हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) द्विवेदी-मंडल के बाहर के कवि

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द्विवेदी-मंडल के बाहर की काव्य-भूमि

द्विवेदीजी के प्रभाव से हिंदी-काव्य ने जो स्वरूप प्राप्त किया उसके अतिरिक्त और अनेक रूपों में भी भिन्न भिन्न कवियों की काव्य-धारा चलती रही। कई एक बहुत अच्छे कवि अपने अपने ढंग पर सरस और प्रभावपूर्ण कविता करते रहे जिनमें मुख्य राय देवीप्रसाद 'पूर्ण', पं॰ नाथूराम शंकर शर्मा, पं॰ गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही', पं॰ सत्यनारायण कविरत्न लाला भगवानदीन, पं॰ रामनरेश त्रिपाठी, पं॰ रूपनारायण पांडेय हैं।

इन कवियों में से अधिकांश तो दो-रंगी कवि थे जो ब्रजभाषा में तो शृंगार वीर, भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता कवित्त-सवैयों या गेय पदों में करते आते थे और खड़ी बोली में नूतन विषयों को लेकर चलते थे। बात यह थी कि खड़ी बोली का प्रचार बराबर बढ़ता दिखाई देता था और काव्य के प्रवाह के लिये कुछ नई नई भूमियाँ भी दिखाई पड़ती थीं। देश-दशा, समाज-दशा, स्वदेश-प्रेम, आचरण-संबंधी उपदेश आदि ही तक नई धारा की कविता न रहकर जीवन के कुछ और पक्षों की ओर भी बढ़ी , पर गहराई के साथ नहीं। त्याग, वीरता, उदारता, सहिष्णुता इत्यादि के अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंग पद्यबद्ध हुए जिनके बीच बीच में जन्मभूमि-प्रेम, स्वजाति-गौरव, आत्म-संमान की व्यंजन करने वाले जोशीले भाषण [ ६२५ ]रखे गए। जीवन की गूढ, मार्मिक या रमणीय परिस्थितियाँ झलकाने के लिये नूतन कथा-प्रसंगों की कल्पना या उद्भावना की प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ी। केवल पं॰ रामनरेश त्रिपाठी ने कुछ ध्यान कल्पित प्रबंध की ओर दिया।

दार्शनिकता का पुट राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' की रचनाओं में कहीं कहीं दिखाई पड़ता है, पर किसी दार्शनिक तथ्य को हृदय-ग्राह्य रसात्मक रूप देने का प्रयास उनमें भी नहीं पाया जाता। उनके "वसंत-वियोग" में भारत दशा-सूचक प्राकृतिक विभूति के नाना चित्रों के बीच बीच में कुछ दार्शनिक तत्त्व रखे गए हैं और अंत में आकाशवाणी द्वारा भारत के कल्याण के लिये कर्मयोग और भक्ति का आदेश दिलाया गया है। प्रकृति-वर्णन की और हमारा काव्य कुछ अधिक अग्रसर हुआ पर प्रायः वहीं तक रहा जहाँ तक उसका संबंध मनुष्य के सुख-सौंदर्य की भावना से हैं। प्रकृति के जिन सामान्य रूपों के बीच नर-जीवन का विकास हुआ है, जिन रूपों से हम बराबर घिरते आए हैं उनके प्रति वह राग या ममता न व्यक्त हुई जो चिर सहचरों के प्रति स्वभावतः हुआ करती है। प्रकृति के प्रायः वे ही चटकीले भड़कीले रुप लिए गए जो सजावट के काम के समझे गए। सारांश यह कि जगत् और जीवन के नाना रूपों और तथ्यों के बीच हमारे हृदय का प्रसार करने में वाणी वैसी तत्पर न दिखाई पड़ी।

