हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) मैथिलीशरण गुप्त

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[ ६१५ ]निकले जिनमें बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पं॰ रामचरित उपाध्याय और पं॰ लोचनप्रसाद पांडेय मुख्य हैं।

'सरस्वती' का संपादन द्विवेदीजी के हाथ में आने के प्रायः तीन वर्ष पीछे (सं॰ १९६३ से) बाबू मैथिलिशरण गुप्त की खड़ी बोली की कविताएँ उक्त पत्रिका में निकलने लगीं और उनके संपादनकाल तक बराबर निकलती रहीं। संवत् १९६६ में उनका 'रंग में भंग' नामक एक छोटा सा प्रबंध-काव्य प्रकाशित हुआ जिसकी रचना चित्तौड़ और बूँदी के राजघरानों से संबंध रखनेवाली राजपूती आन की एक कथा को लेकर हुई थी। तब से गुप्तजी का ध्यान प्रबंधकाव्यों की ओर बराबर रहा और वे बीच बीच में छोटे या बड़े प्रबंध-काव्य लिखते रहे। गुप्तजी की ओर पहले-पहल हिंदी-प्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचनेवाली उनकी 'भारत-भारती' निकली। इसमें 'मुसद्दस हाली' के ढंग पर भारतीयों की या हिंदुओं की भूत और वर्तमान दशाओं की विषमता दिखाई गई है; भविष्य-निरूपण का प्रयत्न नहीं है। यद्यपि काव्य की विशिष्ट पदावली, रसात्मक चित्रण, वाग्वैचित्र्य इत्यादि का विधान इसमें न था, पर बीच बीच में मार्मिक तथ्यों का समावेश बहुत साफ और सीधी-सादी भाषा में होने से यह स्वदेश की ममता से पूर्ण नवयुवकों को बहुत प्रिय हुई। प्रस्तुत विषय को काव्य का पूर्ण स्वरूप न दे सकने पर भी इसने हिंदी-कविता के लिये खड़ी बोली की उपयुक्तता अच्छी तरह सिद्ध कर दी। इसी के ढंग पर बहुत दिनों पीछे इन्होंने 'हिंदू' लिखा। 'केशों की कथा', 'स्वर्ग-सहोदर' इत्यादि बहुत सी फुटकल रचनाएँ इनकी 'सरस्वती' में निकली हैं, जो 'मंगल घट' में संग्रहीत हैं।

प्रबंध-काव्यों की परंपरा इन्होंने बराबर जारी रखी। अब तक ये नौ-दस छोटे-बड़े प्रबंध-काव्य लिख चुके हैं जिनके नाम हैं––रंग में भंग, जयद्रथ वध, विकट भट, पलासी का युद्ध, गुरुकुल, किसान, पंचवटी, सिद्धराज, साकेत, यशोधरा। अंतिम दो बड़े काव्य हैं। 'विकट भट' में जोधपुर के एक राजपूत सरदार की तीन पीढ़ियों तक चलनेवाली बात की टेक की अद्भुत पराक्रमपूर्ण कथा है। 'गुरुकुल' में सिख गुरुओं के महत्त्व का वर्णन है। छोटे काव्यों में 'जयद्रथ-वध' और 'पंचवटी' का स्मरण अधिकतर लोगों को [ ६१६ ]है। गुरुजी के छोटे काव्यों की प्रसंग-योजना भी प्रभावशालिनी है और भाषा भी बहुत साफ सुथरी है।

'वैतालिक' की रचना उस समय हुई जब गुरुजी की प्रवृत्ति खड़ी बोली में गीत काव्य प्रस्तुत करने की ओर भी हो गई।

यद्यपि गुप्तजी जगत् और जीवन के व्यक्त क्षेत्र में ही महत्व और सौंदर्य का दर्शन करनेवाले तथा अपने राम को लोक के बीच अधिष्ठित देखनेवाले कवि हैं, पर तृतीय उत्थान में 'छायावाद' के नाम से रहस्यात्मक कविताओं का कलरव सुन इन्होंने भी कुछ गीत रहस्यवादियों के स्वर में गाए जो 'झंकार' से संगृहीत हैं। पर असीम के प्रति उत्कंठा और लंबी-चौड़ी वेदना का विचित्र प्रदर्शन गुप्तजी की अंतः प्रेरित प्रवृत्ति के अंतर्गत नहीं। काव्य का एक मार्ग चलता देख ये उधर भी जा पड़े।

