हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) लाला भगवानदीन

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[ ६३५ ] स्वर्गीय लाला भगवानदीन जी के जीवन का प्रारंभिक काल उस बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ था जहाँ देश की परंपरागत पुरानी संस्कृति अभी बहुत कुछ बनी हुई है। उनकी रहन-सहन बहुत सादी और उनका हृदय बहुत सरल और कोमल था। उन्होंने हिंदी के पुराने काव्यों का नियमित रूप से अध्ययन किया था इससे वे ऐसे लोगों से कुढ़ते थे जो परंपरागत हिंदी-साहित्य की कुछ भी जानकारी प्राप्त किए बिना केवल थोड़ी सी, अँगरेजी शिक्षा के बल पर हिंदी-कविताएँ लिखने लग जाते थे। बुंदेलखंड में शिक्षितवर्ग के बीच भी और सर्वसाधारण में भी हिंदी-कविता का समान्य रूप से प्रचार चला आ रहा है। ऋतुओं के अनुसार जो त्योहार और उत्सव रखे गए हैं, उनके आगमन पर वहाँ लोगों में अब भी प्रायः वही उमंग-दिखाई देती है। विदेशी संस्कारों के कारण वह मारी नहीं गई है। लाला साहब वही उमंग-भरा हृदय लेकर छतरपुर से काशी आ रहे। हिंदी-शब्दसागर के संपादकों में एक वे भी थे। पीछे विश्वविद्यलाय में हिंदी के अध्यापक हुए। हिंदी-साहित्य की व्यवस्थित रूप से शिक्षा देने के लिये काशी में उन्होंने एक साहित्य-विद्यालय खोला जो उन्हीं के नाम से अब तक बहुत अच्छे ढंग पर चला जा रहा है। कविता में वे अपना उपनाप 'दीन' रखते थे।

लालाजी का जन्म संवत् १९२३ में और मृत्यु १९८७ (जुलाई, १९३०) में हुई।

पहले वे ब्रजभाषा में पुराने ढंग की कविता करते थे, पीछे 'लक्ष्मी' के संपादक हो जाने पर खड़ी बोली की कविताएँ लिखने लगे। खड़ी बोली में उन्होंने वीरों के चरित्र लेकर बोलचाल ही फड़कती भाषा में जोशीली रचना की है। खड़ी बोली की कविताओं का तर्ज उन्होंने प्रायः मुंशियान ही रखा था। वह या छंद भी उर्दू के रखते थे और भाषा में चलते अरबी या फारसी शब्द भी लाते थे। इस ढंग के उनके तीन काव्य निकले हैं––'वीर क्षत्राणी', 'वीर बालक' और 'वीर पंचरत्न'। लालाजी पुराने हिंदी-काव्य और साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। बहुत से प्राचीन काव्यों की नए ढंग की टीकाएँ करके उन्होंने अध्ययन के [ ६३६ ]अभिलाषियों का बड़ा उपकार किया है। रामचंद्रिका का, कविप्रिय, दोहावली, कवितावली, बिहारी सतसई आदि की इनकी टीकाओं ने विद्यार्थियों के लिये अच्छा मार्ग खोल दिया। भक्ति और शृंगार की पुराने ढंग की कविताओं में उक्ति-चमत्कार वे अच्छा लाते थे।

उनकी कविताओं के दोनों तरह के नमूने नीचे देखिए––

सुनि मुनि कौसिक तें सांप को हवाल सब।
वाटी चित्त करुना की अजब उमंग है।
पद-रज ढारि करे पाप सब छारि,
करि कवल-सुनारि दियो धामहू उतंग है॥
'दीन' मनै ताहि लखि जात पतिलोक
और उपमा अभुत को सुझानो नयो ढंग हैं।
कौतुकनिधान राम रज की बनाय रज्जु,
पद तें उड़ाई ऋषि पतिनी-पतंग है॥


वीरों की सुमाताओं का यश जो नहीं गाता।
वह व्यर्थं सुकवि होने का अभिमान जनाता॥
जो वीर-सुयश गाने में है ढील दिखाता।
वह देश के वीरत्व का है मान घटाता॥
सब वीर किया करते हैं सम्मान कलम का।
वीरों का सुयशगान है अभिमान कलम का॥

इनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'नवीन बीन' या 'नदीमे दीन' है। पंडित रूपनारायण पांडेय ने यद्यपि ब्रजभाषा में भी बहुत कुछ कविता की है, पर इधर अपनी खड़ी बोली की कविताओं के लिये ही ये अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्होंने बहुत ही उपयुक्त विषय कविता के लिये चुने हैं और उनमें पूरी रसात्मकता लाने में समर्थ हुए हैं। इनके विषय के चुनाव में ही भावुकता टपकती हैं, जैसे दलित कुसुम, वन विहंगम, आश्वासन। इनकी कविताओं का संग्रह 'पराग' के नाम से प्रकाशित हो चुकी है। पांडेयजी [ ६३७ ]की "वन-विहंगम" नाम की कविता में हृदय की विशालता और सरसता का बहुत अच्छा परिचय मिलता है। 'दलित कुसुम' की अन्योक्ति भी बड़ी हृदय-ग्राहिणी है। संस्कृत और हिंदी दोनों के छंदों में खड़ी बोली को इन्होंने बड़ी सुघड़ाई से ढाला है। यहाँ स्थानाभाव से हम दो ही पद्य उद्धृत कर सकते हैं।

अहह! अधम आँधी, आ गई तू कहाँ से?
प्रलय-घन-घटा सी छा-गई तू कहाँ से?
पर दुख-सुख तूने, हा! न देखा न भाला।
कुसुम अधखिला ही, हाय! यों तोड़ डाला॥


वन बीच बसे थे, फँसे थे ममत्व में एक कपोत कपोता कहीं।
दिन रात न एक को दूसरा छोड़ता, ऐसे हिले मिले दोनों वहीं॥
बढ़ने लगा नित्य नया नया नेह, नई नई कामना होती रही।
कहने का प्रयोजन है इतना, उनके सुख की रही सीमा नहीं॥

खड़ी बोली की खरखराहट (जो तब तक बहुत कुछ बनी हुई थी) के बीच 'वियोगी हरि' के समान स्वर्गीय पं॰ सत्यनारायण कविरत्न (जन्म संवत् १९३६ मृत्यु १९७५) भी ब्रज की मधुर वाणी सुनाते रहे। रीतिकाल के कवियों की परंपरा पर न चलकर वे या तो भक्तिकाल के कृष्णभक्त कवियों के ढंग पर चले हैं अथवा भारतेंदु-काल की नूतन कविता की प्रणाली पर। ब्रजभूमि, ब्रजभाषा और ब्रज-पति का प्रेम उनके हृदय की संपत्ति थी। ब्रज के अतीत दृश्य उनकी आँखों में फिरा करते थे। इंदौर के पहले साहित्य सम्मेलन के अवसर पर वे मुझे वहाँ मिले थे। वहाँ की अत्यंत काली मिट्टी देख वे बोले, "या माटी कों तो हमारे कन्हैया न खाते"।

अँगरेजी की ऊँची शिक्षा पाकर उन्होंने अपनी चाल-ढाल ब्रजमंडल के ग्रामीण भले-मानसों की ही रखी। धोती, बगल बदी और दुपट्टा; सिरपर एक गोल टीपी, यही उनका वेश रहता था। वे बाहर जैसे सरल और सदे थे, भीतर भी वैसे ही थे। सादापन दिखावे के लिये धारण किया हुआ नहीं है स्वभावगत है, यह बात उन्हें देखते ही और उनकी बातें [ ६३८ ]सुनते ही प्रगट हो जाती थी। बाल्यकाल से लेकर जीवनपर्यंत वे आगरे से डेढ़ कोस पर ताजगंज के पास धाँधूपुर नामक गाँव में ही रहे। उनका जीवन क्या था, जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टांत था। उनका जन्म और बाल्यकाल, विवाह और गृहस्थ, सब एक दुःखभरी कहानी के संबद्ध खंड थे। वे थे ब्रजमाधुरी में पगे जीव; उनकी पत्नी थीं आर्य-समाज के तीखेपन में तली महिला। इस विषमता की विरसता बढ़ती दी गई और थोड़ी ही अवस्था में कविरत्नजी की जीवन यात्रा समाप्त हो गई।

ब्रजभाषा की कविताए में छात्रावस्था ही में लिखने लगे। वसंतागमन पर, वर्षा के दिनों में वे रसिये आदि ग्राम-गीत अपढ़ ग्रामीणों में मिलकर निस्संकोच गाते थे। सवैया पढ़ने का ढंग उनका ऐसा आकर्षक था कि सुननेवाले मुग्ध हो जाते थे। जीवन की घोर विषमताओं के बीच भी वे प्रसन्न और हँसमुख दिखाई देते थे। उनके लिये उनका जीवन ही एक काव्य था, अतः जो बाते प्रत्यक्ष उनके सामने आती थीं उन्हें काव्य का रूप-रंग देते उन्हें देर नहीं लगती थी। मित्रों के पास में प्राय: पद्य में पत्र लिखा करते थे जिनमें कभी कभी उनके स्वभाव की झलक भी रहती थी, जैसे स्वर्गीय पद्मसिंह जी के पास भेजी हुई इस कविता में––

