, और जब गायत्री आ कर पैरो पर गिर पड़ी तब स्नेह और भक्ति के आवेश से आतुर हो कर बह बैठ गयी और गायत्री का सिर उठा कर अपने कधे पर रख लिया। दोनों बहिने रोने लगी, एक ग्लानि दूसरी प्रेमोद्रेक से।

अब तक ज्ञानशंकर दुविधा में खड़े थे, विद्या पर कुपित हो रहे थे, पर जबान से कुछ कहने का साहस न था। उन्हे शंका हो रही थी कि कही यह शिकार फन्दा तोड़ कर भाग न जाय। गायत्री के रोने-धोने पर उन्हें बड़ा क्रोध आ रहा था। जब तक गायत्री अपनी जगह पर खड़ी रोती रहीं तब तक उन्हें आशा थी कि इस चोट की दवा हो सकती है, लेकिन जब गयित्री जा कर विद्या के पैरों पर गिर पड़ीं और दोनो बहिने गले मिल कर रोने लगी तब वह अधीर हो गये। अब चुप रहना जीती-जितायी बाजी को हाथ से खोना, जाल में फंसे हुए शिकार को भगाना था। उन्होंने कर्कश स्वर से विद्या से कहा- तुमको बिना आज्ञा किसी के कमरे में आने का क्या अधिकार है?

विद्या कुछ न बोली। गायत्री ने उसकी गर्दन और जोर से पकड़ ली मानी डूबने से बचने का यही एक एकमात्र सहारा है।

ज्ञानशंकर ने और सरोष हो कर कहा- तुम्हारे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं और तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम इसी दम यहाँ से चली जा नहीं तो मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर बाहर निकाल देने पर मजबूर हो जाऊँगा। तुम कई बार मेरे मार्ग का काँटा बन चुकी हो, लेकिन अब की बार मैं तुम्हे हमेशा के लिए रास्ते से हटा देना चाहता हूँ।

विद्या ने तेवरियाँ बदल कर कहा- मैं अपनी बहिन के पास आयी हैं, जब तक वह मुझे जाने को न कहेगी, मैं न जाऊँगी।

ज्ञानशंकर ने गरज कर कहा--चली जा, नहीं तो अच्छा न होगा!

विद्या ने निर्भीकता से उत्तर दिया-कभी नहीं, तुम्हारे कहने से नहीं!

ज्ञानशंकर क्रोध से काँपते हुए तडिद्वेग से विद्या के पास आये और चाहा कि झपट कर उसका हाथ पकड़ लें कि गायत्री खड़ी हो गयी और गर्व से बोली- मेरी समझ में नहीं आता कि आप इतने क्रुद्ध क्यों हो रहे हैं? मुझसे मिलने आयी हैं और मैं अभी न जाने देंगी।

गायत्री की आंखो मे अब भी आँसू थे, गला अभी तक थरथरा रहा था, सिसकियाँ ले रही थी, पर यह विंगत जलोद्देग के लक्षण थे, अब सूर्य निकल आया था। वह फिर अपने आप में आ चुकी थी, उसका स्वाभाविक अभिमान फिर जाग्रत हो रहा था।

