प्रेमाश्रम/५२

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३३० ]

५२

दीवानखाने में आनन्दोत्सव हो रहा था। मास्टर अलहदीन का अलौकिक चमत्कार लोगो को मुग्ध कर रहा था। द्वारा पर दर्शको की भीड़ लगी हुई थी। सहन में ठट के ठट कगले जमा थे। मायाशंकर को दिन भर के बाद माँ की याद आयी। वह आज आनन्द से फूला न समीता था। जमीन पर पाँव न पड़ते थे। दौड़-दौड़ कर काम कर रहा था। ज्ञानशंकर बार-बार कहते, तुम आराम से बैठो। इतने आदमी तो हैं। ही, तुम्हारे हाथ लगाने की क्या जरूरत है पर उससे बेकार नहीं बैठा जाता था। कभी लैम्प साफ करने लगता, कभी खदान उठा लेता। आज सारे दिन मोटर पर सैर करता रहा। लौटते ही पद्मशंकर और तेजशंकर से सैर का वृत्तान्त सुनाने लगा, यहाँ गये, वहाँ गये, यह देखा, वह देखा। उसे अतिशयोक्ति में बड़ी मजा आ रहा था। यहाँ से छुट्टी मिली तो हवन पर जा बैठा। इसके बाद भोजन में सम्मिलित हो गया। जब गाना आरंभ हुआ तो उसका चंचल चित्त स्थिर हुआ। सब लोग गाना सुनने में तल्लीन हो रहे थे, उसकी बातें सुननेवाला कोई न था। अब उसे याद आया, अम्माँ को प्रणाम करने तो गया ही नही। ओहो, अम्माँ मुझे देखते ही दौड़ कर छाती [ ३३१ ]से लगा लेगी। आशीर्वाद देंगी। मेरे इन रेशमी कपड़ों की खूब तारीफ करेगी। वह ख्याली पुलाव पकाता, मुस्कुराता हुआ विद्या के कमरे में गया। वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था, एक धुंधली सी` दीवालगीर जल रही थी। विद्या पलंग पर पड़ी हुई थी। महरियां नीचे गाना सुनने चली गयी थी। लाला प्रभाशंकर के घर की स्त्रियों को न बुलावा दिया गया था और न वे आयी थी। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ रही थी। माया ने मां के समीप जा कर देखा—उसके बाल बिखरे हुए थे, आँखों से आँसू बह रहे थे, ओंठ नीले पड़ गये थे, मुख निस्तेज हो रहा था। उसने घबरा कर कहा—अम्माँ, अम्माँ! विद्या ने आँखें खोली और एक मिनट तक उसकी ओर टकटकी बांध-कर देखती रहीं मानो अपनी आँखों पर विश्वास नहीं है। तब वह उठ बैठी। माया को छाती से लगा कर उसका निर अचल से ढंक लिया मानो उसे किसी आघात से बचा रही हो और उखड़े हुए स्वर में बोली, आओ मेरे प्यारे लाल! तुम्हे आँख भर देख लूँ। तुम्हारे ऊपर बहुत देर से जी लगा हुआ था। तुम्हें लोग अग्निकुड की ओर ढकेल लिये जाते थे। मेरी छाती घड-घड करती थी! बार-बार पुकारती थी, लेकिन तुम सुनते ही न थे। भगवान् ने तुम्हे बचा लिया। वहीं दोनों के रक्षक है। अब मैं तुम्हें न जाने दूंगी। यहीं मेरी आंखों के सामने बैठो। मैं तुम्हे देखती रहूँगी—देखो, देखो! वह तुम्हें पकड़ने के लिए दौड़ा आता हैं, मैं किवाड बन्द किये देती हूँ। तुम्हारा बाप हैं। लेकिन उसे तुम्हारे ऊपर जरा भी दया नहीं आती। मैं किवाड़ बन्द कर देती हूँ। तुम बैठे रहो।

