हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/कबीर

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ १५७ ]

यह पन्द्रहवीं शताब्दी कबीर साहब की कविताओं का रचना-काल भी है। कबीर साहब की रचनाओं के विषय में अनेक तर्क-वितर्क हैं। उनकी जो रचनायें उपलब्ध हैं उनमें बड़ी विभिन्नता है। इस विभिन्नता का कारण यह है कि वे स्वयं लिखे-पढ़े न थे। इस लिये अपने हाथ से वे अपनी रचनाओं को न लिख सके। अन्य के हाथों में पड़ कर उनकी रचनाओं का अनेक रूपों में परिणत होना स्वाभाविक था। आज कल जितनी रचनायें उनके नाम से उपलब्ध होती हैं उनमें भी मीन मेख है। कहा जाता है कि सत्य लोक पधार जाने के बाद उनकी रचनाओं में लोगों ने मनगढ़न्त‌ बहुत सी रचनायें मिला दी हैं और इसी सूत्र से उनकी रचना की भाषा में भी विभिन्नता दृष्टिगत होती है। ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को उपस्थित कर इस बात की मीमांसा करना कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी का क्या रूप था दुस्तर है। मैं पहले लिख आया हूं कि भ्रमण शील सन्तों की बानियों में भाषा की एक रूपता नहीं पाई जाती। कारण यह है कि नाना प्रदेशों में भ्रमण करने के कारण उनकी भाषामें अनेक प्रान्तिक शब्द मिले पाये जाते हैं। कबीर साहब की रचना में अधिकतर इस तरह की बातें मिलती हैं। इन सब उलझनों के होने पर भी कबीर साहब की रचनाओं की चर्चा इस लिये आवश्यक ज्ञात होती है कि वे इस काल के एक प्रसिद्ध सन्त हैं और उनकी बानियों का प्रभाव बहुत ही व्यापक बतलाया गया है कबीर साहब की रचनाओं में रहस्यवाद भी पाया जाता है, जिसको अधिकांश लोग उनके चमत्कारों से सम्बन्धित करते हैं और यह कहते हैं कि ऐसी रचनायें उनका निजस्व हैं जो हिन्दी संसार की किसी कविकी कृति में नहीं पायी जाती। इस सूत्र से भी कबीर साहब की रचनाओं के विषय में कुछ लिखना उचित ज्ञात होता है, क्योंकि यह निश्चित करना है कि इस कथन में कितनी सत्यता है। विचारना यह है कि क्या वास्तव में रहस्यवाद कबीर साहब की उपज है या इसका भी कोई आधार है।

काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 'कबीर-ग्रन्थावली' नामक एक ग्रन्थ कुछ वर्ष हुये, एक प्राचीन ग्रन्थ के आधार से प्रकाशित किया है। प्राचीन ग्रन्थ सम्बत् १५६१ का लिखा हुआ है और अब तक उक्त सभा के यह [ १५८ ]पुस्तकालय में सुरक्षित है। जो ग्रन्थ सभा से प्रकाशित हुआ है, उससे इस लिये कुछ पद्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं, जिसमें उनकी रचना की भाषा के विषय में कुछ बिचार किया जा सके:—

१—षूणैं पराया न छूटियो, सुणिरे जीव अबूझ।
कविरा मरि मैदान मैं इन्द्रय्यांसूं जूझ।
२—गगनमामा बोजिया पर्यो निसाणै घाव।
खेत वुहार्यो सूरिवाँ मुझ मरने का चाव।
३—काम क्रोध सूं झूझणां चौड़े माझ्या खेत।
सूरै सार सँवाहिया पहर्या सहज सँजोग।
४—अब तो झूझ्याँ हा बणै मुणि चाल्याँघर दूरि।
सिर साहब कौं सौंपता सोच न कोजै सूरि।
५—जाइ पुछौ उस घाइलैं दिवसपीड़ निस जाग।
बाहण हारा जाणि है कै जाणै जिस लाग।
६—हरिया जाणै रूखणा उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जाणई कबहूं बूठा मेंह।
७—पारब्रह्म बूठा मोतियाँ घड़ बाँधी सिष राँह।
सबुरा सबुरा चुणि लिया चूक परी निगुराँह।
८—अवधू कामधेनु गहि बाँधी रे।
भाँडा भंजन करै सबहिन का कछू न सूझै आँधारे।
जो व्यावै तो दूध न देई ग्याभण अमृत सरवै।
कौली घाल्यां बीदरि चालै ज्यूं घेरौं त्यूं दरवै।
तिहीं धेन थें इच्छ्यां पूगी पाकड़ि खूटे बाँधी रे
ग्वाड़ा मां है आनँद उपनौ खूटै दोऊ बाँधी रे।

[ १५९ ]

साँई माइ सास पुनि साईँ साईँ याकी नारी।
कहै कबीर परमपद पाया संतो लेहु बिचारी।]

