हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/४ उत्तर-काल/(क) निर्गुण संत कवि

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ ३२१ ]

(क)

अब मैं प्रकृत विषय को लेता हूं, सत्रहवीं शताब्दी के निर्गुणवादी कवियों में मलूक दास और सुन्दरदास अधिक प्रसिद्ध हैं। क्रमशः इनकी रचनायें आप लोगों के सामने उपस्थित करके इनकी भाषा आदि के विषय में जो मेरा विचार है उसको मैं प्रकट करूँगा और विकास सूत्र से उनकी जांच पड़ताल भी करता चलूंगा। मलूकदास जी एक खत्री बालक थे । बाल्यकाल से ही इनमें भक्ति का उद्रेक दृष्टिगत होता है । वे द्रविड़ देश के एक महात्मा बिट्ठल दास के शिष्य थे। इनका भी एक पंथ चला जिसकी मुख्य गद्दी कड़ा में है । भारतवर्ष के अन्य भागों में भी उनकी कुछ गद्दियां पाई जाती हैं। उनकी रचनाओं से यह सिद्ध होता है कि उनमें निर्गुण- वादी भाव था, फिर भी वे अधिकतर सगुणोपासना में ही लीन थे। सच्ची बात तो यह है कि पौराणिकता उनके भावों में भरी थी और वे उसके [ ३२२ ]सिद्धान्तों का अनुकरण करते ही दृष्टिगत होते हैं। वे दर्शन के लिये जगन्नाथ जी भी गये थे। वहाँ पर उनके नाम का टुकड़ा अब तक मिलता है। उनकी कुछ रचनायें देखियेः—

१—भील कब करी थी भलाई जिय आप जान।
फी़ल कब हुआ था मुरीद कहु किसका।
गीध कब ज्ञान की किताब का किनारा छुआ।
व्याध और बधिक निसाफ कहु तिसका।
नाग कब माला लै के बन्दगी करी थी बैठ।
मुझको भी लगा था अजामिल का हिसका।
एते बदराहों की बदी करी थी माफ़ जन।
मलूक अजाती पर एती करी रिस का।
२—दीनदयाल सुनी जबते तबते हिय में कछु ऐसी बसी है।
तेरोकहाय कै जाऊँ कहाँ मैं तेरे हितकी पट खैंचिकसीहै।
तेरोही एक भरोस मलूक को तेरे समान न दूजो जसीहै।
एहो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहिं तेरीहँसीहै।
३—ना वह रीझै जप तप कीने ना आतम के जारे।
ना वह रीझै धोती नेती ना काया के पखारे।
दाया करै धरम मन राखै घर में रहे उदासी।
अपना सा दुख सबका जाने ताहि मिलै अबिनासी।
सहै कुसबद बादहू त्यागै छाडै़ गरब गुमाना।
यही रीझ मेरे निरंकार की कहत मलूक दिवाना।
४—गरब न कीजै बावरे हरि गरब प्रहारी।
गरबहिं ते रावन गया पाया दुख भारी।
[ ३२३ ]

जर न ख़ुदी रघुनाथ के मन माँहिं सोहाती।
जाके जिय अभिमान है ताकी तोरत छाती ।
एक दया औ दीनता ले रहिये भाई ।
चरन गहो जाय साधु के रीझैं रघुराई ।
यही बड़ा उपदेस है पर द्रोह न करिये।
कह मलूक हरि सुमिरि के भौसागर तरिये।

५—दर्द दिवाने बावरे अलमस्त फकीरा
एक अकीदा ले रहे ऐसा मन धीरा ।
प्रेम पियाला पीउ ते बिसरे सब साथी ।
आठ पहर यों झूमते ज्यों माता हाथी ।
साहब मिलि साहब भये कछु रही न तमाई ।
कह मलूक तिस घर गये जहँ पवन न जाई ।
६—अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम ।
दास मलूका यों कहै सब के दाता राम ।
प्रभुताही को सब मरै प्रभु को मरै न कोय ।
जो कोई प्रभु को मरै प्रभुता दामी होय ।