यह कहते हुए वह द्वार की ओर चली, मगर पैर लड़खड़ाये और अचेत हो कर फर्श पर गिर पड़ी। माया उसकी दशा देख कर और उसकी बहकी-बहकी बाते सुन कर थर्रा गया। मारे भय के वहां एक क्षण भी न ठहर सका। तीर के समान कमरे से निकला और दीवानखाने में आकर दम लिया। ज्ञानशंकर मेहमानों के आदर सत्कार मे व्यस्त थे। उनसे कुछ कहने का अवसर न था। गायत्री चिक की आड़ में बैठी हुई सोच रहीं थीं, इस अलहदीन को कीर्तन के लिए नौकर रख लूँ तो अच्छा हो। मेरे मन्दिर की सारे देश में धूम मच जाय। माया ने आ कर कहा—मौसी जी, आप चल कर जरा अम्माँ को देखिए। न जाने कैसी हुई जाती है। उन्हें डेलिरियम सा हो गया है।

गायत्री का कलेजा सन्न सा हो गया। वह विद्या के स्वभाव से परिचित थी। यह खबर सुन कर उससे कहीं ज्यादा शंका हुई जितनी सामान्य दशा में होनी चाहिए थी। वह कल से विद्या के बदले हुए तेवर देख रही थी। रात की घटना भी उसे याद आयी। वह जीने की ओर चली। माया भी पीछे-पीछे चला। इस कमरे में इस समय कितनी ही चीजें इधर-उधर बिखरी पड़ी थी! गायत्री ने कहा—तुम यही बैठो, नहीं तो इनमे से एक चीज का भी पता न चलेगा। मैं अभी आती हूँ। घबराने की कोई बात नहीं है, शायद उसे बुखार आ गया है।

गायत्री विद्या के कमरे में पहुँची। उसका हृदय वाँसो उछल रहा था। उसे [ ३३२ ]वास्तविक अवस्था का कुछ गुप्त ज्ञाच सा हो रहा था। उसने बहुत धीरे से कमरे में पैर रखा। धुंधली दीबालगीर अव भी जल रही थी और विद्या द्वार के पास फर्श पर बेखबर पड़ी हुई थी। चेहरे पर मुर्दनी छायी हुई थी, आँखे बन्द थी और जोर-जोर से साँस चल रही थी। यद्यपि खूब सर्दी पड़ रही थी, पर उसकी देह पसीने से तर थी। माथे पर स्वेद-बिन्दु झलक रहे थे जैसे मुझये हुए फूल पर ओस की बूंद झलकती है। गायत्री ने लैम्प तेज करके विद्या को देखा। ओठ नीले पद्ध गये थे और हाथ-पैर धीरे-धीरे काँप रहे थे। उसने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया, अपना सुगन्ध से डूबा हुआ रुमाल निकाल लिया है और उसके मुंह पर झलने लगी। प्रेममय शोक-वेदना से उसको हृदय विकल हो उठा। गला भर आया, बोली--विद्या, कैसा जी है।

विद्या ने आँख खोल दी और गायत्री को देख कर बोली–बहिन! इसके सिवा वह और कुछ न कह सकी। बोलने की बारवार चेष्टा करती थीं, पर मुँह से आवाज ने निकलती थी। उसके मुख पर एक अतीव करुणाजनक दीनता छा गयी। उसने विवश दृष्टि से फिर गायत्री को देखा। आँखे लाल थी, लेकिन उनमे उन्मत्तता या उग्रता न थी। उनमें आत्मज्योति झलक रही थी। वह विनय, क्षमा और शाहि से परिपूर्ण थी। हुमारी अंतिम चितवने हमारे जीवन का सार होती हैं, निर्मल और स्वच्छ ईर्षा और द्वेष जैसी मलिनताओं से रहित। विद्या की जान बन्द थी, लेकिन आँख कह रही थी--मेरा अपराध क्षमा करना। मैं थोड़ी देर की मेहमान हूँ। मेरी ओर से तुम्हारे मन में जो मलाल हो वह निकाल डालना। मुझे तुमसे कोई शिकायत नही है, मेरे भाग्य में जो कुछ बदा था, वह हुआ। तुम्हारे भाग्य में जो कुछ बदा है, वह होगा। तुम्हें अपना सर्वस्व सौप जाती हूँ। उसकी रक्षा करना।

गायत्री ने रोते हुए कहा--विद्या तुम कुछ बोलती क्यों नहीं? कैसा जी है, डाक्टर बुलाऊँ?