राय देवीप्रसाद "पूर्ण" का उल्लेख 'पुरानी धारा' के भीतर हो चुका है, वे ब्रजभाषा-काव्य-परंपरा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे और जब तक जीवित रहे, अपने 'रसिक समाज' द्वारा उस परंपरा की पूरी चहल-पहल बनाए रहे। उक्त समाज की ओर से 'रसिकवाटिका' नाम की एक पत्रिका निकलती थी। जिसमें उस समय के प्रायः सब ब्रजभाषा कवियों की सुंदर रचनाएँ छपती थीं। जब संवत् १९७७ में पूर्णजी का देहावसान हुआ उस समय उक्त पत्रिका निरवलंब सा हो गया और––

रसिक समाजी ह्वै चकोर चहुँ-ओर हेरैं,
कविता को पूरन कलानिधि कितै गयो। (रतनेश)

'पूर्ण' जी सनातनधर्म के बड़े उत्साही अनुयायी तथा अध्ययनशील व्यक्ति [ ६२६ ]

कर देते हैं बाहर भुनगो का परिवार,
तब करते हैं कीश उदुंबर का आहार।

पक्षीगृह विचार तरुगण को नहीं हिलाते हैं गजवृंद।
हंस भृंग-हिंसा के भय से खाते नई बंद अरविंद॥

धेनुवत्स जब छक जाते हैं पीकर छीर,
तब कुछ दुहते है, गौऔं को चतुर अहीर।

लेते हैं हम मधुकोशों से मधु जो गिरे आप ही आप।
मक्खी तक निदान इस थल की पाती नहीं कभी संताप॥

(वसंत-वियोग)

सरकारी कानून को रखकर पूरा ध्यान।
कर सकते हो देश का सही तरह कल्याण॥
सभी तरह कल्यान देश का कर सकते हो।
करके कुछ उद्योग सोग सब हर सकते हो॥
जो हो तुम में जान, आपदा भारी सारी।
हो सकती है दूर, नहीं बाधा सरकारी॥

पं॰ नाथूराम शंकर शर्मा का जन्म संवत् १९१६ में और मृत्यु १९८९ में हुई। वे अपना उपनाम 'शंकर' रखते थे और पद्यरचना में अत्यंत सिद्धहस्त थे। पं॰ प्रतापनारायण मिश्र के वे साथियों में थे और उस समय के कवि-समाजों में बराबर कविता पढ़ा करते थे। समस्या-पूर्ति वे बड़ी ही सटीक और सुंदर करते थे जिससे उनका चारों ओर पदक, पगड़ी, दुशाले आदि से सत्कार होता था। 'कवि व चित्रकार', 'काव्य-सुधाधर', 'रसिक-मित्र' आदि पत्रों में उनकी अनूठी पूर्तियाँ और ब्रजभाषा की कविताएँ बराबर निकली करती थीं। छंदों के सुंदर नपे तुले विधान के साथ ही उनकी उद्भावनाएँ भी बड़ी अनूठी होती थीं। वियोग का यह वर्णन पढ़िए––

शंकर नदी नद नद्रीसन के नीरन की
भाप बन अंबर तें ऊँचो चढ़ जाएगी।
दोनों ध्रुव-छोरन लौं पल में पिघलकर
धूम धूम धरनी धुरी सी बढ़ जाएगी।

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झारैंगे अँगारे ये तरनि तारे तारापति
जारैंगे खमंडल में आग मढ़ जाएगी।
काहू विधि विधि की बनावट बचैगी नाहिं
जो पै वा वियोगिनी की आह कढ़ जाएगी॥

पीछे खड़ी बोली का प्रचार होने पर वे उसमें भी बहुत अच्छी रचना करने लगे। उनकी पदावली कुछ उद्दंडता लिए होती थी। इसका कारण यह है कि उनका संबंध आर्य-समाज से रहा जिसमें अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के उग्र विरोध की प्रवृत्ति बहुत दिनों तक जाग्रत रही। उसी अंतर्वृत्ति का आभास उनकी रचनाओं में दिखाई पड़ता है। "गर्भरंडा-रहस्य" नामक एक बड़ा प्रबंध-काव्य उन्होंने विधवाओं की बुरी परिस्थिति और देवमंदिरों के अनाचार आदि दिखाने के उद्देश्य से लिखा था। उसका एक पद्य देखिए––