'साकेत' और 'यशोधरा' इनके दो बड़े प्रबंध है। दोनों में-उनके काव्यत्व का तो पूरा विकास दिखाई पड़ता है, पर प्रबंधत्व की कमी हैं। बात यह है कि इनकी रचना उस समय हुई जब गुरुजी की प्रवृत्ति गीतकाव्य या नए ढंग के गीत मुक्तकों (Lyrics) की ओर हो चुकी थी। 'साकेत' की रचना तो मुख्यतः इस उद्देश्य से हुई कि उर्मिला 'काव्य की उपेक्षिता' न रह जाय। पूरे दो सर्ग (९ और १०) उसके वियोग-वर्णन में खप गए हैं। इस वियोग-वर्णन के भीतर कवि ने पुरानी पद्धति के आलंकारिक चमत्कारपूर्ण पद्य तथा आजकल की नई रंगत की वेदना और लाक्षणिक वैचित्र्यवाले गीत दोनों रखे हैं। काव्य का नाम 'साकेत' रखा गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि इसमें अयोध्या में होनेवाली घटनाओं और परिस्थितियों का ही वर्णन प्रधान है। राम के अभिषेक की तैयारी मे लेकर चित्रकूट में राम-भरत-मिलन तक की कथा आठ सर्गो तक चलती है। इसके उपरांत दो सर्गो तक उर्मिला की वियोगावस्था की नाना अंतर्वत्तियों का विस्तार हैं जिसके बीच बीच में अत्यंत उच्च भावों की व्यंजना है। सूरदास की गोपियाँ वियोग में कहती है कि––

मधुबन तुम कत रहत हरे?
बिरह-वियोग श्यामसुंदर के काहे न उकठि परे?

[ ६१७ ]पर उर्मिला कहती है––

रह चिर दिन तू हरी भरी ,
बढ़ सुख से बढ़, सृष्टि सुंदरी?

प्रेम के शुभ प्रभाव से उर्मिला के हृदय की उदारता का और भी प्रसार हो गया है। वियोग की दशा में प्रिय लक्ष्मण के गौरव की भावना उसे सँभाले हुए है। उन्माद की अवस्था में जब लक्ष्मण उसे सामने खड़े जान पड़ते हैं तब उस भावना को गहरा आघात पहुँचता है, और वह व्याकुल होकर कहने लगती है––

प्रभु नही फिरे, क्या तुम्हीं फिरे?
हम गिरे, अहो! तों गिरे, गिरे।

दंडकारण्य से लेकर लंका तक की घटनाएँ शत्रुघ्न के मुँह से मांडवी और भरत के सामने पूरी रसात्मकता के साथ वर्णन कराई गई हैं। रामायण के भिन्न भिन्न पात्रों के परंपरा से प्रतिष्ठित स्वरूपों को विकृत न करके उनके भीतर ही आधुनिक आंदोलनों की भावनाएँ––जैसे किसानों और श्रमजीवियों के साथ सहानुभूति, युद्ध-प्रथा की मीमांसा, राज्य-व्यवस्था में प्रजा का अधिकार और सत्याग्रह, विश्वबंधुत्व, मनुष्यत्व––कौशल के साथ झलकाई गई हैं। किसी पौराणिक या ऐतिहासिक पात्र के परंपरा से प्रतिष्ठित स्वरूप को मनमाने ढंग पर विकृत करना हम भारी, अनाड़ीपन समझते है।

'यशोधरा' को रचना नाटकीय ढंग पर है। उसमे भगवान् बुद्ध के चरित्र से संबंध रखनेवाले पात्रों के उच्च और सुंदर भावों की व्यंजना और परस्पर कथोपकथन हैं, जिनमें कहीं कहीं गद्य भी हैं। भाव-व्यंजना प्रायः गीतों में है।

'द्वापर' में यशोदा, राधा, नारद, कंस, कुब्जा इत्यादि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की मनोवृत्तियों का अलग अलग मार्मिक चित्रण है। नारद और कंस की मनोवृत्तियों के स्वरूप तो बहुत ही विशद और समन्वित रूप में सामने रखे गए हैं।