विद्या ने निराश दृष्टि से देखा और दोनो हाथ जोड़ लिये। आँखे बन्द हो गयी। गायत्री व्याकुल हो कर नीचे दीवानखाने में गयी और माया से बोली, बाबू जी को ऊपर ले जाओ। मैं जाती हूँ, विद्या की दशा अच्छी नहीं है।

एक क्षण में ज्ञानशंकर और माया दोनों अपर आये। श्रद्धा भी हलचल सुन कर दौड़ी हुई आयी। ज्ञानशंकर ने विद्या को दो-तीन बार पुकारा, पर उसने आँखें न खोली। तब उन्होने अलमारी से गुलाबजल की बोतल निकाली और उसके मुंह पर कई बार छीटें दिये। विद्या की आँखे खुल गयी, किन्तु पति को देखते ही उसने जोर से चीख मारी। यद्यपि हाथ-पाँच अकड़े हुए थे, पर ऐसा जान पडा कि उनमें कोई विद्युन-शक्ति दौड़ गयी। वह तुरन्त उठ कर खड़ी हो गयी। दोनों हाथों से आँख बन्द किये द्वार की ओर चली। गायत्री ने उसे सँभाला और पूछा--विद्या, पहचानती नहीं, बाबू ज्ञानशंकर हैं।

विद्या ने सशक और भयभीत नेत्रो से देखा और पीछे हटती हुई बोली--अरे, यह फिर आ गया। ईश्वर के लिए मुझे इमसे बचाओ। [ ३३३ ] गायत्री-विद्या, तबीयत को जरा सँभालो। तुमने कुछ खा तो नहीं लिया है। डाक्टर को बुलाऊँ।

विद्या-मुझे इससे बचाऔ, ईश्वर के लिए मुझे इससे बचाओ।

गायत्री--पहचानती नही हो, बाबूजी है।

विद्या--नहीं-नहीं यह पिशाच है। इसके लम्बे बाल है। वह देखो दाँत निकाले मेरी और दौड़ा आता है। हाय-हाय। इसे भगा, मुझे खा जायेगा। देखो-देखो मुझे पकड़े लेता है। इसके सींग है, बड़े-बड़े दाँत है, बड़े-बड़े नख है। नहीं, मैं न जाऊँगी। छोड़ है दुष्ट, मेरी हाथ छोड़ दे। हाय! मुझे अग्निकुड में झोके देता हैं। अरे देखो, माया को पकड़ लिया। कहता है, बलिदान दूंगा। दुष्ट, तेरे हृदय मे जरा भी दया नही है उसे छोड़ दे, मैं चलती हूँ, मुझे कुण्ड में झोक दे, परे ईश्वर के लिए उसे छोड़ दे। यह कहते-कहते विद्या फिर मूर्छित हो कर गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने लज्जायुक्त चिंता से कहा, जहर खा लिया। मैं अभी डाक्टर प्रियनाथ के यहाँ जाता हूँ। शायद उनके यत्न से अब भी इसके प्राण बच जाये। मुझे क्या मालूम था कि माया को तुम्हारी गोद में देने का इसे इतना दु ख होगा। मैंने इसे आज तक न समझा। यह पवित्र आत्मा थी, देवी थी, मेरे जैसे लोभी, स्वार्थी मनुष्य के योग्य न थी।

यह कह कर वह आंख में आँसू भरे चले गये। श्रद्धा ने विद्या को उठा कर गोद में ले लिया। गायत्री पंखा झलने लगी। माया खड़ा रो रहा था। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था, वह सन्नाटा जो मृत्यु-स्थान के सिवा और कहीं नहीं होता। सब की सर्व विद्या को होश में लाने का प्रयास कर रही थी, पर मुँह से कोई कुछ न कहता था। सब के दिलो पर मृत्यु-भय छाया हुआ था।

आध घंटे के बाद विद्या की आँखें खुली। उसने चारों ओर सहमे हुए नेत्रों से देख कर इशारे से पानी माँगा।

श्रद्धा ने गुलाबजल और पानी मिला कर कटोरा उसके मुंह से लगाया। उसने पानी पीने को मुंह खोला, लेकिन ओठ खुले रह गये, अंगो पर इच्छा का अधिकार नही रहा। एक क्षण में आँखों की पुतलियाँ फिर गयी।

श्रद्धा समझ गयी कि यह अंतिम क्षण है। बोली-बहिन, किसी से कुछ कहना चाहती हो? माया तुम्हारे सामने खड़ा है।

विद्या की बुझी हुई आँखे श्रद्धा की ओर फिरी, आँसू की चन्द बूंदें गिरी, शरीर में कम्पन हुआ और दीपक बुझ गया!