फैल गया हुरदंग होलिका की हलचल में।
फूल फूलकर फाग फला महिला-महल में॥
जननी भी तज लाज बनी ब्रजमक्खी सबकी।
पर मैं पिंड छुडाय जवनिका में जा दबकी॥

फबतियाँ और फटकार इनकी कविताओं की एक विशेषता है। फैशनवालों पर कही हुई "ईश गिरिजा को छोड़ि ईशु गिरिजा मे जाय" वाली प्रसिद्ध फबती इन्हीं की है। पर जहाँ इनकी चित्तवृत्ति दूसरे प्रकार की रही है, वहाँ की उक्तियाँ बड़ी मनोहर भाषा में हैं। यह कवित्त ही लीजिए––

तेज न रहेगा तेजधारियों का नाम को भी,
मंगल मयंक मंद मंद पड़ जायँगे।
मीन बिन मारे मर जायँगे सरोवर में,
डूब डूब 'शंकर' सरोज सड़ जायँगे॥
चौक चौंक चारों ओर चौकड़ी भरेंगे मृग,
खंजन खिलाड़ियों के पंख झड़ जायँगे।
बालों इन अँखियों की होड़ करने को अब,
कौन से अड़ीले उपमान अड़ जायँगे?

[ ६२८ ]थे। उपनिषद् और वेदांत में उनकी अच्छी गति थी। सभा समाजों के प्रति उनका बहुत उत्साह रहता था और उनके अधिवेशनों में वे अवश्य कोई न कोई कविता पढ़ते थे। देश मे चलनेवाले आंदोलनों (जैसे, स्वदेशी) को भी उनकी वाणी प्रतिध्वनित करती थी। भारतेंदु, प्रेमघन आदि प्रथम उत्थान के कवियों के समान पूर्णजी में भी देशभक्ति और राजभक्ति का समन्वय पाया जाता है। बात यह है कि उस समय तक देश के राजनीतिक प्रयत्नों में अवरोध और विरोध का बल नहीं आया था और लोगों की पूरी तरह धड़क नहीं खुली थी। अतः उनकी रचना में यदि एक ओर 'स्वदेशी' पर देशभक्ति-पूर्ण पद्य मिलें और दूसरी ओर सन् १९११ वाले दिल्ली दरबार के ठाटबाट का वर्णन, तो आश्चर्य न करना चाहिए।

प्रथम उत्थान के कवियों के समान 'पूर्ण' जी पहले नूतन विषयों की कविता भी ब्रजभाषा में करते थे; जैसे––

विगत आलस की रजनी भई। रुचिर उद्यम की द्युति छै गई॥
उदित सूरज है नव भाग को। अरुन रंग नए अनुराग को॥
तजि बिछीनन को अब भागिए। भरत खंड प्रजागण जागिए॥