गुप्तजीने 'अनघ', 'तिलोत्तमा' और 'चंद्रहास' नामक तीन छोटे छोटे पद्यबद्ध रूपक भी लिखे हैं। 'अनघ' में कवि ने लोक-व्यवस्था के संबंध में उठी [ ६१८ ]हुई आधुनिक भावनाओं और विचारों का अवस्थान––प्राचीनकाल के भीतर ले जाकर किया है। वर्तमान किसान आंदोलन का रंग प्रधान है।

गुप्तजी की प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात् उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्य-प्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। इस दृष्टि से हिंदी-भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि ये निसंदेह कहे जा सकते हैं। भारतेंदु के समय से स्वदेश-प्रेम की भावना जिस रूप में चली आ रही थी उसका विकास 'भारत-भारती' में मिलता है। इधर के राजनीतिक आंदोलनों ने जो रूप धारण किया उसका पूरा आभास पिछली रचनाओं में मिलता है। सत्याग्रह, अहिंसा, मनुष्यत्ववाद, विश्वप्रेम,किसानों और श्रमजीवियों के प्रति प्रेम और सम्मान सबकी झलक हम पाते हैं।

गुप्तजी की रचनाओं के भीतर तीन अवस्थाएँ लक्षित होती हैं। प्रथम अवस्था भाषा की सफाई की है जिसमें खड़ी बोली के पद्यों की मंसुणबंध रचना हमारे सामने आती हैं। 'सरस्वती' में प्रकाशित अधिकांश कविताएँ तथा 'भारत-भारती' इसे अवस्था की रचना के उदाहरण हैं। ये रचनाएँ काव्य प्रेमियों को कुछ गद्यवत्, रूखी और इतिवृत्तात्मक लगती थीं। इनसे सरस और कोमल पदावली की कमी भी खटकती थी। बात यह है कि यह खड़ी बोली के परिमार्जन का काल था। इसके अनंतर गुप्तजी ने बंगभाषा की कविताओं का अनुशीलन तथा मधुसूदन दत्त रचित ब्रजागंना, मेघनाद-बध आदि का अनुवाद भी किया। इससे इनकी पदावली में बहुत कुछ सरसता और कोमलता आई, यद्यपि कुछ ऊबड़-खाबड़ और अव्यवह्यत संस्कृत शब्दों की ठोकरें कहीं कहीं, विशेषतः छोटे छंदों के चरणांत में, अब भी लगती है। 'भारत-भारती' और 'बैतालिक' के बीच की रचनाएँ इस दूसरी अवस्था के उदारहण में ली जा सकती हैं। उसके उपरांत 'छायावाद' कही जानेवाली कविताओं का चलन होता है और गुप्तजी का कुछ झुकाव प्रगीत मुक्तकों (Lyrics) और अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य की ओर भी हो जाता हैं। इस झुकाव का आभास 'साकेत' और 'यशोधरा' में भी पाया जाता हैं। यह तीसरी अवस्था है।

गुप्तजी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं; प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करनेवाले [ ६१९ ]अथवा मद में झूमने (या 'झीमने') वाले कवि नहीं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होनेवाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह, दोनों इनमें हैं। इनकी रचना के कई प्रकार के नमूने नीचे दिए जाते हैं––

क्षत्रिय! सुनो, अब तो कुयश की कालिमा को मेट दो।
निज-देश को जीवन सहित तन मन तथा धन भेंट दो।
वैश्यो! सुनो व्यापार सार मिट चुका है देश का।
सब धन विदेशी हर रहे हैं, पार है क्या क्लेश का?

(भारत-भारती)


थे, हो और रहोगे जब तुम, थी, हूँ और सदैव रहूँगी।
कल निर्मल जल की धारा सी आज यहाँ, कल वहाँ बहूँगी।
दूती! बैठी हूँ सज कर मैं।
ले चल शीघ्र मिलूँ प्रियतम से धाम धरा धन सब तज कर मैं।

****

अच्छी आँख-मिचौनी खेली!
बार बार तुम छिपो और मैं खोजूँ तुम्हें अकेली।

****

निकल रही है उर से आह।
ताक रहे सब तेरी राह।

चातक खड़ा चोंच खोले है, संपुट खोले सीप खड़ी,
मैं अपना घट लिए खड़ी हूँ, अपनी अपनी हमें पड़ी।