ज्ञानशंकर ने कहा---गायत्री देवी, तुम अपने को बिल्कुल भूली जाती हो। मुझे अत्यन्त खेद है कि बरस भक्ति और प्रेम की वेदी पर आत्म-समर्पण करके भी तुम ममत्व के बन्धन में जकड़ी हुई हो। याद करो तुम कौन हो? सोचो मैं कौन हूँ? सोचो मेरा [ ३१९ ]और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? क्या तुम इस पवित्र सम्बन्ध को इतना जीर्ण समझ रही हो कि उसे वायु और प्रकाश से भी बचाया जाये? वह एक अध्यात्मिक सम्बन्ध है, अटल और अंचल है। कोई पार्थिव शक्ति उसे तोड़ नहीं सकती। कितने शोक की बात है। कि हमारे आत्मिक ऐक्य से भली-भाँति परिचित हो कुर भी तुम मेरी इतनी अवहेलना कर रही हो। क्या मैं यह समझ लें कि तुम इतने दिनों तक केवल गुड़ियों का खेल खेल रही थी? अगर वास्तव में यही बात है तो तुमने मुझे कही को न रखा। मैं अपना तन और मन, घर्म और कर्म सब प्रेम की भेंट कर चुका हूँ। मेरा विचार था कि तुमने भी सोच समझ कर प्रेम पथ पर पग रखा है और उसकी कठिनाइयों को जानती हो। प्रेम को मार्ग कठिन है, दुर्गम और अपार। यहाँ बदनामी है, कलंक हैं। यहाँ लोकनिन्दा और अपमान है, लाछन है—व्यंग है। यहाँ वही धाम पर पहुँचता है जो दुनियाँ से मुंह मोड़े, संसार से नाता तोड़े। इस मार्ग में सासारिक सम्बन्ध पैरो की बेटी है, उसे तोड़े बिना एक पग भी रखना असम्भव है। यदि तुमने परिणाम का विचार नहीं किया और केवल मनोविनोद के लिए चल खड़ी हुई तो तुमने मेरे साथ घोर अन्याय किया। इसका अपराध तुम्हारी गरदन पर होगा।

यद्यपि ज्ञानशंकर मनोभावो को गुप्त रखने में सिद्धहस्त थे, पर इस समय उनका खिसियाया हुआ चेहरा उनकी इस सारगर्भित प्रेमव्याख्या का पर्दा खोल देता था। मुलम्मे की अंगूठी ताव खा चुकी थी।

इससे पहले ज्ञानशंकर के मुंह से ये बातें सुन कर कदाचितु गायत्री रोने लगती और ज्ञानशंकर के पैरो पर गिर क्षमा माँगतीं, नहीं, बल्कि ज्ञानशंकर की अभक्ति पर ये शब्द स्वयं उसके मुंह से निकलते। लेकिन वह नशा हिरन हो चुका था। उसने ज्ञानशंकर के मुँह की तरफ उड़ती हुई निगाह से देखा। वहाँ भक्ति का रोग न था। नट के लम्बे केश और भडकीले वस्त्र उतर चुके थे। वह मुखश्री जिसपर दर्शकगण लट्ट, हो जाते थे और जिसका रंगमंच पर करतल ध्वनि से स्वागत किया जाता था क्षीण हो गयी थी। जिस प्रकार कोई सीधा-सादा देहाती एक बार ताशवालो के दल में आ कर फिर उसके पास खेड़ा भी नहीं होता कि कही उनके बहकावे में न आ जाये, उसी प्रकार गायत्री भी यहाँ से दूर भागना चाहती थी। उसने ज्ञानशंकर को कुछ उत्तर न दिया और विद्या का हाथ पकड़े हुए द्वार की ओर चली। ज्ञानशंकर को ज्ञात हो गया कि मेरा मंत्र न चला। उन्हे क्रोध आया, मगर गायत्री पर नहीं, अपनी विफलता और दुर्भाग्य पर। शोक! मेरी सात वर्षों की अविश्रान्त तपस्याएँ निष्फल हुई जाती हैं। जीवन की आशाएँ सामने आ कर ली जाती हैं क्या करूँ? उन्हें क्योंकर मनाऊँ? मैंने अपनी आत्मा पर कितना अत्याचार किया, कैसे-कैसे षड्यन्त्र रचे? इसी एक अभिलाषा पर अपना दीन-ईमान न्यौछावर कर दिया। वह सब कुछ किया जो न करना चाहिए था। नाचना सीखा, नकल की, स्वाँग भरे, पर सारे प्रयत्न निष्फल हो गये। राय साहब ने सच कहा था कि सम्पत्ति तेरे भाग्य में नहीं है। मेरा मनोरथ कभी पूरी न होगा। यह अभलाषा चिंता पर मेरे साथ जलेगी। गायत्री की निष्ठुरता भी कुछ कम हृदय-विदा [ ३२० ]रक न थी। ज्ञानशंकर को गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, पर वह उसके रूप-लावण्य पर मूग्ध थे। उसकी प्रतिभा, उदारता, स्नेहशीलता, बुद्धिमत्ता, सरलता उन्हें अपनी ओर खीचती थी। अगर एक और गायत्री होती और दूसरी ओर उसकी जायदाद और ज्ञानशकर से कहा जाता तुम इन दोनों में से जो चाहो ले लो तो अवश्यम्भावी था कि वह उसकी जायदाद पर ही लपकते, लेकिन उसकी जान से अलग हो कर उसकी जायदाद लवण-हीन भोजन के समान थी। वहीं गायत्री उनसे मुँह फेर कर चली जाती थी।