कबीर साहब ने स्वयं कहा है, 'बोली मेरी पुरुब की', जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचना पूर्वी हिन्दी में हुई है और इन कारणों से यह बात पुष्ट होती है कि वे पूर्व के रहने वाले थे और उनकी जन्म भूमि काशी थी। काशी और उसके आस पास के ज़िलों में भोजपुरी और अवधी-भाषा ही अधिकतर बोली जाती है। इस लिये उनकी भाषा का पूर्वी भाषा होना निश्चित है और ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को पूर्वी भाषा में ही होना चाहिये। यह सत्य है कि उन्होंने बहुत अधिक देशाटन किया था और इससे उनकी भाषा पर दूसरे प्रान्तों की कुछ बोलियों का भी थोड़ा बहुत प्रभाव हो सकता है। किन्तु इससे उनकी मुख्य भाषा में इतना अन्तर नहीं पड़ सकता कि वह बिलकुल अन्य प्रान्त की भाषा बन जावे। सभाद्वारा जो पुस्तक प्रकाशित हुई है उसकी भाषा ऐसी ही है जो पूर्व की भाषा नहीं कही जा सकती, उसमें पंजाबी और राजस्थानी भाषा का पुट अधिकतर पाया जाता है। ऊपर के पद्य इसके प्रमाण हैं। कुछ लोगों का विचार है कि कबीर साहब के इस कथन का कि 'बोली मेरी पुरुब की' यह अर्थ है कि मेरी भाषा पूर्व काल की है, अर्थात् सृष्टि के आदि की। किन्तु यह कथन कहां तक संगत है, इसको बिद्वज्जन स्वयं समझ सकते हैं। सृष्टि के आदि की बोली से यदि यह प्रयोजन है कि उनकी शिक्षायें आदिम हैं तो भी वह स्वीकार-योग्य नहीं, क्योंकि उनकी जितनी शिक्षायें हैं उन सब में परम्परागत बिचार की ही झलक है। यदि सृष्टि की आदि की बोली का यह भाव है कि उस काल की भाषा में कबीर साहब की रचनायें हैं तो यह भी युक्ति संगत नहीं, क्योंकि जिस भाषा में उनकी रचनायें हैं वह कोई सहस्र वर्षों के विकास और परिवर्तनों का परिणाम है। इस लिये यह कथन मान्य नहीं। वास्तव बात यह है कि कबीर साहब की रचनायें पूर्व की बोली में ही हैं और यही उनके उक्त कथन का भाव है। अधिकांश रचनायें उनकी ऐसी ही हैं भी। सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ के पहले उनकी जितनी रचनायें प्रकाशित हुई हैं या हस्त[ १६० ]लिखित मिलती हैं, या जन साधारण में प्रचलित हैं उन सब की भाषा अधिकांश पूर्वी ही है। हां, सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ का कुछ अंश अवश्य इस विचार का बाधक है, परन्तु मैं यह सोचता हूं कि जिस प्राचीन-लिखित ग्रंथ के आधार से सभा की पुस्तक प्रकाशित हुई है उसके लेखक के प्रमाद ही से कबीर साहब की कुछ रचनाओं, की भाषा में विशेष कर बहुसंख्यक दोहों में उल्लेख-योग्य अंतर पड़ गया है। प्रायः लेखक जिस प्रान्त का होता है अपने सँस्कार के अनुसार वह लेख्यमान ग्रन्थ की भाषा में अवश्य कुछ न कुछ अन्तर डाल देता है। यही इस ग्रन्थ-लेखन के समय भी हुआ ज्ञात होता है अन्यथा कबीर साहब की भाषा का इतना रूपान्तर न होता।

मैं कबीर साहब की भाषा के विषय में विचार उन्हीं रचनाओं के आधार पर करूंगा जो सैकड़ों वर्ष से मुख्य रूप में उनके प्रसिद्ध धर्म स्थानों के ग्रन्थों में पाई जाती हैं। अथवा सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में संगृहीत मिलती हैं। यह ग्रन्थ सत्रहवीं ईस्वी शताब्दी में श्री गुरु अर्जुन द्वारा संकलिन किया गया है। इस लिये इसकी प्रमाणिकता विश्वसनीय है। कुछ ऐसी रचनायें देखिये :—

१—गंगा के सँग सरिता बिगरी,
सो सरिता गंगा होइ निबरी।
बिगरेउ कबीरा राम दोहाई,
साचु भयो अन कतहिं न जाई।
चन्दन के सँग तरवर बिगरेउ,
सो तरुवरु चंदन होइ निबरेउ।
पारस के सँग ताँबा बिगरेउ,
सो ताँबा कंचन होइ निबरेउ।
संतन संग कबिरा बिगरेउ,
सो कबीर रामै होइ निबरेउ।

[ १६१ ]

२—माथे तिलकु हथि माला बाना,
लोगनु राम खिलौना जाना।
जउ हउँ बउरा तउ राम तोरा,
लोग मरम कह जानइँ मोरा।
तोरउँ न पाती पूजउँ न देवा,
राम भगति बिनु निहफल सेवा।
सति गुरु पूजउँ सदा मनावउँ,
ऐसी सेव दरगह सुख पावउँ।
लोग कहै कबीर बउराना
कबीर का मरम राम पहिचाना।
३—जब लग मेरी मेरी करै,
तब लग काजु एक नहिँ सरै।
जब मेरी मेरी मिटि जाइ,
तब प्रभु काजु सँवारहि आइ।
ऐसा गियानु बिचारु मना,
हरि किन सुमिरहु दुख भंजना।
जब लग सिंधु रहै बन माहिं,
तब लगु बनु फूलै ही नाहिँ।
जब ही सियारु सिंघ कौ खाइ,
फूलि रही सगली बनराइ।
जीतो बूढ़े हारो तिरै,
गुरु परसादी पारि उतरै।
दास कबीर कहइ समझाइ,
केवल राम रहहु जिउलाइ।

[ १६२ ]

