प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-२१

विकिस्रोत से
गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
[ २०१ ]

इक्कीस

देहातों में साल के छ: महीने किसी न किसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता रहता है। होली के एक महीना पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती है, असाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियां होती हैं। कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है। सेमरी भी अपवाद नहीं है। महाजन की धमकियां और कारिंदे की गोलियां इस समारोह में बाधा नहीं डाल सकतीं। घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं हैं, गांठ में पैसे नहीं हैं, कोई परवा नहीं। जीवन की आनंदवृत्ति तो दबाई नहीं जा सकती, हंसे बिना तो जिया नहीं जा सकता।

यों होली में गाने-बजाने का मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी।वहीं भंग बनती थी। वहीं रंग उड़ता था, वहीं नाच होता था। इस उत्सव में कारिंदा साहब के दस-पांच रुपये खर्च हो जाते थे। और किसमें यह सामर्थ्य थी कि अपने द्वार पर जलसा करता?

लेकिन अबकी गोबर ने गांव के नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल खाली पड़ी हुई हैं। गोबर के द्वार पर भंग घुट रही है, पान के बीड़े लग रहे हैं, रंग घोला जा रहा है, फर्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है, और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है। भंग रखी हुई है, पीसे कौन? ढोल-मजीरा सब मौजूद हैं, पर गाए कौन? जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा है, यहां भंग में गुलाबजल और केसर और बादाम की बहार है। हां हां, सेर-भर बादाम गोबर खुद लाया। पीते ही चोला तर हो जाता है, आंखें खुल जाती हैं। खमीरा तमाखू लाया है, खास बिसवां की। रंग में भी केवड़ा छोड़ा है। रुपये कमाना भी जानता है और खरच करना भी जानता है। गाड़कर रख लो, तो कौन देखता है? धन की यही शोभा है। और केवल भंग ही नहीं है जितने गाने वाले हैं, सबका नेतवा भी है। और गांव में न नाचने वालों की कमी है, न अभिनय करने वालों की। शोभा ही लंगड़ों की ऐसी नकल कर्ता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नकल करने में तो उसका सानी नहीं है। जिसकी बोली कहो, उसकी बोले-आदमी की भी जानवर की भी। गिरधर नकल करने में बेजोड़ है। वकील की नकल वह करे, पटवारी की नकल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सेठ की-सभी की नकल कर सकता है। हां, बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है, मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मंगा दिया है, और उसकी नकलें देखने जोग होंगी।

यह चर्चा इतनी फैली कि सांझ से ही तमाशा देखने वाले जमा होने लगे। आसपास के गांवों से दर्शकों की टोलियां आने लगीं। दस बजते-बजते तीन-चार हजार आदमी जमा हो गए। और जब गिरधर झिंगुरीसिंह का रूप भरे अपनी मंडली के साथ खड़ा हुआ, तो लोगों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। वही खल्लाट सिर, वही बड़ी मूंछें, और वही तोंद। बैठे भोजन कर रहे हैं और पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही हैं।

ठाकुर ठकुराइन को रसिक नेत्रों से देखकर कहते हैं-अब भी तुम्हारे ऊपर वह जोबन है कि कोई जवान देख ले तो तड़प जाए। और ठकुराइन फूलकर कहती हैं, जभी तो नई नवेली लाए।

'उसे तो लाया हूं तुम्हारी सेवा करने के लिए। वह तुम्हारी क्या बराबरी करेगी?'

छोटी बीवी यह वाक्य सुन लेती है और मुंह फुलाकर चली जाती है। [ २०२ ]

दूसरे दृश्य में ठाकुर खाट पर लेटे हैं और छोटी बहू मुंह फेरे हुए जमीन पर बैठी है। ठाकुर बार-बार उसका मुंह अपनी ओर फेरने की विफल चेष्टा करके कहते हैं-मुझसे क्यों रूठी हो मेरी लाड़ली?

'तुम्हारी लाड़ली जहां हो, वहां जाओ। मैं तो लौंडी हूं, दूसरों की सेवा-टहल करने के लिए आई हूं।'

‘तुम मेरी रानी हो। तुम्हारी सेवा-टहल करने के लिए वह बुढ़िया है।'

पहली ठकुराइन सुन लेती है और झाडू लेकर घर में घुसती है और कई झाडू उन पर जमाती हैं। ठाकुर साहब जान बचाकर भागते हैं।

फिर दूसरी नकल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपये का दस्तावेज लिखकर पांच रुपये दिए, शेष नजराने और तहरीर और दस्तूरी और ब्याज में काट लिए।

किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपये देने पर राजी होते हैं। जब कागज लिख जाता है और असामी के हाथ में पांच रुपये रख दिए जाते हैं तो वह चकराकर पूछता है-

'यह तो पांच ही हैं मालिक।'

'पांच नहीं, दस हैं। घर जाकर गिनना?'

'नहीं सरकार, पांच हैं।'

'एक रुपया नजराने का हुआ कि नहीं?'

'हां, सरकार।'

'एक तहरीर का?'

'हां, सरकार।'

'एक कागद का?'

'हां, सरकार।'

'एक दस्तूरी का?'

'हां, सरकार।'

'एक सूद का?'

'हां, सरकार।'

'पांच नगद, दस हुए कि नहीं?'

'हां, सरकार। अब यह पांचों मेरी ओर से रख लीजिए।'

'कैसा पागल है?'

'नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का। एक रुपया ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाकी बचा एक, वह आपकी करिया-करम के लिए।'

इसी तरह नोखेराम और पटेश्वरी और दातादीन की-बारी-बारी से सबकी खबर ली गई। और फबतियों में चाहे कोई नयापन न हो, और नकलें पुरानी हों, लेकिन गिरधारी का ढंग ऐसा हास्यजनक था, दर्शक इतने सरल हदय थे कि बेबात की बात में भी हंसते थे। रात-भर भंड़ैती होती रही और सताए हुए दिल, कल्पना में प्रतिशोध पाकर प्रसन्न होते रहे। आखिरी नकल समाप्त हुई, तो कौवे बोल रहे थे। [ २०३ ]

सबेरा होते ही जिसे देखो, उसी की जबान पर वही रात के गाने, वही नकल, वही फिकरे। मुखिये तमाशा बन गए। जिधर निकलते हैं, उधर ही दो-चार लड़के पीछे लग जाते हैं और वही फिकरे कसते हैं। झिंगुरीसिंह तो दिल्लगीबाज आदमी थे, इसे दिल्लगी में लिया, मगर पटेश्वरी में चिढ़ने की बुरी आदत थी। और पंडित दातादीन तो इतने तुनुक-मिजाज थे कि लड़ने पर तैयार हो जाते थे। वह सबसे सम्मान पाने के आदी थे। कारिंदा की तो बात ही क्या, रायसाहब तक उन्हें देखते ही सिर झुका देते थे। उनकी ऐसी हंसी उड़ाई जाय और अपने ही गांव में-यह उनके लिए असह्य था। अगर उनमें ब्रह्मतेज होता तो इन दुष्टों को भस्म कर देते। ऐसा शाप देते कि सब-के-सब भस्म हो जाते, लेकिन इस कलियुग में शाप का असर ही जाता रहा। इसलिए उन्होंने कलियुग वाला हथियार निकाला। होरी के द्वार पर आए और आंखें निकालकर बोले-क्या आज भी तुम काम करने न चलोगे होरी? अब तो तुम अच्छे हो गए। मेरा कितना हरज हो गया, यह तुम नहीं सोचते।

गोबर देर में सोया था। अभी-अभी उठा था और आंखें मलता हुआ बाहर आ रहा था कि दातादीन की आवाज कान में पड़ी। पालागन करना तो दूर रहा, उलटे और हेकड़ी दिखाकर बोला-अब वह तुम्हारी मजूरी न करेंगे। हमें अपनी ऊख भी तो बोनी है।

दातादीन ने सुरती फांकते हुए कहा-काम कैसे नहीं करेंगे? साल के बीच में काम नहीं छोड़ सकते। जेठ में छोड़ना हो छोड़ दें, करना हो करें। उसके पहले नहीं छोड़ सकते।

गोबर ने जम्हाई लेकर कहा-उन्होंने तुम्हारी गुलामी नहीं लिखी है। जब तक इच्छा थी, काम किया। अब नहीं इच्छा, नहीं करेंगे। इसमें कोई जबर्दस्ती नहीं कर सकता।

'तो होरी काम नहीं करेंगे?'

'तो हमारे रुपये सूद समेत दे दो तीन साल का सूद होता है सौ रुपया असल मिलाकर दो सौ होते हैं। हमने समझा था, तीन रुपये महीने सूद में कटते जाएंगे, लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मत करो। मेरे रुपये दे दो। धन्ना सेठ बनते हो, तो धन्ना सेठ का काम करो।

होरी ने दातादीन से कहा-तुम्हारी चाकरी से मैं कब इंकार करता हूं महाराज? लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने को पड़ी है।

गोबर ने बाप को डांटा-कैसी चाकरी और किसकी चाकरी? यहां कोई किसी का चाकर नही। सभी बराबर हैं। अच्छी दिल्लगी है। किसी को सौ रुपये उधार दे दिए और उससे सूद में जिंदगी भर काम लेते रहे। मूल ज्यों का त्यों। यह महाजनी नहीं है, खून चूसना है।

'तो रुपये दे दो भैया, लड़ाई काहे की, मैं आने रुपये ब्याज लेता हूं, तुम्हें गांव-घर का समझकर आध आने रुपये पर दिया था।'

'हम तो एक रुपया सैकड़ा देंगे। एक कौड़ी बेसी नहीं। तुम्हें लेना हो तो लो, नहीं अदालत से ले लेना। एक रुपया सैकड़े ब्याज कम नहीं होता।'

'मालूम होता है, रुपये की गर्मी हो गई है।'

'गर्मी उन्हें होती है, जो एक के दस लेते हैं। हम तो मजूर हैं। हमारी गर्मी पसीने के रास्ते बह जाती है। मुझे खूब याद है, तुमने बैल के लिए तीस रुपये दिए थे। उसके सौ हुए और अब सौ के दो सौ हो गए। इसी तरह तुम लोगों ने किसानों को लूट- लूटकर मजूर बना डाला और आप उनकी जमीन के मालिक बन बैठे। तीस के दो सौ। कुछ हद है। कितने दिन हुए होंगे [ २०४ ]
दादा?

होरी ने कातर कंठ से कहा-यही आठ-नौ साल हुए होंगे।

गोबर ने छाती पर हाथ रखकर कहा-नौ साल में तीस के दो सौ। एक रुपये के हिसाब से कितना होता है?