एक सप्ताह पीछे मुन्नी भी हुड़क-हुड़क कर बीमार पड़ गयी। रात-दिन अम्माँ-अम्माँ की रट लगाया करती। न कुछ खाती न पीती, यहाँ तक कि दवाएँ पिलाने के समय मुंह ऐसा बन्द कर लेती कि किसी तरह न खोलतीं। श्रद्धा गोद में लिये पुचकारीफुसलाती, पर सफल न होती। बेचारा माया गोद में लिए उसके मुरझाये मुंह की ओर देखता और रोता। ज्ञानशंकर को तो अवकाश न मिलता था, पर लाला प्रभाशंकर दिन में कई बार डाक्टर के पास जाते, दवाएँ लाते, लड़की का मन बहलाने के लिए [ ३३४ ]तरह-तरह के खिलौने लाते, पर मुन्नी उनकी ओर आँख उठा कर भी न देखती। गायत्री से उसे न जाने क्या चिढ़ थी। उसकी सूरत देखते ही रोने लगती। एक बार गायत्री ने गोद में उठा लिया तो उसे दाँतो से काट लिया। चौथे दिन उसे ज्वर ही आया और तीन दिन बीमार रह कर मातृहृदय की भूखी बालिका चल बसी।

विद्या के मरने के पीछे विदित हुआ कि वह कितनी बहुप्रिय और सुशीला थी। मुहल्ले की स्त्रियां श्रद्धा के पास आ कर चार आंसू बहा जाती। दिन भर उनका तांता लगा रहता। बड़ी बहू और उनकी बहू भी सच्चे दिल से उसका मातम कर रही थी। उस देवी ने अपने जीवन में किसी को 'रे' या 'तू' नहीं कही, महरियों से भी हँसहँस बाते करती। नसीब चाहे खोटा था, पर हृदय में दया थी। किसी का दुख न देख सकती थी। दानशीला ऐसी थी कि किसी भूखे भिखारी, दुखियारे को द्वार से फिरने न देती थी, घेले की जगह पैसा और आध पाव की जगह पाय देने की नीयत रखती थी। गायत्री इन स्त्रियो से आँखें चुराया करती। अगर वह कभी आ पड़ती तो सब की सब चुप हो जाती और उसकी अवहेलना करती। गायत्री उनकी श्रद्धापात्र बनने के लिए उनके बालको को मिठाइयाँ और खिलौने देती, विद्या की रो-रो कर चर्चा करती पर उसका मनोरथ पूरा न होता था। यद्यपि कोई स्त्री मुंह से कुछ न कहती थी, लेकिन उनके कटाक्ष व्यंग से भी अधिक मर्मभेदी होते थे। एक दिन बड़ी बहू ने गायत्री के मुंह पर कहा----न जाने ऐसा कौन सा काँटा था जिसने उसके हृदय में चुभ कर जान ली। दूध-पूत सब भगवान ने दिया था, पर इस काँटे की पीड़ा न सही गयी। यह काँटा कौन था, इस विषय में महिलाओं की आँखें उनकी वाणी से कही सशब्द थी। गायत्री मन में कट कर रह गयी।