इसी प्रकार 'संग्राम-निदा' आदि अनेक विषयों पर उनकी रचनाएँ ब्रज-भाषा में ही हैं। पीछे खड़ी बोली की कविता का प्रचार बढ़ने पर बहुत सी रचना उन्होंने खड़ी बोली में भी की, जैसे 'अमल्तास', 'वसंत-वियोग', 'स्वदेशी कुंडल', 'नए सन् (१९१०) का स्वागत', 'नवीन संवत्सर (१९६७) का स्वागत', इत्यादि। स्वदेशी, देशोद्धार आदि पर उनकी अधिकांश रचनाएँ इतिवृत्तात्मक पद्यों के रूप में हैं। 'वसंतवियोग' बहुत बड़ी कविता है जिसमे कल्पना अधिक सचेष्ट मिलती है। उसमें भारत-भूमि की कल्पना एक उद्यान के रूप में की गई है। प्राचीनकाल में यह उद्यान सत्त्व-गुण-प्रधान, तथा प्रकृति की सारी विभूतियों से संपन्न था और इसके माली देवतुल्य थे। पीछे मालियों के प्रमाद और अनैक्य से उद्यान उजड़ने लगता है। यद्यपि कुछ यशस्वी महापुरुष (विक्रमादित्य ऐसे) कुछ काल के लिये उसे सँभालते दिखाई पड़ते हैं, पर उसकी दशा गिरती ही जाती है। अंत में उसके माली [ ६२९ ]साधना और तपस्या के लिये कैलास-मानसरोवर की ओर जाते हैं जहाँ अकाशवाणी होती है कि विक्रम की बीसवीं शताब्दी में जब 'पश्चिमी शासन' होगा तब उन्नति का आयोजन होगा। 'अमल्तास' नाम की छोटी सी कविता में कवि ने अपने प्रकृति-निरीक्षण का भी परिचय दिया है। ग्रीष्म में जब वनस्थली के सारे पेड़-पौधे झुलसे से रहते हैं और कहीं प्रफुल्लता नहीं दिखाई देती है, उस समय अमल्तास चारों ओर फूलकर अपनी पीत प्रभा फैला देता है। इससे कवि भक्ति के महत्व का संकेत ग्रहण करता हैं––

देख तव वैभव, द्रुमकुल-संत! विचारा उसका सुखद निदान।
करे जो विषम काल को मंद, गया उस सामग्री पर ध्यान॥
रँगा निज प्रभु ऋतुपति के रंग, द्रुमों में अमल्तास तू भक्त।
इसी कारण निदाघ प्रतिकूल, दहन में तेरे रहा अशक्त॥

'पूर्ण' जी की कविताओं का संग्रह 'पूर्ण-संग्रह' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। उनकी खड़ी बोली की रचना के कुछ उद्धरण दिए जाते हैं––

नंदनवन का सुना नहीं है किसने नाम,
मिलता है जिसमें देवों को भी आराम।

उसके भी बासी सुखरासी, उग्र हुआ यदि उनका भाग।
आकर के इस कुसुमाकर में करते हैं नदन-रुचि त्याग॥
xxxx

है उत्तर में कोट शैल, सम तुग विशाल,
विमल सघन हिम-वलित ललित धवलित सब काल॥
xxxx

हे नर दक्षिण! इसके दक्षिण, पश्चिम, पूर्व
है अपार जल से परिपूरित कोश अपूर्व।

पवन देवता गगन-पंथ से सुघन-घटों में लाकर नीर,
सींचा करते हैं यह उपवन करके सदा कृपा गंभीर॥
xxxx

[ ६३० ]पंडित गयाप्रसाद शुक्ल (सनेही) हिंदी के एक बड़े ही भावुक और सरस-हृदय कवि हैं। ये पुरानी और नई दोनों चाल की कविताएँ लिखते हैं। इनकी बहुत सी कविताएँ 'त्रिशूल' के नाम से निकली हैं। उर्दू कविता भी इनकी बहुत ही अच्छी होती है। इनकी पुराने ढंग की कविताएँ 'रसिकमित्र', 'काव्यसुधानिधि' और 'साहित्य-सरोवर' आदि में बराबर निकलती रहीं। पीछे इनकी प्रवृत्ति खड़ी बोली की ओर हुईं। इनकी तीन पुस्तके प्रकाशित हैं––'प्रेस-पचीसी', 'कुसुमांजलि', 'कृषक-क्रंदन'। इस मैदान में भी इन्होंने अच्छी सफलता पाई। एक पद्य नीचे दिया जाता है––

तु है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ।
तु है महासागर अगम, मैं एक धारा क्षुद्र हूँ॥
तू है महानद तुल्य तो में एक बूंद समान हूँ।
तू है मनोहर गीत तो मैं एक उसकी तान हूँ॥