उसने जमीन पर एक ठीकरे से हिसाब लगाते हुए कहा—दस साल में छत्तीस रुपये होते हैं। असल मिलाकर छाछठ। उसके सत्तर रुपये ले लो। इससे बेसी में एक कौड़ी न दूंगा।

दातादीन ने होरी को बीच में डालकर कहा-सुनते हो होरी, गोबर का फैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर ले लूं, नहीं अदालत करूं। इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन रहे हो, मगर यह समझ लो, मैं ब्राह्मण हूं, मेरे रुपये हजम करके तुम चैन न पाओगे। मैंने ये सत्तर रुपये भी छोड़े, अदालत भी न जाऊंगा, जाओ। अगर मैं ब्राह्मण हूं, तो पूरे दो सौ रुपये लेकर दिखा दूंगा, और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और हाथ बांधकर दोगे।

दातादीन झल्लाए हुए लौट पड़े। गोबर अपनी जगह बैठा रहा। मगर होरी के पेट में धर्म की क्रांति मची हुई थी। अगर ठाकुर या बनिए के रुपये होते, तो उसे ज्यादा चिंता न होती, लेकिन ब्राह्मण के रुपये। उसकी एक पाई भी दब गई, तो हड्डी तोड़कर निकलेगी। भगवान् न करें कि ब्राह्मण का कोप किसी पर गिरे। बंस में कोई चुल्लू-भर पानी देने वाला, घर में दिया जलाने वाला भी नहीं रहता। उसका धर्म-भीरू मन त्रस्त हो उठा। उसने दौड़कर पंडितजी के चरण पकड़ लिए और आर्त्त स्वर में बोला-महराज, जब तक मैं जीता हूं, तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊंगा। लड़के की बातों पर मत जाओ। मामला तो हमारे-तुम्हारे बीच में हुआ है। वह कौन होता है?

दातादीन जरा नरम पड़े-जरा इसकी जबर्दस्ती देखो, कहता है, दो सौ रुपये के सत्तर लो या अदालत जाओ। अभी अदालत की हवा नहीं खाई है, जभी। एक बार किसी के पाले पड़ जाएंगे, तो फिर यह ताव न रहेगा। चार दिन सहर में क्या रहे, तानासाह हो गए।

'मैं तो कहता हूं महाराज, मैं तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊंगा।'

'तो कल से हमारे यहां काम करने आना पडे़गा।'

'अपनी ऊख बोना है महाराज, नहीं तुम्हारा ही काम करता।'

दातादीन चले गए तो गोबर ने तिरस्कार की आंखों से देखकर कहा-गए थे देवता को मनाने। तुम्हीं लोगों ने तो इन सबों का मिजाज बिगाड़ दिया है। तीस रुपये दिए, अब दो सौ रुपये लेगा। और डांट ऊपर से बताएगा और तुमसे मजूरी कराएगा और काम कराते-कराते मार डालेगा।

होरी ने अपने विचार में सत्य का पक्ष लेकर कहा-नीति हाथ से न छोड़ना चाहिए बेटा। अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। हमने जिस ब्याज पर रुपये लिए, वह तो देने ही पड़ेंगे। फिर बाह्यण ठहरे। इनका पैसा हमें पचेगा? ऐसा माल तो इन्हीं लोगों को पचता है।

गोबर ने त्योरियां चढ़ाईं-नीति छोड़ने को कौन कह रहा है? और कौन कह रहा है कि ब्राह्मण का पैसा दबा लो? मैं तो यह कहता हूं कि इतना सूद नहीं देंगे। बंक वाले बारह आने सूद लेते हैं। तुम एक रुपया ले लो। और क्या किसी को लूट लोगे?

‘उनका रोयां जो दु:खी होगा?'

'हुआ करे। उनके दु:खी होने के डर से हम बिल क्यों खोदें?' [ २०५ ]

'बेटा, जब तक मैं जीता हूं, मुझे अपने रस्ते चलने दो। जब मैं मर जाऊं, तो तुम्हारी जो इच्छा हो, वह करना।'

'तो फिर तुम्हीं देना। मैं तो अपने हाथों अपने पांव में कुल्हाड़ी न मारूंगा। मेरा गधापन था कि तुम्हारे बीच में बोला तुमने खाया है, तुम भरो। मैं क्यों अपनी जान दूं?'

यह कहता हुआ गोबर भीतर चला गया। झुनिया ने पूछा-आज सबेर-सबेरे दादा से क्यों उलझ पड़े?

गोबर ने सारा वृत्तांत कह सुनाया और अंत में बोला-इनके ऊपर रिन का बोझ इसी तरह बढ़ता जायगा। मैं कहां तक भरूंगा? उन्होंने कमा-कमाकर दूसरों का घर भरा है। मैं क्यों उनकी खोदी हुई खंदक में गिरूं? इन्होंने मुझसे पूछकर करज नहीं लिया।न मेरे लिए लिया। मैं उसका देनदार नहा हूं।

उधर मुखियों में गोबर को नीचा दिखाने के लिए षड्यन्त्र रचा जा रहा था। यह लौंडा शिकंजे मे न कसा गया, तो गांव में ऊधम मचा देगा। प्यादे से फर्जी हो गया है न, टेढ़े तो चलेगा ही। जाने कहांसे इतना कानून सीख आया है? कहता है, रुपये सैकडे़ सूद से बेसी न दूंगा। लेना हो लो, नहीं अदालत जाओ। रात इसने सारे गांव के लौंडों को बटोरकर कितना अनर्थ किया। लेकिन मुखियों में भी ईर्ष्या की कमी न थी। सभी अपने बराबर वालों के परिहास पर प्रसन्न थे। पटेश्वरी और नोखेराम में बातें हो रही थीं। पटेश्वरी ने कहा-मगर सबों को घर-घर की रत्ती रत्ती का हाल मालूम है। झिंगुरीसिंह को तो सबों ने ऐसा रगेदा कि कुछ न पूछो। दोनों अकुशाइनों की बातें सुन-सुनकर लोग हंसी के मारे लोट गए।