इनकी भाषा स्वतंत्र है। परन्तु खड़ी बोली और ब्रजभाषा का रंग ही उसमें अधिक है। ये फ़ारसी के शब्दों का भी अधिकतर प्रयोग करते हैं और कहीं कहीं छन्द की गति की पूरी रक्षा भी नहीं कर पाते। ऊपर के पद्यों में जिन शब्दों और वाक्यों पर चिन्ह बना दिया गया है उनको देखिये। ये शब्द विन्यास और वाक्य-रचना में अधिकतर ब्रजभाषा के नियमों का पालन करते हैं । परन्तु बहुधा स्वतन्त्रता मी ग्रहण कर लेते हैं। इनकी रचना में संस्कृत के तत्सम शब्द भी आते हैं पर अधिकतर उन पर युक्त-विकर्ष का प्रभाव ही देखा जाता है। [ ३२४ ]साधुओं में सुंदरदास ही ऐसे हैं जो विद्वान थे और जिन्होंने काशी में बीस वर्ष तक रह कर वेदान्त और अन्य दर्शनों की शिक्षा संस्कृत द्वारा पाई थी। वे जाति के खण्डेल वाल बनिये और दादूदयाल के शिष्य थे । उन्होंने देशाटन अधिक किया था, अतएव उनका ज्ञान विस्तृत था । वे बाल ब्रह्मचारी और त्यागी थे। उनका कोई पंथ नहीं है। परन्तु सुन्दर और सरस हिन्दी रचनाओं के लिये वे प्रसिद्ध हैं। उनकी अधिकांश रच- नाओं पर वेदान्त-दर्शन की छाप है और उन्होंने उसके दार्शनिक विचारों को बहुत ही सरलता से प्रकट किया है। कहा जाता है, उन्होंने चालीस ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से सुन्दरसांख्य-तर्क चिन्तामणि' 'ज्ञान विलास' आदि ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध हैं। उन्होंने साखियों की भी रचना की है। शब्द भी बनाये हैं। और बड़े ही सरस कवित्त और सवैये भी लिखे हैं। उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं।

१-बोलिये तो तब जब बोलिबे की सुधि होइ ।
न तो मुख मौन गहि चुप होइ रहिये ।
जोरिये तो तब जब जोरिबे की जान परै
तुक छंद अरथ अनूप जामैं लहिये ।
गाइये तो तब जब गाइबे को कंठ होइ ।
जौन के सुनत ही सुमन जाइ गहिये ।
तुक भंग छंद भंग अरथ मिलै न कछु ।
सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिये ।

२-गेह तज्यो पुनि नेह तज्यो,
पुनि खेह लगाइ कै देह सँवारी ।
मेघ सहै सिरसीत सहै,
तन धूप समै में पंचागिन बारी।

[ ३२५ ]

भूख सहै रहि रूख तरे
पर सुन्दर दास यहै दुख भारी ।
आसन छाड़ि के कासन ऊपर,
आसन मार्यो पै आस न मारी ।

३-देखहु दुर्मति या संसार की।
हरि सो हीरा छांडि हाथ तें बाँधत मोट विकार की।
नाना बिधि के करम कमावत खबर नहीं सिरभार की।
झूटे सुख में भूलि रहे हैं फूटी आँख गँवार की।
कोइ खेती कोई बनिजी लागे कोई आस हथ्यार की।
अंध धुंध में चहुं दिसिधाये सुधि बिसरी करतार की।
नरक जानि कैमारग चालैसुनि सुनि बात लबारकी
अपने हाथ गले में बाही पासी माया जार की।
बारम्बार पुकार कहतहौं सौहैं सिरजनहार की।
सुंदरदास बिनस करि जैहै देह छिनक में छार की।

४ --धाइ पन्यो गज कूप में देखा नहीं विचारि ।
काम अंध जानै नहीं कालबूत की नारि ।
लालन मेरा लाड़ला रूप बहुत तुझ माहिं ।
सुन्दर राखे नैन में पलक उघारै नाहिं ।
सुन्दर पंछी बिरछ पर लियो बसेरा आनि ।
राति रहे दिन उठि गये त्यों कुटुंब सब जानि ।
लवन पूतरी उदधि में, थाह लैन को जाइ ।
सुन्दर थाह न पाइये बिचही गयो बिलाइ ।

[ ३२६ ]