(झंकार)


पहले आँखों में थे, मानस में कूद मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वही उड़े थे, बड़े-बड़े अश्रु वे कब थे।

****

[ ६२० ]

सखी, नील नभस्सर से उतरा यह हंस अहा! तरता तरता।
अह तारक-मौक्तिक शेष नहीं, निकला जिनको चरता चरता।
अपने हिमबिंदु बचे तब भी चलता उनको धरता धरता।
गढ़ जायँ न कटक भूतल के, कर डाल रही ढरता डरता।
आकाशजाल सब ओर तना, रवि तंतुवाय है आज बना;
करता है पद-प्रहार वही, मक्खी सी भिन्ना रही मही।

घटना हो चाहे घटा, उठ नीचे से नित्य।
आती है ऊपर, सखी! छा कर चंद्रादित्य॥
इंद्रवधू अपने लगी क्यों निज स्वर्ग विहाय।
नन्हीं दूबों का हृदय निकल पड़ा यह हाय॥
इस उत्पल से काय में, हाय! उबल से प्राण।
रहने दे बक ध्यान यह, पावें ये दृग त्राण॥
xxxx

वेदने! तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
अरी वियोग-समाधि अनोखी, तू क्या, ठीक ठनी।
अपने को, प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची तनी।
xxxx

हा! मेरे कुंजों का कूजन रोकर, निराश होकर सोया।
वह चंद्रोदय उसको उढ़ा रहा है धवल वसन-सा धोया॥
xxxx

सखि, निरख नदी की धारा,
ढलमल ढलमल चंचल अंचल, झलमल झलमल तारा।
निर्मल जल अंतस्तल भरके, उछल उछल कर छल छल करके,
थल थल तर के, कल कल धर के बिखरती है पारा।
xxxx

ओ मेरे मानस के हास! खिल सहस्रदल, सरस सुवास।
xxxx

[ ६२१ ]

स्वजनि, रोता है और गान।
प्रिय तक नहीं पहुँच पाती है उसकी कोई तान।
xxxx
बस इसी प्रिय-कानन-कुंज में––मिलन भाषण के स्मृति पुंज में––
अभय छोड़ मुझे तुम दीजियो, हसन-रोदन से न पसीजियों।

('साकेत')

स्वर्गीय पं॰ रामचरित उपाध्याय का जन्म सं॰ १९२९ में गाजीपुर में हुआ था, पर पिछले दिनों में वे आजमगढ़ के पास एक गाँव में रहने लगे थे। कुछ वर्ष हुए,उनका देहांत हो गया। वे संस्कृत के अच्छे पंडित ये और पहले पुराने ढंग की हिंदी-कविता की ओर उनकी रुचि थी। पीछे 'सरस्वती' में जब खड़ी बोली की कविताएँ निकलने लगीं तब वे नए ढंग की रचना की ओर बढ़े और द्विवेदीजी के प्रोत्साहन से बराबर उक्त पत्रिका में अपनी रचनाएँ भेजते रहे। 'राष्ट्र-भारती', 'देवदूत', 'देवसभा', 'देवी द्रौपदी', 'भारत भक्ति', 'विचित्र विवाह' इत्यादि अनेक कविताएँ उन्होंने खड़ी बोली में लिखी है। छोटी कविताएँ अधिकतर विदग्ध भाषण के रूप में हैं। 'रामचरित-चिंतामणि' नामक एक बड़ा प्रबंधकाव्य भी उन्होंने लिखा है जिसके कई एक प्रसंग बहुत सुंदर बन पढ़े है जैसे––'अंगद-रावण-संवाद'। भाषा उनकी साफ होती थी और कुछ वैदग्ध्य के साथ चलती थी। अंगद-रावण-संवाद की ये पंक्तियाँ देखिए––

कुशल से रहना यदि है तुम्हे, दनुज! तो फिर गर्व न कीजिए।
शरण में गिरिए रघुनाथ के; निबल के बल केवल राम हैं।
xxxx
सुन कपे! यम इद्र, कुबेर की न हिलती रसना 'मम' सामने।
तदपि आज मुझे करना पड़ा मनुज-सेवक से बकवाद भी।
यदि कपे! मम राक्षस-राज को स्तवन हे तुझसे न किया गया।
कुछ नहीं डर है; पर क्यों वृथा निलज। मानव-मान बढ़ा रहा?