इन क्षोभयुक्त विचारो ने ज्ञानशंकर के हृदय को इतना मसोसा कि उनकी आँखे भर आयी। वह कुर्सी पर बैठ गये और दीवार की तरफ मुंह फेर कर रोने लगे। अपनी विवशता पर उन्हें इतना दुःख कभी न हुआ था। वे अपनी याद में इतने शोकातुर कभी न हुए थे। अपनी स्वार्थपरता, अपनी इच्छा-लिप्सा अपनी क्षुद्रता पर इतनी ग्लानि कभी न हुई थी। जिस तरह बीमारी में मनुष्य को ईश्वर याद आता है उसी तरह अकृतकार्य होने पर उसे अपने दुस्साध्य पर पश्चात्ताप होता है। पराजय का आध्यात्मिक महत्त्व विजय से कहीं अधिक होता है।

गायत्री ने ज्ञानशंकर को रोते देखा तो द्वार पर जा कर ठिठक गयी। उसके पग बाहर न पड़ सके। स्त्रियों के आँसू पानी है, वे धैर्य और मनोबल के ह्रास के सूचक है। गायत्री को अपनी निठुरता और अश्रद्धा पर खेद हुआ। आत्म-रक्षा की अग्नि जो एक क्षण पहले प्रदीप्त हुई थी इन आँसुओ से बुझ गयी। वे भावनाएँ सजीव हो गयी जो सात बरसो से मन को लालायित कर रही थी, वे सुखद वार्ताएँ, वे मनोहर क्रीडाएँ, वे आनन्दमय कीर्तन, वे प्रीति की बातें, वे वियोग-कल्पनाएँ नेत्रो के सामने फिरने लगी। लज्जा और ग्लानि के बादल फट गये, प्रेम का चाँद चमकने लगा। वह ज्ञानशंकर के पास आकर खड़ी हो गयी और रूमाल से उनके आंसू पोछने लगी। प्रेमानुराग से विह्वल हो कर उसने उनका मस्तक अपनी गोद में रख लिया। उन अश्रुप्लावित नेत्रों से उसे प्रेम का अथाह सागर लहरें मारता हुआ नजर आया। यह मुख-कमल प्रेम-सूर्य की किरणो से विकसित हो रहा था। उसने उनकी तरफ सतृष्ण नेत्रो से देखा, उनमें क्षमा प्रार्थना भरी हुई थी मानो वह कह रही थी, हो मैं कितनी दुर्बल, कितनी श्रद्धाहीन हूँ। कितनी जड़भक्त हैं कि रूप और गुण का निरूपण न कर सकी। मेरी अभक्ति ने इनके विशुद्ध और कोमल हृदय को व्यथित किया होगा। तुमने मुझे धरती से आकाश पर पहुँचाया, तुमने मेरे हृदय में शक्ति का अकुर जमाया, तुम्हारे ही सदुपदेशो से मुझे सत्प्रेम का स्वर्गीय आनन्द प्राप्त हुआ। एकाएक मेरी आँखो पर पर्दा कैसे पड़े गया? मैं इतनी अन्धी कैसे हो गयी? निस्सन्देह कृष्ण भगवान् मेरी परीक्षा ले रहे थे और मैं उसमें अनुत्तीर्ण हो गयी। उन्होने मुझे प्रेम-कसौटी पर कसा और मै खोटी निकली। शोक मेरी सात वर्षों की तपस्या एक क्षण में भंग हो गयी। मैंने उस पुरुष पर सन्देह किया जिसके हृदय में कृष्ण का निवास है, जिसके कंठ मे मुरली की ध्वनि है। राधा! तुमने क्यों मेरे दिल पर से अपना जादू खीच लिया? मेरे हृदय में आ कर बैठो और मुझे धर्म का अमृत पिलाओ। [ ३२१ ]