नोखेराम ने ठट्टा मारकर कहा-मगर नकल सच्ची थी। मैंने कई बार उनकी छोटी बेगम को द्वार पर खड़े लौंडों से हंसी करते देखा है।

'और बड़ी रानी काजल और सेंदूर और महावर लगाकर जवान बनी रहती हैं।'

'दोनों में रात दिन छिड़ी रहती है। झिंगुरी पक्का बेहया है। कोई दूसरा होता तो पागल हो जाता।'

'सुना, तुम्हारी बड़ी भद्दी नकल की। चमरिया के घर में बंद करके पिटवाया।'

'मैं तो बचा पर बकाया लगान का दावा करके ठीक कर दूंगा। वह भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पड़ा था।'

'लगान तो उसने चुका दिया है न?'

'लेकिन रसीद तो मैंने नहीं दी। सबूत क्या है कि लगान चुका दिया? और यहां कौन हिसाब-किताब देखता है? आज ही प्यादा भेजकर बुलाता हूं।'

होरी और गोबर दोनों ऊख बोने के लिए खेत सींच रहे थे। अबकी ऊख की खेती होने की आशा तो थी नहीं, इसलिए खेत परती पड़ा हुआ था। अब बैल आ गए हैं तो ऊख क्यों न बोई जाए।

मगर दोनों जैसे छत्तीस बने हुए थे। न बोलते थे, न ताकते थे। होरी बैलों को हांक रहा था और गोबर मोट ले रहा था। सोना और रूपा दोनों खेत में पानी दौड़ा रही थीं कि उनमें झगड़ा हो गया। विवाद का विषय यह था कि झिंगुरीसिंह की छोटी ठकुराइन पहले खुद खाकर पति को खिलाती हैं या पति को खिलाकर तब खुद खाती है। सोना कहती थी, पहले वह खुद खाती है। रूपा का मत इसके प्रतिकूल था। [ २०६ ]

रूपा ने जिरह की-अगर वह पहले खाती है, तो क्यों मोटी नहीं है? ठाकुर क्यों मोटे हैं? अगर ठाकुर उन पर गिर पड़े, तो ठकुराइन पिस जायं।

सोना ने प्रतिवाद किया-तू समझती है, अच्छा खाने से लोग मोटे हो जाते हैं। अच्छा खाने से लोग बलवान होते हैं, मोटे नहीं होते। मोटे होते हैं घास-पात खाने से।

'तो ठकुराइन ठाकुर से बलवान हैं?'

'और क्या अभी उस दिन दोनों में लड़ाई हुई, तो ठकुराइन ने ठाकुर को ऐसा ढकेला कि उनके घुटने फूट गए।'

'तो तू भी पहले आप खाकर तब जीजा को खिलाएगी?'

'और क्या?'

'अम्मां तो पहले दादा को खिलाती हैं।'

'तभी तो जब देखो तब दादा डांट देते हैं। बलवान होकर अपने मरद को काबू में रखूंगी। तेरा मरद तुझे पीटेगा, तेरी हड्डी तोड़कर रख देगा।'

रूपा रुआंसी होकर बोली-क्यों पीटेगा, मैं मार खाने का काम ही न करूंगी।

'वह कुछ न सुनेगा। तूने जरा भी कुछ कहा और वह मार चलेगा। मारते-मारते तेरी खाल उधेड़ लेगा।'

रूपा ने बिगड़कर सोना की साड़ी दांतों से फाड़ने की चेष्टा की और असफल होने पर चुटकियां काटने लगी।

सोना ने और चिढ़ाया-वह तेरी नाक भी काट लेगा।

इस पर रूपा ने बहन को दांत से काट खाया। सोना की बांह लहुआ गई। उसने रूपा को जोर से ढकेल दिया। वह गिर पड़ी और उठकर रोने लगी। सोना भी दांतों के निशान देखकर रो पड़ी।

उन दोनों का चिल्लाना सुनकर गोबर गुस्से से भरा हुआ आया और दोनों को दो-दो घूसे जड़ दिए। दोनों रोती हुई निकलकर घर चली दीं। सिंचाई का काम रुक गया। इस पर पिता-पुत्र में एक झड़प हो गई।

होरी ने पूछा-पानी कौन चलाएगा? दौड़े-दौड़े गए, दोनों को भगा आए। अब जाकर मना क्यों नहीं लाते?