दूसरे संस्कृत के विद्वान् जिनकी कविताएँ 'सरस्वती' में बराबर छपती रहीं [ ६२२ ]झालरापाटन के पं॰ गिरिधर शर्मा नवरत्न है। 'सरस्वती' के अतिरिक्त हिंदी के और पत्रों तथा पत्रिकाओं में भी ये अपनी कविताएँ भेजते रहे। राजपूताने से निकलनेवाले 'विद्याभास्कर' नामक एक पत्र का संपादन भी इन्होंने कुछ दिन किया था। मालवा और राजपूताने में हिंदी-साहित्य के प्रचार में इन्होंने बड़ा काम किया हैं। नवरत्न जी संस्कृत के भी अच्छे कवि हैं। गोल्डस्मिथ के Hermit या 'एकांतवासी योगी' का इन्होंने संस्कृत श्लोकों में अनुवाद किया है। हिंदी में भी इनकी रचनाएँ कम नहीं। कुछ पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त अनुवाद भी कई पुस्तकों का किया है। रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' का हिंदी- पद्यों में इनका अनुवाद बहुत पहले निकला था। माघ के 'शिशुपाल-बध' के दो सर्गो का अनुवाद 'हिंदी माघ' के नाम से इन्होंने संवत् १९८५ में किया था। पहले थे ब्रजभाषा के कवित्त आदि रचते थे जिनमे कहीं कहीं खड़ी बोली का भी आभास रहता था। शुद्ध खड़ी बोली के भी कुछ कवित्त इनके मिलते है। 'सरस्वती' में प्रकाशित इनकी कविताएँ अधिकतर इतिवृत्तात्मक या गद्यवत् हैं, जैसे––

मैं जो नया ग्रंथ विलोकता हूँ, भाता मुझे सो नव मित्र सा है।
देखूँ उसे मैं नित बार बार, मानों मिला मित्र मुझे पुराना॥
'ब्राह्मन्, तजो पुस्तक-प्रेम आप, देता अभी हूँ यह राज्य सारा।'
कहे मुझे यों यदि चक्रवती, एसा न राजन्! कहिए', कहूँ मैं॥

पं॰ लोचनप्रसाद पांडेय बहुत छोटी अवस्था से कविता करने लगे थे। संवत् १९६२ से इनकी कविताएँ 'सरस्वती' तथा और मासिक पत्रिकाओं में निकलने लगी थीं। इनकी रचनाएँ कई ढंग की हैं–कथा-प्रबंध के रूप में भी और फुटकल प्रसंग के रूप में भी। चित्तौड़ के भीमसिंह के अपूर्व स्वत्वत्याग की कथा नंददास की रासपंचाध्यायी के ढंग पर इन्होंने लिखी है। "मृग दुःखमोचन" में इन्होंने खड़ी बोली के सवैयों में एक मृगी की अत्यंत दारुण परिस्थिति का वर्णन सरस भाषा में किया है जिससे-पशुओं तक पहुँचनेवाली इनकी व्यापक और सर्वभूत-दयापूर्ण काव्यदृष्टि का पता चलता है। इनका हृदय कहीं कहीं पेड़ो-पौधो तक की दशा का मार्मिक अनुभव करता पाया [ ६२३ ]जाता है। यह भावुकता इनकी अपनी है। भाषा की गद्यवत् सरल सीधी गति उस रचना-प्रवृत्ति का पता देती है जो द्विवेदीजी के प्रभाव से उत्पन्न हुई थी। पर इनकी रचनाओं में खड़ी बोली की वैसा स्वच्छ और निखरा रूप नहीं मिलता जैसा गुप्तजी की उस समय की रचनाओं में मिलता है। कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं––

चढ़ जाते पहाड़ों में जाके कभी, कभी झाड़ों के नीचे फिरे विचरें।
कभी कोमल पत्तियाँ खाया करें, कभी मीठी हरी हरी घास चरें॥
सरिता-जल में प्रतिबिंब लखें निज, शुद्ध कहीं जल पान करें।
कहीं मुग्ध हो झर्झर निर्भर से तरु-कुंज में जो तप-ताप हरें॥
रहती जहाँ शाल रसाल तमाल के पादपों की अति छाया घनी।
चर के तृण आते, थके वहाँ बैठते थे मृग औ उसकी घरनी॥
पगुराते हुए दृग मूँदे हुए वे मिटाते थकावट थे अपनी।
खुर से कभी कान खुजाते, कभी सिर सींग पै धारते थे टहनी॥