यह सोचते-सोचते गायत्री की आँखे अनुरक्त हो गयी। वह कग्पित स्वर से बोली भगवन्! तुम्हारी चेरी जुम्हारे सामने हाथ बांधे खड़ी अपने अपराधों की क्षमा मांगती है।

ज्ञानशंकर ने उसे चुभती हुई दृष्टि से देखा और समझ गये कि मेरे आँसू काम कर गये। इस तरह चौक पड़े मानो नीद से जगे हो और बोले--राधा?

गायत्री--मुझे क्षमा दान दीजिए।

ज्ञान--तुम मुझसे क्षमा दान माँगती हो? यह तुम्हारा अन्याय है! तुम प्रेम की देवी हो, वात्सल्य की मूर्ति निर्दोष, निष्कलक। यह मेरा दुर्भाग्य है कि तुम इतनी अस्थिर चित्त हो। प्रेमियों के जीवन में सुख कहाँ? तुम्हारी अस्थिरता ने मुझे सजाहीन कर दिया है। मुझे अब भी भ्रम हो रहा कि गायत्री देवी से बातें कर रहा हूँ या राधा रानी से। मैं अपने आपको भूल गया हूँ। मेरे हृदय को ऐसा आघात पहुँचा है कि कह नहीं सकता यह घाव कभी मरेगा या नहीं? जिस प्रेम और भक्ति को मैं अटल समझता था, वह बालू की भीत से भी ज्यादा पोलीं निकली। उस पर मैंने जो आशालता आरोपित की थी, जो बाग लगाया था वह सब जलमग्न हो गया। अहा! मैं कैसे-कैसे मनोहर स्वप्न देख रहा था? सोचा था, यह प्रेम बाटिका कभी फूलों से लहरायेगी, हम और तुम सांसारिक मायाजाल को हटा कर वृन्दावन के किसी शान्तिकुज में बैठे हुए भक्ति का आनन्द उठायेंगे। अपनी प्रेम-ध्वनि से वृक्ष कुजों को गुंजित कर देंगे। हमारे प्रेम-गान से कालिन्दी की लहरे प्रतिध्वनित हो जायेगी। मैं कृष्ण का चाकर बनूंगा, तुम उनके लिए पकवान बनाओगी। संसार से अलग, जीवन के अपवादो में दूर हक अपनी प्रेम-कुटी बनायेगे और राधाकृष्ण की अटल भक्ति में जीवन के बचे हुए दिन काट देंगे अथवा अपने ही कृष्ण मन्दिर में राधाकृष्ण के चरणो से लगे हुए इस असार संसार से प्रस्थान कर जायेंगे। इसी सदुद्देश्य से मैंने आपकी रियासत की और यहाँ की पूरी व्यवस्था की। पर अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह सब शुभ कामनाएँ दिल में ही रहेगी और मैं शीघ्र ही संसार से हताश और भग्न-हृदय विदा हूँगा।