४—सभुकोइ चलन कहत हैं ऊहां,
ना जानौं बैकुण्ठु है कहाँ।
आप आप का मरम न जाना,
बातनहीं बैकुण्ठ बखाना।
जब लगु मन बैकुण्ठ की आस,
तब लग नाहीं चरन निवास।
खाईँ कोटु न परल पगारा,
ना जानउँ बैकुण्ठ दुवारा।
कह कबीर अब कहिये काहि,
साधु संगति बैकुण्ठै आहि।

सभा की प्रकाशित ग्रन्थावली में भी इस प्रकार की रचनायें मिलती हैं। मैं यहां यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में कबीर साहब की जितनी रचनायें संग्रहीत हैं वे सब उक्त ग्रन्थावली में ले ली गई हैं। उनमें वैसा परिवर्तन नहीं पाया जाता जैसा सभा के सुरक्षित ग्रन्थ की रचनाओं में मिलता है। मैं यह भी कहूंगा कि उक्त सुरक्षित ग्रन्थकी पदावली उतनी परिवर्तित नहीं है जितने दोहे। अधिकांश पदावली में कबीर साहब की रचना का वही रूप मिलता है जैसा कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में पाया जाता है। मैं इसी पदावली में से तीन पद्य नीचे लिखता हूं :

१—हम न मरैं मरिहै संसारा,
हमकूं मिल्या जियावन हारा।
अब न मरौं मरनै मन माना,
तेई मुए जिन राम न जाना।
साकत मरै संत जन जीवै,
भरि भरि राम रसायन पीवै।

[ १६३ ]

हरि मरिहैं तो हमहूं मरिहैं,
हरि न मरै हम काहे कूं मरि हैं।
कहै कबीर मन मनहिं मिलावा,
अमर भये सुख सागर पावा।
२—काहे रे मन दह दिसि धावै,
विषया सँगि संतोष न पावै।
जहाँ जहाँ कलपै तहाँ तहाँ बंधना,
रतन को थाल कियो तै रंधना।
जो पै सुख पइयत इन माहीं,
तौ राज छाड़ि कत बन को जाहीं।
आनन्द सहत तजौ विष नारी,
अब क्या झीषै पतित भिषारी।
कह कबीर यहु सुख दिन चारि,
तजि बिषया भजि चरन मुरारि।
३—बिनसि जाइ कागद की गुड़िया,
जब लग पवन तबै लगि उड़िया।
गुड़िया को सबद अनाहद बोलै,
खसम लिये कर डोरी डोलैं।
पवन धक्यो गुड़िया ठहरानी,
सीस धुनै धुनि रोवै प्रानी।
कहै कबीर भजि सारँग पानी,
नहिं तर ह्वै है खैंचा तानी।

मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उद्धृत किये हैं और जो पद्य कबीर प्रन्थावली से लिये हैं उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर [ १६४ ]साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिकांश रचनायें इसी भाषा की हैं। उसके अधिकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाये जाते हैं। बहुत से दोहों की भाषा का रूप भी यही है। इस लिये मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनायें पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमशः हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आई है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रहवीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में मिलता है वैसा ही कबीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इस लिये मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएं पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषाजनित परिवर्तन-सम्बन्धी नियमों से मुक्त नहीं हैं‌। वरन् क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं। हां, उनमें कहीं कहीं प्रान्तिकता अवश्य पाई जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्य जनक नहीं। क्योंकि प्रान्तिक भाषा में कविता करने का सूत्रपात विद्यापति के समय में ही हुआ था, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है।