(मृगीदुःखमोचन)


सुमन विटप वल्ली काल की क्रूरता से।
झुलस जब रही थीं ग्रीष्म की उग्रता से॥
उस कुसमय में हा! भाग्य-आकास तेरा।
अयि नव लतिके! था घोर आपत्ति-घेरा॥
अब तव बुझता था जीवलोक तेरा।
यह लख उर होता दुःख से दग्ध मेरा॥

इन प्रसिद्ध कवियों अतिरिक्त और न जाने कितने कवियों ने खड़ी बोली में फुटकल कविताएँ लिखीं जिनपर द्विवेदीजी का प्रभाव स्पष्ट झलकता था। ऐसी कविताओं से मासिक पत्रिकाएँ भी रहती थी। जो कविता को अपने से दूर की वस्तु समझते थे वे भी गद्य में चलनेवाली भाषा को पद्यबद्ध करने का अभ्यास करने लगे। उनकी रचनाएँ बराबर प्रकाशित होने लगीं। उनके संबंध में यह स्पष्ट समझ रखना चाहिए कि वे अधिकतर इतिवृत्तात्मक गद्य[ ६२४ ]निबंध के रूप में होती थीं। फल इसका यह हुआ काव्य-प्रेमियों को उनमें काव्यत्व नहीं दिखाई पड़ता था और वे खड़ी बोली की अधिकांश कविता को 'तुकबंदी' मात्र समझते लगे थे। आगे चलकर तृतीय उत्थान में इस परिस्थिति के विरुद्ध गहरा प्रतिवर्तन (Reaction) हुआ।

यहाँ तक तो उन कवियों का उल्लेख हुआ जिन्होंने द्विवेदीजी के प्रोत्साहन से अथवा उनके आदर्श के अनुकून रचनाएँ कीं पर इस द्वितीय उत्थान के भीतर अनेक ऐसे कवि भी बराबर अपनी वाग्धारा बहाते रहे जो अपना स्वतंत्र मार्ग पहले से निकाल चुके थे और जिनपर द्विवेदी जी का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता।



द्विवेदी-मंडल के बाहर की काव्य-भूमि

द्विवेदीजी के प्रभाव से हिंदी-काव्य ने जो स्वरूप प्राप्त किया उसके अतिरिक्त और अनेक रूपों में भी भिन्न भिन्न कवियों की काव्य-धारा चलती रही। कई एक बहुत अच्छे कवि अपने अपने ढंग पर सरस और प्रभावपूर्ण कविता करते रहे जिनमें मुख्य राय देवीप्रसाद 'पूर्ण', पं॰ नाथूराम शंकर शर्मा, पं॰ गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही', पं॰ सत्यनारायण कविरत्न लाला भगवानदीन, पं॰ रामनरेश त्रिपाठी, पं॰ रूपनारायण पांडेय हैं।

इन कवियों में से अधिकांश तो दो-रंगी कवि थे जो ब्रजभाषा में तो शृंगार वीर, भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता कवित्त-सवैयों या गेय पदों में करते आते थे और खड़ी बोली में नूतन विषयों को लेकर चलते थे। बात यह थी कि खड़ी बोली का प्रचार बराबर बढ़ता दिखाई देता था और काव्य के प्रवाह के लिये कुछ नई नई भूमियाँ भी दिखाई पड़ती थीं। देश-दशा, समाज-दशा, स्वदेश-प्रेम, आचरण-संबंधी उपदेश आदि ही तक नई धारा की कविता न रहकर जीवन के कुछ और पक्षों की ओर भी बढ़ी , पर गहराई के साथ नहीं। त्याग, वीरता, उदारता, सहिष्णुता इत्यादि के अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंग पद्यबद्ध हुए जिनके बीच बीच में जन्मभूमि-प्रेम, स्वजाति-गौरव, आत्म-संमान की व्यंजन करने वाले जोशीले भाषण