गायत्री प्रेमोन्मत्त हो कर बोली-भगवन्, ऐसी बाते मुँह से न निकालो। मैं दीन अबला हूँ, अज्ञान के अन्धकार में डूबी हुई, मिथ्या भ्रम में पड़ जाती हैं, पर मैंने तुम्हारा दामन पकड़ा है, तुम्हारी शरणागत हैं, तुम्हे मेरी क्षुदताएँ, मेरी दुर्बलताएँ सभी क्षमा करनी पड़ेगी। मेरी भी यही अभिलाषा है कि तुम्हारे चरणों से लगी रहूँ। मैं भी संसार से मुँह मोड़ लूंगी, सबसे नाता तोड़ लूंगी और तुम्हारे साथ बरसाने और वृन्दावन की गलियों में विचरूँगी। मुझे अगर कोई सांसारिक चिंता है तो वह यह है कि मेरे पीछे मेरे इलाके का प्रबन्ध सुयोग्य हाथो में रहे, मेरी प्रजा पर अत्याचार न हो और रियासत की आमदनी परमार्थ में लगे। मेरा और तुम्हारा निर्वाह दस-बारह हजार रुपयो में हो जायगा। मुझे और कुछ न चाहिए। हाँ, यह लालसा अवश्य हैं कि मेरी स्मृति बनी रहे, मेरा नाम अमर हो जाये, लोग मेरे यश और कीर्ति की चर्चा करते रहे। यही चिन्ता है जो अब तक मेरे पैरो की बेड़ी बनी हुई है। आप इस बेड़ी को काटिए। यह भार मैं आप के ही ऊपर रखती हैं। ज्यों ही आप इन दोनों बातों

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[ ३२२ ]की व्यवस्था कर देगे मैं निश्चिन्त हो जाऊँगी और फिर यावज्जीवन हम मे वियोग न होगा। मेरी तो यह राय है कि एक ट्रस्ट' कायम कर दीजिए। मेरे पतिदेव की भी यह इच्छा थी।

ज्ञानशंकर-दृस्ट कायम करना तो आसान है, पर मुझे आशा नही है कि उससे आपको उद्देश्य पूरा हो। मैं पहले भी दो-एक बार ट्रस्ट के विषय में अपने विचार प्रकट कर चुका हूँ। आप अपने विचार में कितने ही नि स्पृह, सत्यवादी दृस्टियों को नियुक्त करे, लेकिन अवसर पाते ही वे अपने घर भरने पर उद्यत हो जायेंगे। मानव स्वभाव बड़ा ही विचित्र है। आप किसी के विषय में विश्वस्त रीति से नहीं कह सकती कि उसकी नीयत कभी डॉवाडोल न होगी, वह सन्मार्ग से कभी विचलित न होगा। हम तो वृन्दावन में बैठे रहेगे, यहाँ प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार होंगे। कौन उसकी फरियाद सुनेगा? सदावत की रकम नाच मुजरे में उडेंगी, रासलीला की रकम गाईंन-पार्टियों में खर्च होगी, मन्दिर की सजावट के सामान दृस्टियों के दीवानखाने में नजर आयेगे, साघु-महात्माओं के सत्कार के बदले यारो की दावतें होगी, आपको यश की जगह अपयश मिलेगा। यो तो कहिए आपकी आज्ञा का पालन कर दूं, लेकिन दृस्टियों पर मेरा जरा भी विश्वास नहीं है। आपका उद्देश्य उसी दशा में पूरा होगा जब रियासत किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में हो जो आपको अपना पूज्य समझती हो, जिसे आपसे श्रद्धा हो, जो आपका उपकार माने, जो दिल से आपकी शुभेच्छाओं का आदर करता हो, जो स्वयं आपके ही रंग ही रँगा हुआ हो, जिसके हृदय में दया और प्रेम हो; और यह सब गुण उसी मनुष्य में हो सकते है जिसे आपसे पुत्रवत् प्रेम हो, जो आपको अपनी माता समझता हो। अगर आपको ऐसा कोई लड़का नजर आये तो मैं सलाह दूंगा उसे गोद ले लीजिए। इससे उत्तम मुझे और कोई व्यवस्था नहीं सूझती। संभव है कुछ दिनों तक हमको उसकी देख-रेख करनी पड़े, किंतु इसके बाद हम स्वच्छन्द हो जायेंगे। तब हमारे आनन्द और बिहार के दिन होंगे। मैं अपनी प्यारी राधा के गले में प्रेम का हार डालूंगा, उसे प्रेम के राग सुनाऊँगा, दुनिया की कोई चिन्ता, कोई उलझन, कोई झोका हमारी शांति में विघ्न ने डाल सकेगा।