वास्तव में कुटुम्ब या मुहल्ले की स्त्रियों को विद्या के मरने का जितना शौक था उससे कही ज्यादा गायत्री को था। डाक्टर प्रियनाथ ने स्पष्ट कह दिया कि इसने विष खाया है। लक्षणों से भी यही बात सिद्ध होती थी। गायत्री इस खून से अपना हाथ रंगा हुआ पाती थी। उसकी सगर्व आत्मा इसे कल्पना से ही कांप उठती थी। वह अपनी निज की महरियो से भी विद्या की चर्चा करते झिझकती थी। मौत की रात को दृश्य कभी न भूलता था। विद्या की वह क्षमाप्रार्थी चितवने सदैव उसकी आँखो में फिरा करती। हा, यदि मुझे पहले मालूम होता कि उसके मन में मेरी और से इतना मिथ्या भ्रम हो गया हैं तो यह नौबत न आती। लेकिन फिर जब वह उसके पहलेवालीं रात की घटनाओं पर विचार करती तो उसका मन स्वयं कहती था कि विद्या का सन्देह करना स्वाभाविक था। नहीं, अब उसे कितनी ही छोटी-छोटी बाते ऐसी भी याद आती थी जो उसने विद्या का मनोमालिन्य देख कर केवल उसे जलाने और सुलगाने के लिए की थी। यद्यपि उस समय उसने ये बातें अपने पवित्र प्रेमी की तरंग में की थी और विद्या के ही सामने नहीं, सारी दुनिया के सामने करने पर तैयार थी, पर इन खून के छीटो से वह नशा उतर गया था। उसका मन स्वयं स्वीकार करता था कि वह विशुद्ध प्रेम न था, अज्ञात रीति से उसमें वासना का लेश आ गया था। विद्या मुझे देख कर सदय [ ३३५ ]हो गयी थी, लेकिन ज्ञानशंकर की सुरस देखते ही उसका झिझकना, चीखना, चिल्लाना साफ कह रहा था कि उसने हमारे ही ऊपर जान दी। यह उसकी परम उदारता थी। कि उसने मुझे निर्दोष समझा। इतने भयंकर उत्तरदायित्व को भार उसकी आत्मा को कुचले देता था। शनैः शनै इस भाव का उस पर इतना प्राबल्य हुआ कि भक्ति और प्रेम से उसे अरुचि होने लगी। उसके विचार में यह दुर्घटना इस बात का प्रमाण थीं कि हम भक्ति के ऊँचे आदर्श से गिर गये, प्रेम के निर्मल जल में तैरते हुए हम भोग के सेवारो मे उलझ गये, मानों यह हमारी आत्मा को सजग करने के लिए देवप्रेरित चेतावनी थी। अब ज्ञानशंकर उसके पास आते तो उनसे खुल कर न मिलती। ज्ञानशंकर ने विद्या की दाह-क्रिया आप ने की थी, यहाँ तक कि चिता में आग भी न दी थी। एक ब्राह्मण से सब संस्कार कराये। गायत्री को यह असज्जनता और हृदय शून्यतः नागवार मालूम होती थी। उसकी इच्छा थी कि विद्या की अन्त्येष्टि प्रथानुसार और यथोचित सम्मान के साथ की जाय। उसकी आत्मा की शान्ति का अब यही एक उपाय था। उसने ज्ञानशंकर से इसका इशारा भी किया, पर वह टाल गये। अतएव वह उन्हें देखते ही मुंह फेर लेती थी, उन्हें अपनी वाणी का मंत्र मारने का अवसर ही न देती थी। उसे भय होता था कि उनकी यह उच्छृखलता मुझे और भी बदनाम कर देगी। वह कम से कम संसार की दृष्टि में इस हत्या के अपराध से मुक्त रहना चाहती थी।

गायत्री पर अब ज्ञानशंकर के चरित्र के जौहर भी खुलने लगे। उन्होंने उससे अपने कुटुम्बियो की इतनी बुराइयाँ की थी कि वह उन्हें धैर्य और सहनशीलता की मूर्त समझती थीं। पर यहाँ कुछ और ही बात दिखायी देती थी। उन्होंने प्रेमशंकर को शोक सूचना तक ने दी। लेकिन उन्होंने ज्यों ही खबर पायी तुरत दौड़े हुए आये और सोलह दिन तक नित्य प्रति आ कर यथायोग्य संस्कार में भाग लेते रहे! लाला प्रभाशंकर सस्कारों की व्यवस्था में, ब्रह्मभोज में, बिरादरी की दावत में व्यस्त थे मानो आपस मे कोई द्वेष नही। बड़ी बहू के ब्योहार से भी सच्ची समवेदना प्रकट होती थी। लेकिन ज्ञानशंकर के रंग-ढंग से साफ-साफ जाहिर होता था कि इन लोगो का शरीक होना उन्हें नागवार हैं। वह उनसे दूर-दूर रहते थे, उनसे बात करते तो रुखाई है, मानी सभी उनके शत्रु है और इसी बहाने उनका अहित करना चाहते हैं। ब्रह्मभोज के दिन उनकी लाला प्रभाशंकर से खासी झपट हो गयीं। प्रभाशंकर आग्रह कर रहे थे, मिठाइयाँ घर में बनवायी जायें। ज्ञानशंकर कहते थे कि यह अनुपयुक्त है। सम्भव है, घर की मिठाइयाँ अच्छीं बनें, पर खर्च बहुत पड़ेगा। बाजार से मामूली मिठाइयाँ मैंगवायी जायें। प्रभाशंकर ने कहा, खिलाते हो तो ऐसे पदार्थ खिलाओ कि खानेवाले भी समझें कि कही दावत खायी थी। ज्ञानशंकर ने बिगड़ कर कहा- मैं ऐसा अहमक नही हूँ कि इस वाह-वाह के लिए अपना घर लुटा दूँ। नतीजा यह हुआ कि बाजार से सस्ते मैल की मिठाइयाँ आयी। ब्राह्मणो ने डट कर खाया, लेकिन सारे शहर में निन्दा की।