पं० रामनरेश त्रिपाठी का नाम भी 'खड़ी बोली' के कवियों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। भाषा की सफाई और कविता के प्रसाद गुण पर इनका बहुत जोर रहता है। काव्यभाषा में लाघव के लिये कुछ कारक-चिह्नों और संयुक्त क्रियाओं के कुछ अंतिम अवयवों को छोड़ना भी (जैसे, 'कर रहा हैं' के स्थान पर 'कर रहा' या 'करते हुए' के स्थान पर 'करते') ये ठीक नहीं समझते। काव्यक्षेत्र में जिस स्वाभाविक स्वच्छंदता (Romanticism) का आभास पं॰ श्रीधर पाठक ने दिया था उसके पथ पर चलनेवाले द्वितीय उत्थान में त्रिपाठीजी ही दिखाई पड़े। 'मिलन', 'पथिक' और 'स्वप्न' नामक इनके तीनों खंड-काव्यों में इनकी कल्पना ऐसे मर्मपथ पर चली है जिसपर मनुष्य मात्र का हृदय स्वभावतः ढलता आया है। ऐतिहासिक या पौराणिक कथाओं के भीतर न बँधकर अपनी भावना के अनुकूल स्वच्छंद संचरण के लिये कवि ने नूतन कथायों की उद्भावना की है। कल्पित आख्यानों की ओर वह विशेष झुकाव स्वच्छंद मार्ग का अभिलाष सूचित करता है। इन प्रबंध में नर-जीवन जिन रूपों में ढालकर सामने लाया गया है, वे मनुष्य मात्र का मर्मस्पर्श करनेवाले हैं तथा प्रकृति के स्वच्छंद और रमणीय प्रसार के बीच अवस्थित होने के कारण शेष सृष्टि से विच्छिन्न नहीं प्रतीत होते। [ ६३१ ]स्वदेशभक्ति की जो भावना भारतेंदु के समय से चली आती थी उसे सुंदर कल्पना द्वारा रमणीय और आकर्षक रूप त्रिपाठीजी ने ही प्रदान किया। त्रिपाठीजी के उपर्युक्त तीनों काव्य देशभक्ति के भाव से प्रेरित है। देशभक्ति का यह भाव उनके मुख्य पात्रों को जीवन के कई क्षेत्रों में सौंदर्य प्रदान करता दिखाई पड़ता है––कर्म के क्षेत्र में भी, प्रेम के क्षेत्र में भी। वे पात्र कई तरफ से देखने में सुंदर लगते हैं। देशभक्ति को रसात्मक रूप त्रिपाठीजी द्वारा प्राप्त हुआ, इसमें संदेह नहीं है।

त्रिपाठी जी ने भारत के प्रायः सब भागों में भ्रमण किया है, इससे इनके प्रकृति-वर्णन में स्थानगत विशेषताएँ अच्छी तरह आ सकी है। इनके 'पथिक' में दक्षिण भारत के रम्य दृश्यों का बहुत विस्तृत समावेश है। इसी प्रकार इनके 'स्वप्न' में उत्तराखंड और कश्मीर की सुषमा सामने आती है। प्रकृति के किसी खंड के सश्तिष्ट चित्रण की प्रतिभा इनमे अच्छी है। सुंदर अलंकारिक साम्य खड़ा करने में भी इनकी कल्पना प्रवृत्त होती है। पर झूठे आरोपों द्वारा अपनी उड़ान दिखाने या वैचित्र्य खड़ा करने के लिये नहीं।

'स्वप्न' नामक खंड-काव्य तृतीय उत्थान-काल के भीतर लिखा गया है। जब कि 'छायावाद' नाम की शाखा चल चुकी थी, इससे उस शाखा को भी कुछ रंग कहीं कहीं उसके भीतर झलक मारता है, जैसे––

प्रिय की सुध सी ये सरिताएँ ये कानन कातार सुसज्जित।
मैं तो नहीं, किंतु है मेरा हृदय किसी प्रियतम से परिचित।
जिसके प्रेम पत्र आते हैं प्रायः सुख-संवाद-सन्निहित॥