'तुम्हीं ने इन सबों को बिगाड़ रखा है।'

'इस तरह मारने से और निर्लज्ज हो जायंगी।'

'दो जून खाना बंद कर दो, आप ठीक हो जायं।'

'मैं उनका बाप हूं, कसाई नहीं हूं।'

पांव में एक बार ठोकर लग जाने के बाद किसी कारण से बार-बार ठोकर लगती है और कभी-कभी अंगूठा पक जाता है और महीनों कष्ट देता है। पिता और पुत्र के सद्भाव को आज उसी तरह की चोट लग गई थी और उस पर यह तीसरी चोट पड़ी।

गोबर ने घर जाकर झुनिया को खेत में पानी देने के लिए साथ लिया। झुनिया बच्चे को लेकर खेत में आ गई। धनिया और उसकी दोनों बेटियां बैठी ताकती रहीं। मां को भी गोबर की यह उद्दंडता बुरी लगती थी। रूपा को मारता तो वह बुरा न मानती, मगर जवान लड़की को मारना, यह उसके लिए असह्य था।

आज ही रात को गोबर से लखनऊ लौट जाने का निश्चय कर लिया। यहां अब वह नहीं [ २०७ ]
रह सकता। जब घर में उसकी कोई पूछ नहीं है, तो वह क्यों रहे। वह लेन-देन के मामले में बोल नहीं सकता। लड़कियों को जरा मार दिया तो लोग ऐसे जामे के बाहर हो गए, मानो वह बाहर का आदमी है। तो इस सराय में वह न रहेगा।

दोनों भोजन करके बाहर आए थे कि नोखेराम के प्यादे ने आकर कहा-चलो, कारिंदा साहब ने बुलाया है।

होरी ने गर्व से कहा-रात को क्यों बुलाते हैं, मैं तो बाकी दे चुका हूं।

प्यादा बोला-मुझे तो तुम्हें बुलाने का हुक्म मिला है। जो कुछ अरज करना हो, वहीं चलकर करना।

होरी की इच्छा न थी, मगर जाना पड़ा। गोबर विरक्त-सा बैठा रहा। आध घंटे में होरी लौटा और चिलम भरकर पीने लगा। अब गोबर से न रहा गया। पूछा-किस मतलब से बुलाया था?

होरी ने भर्राई हुई आवाज में कहा-मैंने पाई-पाई लगान चुका दिया। वह कहते हैं, तुम्हारे ऊपर दो साल का बाकी है। अभी उस दिन मैंने कुछ बेची, तो पचीस रुपये वहीं उनको दे दिए और आज वह दो साल का बाकी निकालते हैं। मैंने कह दिया, मैं एक धेला न दूंगा।

गोबर ने पूछा-तुम्हारे पास रसीद होगी?

'रसीद कहां देते हैं?'

'तो तुम बिना रसीद लिए रुपये देते ही क्यों हो?'

'मैं क्या जानता था, यह लोग बेईमानी करेंगे। यह सब तुम्हारी करनी का फल है। तुमने रात को उनकी हंसी उड़ाई, यह उसी का दंड है। पानी में रहकर मगर से बैर नहीं किया जाता। सूद लगाकर सत्तर रुपये बाकी निकाल दिए। ये किसके घर से आएंगे?'

गोबर ने सफाई देते हुए कहा-तुमने रसीद ले ली होती तो मैं लाख उनकी हंसी उड़ाता, तुम्हारा बाल भी बांका न कर सकते। मेरी समझ में नहीं आता कि लेन-देन में तुम सावधानी से क्यों काम नहीं लेते। यों रसीद नहीं देते, तो डाक से रुपया भेजो। यही तो होगा, एकाध रुपया महसूल पड़ जाएगा। इस तरह की धांधली तो न होगी।'

'तुमने यह आग न लगाई होती, तो कुछ न होता। अब तो सभी मुखिया बिगड़े हुए हैं। बेदखली की धमकी दे रहे हैं। दैव जाने कैसे बेड़ा पार लगेगा।'

'मैं जाकर उनसे पूछता हूं।'

'तुम जाकर और आग लगा दोगे।'

'अगर आग लगानी पड़ेगी, तो आग लगा दूंगा। यह बेदखली करते हैं, करें। मैं उनके हाथ में गंगाजली रखकर अदालत में कसम खिलाऊंगा। तुम दुम दबाकर बैठे रहो। मैं इसके पीछे जान लड़ा दूंगा। किसी का एक पैसा दबाना नहीं चाहता, न अपना एक पैसा खोना चाहता हूं।'

वह उसी वक्त उठा और नोखेराम की चौपाल में जा पहुंचा। देखा तो सभी मुखिया लोगों का केबिनेट बैठा हुआ है। गोबर को देखकर सब-के-सब सतर्क हो गए। वातावरण में षड्यंत्र की-सी कुंठा भरी हुई थी।

गोबर ने उत्तेजित कठ से पूछा-यह क्या बात है कारिंदा साहब, कि आपको दादा ने हाल तक का लगान चुकता कर दिया और आप अभी दो साल का बाकी निकाल रहे हैं? यह कैसा गोलमाल है। [ २०८ ]

नोखेराम ने मसनद पर लेटकर रोब दिखाते हुए कहा-जब तक होरी है, मैं तुमसे लेन-देन की कोई बातचीत नहीं करना चाहता।

गोबर ने आहत स्वर में कहा–तो मैं घर में कुछ नहीं हूं?