गायत्री को जो बात सबसे अप्रिय लगती थी वह अपनी नजरबन्दी थी। जानशंकर [ ३३६ ]उसकी चिट्ठियाँ खोल कर पढ़ लेते, इस भय से कही राय साहब का कोई पत्र न हो। अगर वह प्रेमशंकर या लाला प्रभाशंकर से कुछ बातें करने लगती तो वह तुरन्त आ कर बैठ जाते और ऐसी असंगत बात करने लगते कि साधारण बातचीत भी विवाद का रूप धारण कर लेती थी। उनके व्यवहार से स्पष्ट विदित होता था कि गायत्री के पास किसी अन्य मनुष्य का उठना-बैठना उन्हें असह्य है। इतना ही नहीं, वह यथासाध्य गायत्री को स्त्रियों से मिलने-जुलने का भी अवसर न देते। आत्माभिमान धार्मिक विषयो में लोकमत को जितना तुच्छ समझता है लौकिक विषयों में लोकमत का उतना ही आदर करता है। गायत्री को विद्या के हत्यापराध से मुक्त होने के लिए घर और महल्ले की स्त्रियों की सहानुभूति आवश्यक जान पड़ती थी। वह अपने बर्ताव से, विद्या की सुकीर्ति के बखान से, यहाँ तक कि ज्ञानशंकर की निन्दा से भी यह उद्देश्य पूरा करना चाहती थी। षोडशे और ब्रह्मभोज के बाद एक दिन उसने नगर की कई कन्या पाठशालाओं का निरीक्षण किया और प्रत्येक को विद्या के नाम पर पारितोषिक देने के लिए रुपये है आयी, और यह केवल दिखावा ही नहीं था, विद्या से उसे बहुत मुहब्बत थी, उसकी मृत्यु का उसे सच्चा शौक था। विद्या को याद करके बह बहुवा एकान्त भे रो पड़ती, उसकी सूरत उसकी आँखों से कभी न उतरती थी। जब श्रद्धा और बड़ी बहू आदि विद्या की चर्चा करने लगती तो वह अदबदा कर उसकी बातें सुनने के लिए जा बैठती। उनके कटाक्ष और संकेतो की ओर उसका ध्यान नहीं जाता है ऐसे अवसरों पर जब ज्ञानशंकर उसे रियासत के किसी काम के बहाने से बुलाते तो उसे बहुत नागवार मालूम होता है वह कभी-कभी झुंझला कर कहती, जा कर कह दो मुझे फुरसत नहीं है। जरा-जरा सी बातों में मुझसे सलाह लेने की क्या जरूरत है? क्या इतनी बुद्धि भी ईश्वर ने नहीं दी? रियासत! रियासत! उन्हें किसीके मरने-जीने की परवाह न हो, सबके हृदय तो एक-से नहीं हो सकते। कभी-कभी वह केवल ज्ञानशंकर को चिढ़ाने के लिए श्रद्धा के पास घटों बैठी रहती। वह अब उनकी कठपुतली बन कर न रहना चाहती थी। उसकी गौरवशील प्रकृति स्वच्छन्द होने के लिए तड़पती थी। वह इस बंधन से निकल भागना चाहती थी। एक दिन वह ज्ञानशंकर से कुछ कहे बिना ही प्रेमशंकर की कृषिशाला में आ पहुँची और सारे दिन वही रहीं। एक दिन उसने लाला प्रभाशंकर और प्रेमशंकर की दावत की और सारा जेवनार अपने हाथ से पकाया। लाला जी को भी उसके पाक-नैपुण्य को स्वीकार करना पड़ा!