५-तो सही चतुर त जान परवीन
अति परै जनि पींजरे मोह कूआ।
पाइ उत्तम जनम लाइ लै चपल
मन गाइ गोविन्द गुन जीति जूआ।
आपुही आपु अज्ञान नलिनी वंध्यो
बिना प्रभु बिमुख कैबेर मूआ।
दास सुंदर कहै परम पद तो लहै
राम हरि राम हरि बोल सूआ ।

इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है परन्तु उसमें कहीं कहीं खड़ी बोली का शब्द-विन्यास भी मिल जाता है। जहां उन्होंने दार्शनिक विषयों का वर्णन किया है वहां उनकी रचना में अधिकतर संस्कृत शब्द आये हैं। जैसे निम्न लिखित पद्य में:-

ब्रह्म ते पुरुष अरु प्रकृति प्रगट भई,
प्रकृति ते महतत्व पुनि अहंकार है।
अहंकार हू ते तीन गुण सत रज तम,
तमहू ते महा भूत विषय पसार है।
रजहूं ते इन्द्री दस पृथक पृथक भई,
सत हूं ते मन आदि देवता विचार है।
ऐसे अनुक्रम करि सिष्य सों कहत गुरु,
सुन्दर सकल यह मिथ्या भ्रम जार है।

देशाटन के समय प्रत्येक प्रान्त में जो बातें अरुचिकर देखीं अपनी रचनाओं में उन्होंने उनकी चर्चा भी की है। उनकी ऐसी रच- नाओं में प्रान्तिक और गढ़े शब्दों का प्रयोग भी प्रायः देखा जाता है ।

निम्न लिखित पद्यांशों के उन शब्दों को देखिये जो चिन्हित हैं:[ ३२७ ]

१-आभड़ छोत अतीत सों कीजिये
२-बिलाईरु कूकुरु चाटत हांडी

३-रांधत प्याज बिगारत नाज न आवत लाज करें

सब भच्छन


४-ब्राह्मण छत्रिय बैसरु सूदर चारों ही बर्नके मच्छ बघारत
५-फूहड़ नार फतेपुर की.................. ।
६-फिर आवा नग्र मँझारी

इनकी रचनाओं में विदेशी भाषा के शब्द भी आते हैं, किन्तु बहुत कम और नियमानुकूल। निम्न लिखित पद्य के उन शब्दों को देखिये जो चिन्हित हैं:-

१–'खबरि नहीं सिर भार की'
२-'कागद की हथिनी कीनी'
३- खंदक कीना जाई'
४-'तब बिदा होइ घर आवा'
५-'मन में कछु फिकिरि उपावा'

इन पद्यों में आवा', 'उपावा' इत्यादि का प्रयोग भी चिंतनीय है। ये प्रयोग अवधी के ढंग के हैं। उनकी समस्त रचनाओं पर दृष्टि डालकर यह कहा जा सकता है कि निर्गुणवादियों की जितनी रचनायें हैं उनमें भाषा की प्राञ्जलता एवं नियम पालन की दृष्टि से सुंदरदासजी की कृति ही सर्वप्रधान है। जो भाषा-सम्बन्धी विभिन्नता कहीं कहीं थोड़ी बहुत मिलती है, साहित्यिक दृष्टि से वह उपेक्षणीय है। कतिपय शब्दों और वाक्य-विन्यास के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी भाषा खिचड़ी है और उन्होंने भी सधुक्कड़ी भाषा ही लिखी। इन्हीं के समय में दादू सम्प्रदाय में निश्चलदास नाम के एक प्रसिद्ध साधु-विद्वान् हो गये हैं, [ ३२८ ]जिन्होंने वेदान्त के विषयों पर सुंदर ग्रंथ लिखे हैं। उनकी भाषा के विषय में यही कहा जा सकता है कि वह लगभग सुंदरदास की सी ही है । इसी शताब्दी में लालदासी पंथ के प्रवर्तक लालदास और साधु सम्प्रदाय के जन्म दाता बोरभान एवं ‘सत्यप्रकाश' नामक ग्रन्थ के रचयिता और एक नवीन मत के निर्माण कर्ता धग्णीदास भी हुये । परन्तु उनकी रचनायें अधिकतर साधुओं की स्वतंत्र भाषा ही में हैं, विचार भी लगभग वैसे ही हैं । इसलिये में उनकी रचनाओं को ले कर उनके विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं समझता ।