अतः उस काव्य को लेकर देखने से थोड़ी थोड़ी इनकी सब प्रवृत्तियाँ झलक जाती हैं। उसके आरंभ में हम अपनी प्रिया में अनुरक्त बसंत नामक एक सुंदर और विचारशील युवक को जीवन की गंभीर वितर्क-दशा में पाते हैं। एक ओर उसे प्रकृति की प्रमोदमयी सुषमाओं के बीच प्रियतमा के साहचर्य का प्रेम-सुख लीन रखना चाहता है, दूसरी ओर समाज के असख्य प्राणियों का कृष्ट-क्रंदन उसे उद्धार के लिये बुलाता जान पड़ता हैं। दोनों पक्षों के बहुत से सजीव चित्र बारी बारी से बड़ी दूर तक चलते हैं। फिर उस युवक [ ६३२ ]के मन में जगत् और जीवन के संबंध में गंभीर जिज्ञासाएँ उठती हैं। जगत् के इन नाना रूपों का उद्गम कहाँ है? सृष्टि के इन व्यापारों का अंतिम लक्ष्य क्या है? यह जीवन हमें क्यों दिया गया है? इसी प्रकार के प्रश्न उसे व्याकुल करते रहते हैं और कभी कभी वह सोचता है––

इसी तरह की अमित कल्पना के प्रवाह में मैं निशिवासर,
बहता रहता हूँ विमोह वश; नहीं पहुँचता कहीं तीर पर।
रात दिवस की बूंदों द्वारा तन-घट से परिमित यौवन-जल,
है निकला जा रहा निरंतर, यह रुक सकता नहीं एक पल॥

कभी कभी उसकी वृत्ति रहस्योन्मुख होती है; वह सारा खेल खड़ा करनेवाले उस छिपे हुए प्रियतम का आकर्षण अनुभव करता है और सोचता है की मैं उसके अन्वेषण में क्यो न चल पडूँ।

उसकी सुमना उसे दिन रात इस प्रकार भावनाओं में ही मग्न और अव्यवस्थित देखकर कर्ममार्ग पर स्थित हो जाने का उपदेश देती है––

सेवा है महिमा मनुष्य की, न कि अति उच्च विचार-द्रव्य-बल।
मूल हेतु रवि के गौरव का है प्रकाश ही न कि उच्च स्थल॥
मन की अमित तरगों में तुम खोते हो इस जीवन का सुख‌।

इसके उपरांत देश पर शत्रु चढाई करता है और राजा उसे रोकने में असमर्थ होकर घोषणा करता है कि प्रजा अपनी रक्षा कर ले। इस पर देश के झुंड के झुंड युवक निकल पड़ते है और उनकी पत्नियाँ और माताएँ गर्व से फूली नहीं समाती हैं। देश की इस दशा में बसंत को घर में पड़ा देख उसकी पत्नी सुमना को अत्यंत लज्जा होती है और वह अपने पति से स्वदेश के इस संकट के समय शस्त्र-ग्रहण करने को कहती है। जब वह देखती है कि उसका पति उसी के प्रेम के कारण नहीं उठता है तब वह अपने को ही प्रिय के कर्त्तव्य-पथ का बाधक समझती है। वह सुनती है कि एक रुग्णा वृद्धा यह देखकर कि उसका पुत्र उसी की सेवा के ध्यान से युद्ध पर नहीं जाता है, अपना प्राणत्याग कर देती है। अंत में सुमना अपने को बसंत के सामने से [ ६३३ ]हटाना ही स्थिर करती है और चुपचाप घर से निकल पड़ती है। वह पुरुष वेष में वीरों के साथ समिलित होकर अत्यत पराक्रम के साथ लड़ती है। उधर वसंत उसके वियोग में प्रकृति के खुले क्षेत्र में अपनी प्रेम-वेदना की पुकार सुनाता फिरता है, पर सुमना उस समय प्रेम-क्षेत्र से दूर थी––

अर्द्ध निशा में तारागण से प्रतिबिंबित अति निर्मल जलमय।
नील झील के कलित कूल पर मनोव्यथा का लेकर आश्रय॥
नीरवंता में अंतस्तल का मर्म करुण स्वर-लहरी में भर।
प्रेम जगाया करता था वह विरही विरह-गीत गा गाकर॥
भोजपत्र पर विरह-व्यथामय अगणित प्रेमपत्र लिख लिखकर।
डाल दिए थे उसने गिरि पर, नदियों के तट पर, नवपथ पर॥
पर सुमना के लिये दूर थे ये वियोग के दृश्य-कदंबक।
और न विरही की पुकार ही पहुँच सकी उसके समीप तक॥

अंत में वसंत एक युवक (वास्तव में पुरुष-वेष में सुमना) के उद्वबोधन से निकल पड़ता है और अपनी अद्भुत वीरता द्वारा सब का नेता बनकर विजय प्राप्त करता है। राजा यह कहकर कि 'जो देश की रक्षा करे वहीं राजा' उसको राज्य सौंप देता है। उसी समय सुमना भी उसके सामने प्रकट हो जाती है।

स्वदेश भक्ति की भावना कैसे मार्मिक और रसात्मक रूप में कथा के भीतर व्यक्त हुई है, यह उपर्युक्त सारांश द्वारा देखा जा सकता है। जैसा कि हम पहले कह आए हैं, त्रिपाठी जी की कल्पना मानव-हृदय के सामान्य मर्मपथ चलनेवाली है। इनका ग्राम-गीत संग्रह करना इस बात को और भी स्पष्ट कर देता है। अतः त्रिपाठी जी हमे स्वच्छंदतावाद (Romanticism) के प्रकृत पथ पर दिखाई पड़ते हैं। इनकी रचना के कुछ उद्धरण नीचे दिए जाते हैं––

चारु चंद्रिका से अलोकित विमलोदक सरसी के तट पर,
बौर-गंध से शिथिल पवन में कोकिल का अलाप श्रवण कर।
और सरक आती समीप है प्रमदा करती हुई प्रतिध्वनि,
हृदय द्रवित होता है सुनकर शशिकर छूकर यथा चंद्रमणि।

[ ६३४ ]

किंतु उसी क्षण भूख-प्यास से विकल वस्त्र-वंचित अनाथगण,
'हमें किसी की छाँह चाहिए' कहते चुनते हुए अन्न कण।
आ जाते हैं हृदयद्वार पर, मैं पुकार उठता हूँ तत्क्षण––
हाय! मुझे धिक् है, जो इनका कर न सका मैं कष्ट-निवारण।
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उमड़-घुमड़ कर जब घमंड से उठता है सावन में जलधर,
हम पुष्पित कदंब के नीचे झूला करते है प्रति वासर।
तड़ित-प्रभा या घनगर्जन से भय या प्रेमाद्रेक प्राप्त कर,
वह भुजबंधन कस लेती है, यह अनुभव है परम मनोहर।
किंतु उसी क्षण वह गरीविनी, अति विषादमय जिसके मुँह पर,
घुने हुए छप्पर की भीषण चिंता के है घिरे वारिधर,
जिसका नहीं सहारा कोई, आ जाती है दृग के भीतर,
मेरा हर्ष चला जाता है एक आह के साथ निकलकर।

(स्वप्न)


प्रति क्षण नूतन वेष बना कर रंग-बिरंग निराला।
रवि के संमुख थिरक रही है नभ में वारिद माला॥
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।
घर पर बैठ बीच में विचरूँ, यही चाहता मन है॥
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सिंधु-विहग तरंग-पंख को फड़का कर प्रति क्षण में।
है निमग्न नित भूमि-अंक के सेवन में, रक्षण में॥

(पथिक)


मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू।
मैं बाट जोहता या तेरी किसी चमन में।
बन कर किसी के आँसू मेरे लिये बहा तू।
मैं देखता तुझे था माशूक के बदन में।

(फुटकल)