मैं यह स्वीकार करूंगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्ध बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसी लिये मैं उनको शुद्ध रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसो रचनायें हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्र अन्य भाषा के आगये हैं उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूं और समझता हूं [ १६५ ]( १६५ ) कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक को अनधिकार-चेष्टा से सुरक्षित हैं । उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखियेः१--दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त । पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त । २-कवीर संगत साधु की कदे न निरफल होय । चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय ॥ ३-कायथ कागद काढ़िया लेखै वार न पार । जब लग साँस सरीर में तय लग राम सँभार । ४-हरजी यहै विचारिया, साखी कहै कबीर । भवसागर मैं जीव हैं, जे कोइ पकड़े तीर । ५-ऐसी वाणी बोलिये. मन का आपा खोइ । अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ। इन पयों के जिन शब्दों पर चिन्ह बना दिये गये हैं वे पंजाबी या गजस्थानी हैं । इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्रायः मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनको मुख्य भाषा को संदिग्ध नहीं बनातं क्योंकि जिस पत्र में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधी अथवा ब्रजभाषा में वाणी को 'वानी' ही लिखा जाता है. क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्रायः न के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते, हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्रायः नकार णकार हो जाता है। वे 'बानी' को 'वाणी' 'आसन' को 'आसण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाव के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावे तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ साहब में भी देखा जाता है कि प्रायः कबीर साहब की [ १६६ ]( १६६ ) रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिकतर सुरक्षित है । इस प्रकार के साधारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिये कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो उसके विषय में यह न मानलेना चाहिये कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था उसको उन्हों ने ही पंजाबी रूप दे दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी को लीला हो दृष्टिगत होती है। कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधान शिष्य धर्मदास कहते हैं :आठवीं आरती पीर कहाये । मगहर अमी नदी बहाये। मलूक दास कहते हैं:- तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर १ झांसी के शेरन तक़ी ऊँजी और जौनपुरके पीर लोग जो काम उस समय मुसल्मान धर्म के प्रचार के लिये कर रहे थे काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही काय में निरत थे । अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप से मुसल्मान धर्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धर्म की रचना करके हिन्दू मुसल्मान को एक करने के लिये उद्योगशील थे । ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसेन शाह कर रहे थे जो एक मुसल्मान पीर थे और जिसने अपने नवीन धर्म का नाम सत्य पीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू मुसल्मानों के एकीकरण में लान थे। उस समय में भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रद्वा की दृष्टि से देखे जाते थे। गुरु नानकदेव ने भी इन पोरों का नाम अपने इस वाक्य में सुणिये सिद्ध-पीर सुरिनाथ' आदर से लिया है। जो पद उन्होंने सिद्ध, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी । पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिद्धों का कितना महत्व और प्रभाव था । नाथों का महत्व भी गुरु गोरखनाथजी की १, हिन्दूस्तानी, अक्टूबर सन् १९३२,पृ० १५१ । [ १६७ ]( १६७ ) चर्चा में प्रकट हो चुका है । सूरि जैनियों के आचार्य कहलाते थे और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ता भी कम नहीं थी। इनलोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है. इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ता थी यह बात भली भांति प्रगट होती है । इस पीर नाम का सामना करने ही के लिये हिन्दु आचार्य उस समय गुरु नाम धारण करने लग गये थे। इसका सूत्रपात गुरु गोरखनाथ जी ने किया था। गुरु नानक- देव के इस वाक्य में 'गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारबती माई' इस का संकेत है । गुरु नानक के सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्दू आचार्यों को हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धर्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी क्योंकि वे राजधर्म के प्रचारक थे । कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुद्धि बड़ी ही प्रखर । उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्हों ने वही किया जो उस समय मुसल्मान पीर कर रहे थे अर्थात हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धर्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धर्म में