गायत्री पुलकित हो गयी। उस आनन्दमय जीवन का दृश्य उसकी कल्पना मे सचित्र हो गया। उसकी तबियत लहराने लगी। इस समय उसे अपने पति की वह वसीयत माद न रही जो उन्होने जायदाद के प्रबन्ध के विषय में की थी और जिसका विरोध करने के लिए वह ज्ञानशंकर से कई बार गम हो पड़ी थी। वह ट्रस्ट के गुणदोष पर स्वयं कुछ विचार न कर सकी। ज्ञानशंकर का कथन निश्चयवाचक था। ट्रस्ट पर से उसका विश्वास उठ गया। बोली- आपका कहना यथार्थ है। दृस्टियो का क्या विश्वास है। आदमी किसी के मन तो पैठ नहीं सकता, अन्दर का हाल कौन जाने?

वह दो-तीन मिनट तक विचार में मग्न रहीं। सोच रही थी कि ऐसा कौन लड़का है जिसे मैं गोद ले सकें। मन ही मन अपने सम्बन्धियो और कुटुम्बियो का दिग्दर्शन किया, लेकिन यह समस्या हल न हुई। लड़के थे, एक नही अनेक, लेकिन किसी न [ ३२३ ]किसी कारण से वह गायत्री को न जँचते थे। सोचते-सोचते सहसा वह चौंक पड़ी और मायाशंकर का नाम उसकी जवान पर आते-आते रह गया। ज्ञानशंकर ने अब तक अपनी मनोनाछा को ऐसा गुप्त रखा था और अपने आत्म-सम्मान की ऐसी धाक जमा रखी थी कि पहले तो मायाशंकर की और गायत्री का ध्यान ही न गया और जब गया तो उसे अपना विचार प्रकट करते हुए भय होता था कि कही ज्ञानशंकर के मर्यादाशील हृदय को चोट न लगे। हालाँकि ज्ञानशंकर का इशारा साफ था, पर गायत्री पर इस समय वह नशा था जो शराब और पानी मे भेद नही कर सकता। उसने कई बार हिम्मत की कि यह जिक्र छेड़े, किन्तु ज्ञानशंकर के चेहरे से ऐसा निष्काम भाव झलक रहा था कि उसकी जवान न खुल सकी। मायाशंकर की विचारशीलता, सच्चरित्रता, बुद्धिमत्ता आदि अनेक गुण उसे याद आने लगे। उससे अच्छे उत्तराधिकारी की वह कल्पना भी न कर सकती थी। ज्ञानशंकर उसको असमजस मे देख कर बोले-आया कोई लड़का ध्यान में?

गायत्री सकुचाती हुई बोली—जी हाँ, आया तो, पर मालूम नहीं आप भी उसे पसंद करेगे या नहीं? मैं इससे अच्छा चुनाव नहीं कर सकती।

ज्ञानशंकर सुनें कौन है?

गायत्री-वचन दीजिए कि आप उसे स्वीकार करेंगे।

ज्ञानशंकर के हृदय में गुदगुदी होने लगी। बोले--बिना जाने-बूझे मैं यह वचन कैसे दे सकता हूँ?

गायत्री मैं जानती हैं कि आपको उसमें आपत्ति होगी और विद्या तो किसी प्रकार राजी ही न होगी, लेकिन इस बालक के सिवा मेरी नजर और किसी पर पड़ती ही नही।

ज्ञानशंकर अपने मनोल्लास को छिपाये हुए बोले-सुनें तो किसका भाग्य-सूर्य उदय हुआ है।

गायत्री--बता दें? बुरा तो न मानिएगी न?