'तुम अपने घर में सब कुछ होगे। यहां तुम कुछ नहीं हो।'

'अच्छी बात है, आप बेदखली दायर कीजिए। मैं अदालत में तुमसे गंगाजली उठवाकर रुपये लूंगा, इसी गांव से एक सौ सहादत दिलाकर साबित कर दूंगा कि तुम रसीद नहीं देते। सीधे-साधे किसान हैं, कुछ बोलते नहीं, तो तुमने सभझ लिया कि सब काठ के उल्लू हैं। रायसाहब वहीं रहते हैं, जहां मैं रहता हूं। गांव के सब लोग उन्हें हौवा समझते होंगे, मैं नहीं समझता। रत्ती-रत्ती हाल कहूंगा और देखूंगा, तुम कैसे मुझसे दोबारा रुपये वसूल कर लेते हो।'

उसकी वाणी में सत्य का बल था। डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है। वह सीमेंट, जो ईंट पर चढ़कर पत्थर हो जाता है, मिट्टी पर चढ़ा दिया जाए, तो मिट्टी हो जाएगा। गोबर की निर्भीक स्पष्टवादिता ने उस अनीति के बख्तर को बेध डाला, जिससे सज्जित होकर नोखेराम की दुर्बल आत्मा अपने को शक्तिमान समझ रही थी।

नोखेराम ने जैसे कुछ याद करने का प्रयास करके कहा-तुम इतना गर्म क्यों हो रहे हो इसमें गर्म होने की कौन बात है। अगर होरी ने रुपये दिए हैं, तो कहीं-न-कहीं तो टांके गए होंगे। मैं कल कागज निकालकर देखूंगा। अब मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है कि शायद होरी ने रुपये दिए थे। तुम निसाखातिर रहो, अगर रुपये यहां आ गए हैं, तो कहीं जा नही सकते। तुम थोड़े-से रुपयों के लिए झूठ थोड़े ही बोलोगे और न मैं ही इन रुपयों से धनी हो जाऊंगा।

गोबर ने चौपाल से आकर होरी को ऐसा लताड़ा कि बेचारा स्वार्थ-भीरू बूढ़ा रुआंसा हो गया-तुम तो बच्चों से भी गए-बीते हो, जो बिल्ली की म्याऊं सुनकर चिल्ला उठते हैं। कहां-कहां तुम्हारी रच्छा करता फिरूंगा। तुम्हें सत्तर रुपये दिए जाता हूं। दातादीन ले तो देकर भरपाई लिखा देना। इसके ऊपर तुमने एक पैसा भी दिया, तो फिर मुझसे एक पैसा भी न पाओगे। मैं परदेस में इसलिए नहीं पड़ा हूं कि तुम अपने को लुटवाते रहो और मैं कमा-कमाकर भरता रहूं। मैं कल चला जाऊंगा, लेकिन इतना कह देता हूं, किसी से एक पैसा उधार मत लेना और कभी को कुछ मत देना। मंगरू, दुलारी, दातादीन-सभी से एक रुपया सैकड़े सूद कराना होगा।

धनिया भी खाना खाकर बाहर निकल आई थी। बोली-अभी क्यों जाते हो बेटा, दो चार दिन और रहकर ऊख की बोनी करा लो और कुछ लेन-देन का हिसाब भी ठीक कर लो तो जाना।

गोबर ने शान जमाते हुए कहा-मेरा दो-तीन रुपये रोज का घाटा हो रहा है, यह भी समझती हो। यहां मैं बहुत-बहुत दो-चार आने की मजूरी ही तो करता हूं और अबकी मैं झुनिया को भी लेता जाऊंगा। वहां मुझे खाने-पीने की बड़ी तकलीफ होती है।

धनिया ने डरते-डरते कहा-जैसे तुम्हारी इच्छा, लेकिन वहां वह कैसे अकेले घर संभालेगी, कैसे बच्चे की देखभाल करेगी?'

'अब बच्चे को देखूं कि अपना सुभीता देखूं, मुझसे चूल्हा नहीं फूका जाता।'

'ले जाने को मैं नहीं रोकती, लेकिन परदेस में बाल-बच्चों के साथ रहना, न कोई आगे [ २०९ ]
न पीछे, सोचो कितना झंझट है।'

'परदेस में संगी-साथी निकल ही आते हैं अम्मां, और यह तो स्वारथ का संसार है। जिसके साथ चार पैसे का गम खाओ, वही अपना। खाली हाथ तो मां-बाप भी नहीं पूछते।'

धनिया कटाक्ष समझ गई। उसके सिर से पांव तक आग लग गई। बोली-मां-बाप को भी तुमने उन्हीं पैसे के यारों में समझ लिया?

'आखों देख रहा हूं।'

'नहीं देख रहे हो, मां-बाप का मन इतना निठुर नहीं होता। हां, लड़के अलबत्ता जहां चार पैसे कमाने लगे कि मां-बाप से आंखें फेर लीं। इसी गांव में एक-दो नहीं, दस-बीस परताख दे दूं। मां-बाप करज-कवाम लेते हैं किसके लिए? लड़के- लड़कियों ही के लिए कि अपने भोग-विलास के लिए?'

'क्या जाने तुमने किसके लिए करज लिया? मैंने तो एक पैसा भी नहीं जाना।'

'बिना पाले ही इतने बड़े हो गए?'

'पालने में तुम्हारा क्या लगा? जब तक बच्चा था, दूध पिला दिया। फिर लावारिस की तरह छोड़ दिया। जो सबने खाया वही मैंने खाया। मेरे लिए दूध नहीं आता था, मक्खन नहीं बंधा था। और अब तुम भी चाहती हो, और दादा भी चाहते हैं कि मैं सारा करज चुकाऊं, लगान दूं, लड़कियों का ब्याह करूं। जैसे मेरी जिंदगी तुम्हारा देना भरने ही के लिए है। मेरे भी तो बाल बच्चे हैं?