आकर्पित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिद्धि के लिये उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने महत्व की घोषणा बड़ी ही सवल भाषा में की । निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं:- काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चेताये। समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये। कबीर शब्दावली, प्रथम भाग पृ० ७१ सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया कबीरं बीजक पृ० २० तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत । कहते मोहिं भयल युग चारी [ १६८ ]( १६८ ) समझत नाहिं मोहि सुत नारी । कह कबीर हम युग युग कही। जवहीं चेतो तवहीं सही। . — कबीर बीजक पृ० १२५, ०६२ जो कोई होय सत्य का किनका सो हमको पतिआई। और न मिलै कोटि करि थाकै बहुरि काल घर जाई । कबीर बीजक पृ० २० जम्बू द्वीप के तुम सब हंसा गहिलो शब्द हमार । दास कबीरा अबकी दीहल निरगुन के टकसार । जहिया किरतिम ना हता धरती हता न नीर । उतपति परलै ना हती तबकी कही कबीर । ई जग तो जहई गया भया योग ना भोग। तिल तिल झारि कबीर लिय तिलटी झारै लोग। __कबीर बीजक पृ० ८०, ५९८, ६३२ सुर नर मुनि जन औलिया, यह सब उरली तीर । अलह राम को गम नहीं, तहँ घर किया कबीर । साखी संग्रह पृ० १२५ वे अपनी महत्ता बतला कर ही मौन नहीं हुये बरन हिन्दुओं के समस्त धार्मिक ग्रन्थों और देवताओं की बहुत बड़ी कुत्सा भी की। इस प्रकार के उनके कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं:- योग यज्ञ जप संयमा तीरथ व्रतदाना नवधा वेद किताब है झूठे का बाना। कबीर बीजक पृ० ४११ चार वेद षट् शास्त्रऊ औ दश अष्ट पुरान । आसा दै जग बाँधिया तीनों लोक भुलान । कवीर बीजक पृ० १४ [ १६९ ]( १६६ ) औ भूले षट दर्शन भाई। पाखंड भेष रहा लपटाई । ताकर हाल होयअघकूचा । छदर्शन में जौन बिगूचा। कबीर बीजक पृ० ९७ ब्रह्मा बिस्नु महेसर कहिये इन सिर लागी काई । इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहं, मुक्ति न पाई। कबीर शब्दावली द्वितीय भाग पृ० १९ माया ते मन ऊपजै मन ते दश अवतार । ब्रह्म विस्नु धोखे गये भरम परा संसार । कबीर बीजक पृ० ६५० चार वेद ब्रह्मा निज ठाना। मुक्ति का मर्म उनह नहिं जाना। कवीर बीजक पृ० १०४ भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। परन्तु मैं उनको यहां उठाना नहीं चाहता. क्यों कि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है ।। उनकी रचनाओं में योग, निगुण ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धी बड़े हृदय ग्राही वर्णन हैं। मेग विचार है कि उन्हाने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके उत्तराधिकारी महात्माओं का बहुत कुछ अनुकरण किया है। गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कवीर साहव के निगुणवाद का.स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन की पुष्टि के लिये गुरु गोरखनाथ की पूर्वाद्धृत ग्चनाओं की ओर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूं और उनके समकालीन एवं उत्तराधिकारी नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों की कुछ रचनायें भी नीचे लिखता हूं-थोड़ो खाय तो कलपै झलपै, घड़ों खाय तोरोगी। दुहुँ पर वाकी संधि विचारै, ते को पिरला जोगी। [ १७० ]( १७० ) यहु संसार कुवधि का खेत, जब लगि जीवै तब लगि चेत। आख्याँ देखै काण सुणै, जैसा थाहै तैसा लुणे ॥ जलंधर नाथ । २-मारिया तो मनमीर मारिया, लूटिया पवन भँडार । साधिया तो पंचतत्त साधिया, सेइया तो निरंजन निरंकार माली लौं भल माली लौं, सींचे सहज कियारी । उनमनि कला एक पहपनि, पाइले आवा गवन निवारी ॥ चौरंगी नाथ । ३-आछै आछै महिरे मंडल कोई सरा। माऱ्या मनुवाँ नएँ समझावै रे लो॥ देवता ने दाणवां एणे मनवें व्याया। मनवा ने कोई ल्यावै रे लो ॥ जोति देखि देखो पड़ेरे पतंगा । नादै लीन कुरंगा रे लो एहि रस लुब्धी मैगल मातो। स्वादि पुरुष ते भौंरा रे लो ॥ कणेरी पाव। ४-किसका बेटा किसकी बहू, आपसवारथ मिलिया सह। जेता पूला तेती आल, चरपट कहै सब आल जंजाल॥ चरपट चीर चक्रमन कंथा, चित्त चमाऊँ करना। ऐसी करनी करोरे अवधू, ज्यो बहुरि न होई मरना ॥ चरपट नाथ। ५-साधी सूधी के गुरु मेरे, बाई संव्यंद गगन मैं फेरै । मनका बाकुल चिड़ियां बोलै, साधी ऊपर क्यों मन डोलै॥ [ १७१ ]( १७१ ) बाई बंध्या सयल जग, बाई किनहुं न बंध । बाइबिहूणा ढहिपरै, जोरै कोई न संधि ॥ चुणकर नाथ । कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इस लिये कबीर साहब की र( १७१ ) बाई बंध्या सयल जग, बाई किनहुं न बंध । बाइबिहणा ढहिपरै, जोरै कोई न संधि ॥ चुणकर नाथ। कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इस लिये कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनायें प्रभावित हैं, न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तक के निराकरण के लिये मैं प्रगट कर देना चाहता हूं कि जलंधर नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे। चौरंगीनाथ गारखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधरनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणकरनाथ भी इन्हीं के समकालोन थे १। इस लिये इन लोगोंका कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है । कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर जो रहस्यवाद से सम्बन्ध रखती हैं, वौद्धधम के उन सिद्धों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ । कबीर साहब की बहुत सी रचनायें ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्रायः किये जाते हैं। जैसे, घर घर मुसरी मंगल गावै, कछुवा संख बजावै । पहिरि चोलना गदहा नाचे, भैंसा भगत करावै॥ इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है. किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। वौद्धसिद्धों की भी ऐसी व्यर्थक अनेक रचनायें है। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनायें हैं वे सिद्धों १-देखिये नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ११, अंक ४ में प्रकाशित 'योगप्रवाह' मामक लेख। चनाओं से स्वयं उनकी रचनायें प्रमा- वित हैं, न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तक के निराकरण के लिये मैं प्रगट कर देना चाहता हूं कि जलंधर नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे। चौरंगीनाथ गारखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधरनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणकरनाथ भी इन्हीं के समका- लोन थे १। इस लिये इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है । कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर जो रहस्यवाद से सम्बन्ध रखती हैं, वौद्धधर्म के उन सिद्धों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ । कबीर साहब की बहुत सी रचनायें ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अथ प्रायः किये जाते हैं। जैसे, घर घर मुसरी मंगल गावै, कछुवा संख बजावै । पहिरि चोलना गदहा नाचे, भैंसा भगत करावै ॥ इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है. किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौद्धसिद्धों की भी ऐसी व्यर्थक अनेक रचनायें है। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनायें हैं वे सिद्धों १-देखिये नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ११, अंक ४ में प्रकाशित 'योगप्रवाह' मामक लेख । [ १७२ ]( १७२ ) की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिद्धोंने योग और ज्ञान सम्बन्धी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनको अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् १९३१ की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिद्ध नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोध के लिये उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूं: "इन सिद्धों की कवितायें एक विचित्र आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ अंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग. निर्गुण) दोनों में लग सके । संध्या भाषा को आज कल के छायावाद या रहस्यवाद की भापा समझ सकते हैं।" 'भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर गधा स्वामी तक के सभी संत चौरासी सिद्धां के ही वंशज कहे जा सकते हैं । कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको शृंखलाबद्ध करना कठिन नहीं है । परन्तु कबीर का सम्बन्ध सिद्धों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएं, रहस्योक्तियां, उल्टी बोलियों की समानतायें बहुत स्पष्ट हैं।" इसी सिलसिले में सिद्धों की रचनायें भी देख लीजिये१-(मूल) निसि अंधारी सुसार चारा । अमिय भखअ मूषा करअ अहारा। मार रे जोइया मृषा पवना । जेण तृटअ अवणा गवणा । भव विदारअ मृसा रवण अगति । चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती। काला मूसा ऊहण बाण । गअणे उठि चरअ अमण धाण । [ १७३ ]( १७३ ) तब से म्षा उंचल पांचल। सद्गुरु वोहे करिह सुनिचल । जबै मूषा एरचा तूटअ। भुसुक भणअ तबै बांधन फिट । भुसुक छाया। निसि अँधियारी सँसार सँचारा। अमिय भक्स्व मूसा करत अहारा । मार रे जोगिया मूसा पवना । जेहिते टूटै अवना गवना भव विदार मूसा खनै खाता ! चंचल मूसा करि नाश जाता। मूमा उरधन गगने दीठि करै मन बिनु ध्यान । तबसो मूसा चञ्चल बंचल । सतगुरु बोधे करु मो निहचल । जयहिं मृमा आचार टूटइ भुसुक भनत तव बन्धन पू फाटइ । काला वन । जयि तुझे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना । नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा । जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि । हण बिनु मासे भुसुक पद्म बन पड़ सहिणि । [ १७४ ]( १७४ ) माआ जाल पसयो अरे बाधेलि माया हरिणी । सद गुरु बोहें बूझिरे काढूं कहिनि । भुसुक छाया--- जो तोहिं भुसूक जाना मारहु पंच जना । नलिनी बन पइसते होहिसि एक मना । जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी । हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि । माया जाल पसारे अरे बाँधेलि माया हरिणी । सदगुरु बोधे बूझी कासों कथनी । भुमुक अणिमिषिलोअण चित्तनिरोधे पवन णिमहइ सिरिगुरु बोहे पवन बहइ सो निच्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्वें। छाया अनिमिष लोचन चित्त निरोधइ श्री गुरु बोधे । पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै । सरहपा आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति । पक्क सिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति। अर्थ- आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं । पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा* कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धर्मावलम्वी बतलाये जाते हैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं—'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर'। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी खोटी भी सुनाई है । यथा- देखिये सरस्वती जून सन् १९३१ का पृष्ट ७१५ ७१७ ७१८ ७१९ [ १७५ ]( १७५ ) मेरे संगी है जणा एक वैष्णव एक राम । वो है दाता मुक्ति का वो सुमिरावै नाम । कबीर धनि ते सुन्दरी जिन जाया बस्नव पूत । राम सुमिरि निरभय हुआ सब जग गया अऊत । साकत सुनहा दोनों भाई । एक निंदै एक भौंकत जाई। किन्तु क्या उनका यह भाव स्थिर रहा ? मेरा विचार है, नहीं, वह बरावर बदलता रहा । इसका प्रमाण स्वयं उनकी रचनायें हैं। उन्होंने गोरखनाथ को गोष्ठी नामक एक ग्रंथ की रचना भी की है। वे शेख तक़ी के पास भी जिज्ञासु बन कर जाते थे और ऊंजी के पीर से भी शिक्षा लेते थे। ऐसा करना अनुचित नहीं । ज्ञान प्राप्त करने के लिये अनेक महात्माओं का सत्संग करना निन्दनीय नहीं-किन्तु यह देखा जाता है कि कबीर साहब कभी वैष्णव हैं, कभी पीर. कभी योगी और कभी सूफ़ी और कभी वेदान्त के अनुरागी । उनका यह बहुरूप श्रद्धाल के लिये भले ही उनकी महत्ता का परिचायक हो, परन्तु एक समीक्षक की दृष्टि इस प्रणाली को संदिग्ध हो कर अवश्य देखेगी। मेग विचार है कि अपने सिद्धान्त के प्रचार के लिये उन्होंने समय समय पर उपयुक्त पद्धति ग्रहण की है और जनता के मानस पर अपनी सर्वज्ञता की धाक जमा कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का विशेष ध्यान रखा है। इसी लिये वे अनेक रूप रूपाय हैं। मैंने उनकी रचनाओं का आधार ढूढ़ने की जो चेष्टा की है उसका केवल इतना ही उद्देश्य है कि यह निश्चित हो सके कि वास्तव में उनकी रचनायें उनके कथनानुसार अभूतपूर्व और अलौकिक हैं या उनका स्रोत किसी पूर्ववर्ती ज्ञान-सरोवर से ही प्रसूत है । 'सरस्वती' में 'चौरासी सिद्ध' नामक लेख के लेखक बौद्ध विद्वान् राहुल सांस्कृतायन ने कबीर साहब की रचनाओं पर सिद्धों की छाप बतलाते हुये यह लिखा है कि 'कबीर का सम्बन्ध सिद्धों से मिलाना उतना आसान नहीं है।" किन्तु मैं समझता हूं कि यह आसान है. यदि सिद्धों के साथ नाथ सम्प्रदाय वालों [ १७६ ]( १७६ ) को भी सम्मिलित कर लिया जाय । मैं नहीं कह सकता कि इस बहुत ही स्पष्ट विकास की ओर उनकी दृष्टि क्यों नहीं गई। महात्मा ज्ञानेश्वर ने अपने ज्ञानेश्वरी नामक ग्रंथ में अपनी गुरु-परम्परा यह दी है-- (१) आदिनाथ (२ मत्स्ये न्द्रनाथ (३) गोरखनाथ, (४) गहनी नाथ, (५) निवृत्तिनाथ, (६) ज्ञानेश्वर १ ज्ञानेश्वर के शिष्य थे नामदेव २ । उनका समय है १३७० ई० से १४४० ई० तक । इस लिये उनका कबीर साहब से पहले होना निश्चित है। उन्होंने स्वयं अपने भुख से उनको महात्मा माना है । वे लिखते हैं- "जागे सुक ऊधव औ अवर । हनुमत जागे लै लंगूर । संकर जागे चरन सेव । कलि जागे नामा जयदेव । सिक्खों के ग्रन्थ साहब में भी उनके कुछ पद्य संग्रहीत हैं। ज्ञानेश्वर जैसे महात्मा से दीक्षित हो कर उनको वैष्णवता केसी उच्च कोटि की थी और वे कैसे महापुरुष थे उसे निम्न लिखित शब्द बतलाते हैं.. बदो क्यों न होड़ माधो मोसों। ठाकुर ते जन जनते ठाकुर खेल पर्यो है तोसों। आपन देव देहरा आपन आप लगावें पूजा। जल ते तरंग तरंगते है जल कहन सुनन को दूजा। आपहि गावै आपहि नाचै आप बजावै तरा। कहत नामदेव तु मेरे ठाकुर जन ऊरा तृ पूरा ॥ १-देखिये, हिन्दुस्तानी, जनबरी, सन् १९३२ के पृ० ३२ में डाकर हरि रामचन्द्र दिवेकर एमः ए० डी लिट० का लेख । । २-देखये मिश्रबन्धु बिनोद प्रथम भाग का पृ० २२३ । [ १७७ ] २-दामिनि दमकि घटा घहरानी बिरह उठे घनघोर । चित चातक है दादुर बोले ओहि बन बोलत मोर। प्रीतम को पतिया लिख भेजों प्रेम प्रीतिमसि लाय । वेगि मिलो जन नामदेव को जनम अकारथ जाय । हिन्द पूजै देहरा, मुस्सलमान मसीत । नामा सोई सेविया, ना देहरा न मसीत।। मेरा विचार है कि कबीर साहब की रचनायें नामदेव के प्रभाव से अधिक प्रभावित हैं। फिर यह कहना कि सिद्धों के साथ कबीर की शृंखला मिलाना आसान नहीं, कहाँ तक संगत है। गुरु गोरख नाथ के मानस के साथ अपने मानम को सम्बन्धित कर कबीर साहव उनकी महत्ता किस प्रकार स्वीकार करते हैं उसको उनका यह कथन प्रकट करता है- गोरख भरथरि गोपीचंदा। तामनसो मिलि-करें अनंदा। अकल निरंजन सकल सरीरा। तामन सौ मिलि रहा कबीरा वास्तव बात यह है कि कबीर साहब के लगभग समस्त सिद्धांत और विचार वैष्णवधर्म और महात्मा गोरखनाथ के ज्ञानमार्ग और योग मार्ग अथच उनकी परम्परा के महात्माओं की अनुभूतियों पर ही अधिकतर अवलम्बित हैं। और उन सिद्धों के विचारों से भी सम्बन्ध रखते हैं। जिनकी चर्चा ऊपर की गई है। सारांश यह कि जैसे स्वयं कबीर साहब सामयिकता के अवतार और नवोन धर्म-प्रवर्तन के इच्छुक हैं वैसे ही उनकी रचनायें भी पूर्ववर्ती सिद्ध और महात्माओं के भावों और विचारों से ओत प्रोत हैं। किन्तु उनमें कुछ व्यक्तिगत विलक्षणतायें अवश्य थीं, जिनका विकास उनकी रचनाओं में भी दृष्टिगत होता है। उनकी इन्हीं विशेपताओं ने उन्हें कुछ लोगों की दृष्टि में निगुण धारा का प्रवर्तक बना रखा है । परन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि और विवेचनात्मक बुद्धि से निरीक्षण किया जाय तो यह बात स्पष्ट हो जाती है [ १७८ ]( १७८ कि जिन सिद्धान्तों के कारण उनके सिरपर सन्तमत के प्रवर्तक होने का सेहरा बांधा जाता है वे सिद्धान्त परम्परागत और प्राचीनतम ही हैं। हाँ, उनको जनता के सामने