दो महीने गुजर गये। धीरे-धीरे महिलाओ को गायत्री पर विश्वास होने लगा। द्वेष और मालिन्य के परदे हटने लगे। उसके सम्मुख ऐसी-ऐसी बातें होने लगी जिनकी भनक भी पहले उसके कानों में न पड़ने पाती थी। यहाँ तक कि वह इस समाज का एक प्रधान अंग बन गयी। यहाँ प्राय नित्य ही ज्ञानशंकर की चरित्र चर्चा होती और फलत उनका आदर गायत्री के हृदय से उठता जाता था। बड़ी बहू और उनकी बहू दोनो ज्ञानशंकर की द्वेक कथा कहने लगती तो उसका अन्त ही न होता था। श्रद्धा यद्यपि इतनी प्रगल्भा न थी, पर यह अनुमान करने के लिए बहुत सूक्ष्म दर्शिता की जरूरत न थी [ ३३७ ]कि उसे भी ज्ञानशंकर से विशेष स्नेह न था। ज्ञानशंकर की संकीर्णता और स्वार्थपर ता दिनो-दिन गायत्री को विदित होने लगी। अब उसे ज्ञान होने लगा कि पिता जी ने मुझे ज्ञानशंकर से बचते रहने की जो ताकीद की थी उसमें भी कुछ न कुछ रहस्य अवश्य था। ज्ञानशंकर के प्रेम और भक्ति पर से भी उसका विश्वास उठने लगा। उसे संदेह होने लगा कि उन्होनें केवल अपना कार्य सिद्ध करने के लिए तो यह स्वाँग नहीं रचा। अब उसे कितनी ही ऐसी बात याद आने लगी, जो इस संदेह को पुष्ट करती थी। ज्यों ज्यों यह सन्देह बढ़ता था ज्ञानशंकर की ओर से उसका चित्त फिरता जाता था। ज्ञानशंकर गायत्री के चित्त की यह वृत्ति देख कर बड़े असमजस में रहते थे। उनके विचार में यह मनोमालिन्य शान्त करने का सर्वोत्तम उपाय यही था कि गायत्री को किसी प्रकार गोरखपुर खीच ले चले। लेकिन उससे यह प्रस्ताव करते हुए वह डरते थे। अपनी गोटी लाल करने के लिए वह गायत्रीं का एकान्त-सेवन परमावश्यक समझते थे। मायाशंकर को गोद लेने से ही कोई विशेष लाभ न था। गायत्री की आयु ३५ वर्ष से अधिक न थी और कोई कारण न था वह अभी ४५ वर्ष जीवित न रहे। यह लम्बा इन्तजार ज्ञानशंकर जैसे अधीर पुरुषों के लिए असह्य था। इसलिए वह श्रद्धा और भक्ति का वहीं वशीकरण मन्ने मार कर गायत्री को अपनी मुट्ठी में करना चाहते थे।

एक दिन में एक पत्र लिये हुए गायत्री के पास आ कर बोले, गोरखपुर से यह बहुत जरूरी खत आया है। मुख्तार साहब ने लिखा है कि ये फसल के दिन हैं। आप लोगों का आना जरूरी है, नही तो सौर की उपज हाय न लगेगी, नौकर-चाकर खा जायेगे।

गायत्री ने रूष्ट हो कर कहा—इसका उत्तर तो मैं पीछे दूंगी, पहले यह बताइए कि आप मेरी चिट्ठियाँ क्यों खोल लिया करते है?

ज्ञानशंकर सन्नाटे मे आ गये, समझ गये कि मैं इसकी आँखो में उससे कहीं ज्यादा गिर गया हूँ जितना मैं समझता हूँ। बगल झांकते हुए बोले—मेरा अनुमान था कि इतनी आत्मिक घनिष्ठता के बाद इस शिष्टाचार की जरूरत नही। लेकिन आप को नागवार लगता है तो आगे ऐसी भूल न होगी।

गायत्री ने लज्जित हो कर कहा-मेरा आशय यह नहीं था। मैं केवल यह चाहती हैं कि मेरी निज की चिट्ठियाँ न खोला जाया करे।