धनिया सन्नाटे में आ गई। एक क्षण में उनके जीवन का मृदु स्वप्न जैसे टूट गया। अब तक वह मन में प्रसन्न थी कि अब उसका दु:ख दरिद्र सब दूर हो गया। जब से गोबर घर आया, उसके मुख पर हास की एक छटा खिली रहती थी। उसकी वाणी में मृदुता और प्यवहारों में उदारता आ गई थी। भगवान् ने उस पर दया की है, तो उसे सिर झुकाकर चलना चाहिए। भीतर की शांति बाहर सौजन्य बन गई थी। ये शब्द तपते हुए बालू की तरह हृदय पर पड़े और चने की भांति सारे अरमान झुलस गए। उसका सारा घमंड चूर-चूर हो गया। इतना सुन लेने के बाद अब जीवन में क्या रस रह गया? जिस नोका पर बैठकर इस जीवन-सागर को पार करना चाहती थी वह टूट गई थी, तो किस सुख के लिए जिए।

लेकिन नहीं। उसका गोबर इतना स्वार्थी नहीं है। उसने कभी मां की बात का जवाब नहीं दिया, कभी किसी बात के लिए जिद नहीं की। जो कुछ रूखा-सूखा मिल गया, वही खा लेता था। वही भोला-भाला, शील-स्नेह का पुतला आज क्यों एसी दिल तोड़ने वाली बात कर रहा है? उसकी इच्छा के विरुद्ध तो किसी ने कुछ नहीं कहा। मां-बाप दानों ही उसका मुंह जोहते रहते हैं। उसने खुद ही लेन-देन की बात चलाई, नहीं उससे कौन कहता है कि तू मां बाप का देना चुका। मां-बाप के लिए यहां क्या कम सुख है कि वह इज्जत-आबरू के साथ भलेमानसों की तरह कमाता-खाता है। उससे कुछ हो सके, तो मां-बाप की मदद कर दे। नहीं हो सकता, तो मां-बाप उसका गला न दबाएंगे। झुनिया को तो ले जाना चाहता है, खुसी से ले जाय। धनिया ने तो केवल उसकी भलाई के खयाल से कहा था कि झुनिया को वहां ले जाने में उसे जितना आराम मिलेगा, उससे कहीं ज्यादा झंझट बढ़ जायगा। इसमें ऐसी कौन-सी लगने वाली बात थी कि वह इतना बिगड़ उठा। हो न हो, यह आग झुनिया की लगाई है। वही बैठे-बैठ उसे यह मंतर पढ़ा रही है। यहां सौक-सिंगार करने को नहीं मिलता, घर का कुछ न कुछ [ २१० ]
काम भी करना ही पड़ता है। वहां रुपये-पैसे हाथ में आएंगे, मजे से चिकना खायगी, चिकना पहनेगी और टांग फैलाकर सोएगी। दो आदमियों की रोटी पकाने में क्या लगता है, वहां तो पैसा चाहिए। सुना, बाजार में पकी-पकाई रोटियां मिल जाती हैं। यह सारा उपद्रव उसी ने खड़ा किया है, सहर में कुछ दिन रह भी चुकी है। वहां का दाना-पानी मुंह लगा हुआ है। यहां कोई पूछता न था। यह भोंदू मिल गया। इसे फांस लिया। जब यहां पांच महीने का पेट लेकर आई थी, तब कैसी म्यांव-म्यांव करती थी। तब यहां सरन न मिली होती, तो आज कहीं भीख मांगती होती। यह उसी नेकी का बदला है। इसी चुड़ैल के पीछे डांड़ देना पड़ा, बिरादरी में बदनामी हुई, खेती टूट गई, सारी दुर्गत हो गई। और आज यह चुड़ैल जिस पत्तल में खाती है, उसी में छेद कर रही है। पैसे देखे तो आंख हो गई। तभी ऐंठी-ऐंठी फिरती है, मिजाज नहीं मिलता। आज लड़का चार पैसे कमाने लगा है न। इतने दिनों बात नहीं पूछी, तो सांस का पांव दबाने के लिए तेल लिए दौड़ती थी। डाइन उसके जीवन की निधि को उसके हाथ से छीन लेना चाहती है।

दुखित स्वर में बोली-यह मंतर तुम्हें कौन दे रहा है बेटा, तुम तो ऐसे न थे। मां-बाप तुम्हारे ही हैं, बहनें तुम्हारी ही हैं, घर तुम्हारा ही है। यहां बाहर का कौन है? और हम क्या बहुत दिन बैठे रहेंगे? घर की मरजाद बनाए रखोगे, तो तुम्हीं को सुख होगा। आदमी घरवालों ही के लिए धन कमाता है कि और किसी के लिए? अपना पेट तो सुअर भी पाल लेता हैं। मैं न जानती थी, झुनिया नागिन बनकर हमीं को डसेगी।

गोबर ने तिनककर कहा-अम्मां, मैं नादान नहीं हूं कि झुनिया मुझे मंतर पढ़ाएगी। तुम उसे नाहक कोस रही हो। तुम्हारी गिरस्ती का सारा बोझ मैं नहीं उठा सकता। मुझसे जो कुछ हो सकेगा तुम्हारी मदद कर दूंगा, लेकिन अपने पांवों में बेड़ियां नहीं डाल सकता।

झुनिया भी कोठरी से निकलकर बोली-अम्मां जुलाहे का गुस्सा डाढ़ी पर न उतारो। कोई बच्चा नहीं है कि मैं फोड़ लूंगी। अपना-अपना भला-बुरा सब समझते हैं। आदमी इसीलिए नहीं जनम लेता कि सारी उमर तपस्या करता रहे और एक दिन खाली हाथ मर जाए। सब जिंदगी का कुछ सुख चाहते हैं, सबकी लालसा होती है कि हाथ में चार पैसे हों।