जो मो सों हँसि मिले होत मैं तासु निरंतर चेरो।
बस गुन ही गुन निरखत तिह मधि सरल प्रकृति को प्रेरो॥
यह स्वाभाव को रोग जानिए, मेरो बस कछु नाहीं।
निज नव विकल रहत याहीं तो सहृदय-बिछुरन माहीं॥
सदा दारू-योपित सम बेबस आशा सुदित प्रमानै।
कोरो सत्य आम को बासी कहा "तकल्लुफ" जानै॥

किसी का कोई अनुरोध टालना तो उनके लिये असंभव था। यह जानकर बराबर लोग किसी न किसी अवसर के उपयुक्त कविता बना देने की प्रेरणा उनसे किया करते थे और वे किसी को निराश न करते थे। उनकी वही दशा थी जो उर्दू के प्रसिद्ध शायर इंशा की लखनऊ-दरबार में हो गई थी। इससे उनकी अधिकांश रचनाएँ सामयिक है और जल्दी में जोड़ी हुई प्रतीत होती है, [ ६३९ ]जैसे––स्वामी रामतीर्थ, तिलक, गोखले, सरोजिनी नायडू इत्यादि की प्रशस्तियाँ; लोकहितकर आयोजनों के लिये अपील (हिंदू-विश्वविद्यालय के लिये लंबी अपील देखिए); दुःख और अन्याय के निवारण के लिये पुकार (कुली-प्रथा के विरुद्ध 'पुकार' देखिये)

उन्होंने जीती-जागती ब्रजभाषा ली है। उनकी ब्रजभाषा उसी स्वरूप में बँधी न रहकर जो काव्य परंपरा के भीतर पाया जाता है, बोलचाल के चलते रूपों को लेकर चली है। बहुत से ऐसे शब्दों और रूपों का उन्होंने व्यवहार किया है जो परंपरागत काव्यभाषा में नहीं मिलते।

'उत्तर रामचरित' और 'मालती-माधव' के अनुवादों में श्लोकों के स्थान पर उन्होंने बड़े मधुर सवैए रखे हैं। मैकाले के अँगरेजी खंड-काव्य 'होरेशस' का पद्यबद्ध अनुवाद उन्होंने बहुत पहले किया था। कविरत्न जी की बड़ी कविताओं में 'प्रेमकली' और 'भ्रमरदूत' विशेष उल्लेख-योग्य है। 'भ्रमरदूत' में यशोदा ने द्वारका में जा बसे हुए कृष्ण के पास संदेश भेजा है। उसकी रचना नंददास के 'भ्रमरगीत' के ढंग पर की गई है, पर अंत में देश की वर्तमान दशा और अपनी दशा का भी हलका-सा आभास कवि ने दिया है। सत्यनारायण जी की रचना के कुछ नमूने देखिए––

अलबेली कहूँ वेलि द्रुमन सों लिपट सुहाई।
धोए धोए पातन की अनुपम कमनाई॥
चातक शुक कोयल ललित, बोलत मधुरे बोल।
कूकि कूकि केकी कलित कुंजन करत कलोल॥

निरखि घन की घटा।


लखि यह सुषमा-जाल लाल निज बिन नँदरानी।
हरि सुधि उमड़ी घुमड़ी तन उर अति अकुलानी॥
सुधि बुधि तज माथौ पकरि, करि करि सोच अपार।
दृगजल मिस मानहुँ निकरि वही विरह की धार॥

कृष्ण रटना लगी।

[ ६४० ]

कौने भेजौं दूत पूत सों विद्या सुनावै।
बातन में बहराह जाए ताको यह लावै॥
त्यागि मधुपुरी को गयो छाँड़ि सबन के साथ।
सात समुंदर पै भयो दूर द्वारकानाथ॥

जाइगो को उहाँ?

नित नव परत अकाल, काल को चलत चक्र चहुँ।
जीवन को आनंद न देख्यो जात यहाँ कहुँ॥
बढ्यो यथेच्छाचारकृत जहँ देखौ तहँ राज।
होत जात दुर्बल विकृत दिन दिन आर्य-समाज॥

दिनन के फेर सों।

जे तजिं मातृभूमि सों ममता होत प्रवासी।
तिन्है बिदेसी तंग करत है विपदा खासी॥
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नारी शिक्षा अनादरत जे लोग अनारी।
ते स्वदेश-अवनति-प्रंचड-पातक-अधिकारी॥
निरखि हाल मेरो प्रथम लेहु समुझि सब कोइ।
विद्याबल लहि मति परम अबला सबला होइ॥

लखौं अजमाई कै।
(भ्रमरदूत)


भयो क्यों अनचाहत को संग?
सब जग के तुम दीपक, मोहन! प्रेमी हमहूँ पतंग।
लखि तव दीपति, देह-शिखा में निरत, विरह लौ लागी॥
खींचति आप सो आप उतहि यह, ऐसी प्रकृति अभागी।
यदपि सनेह-भरी तब बतियाँ, तउ अचरज की बात।
योग वियोग दोउन में इक सम नित्य जरावत गात॥