ज्ञान-जरा भी नहीं, कहिए।

गायत्री मायाशंकर।

ज्ञानशंकर इस तरह चौक पड़े मानो कानो के पास कोई बन्दूक छूट गयी हो। विस्मित नेत्रों से देखा और इस भाव से बोले मानों उसने दिल्लगी की है-मायाशंकर।

गायत्री- हाँ, आप वचन दे चुके हैं, मानना पड़ेगा।

ज्ञानशंकर-मैंने कहा था कि नाम सुन कर राय दूंगा। अब नाम सुन लिया और विवशता से कहता हूँ मैं आप से सहमत नहीं हो सकता।

गायत्री-मैं यह बात पहले से ही जानती थी, पर मुझमे और आप में जो सम्बन्ध है उसे देखते हुए आपको आपत्ति न होनी चाहिए।

ज्ञानशंकर मुझे स्वयं कोई आपत्ति नहीं है। मैं अपना सर्वस्व आप पर समर्पण कर चुका हूँ, लड़का भी आप की भेंट है, लेकिन आपको मेरी कुल-मर्यादा का हाल मालूम है। काशी में इतना सम्मानित और कोई घराना नही है। सब तरह से पतन [ ३२४ ]होने पर भी उसका गौरव अभी तक बचा हुआ है। मेरे चाचा और सम्बन्धी इसे कभी मंजूर न करेंगे और विद्या तो सुन कर विष खाने को उतारू हो जायेगी। इसके अतिरिक्त मेरी बदनामी भी हैं। सम्भव है लोग यह समझेगे कि मैने आपकी सरलता और उदारता से अनुचित लाभ उठाया है और आपके कुटम्ब के लोग तो मेरी जान के गाहक ही हो जायेंगे।

गायत्री-मेरे कुटुम्बियो की ओर से तो आप निश्चिन्त रहिए, मैं उन्हें आपस में लडा कर मारूंगी। बदनामी और लोक-निन्दा आपको मेरी खातिर से सहनी पड़ेगी। रही विद्या, उसे मैं मना लूंगी।

ज्ञान-नहीं, यह आशा न रखिए। आप उसे मनाना जितना सुगम समझ रही है उससे कही कठिन है। आपने उसके तेवर नहीं देखे। वह इस समय सौतिया डाह से जल रही है। उसे अमृत भी दीजिए तो विष समझेगी। जब तक लिखा-पढी न हो जाय और प्रथानुसार सब संस्कार पूरे न हो जाये उसके कानों में इसकी भनक भी न पड़नी चाहिए। यह तो सच होगा, मगर उन लोगों की हाय किस पर पड़ेगी जो बरसो से रियासत पर दाँत लगाये बैठे हैं? उनके घरों में तो कुहराम मच जायगा। सब के सब मेरे खून के प्यासे हो जायेगे। यद्यपि मुझे उनसे कोई भय नहीं है, लेकिन शत्रु को कभी तुच्छ न समझना चाहिए। हम जिससे घन और घरती छीन लें उससे कभी नि शंक नहीं रह सकते।

गायत्री---आप इन दुष्टो का ध्यान ही न कीजिए। ये कुत्ते हैं, एक छीछड़े पर लड़ मरेंगे।

ज्ञानशंकर कुछ देर तक मौन रूप से जमीन की ओर ताकते रहे, जैसे कोई महान् त्याग कर रहे हो। फिर सजल नेत्रो से बोले, जैसी आपकी मरजी, आपकी आज्ञा सिर पर है। परमात्मा से प्रार्थना है कि यह लड़का आपको मुबारक हो और उससे आपकी जो आशाएँ हैं वह पूरी हो। ईश्वर उसे सद्बुद्धि प्रदान करे कि वह आपके आदर्श को चरितार्थ करे। वह आज से मेरा लड़का नहीं, आपका हैं। तथापि अपने एकमात्र पुत्र को छाती से अलग करते हुए दिल पर जो कुछ बीत रही। है वह मैं ही जानता हूँ, लेकिन वृन्दावनबिहारी ने अपके अन्त करण में यह बात डाल कर मानो हमारे लिए भक्ति-पथ का द्वार खोल दिया है। वह हमे अपने चरणो की ओर बुला रहे है। यह हमारा परम सौभाग्य है।

गायत्री ने ज्ञानशंकर का हाथ पकड़ कर कहा—कल ही किसी पंडित से शुभ मुहर्त पूछ लीजिए।