ज्ञानशंकर इस धृष्टता का कारण यह था कि मैं अपनी आत्मा को आपकी आत्मा में सयुक्त समझता था, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस घर के द्वेष-पोषक जलवायु ने हमारे बीच में भी अन्तर डाल दिया। भविष्य में ऐसा दुस्साहस न होगा। मालूम होता है कि मेरे कुदिन आये हैं। देखे क्या-क्या झेलना पड़ता है।

गायत्री ने बात का पहलू बदल कर कहा—मुख्सार साहब को लिख दीजिए कि अभी हम लोग न आ सकेगे, तहसील-वसूल शुरू कर दें।

ज्ञानशंकर मेरे विचार में हम लोगों को वहाँ रहना जरूरी है।

२२

[ ३३८ ]

गायत्री--तो आप चले जायें। मेरे जाने की क्या जरूरत हैं? मैं अभी यहाँ कुछ दिन और रहना चाहती हूँ।

ज्ञानशंकर ने हताश हो कर कहा-जैसी आपकी इच्छा। लेकिन आपके बिना वहाँ एक-एक क्षण मुझे एक-एक साल मालूम होगा। कृष्णमन्दिर तैयार ही है। वहाँ भजन-कीर्तन में जो आनन्द आयेगा वह यह दुर्लभ है। मेरी इच्छा थी कि अवकी बरसात वृन्दावन में कटती। इस आशा पर पानी फिर गया। आप मेरे जीवन-पथ की दीपक हैं आप ही मेरे प्रेम और भक्ति की केन्द्रस्थल है। आप के बिना मुझे अपने चारों ओर अंधेरा दिखाई देगा। संम्भव है कि पागल हो जाऊँ।

दो महीने पहले ऐसी प्रेमरस पूर्ण बातें सुन कर गायत्री का हृदय गद्दगद्द हो जाता; लेकिन इतने दिनो यहाँ रह कर उसे उनके चरित्र का पूरा परिचय मिल चुका था। वह साज जो बेसुर अलाप को भी रसमय बना देता था अब बन्द था। वह मंत्र का प्रतिहार करना सीख गयी थी। बोली----यहाँ मेरी दशा उससे भी दुस्सह होगी, खोयी-खोयी सी फिरूंगी, लेकिन करूँ क्या? यहाँ लोगो के हृदय को अपनी ओर से साफ करना आवश्यक है। यह वियोग-दुख इसलिए उठा रही हूँ, नहीं तो आप जानते है यहाँ मन बहलाव की क्या नाम है? देह पर अपना वश है, उसे यही रखूंगी। रही सन, मन एक क्षण के लिए भी अपने कृष्ण का दामन न छोड़ेगा। प्रेम-स्थल में हजारों कोस की दूरी भी कोई चीज नहीं है, वियोग में भी मिलाप का आनन्द मिलता रहता है। हाँ, पत्र नित्य प्रति लिखते रहिएगा, नही तो मेरी जान पर बन जायेगी।

ज्ञानशंकर ने गायत्री को भेद की दृष्टि से देखा। यह वह भोली-भाली सरला गायत्री न थी। वह अब त्रिया-चरित्र में निपुण हो गयी थी; दगी का जवाब दगी से देना सीख गयी थी। समझ गये कि अब यहाँ मेरी दाल के गलेगी। इस बाजार में अब खोटे सिक्के न चलेगे। यह बीज जीतने के लिए कोई नयी चाल चलनी पड़ेगी, नये किले बाँधने पड़ेगे। गायत्री को यहीं छोड़ कर जाना शिकार को हाथ से खोना था। किसी दूसरे अवसर पर यह जिक्र छेड़ने का निश्चय करके वह उठे। सहसा गायत्री ने पूछा, तो कब तक जाने का विचार है? मैरे विचार में आपका प्रात काल की गाड़ी से चला जाना अच्छा होगा।

ज्ञानशंकर ने दीन भाव से भूमि की ओर ताकते हुए कहा---अच्छी बात है।

गायत्री---हाँ, जब जाना ही है तब देर न कीजिए। जब तक इस मायाजाल में फैंसे हुए हैं तब तक तो यहाँ के राग अलापने ही पड़ेगे।

ज्ञानशंकर- जैसी आशा।

यह कह कर वह मर्माहत भाव से उठ कर चले गये। उनके जाने के बाद गायत्री को वही खेद हुआ जो किसी मित्र को व्यर्थ कष्ट देने पर हमको होता है, पर उसने उन्हें रोका नहीं।