उपस्थित करने में उन्हों ने कुछ चमत्कार अवश्य दिखलाया। कबार साहब के रहस्यवाद को पढ़कर कुछ श्रद्धालु यह कहते हैं कि वे ईश्वर-विद्या के अद्वितीय मर्मज्ञ थे । वे भी अपने को ऐसा ही समझते हैं। लिखते हैंसुर नर मुनि जन औलिया ए सब उरली तीर । अलह राम की गम नहीं, तहँ घर किया कबीर । किसी के श्रद्धा विश्वास के विषय में मुझको कुछ वक्तब्य नहीं । कबीर साहब स्वयं अपने विषय में जो कहते हैं, उसका उद्देश्य क्या था. इस पर मैं बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूं। इष्ट-सिद्धि के लिये वे जो पथ ग्रहण करना उचित समझते थे. ग्रहण कर लेते थे। प्रत्येक धर्म प्रवत्तक में यह बात देखी जाती है । इसलिये इस विषय में अधिक लिखना पिष्टपेपण है, किन्तु यह मैं स्वीकार करूंगा कि कबीर साहव हिन्दी संसार में रहस्यवाद के प्रधान स्तम्भ हैं उनका रहस्यवाद कुछ पूर्व महजनों की रचनाओं पर आधारित हो, परन्तु उनके द्वारा वह बहुत कुछ पूर्णता को प्राप्त हो गया। उनकी ऐसी रचनाओं में बड़ी ही विलक्षणता और गम्भीरता दृष्टिगत होती है। कुछ पद्य देखिये:---- । १--ऐसा लो तत ऐसा लो मैं केहि विधि कयौं गभीरा लो। बाहर कहूँ तो सत गुरु लाजै भीतर कहूँ तो झूठा लो। बाहर भीतर सकल निरन्तर गुरु परतापै दीठा लो। दृष्टि न मुष्टिन अगम अगोचर पुस्तक लखा न जाईलो। जिन पहचाना तिन भल जाना कहे न कोऊपतिआईलो। मीन चले जल मारग जोवै परम तत्व धौं कैसा लो । पुहुपबास हूं ते अति झीना परम तत्व धौं ऐसा लो। [ १७९ ]( १७६ ) आकासे उड़ि गयो विहंगम पाछे खोज न दरसी लो। कहै कबार सतगुरु दाया तें बिरला सतपद् परसी लो। २--साधो सतगुरु अलख लखाया जब आप आप दरसाया। बीज मध्य ज्यों वृच्छा दसै बृच्छा मद्धे छाया। परमातम में आतम तैसे आतम मढे माया । ज्यों नभ मद्धे सुन्न देखिये सुन्न अंड आकारा । निह अच्छर ते अच्छर तैसे अच्छर छर विस्तारा । ज्यों रवि मढे किरन देखिये किरन मध्य परकासा । परमातम में जीव ब्रह्म इमि जीव मध्य तिमि साँसा स्वाँसा मध्ये सब्द देखिये अर्थ मन्द के माहीं । ब्रह्म ते जीव जीव ते मन यों न्यारा मिला सदाहीं । आपहि बीज वृच्छ अंकरा आप फूल फल छाया । आपहिं सर किरन परकासा आप ब्रह्म जिव माया। अंडाकार सुन्न नभ आपै म्याँम मन्द अरु छाया । निह अच्छर अच्छर छर आपै मन जिउ ब्रह्म समाया। आतम में परमातम दरसै परमातम में झाई। झाई में परछाई दसै, लखै कवीरा माई । ३--जीवन को मरिबो भलो, जे मरि जाने कोय । मरने पहिले जे मरें, तो अजरावर होय । मन मारा ममता मुई, अहं जोगी था सो रम रहा, आमणि रही विभूति । मरता मरता जगमुआ, औमर मुआ न कोय । कबिरा ऐसे मर मुआ, बहुरि न मरना होय । मय छूट [ १८० ]( १८० ) रहस्यवाद की ऐसी सुन्दर रचनाओं के रचयिता हो कर भी कहीं कहीं कबीर साहब ने ऐसी बातें कही हैं जो बिल्कुल ऊटपटांग और निरर्थक मालूम होती हैं। इस पद को देखियःठगिनी क्या नैना झमकावै । कयिरा तेरे हाथ न आवै । कद्द, काटि मृदंग बनाया नीबू काटि मॅजीरा। सात तरोई मंगल गावै नाचै बालम खीरा ! भैंस पदमिनी आसिक चूहा मेड़क ताल लगावै चोला पहिरि गदहिया नाची ऊंट बिसुनपद गावै आम डार चढ़ि कछुआ तोड़े गिलहरि चुनिचुनिलावै कहै कबीर सुनो भाई साधो बगुला भोग लगावै । ऐसे पड़ों के अनर्गल अर्थ करने वाले मिल जाते हैं। परन्तु उनमें वास्तवता नहीं, धींगा धोंगी होती है। मेरा विचार है उन्होंने ऐसी रचनायें जनता को विचित्रता-समुद्र में निमग्न कर अपनी ओर आकर्पित करने ही के लिये की हैं। उनकी उल्टवासियाँ भी विचित्रताओं से भरी हैं। दो पद्य उनके भी देखियेदेखौ लोगो घर की सगाई। माय धरै पितुधिय सँग जाई । सासु ननद मिलि अदल चलाई । मादरिया गृह बेटी जाई। हम बहनोई राम मोर सारा । हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा। कहै कबीर हरी के बूता। राम रमैं ते कुकुरी के पूता। कवीर वीजक पृ० ३९३ [ १८१ ]( १८१ ) देखि देखि जिय अचरज होई । यह पद बूझै बिरला कोई। धरती उलटि अकासहिं जाई। चिउटी के मुख हस्ति समाई। बिन पौने जहँ परबत उहै। जीव जन्तु सब बिरछा बुहै। सूखे सरवर उठ हिलोर । बिन जल चकवा कर कलोल । बैठा पंडित पढ़े पुरान। बिन देखे का करै बखान । कह कबीर जो पद को जान । सोई सन्त सदा परमान। -कबीर वीजक पृ० ३६४ कवीर साहब ने निर्गुण का राग अलापते हुए भी अपनी रचनाओं में सगुणता की धारा बहाई है । कभी वे परमात्मा के सामने स्वामी संवक के भाव में आते हैं, कभी स्त्री पुरुष अथवा प्रेमी और प्रेमिका के रूप में, कभी ईश्वर को माता-पिता मान कर आप बालक बनते हैं और कभी उसको जगन्नियंता मान कर अपने को एक क्षुद्र जीव स्वीकार करते हैं । इन भावों की उनकी जितनी रचनाय हैं मरम्म और सुन्दर हैं और उनमें यथेष्ट हदय ग्राहिता है। जनता के सामने कभी वे उपदेशाक और शिक्षक के रूप में दिखलाई देते हैं कभी सुधारक बन कर । मिथ्याचारों का खंडन वे बड़े कटु शब्दों में करते हैं और जिस पर टूट पड़ते हैं उसकी गत बना देते हैं । उनकी यह नानारूपता इ-साधन की ही सहचरी हैं। उनकी रचनाओं में जहां सत्यता की ज्योति मिलती है. वहीं कटुता की पगकाष्ठा भी दृष्टिगत होती है । वास्तव बात यह है कि हिन्दी संसार में उनकी रचनायें विचित्रतामयी हैं। उनका शब्द-विन्यास बहुधा असंयत और उद्वेजक है, [ १८२ ]कहीं कहीं वह अधिकतर उच्छृखल है, छन्दो नियम की रक्षा भी उसमें प्रायः नहीं मिलती। फिर भी उनकी कुछ रचनाओं में वह मन मोहकता, भावुकता, और विचार की प्राञ्जलता मिलती है जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है।