धनिया ने दांत पीसकर कहा-अच्छा झुनिया, बहुत गियान न बघार। अब तू भी अपना भला-बुरा सोचने जोग हो गई है। जब यहां आकर मेरे पैरों पर सिर रक्खे रो रही थी, तब अपना भला-बुरा नहीं सूझा था? उस घड़ी हम भी अपना भला-बुरा सोचने लगते, तो आज तेरा कहीं पता न होता।

इसके बाद संग्राम छिड़ गया। ताने-मेहने, गाली-गलौच, थुक्का-फजीहत कोई बात न बची। गोबर भी बीच-बीच में डंक मारता जाता था। होरी बरौठे में बैठा सब कुछ सुन रहा था। सोना और रूपा आंगन में सिर झुकाए खड़ी थीं, दुलारी, पुनिया और कई स्त्रियां बीच-बचाव करने आ पहुंची थीं। गर्जन के बीच में कभी-कभी बूंदें भी गिर जाती थीं। दोनों ही अपने-अपने भाग्य कोस रही थीं। दोनों ही ईश्वर को कोस रही थीं, और दोनों अपनी-अपनी निर्दोषिता सिद्ध कर रही थीं। झुनिया गड़े मुर्दे उखाड़ रही थी। आज उसे हीरा और सोभा से विशेष सहानुभूति हो गई थी, जिन्हें धनिया ने कहीं का न रखा था। धनिया की आज तक किसी से न पटी थी, तो झुनिया से कैसे पट सकती है? धनिया अपनी सफाई देने की चेष्टा कर रही थी, लेकिन जाने क्या बात थी कि जनमत झुनिया की ओर था। शायद इसलिए कि झुनिया संयम हाथ से [ २११ ] न जाने देती थी और धनिया आपे से बाहर थी। शायद इसलिए भी कि झुनिया अब कमाऊ पुरुष की स्त्री थी और उसे प्रसन्न में रखने में ज्यादा मसलहत थी।

तब होरी ने आंगन में आकर कहा-मैं तेरे पैरों पड़ता हूं धनिया, चुप रह। मेरे मुंह में कालिख मत लगा। हां, अभी मन न भरा हो तो और सुन।

धनिया फुंकार मारकर उधर दौड़ी-तुम भी मोटी डाल पकड़ने चले। मैं ही दासी हूं। यह तो मेरे ऊपर फूल बरसा रही है?

संग्राम का क्षेत्र बदल गया।

'जो छोटों के मुंह लगे, वह छोटा।'

धनिया किस तर्क से झुनिया को छोटा मान ले?

होरी ने व्यथित कंठ से कहा-अच्छा, वह छोटी नहीं बड़ी सही। जो आदमी नहीं रहना चाहता, क्या उसे बांधकर रखेगी? मां-बाप का धरम है, लड़के को पाल-पोसकर बड़ा कर देना। वह हम कर चुके। उनके हाथ-पांव हो गए। अब तू क्या चाहती है, वे दाना-चारा लाकर खिलाएं। मां बाप का धरम सोलहों आना लड़कों के साथ है। लड़कों का मां-बाप के साथ एक आना भी धरम नहीं है। जो जाता है, उसे असीस देकर विदा कर दे। हमारा भगवान् मालिक है। जो कुछ भोगना बदा है, भोगेंगे, चालीस सात सैंतालीस साल इसी तरह रोते-धोते कट गए। दस-पांच साल हैं, वह भर से यों ही कट जायेंगे।

उधर गोबर जाने की तैयारी कर रहा था। इस घर का पानी भी उसके लिए हराम है। माता हाकर जब उसे ऐसी-ऐसी बातें कहेतो अब वह उसका मुंह भी न देखेगा।

देखते ही देखते उसका बिस्तर बंध गया। झुनिया ने भी चुंदरी पहन ली। चुन्नू भी टोप और फ्राक पहनकर राजा बन गया।

होरी ने आर्द्र कंठ से कहा-बेटा तुमसे कुछ कहने का मुंह तो नहीं है, लेकिन कलेजा नही मानता। क्या जरा जाकर अपनी अभागिनी माता के पांव छू लोगे, तो कुछ बुरा होगा? जिस माता की कोख से जनम लिया और जिसका रकत पीकर पले हो, उसके साथ इतना भी नहीं कर सकते?

गोबर ने मुंह फेरकर कहा-मैं उसे अपनी माता नहीं समझता।

होरी ने आंखों में आंसू बहाकर कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा। जहां हो, सुखी रहो।

झुनिया ने सास के पास जाकर उसके चरणों को आंचल से छुआ। धनिया के मुंह से आसीस का एक शब्द भी न निकला। उसने आंखें उठाकर देखा भी नहीं। गोबर बालक को गोद लिए आगे-आगे था। झुनिया बिस्तर बगल में दबाए पीछे। एक चमार का लड़का संदूक लिए था। गांव के कई स्त्री-पुरुष गोबर को पहुंचाने गांव के बाहर तक आए।

और धनिया बैठी रो रही थी, जैसे कोई उसके हृदय को आरे से चीर रहा हो। उसका मातृत्व उस घर के समान हो रहा था, जिसमें आग लग गई हो और सब कुछ भस्म हो गया हो। बैठकर रोने के लिए भी स्थान न बचा हो।