लेखाञ्जलि/८—उत्तरी ध्रुव की यात्रा और वहाँ की स्कीमो जाति

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८—उत्तरी ध्रुवकी यात्रा।
और
वहांकी स्कीमो जाति।

उत्तरी ध्रुव तक पहुँचनेकी कोशिश बहुत समयसे हो रही है। पीरी, अमन्दसन और नानसन आदि कितने ही साहसी यात्री, समय-समयपर, उसका पता लगानेके लिये उस तरफ़ जा चुके हैं। पर अभीतक पूर्ण सफलता किसीको नहीं प्राप्त हुई। कुछ लोग बहुत दूर तक पहुँच गये हैं, कुछ थोड़ी ही दूरतक। उनके अनुभवोंसे पश्चाद्वर्ती यात्रियोंने विशेष लाभ उठाया है और आशा है कि अब कोई-न-कोई भाग्यवान् पुरुष ठेठ ध्रुवप्रदेशमें मेख गाड़े और वहाँपर अपने देशका झण्डा उड़ाये बिना न रहेगा। सतत उद्योग करनेसे सफलता अवश्य ही मिलती है। अभी हालमें भी एक साहब ध्रुवपर चढ़ाई करने गये थे। पर सुनते हैं, बीचहीमें कहीं वे अटक रहे और बहुत दिन बाद वहाँके बर्फसे छुटकारा पानेपर अब वे लौट रहे हैं। [ ५९ ]

ध्रुव-प्रदेशके इन यात्रियोंने अपनी-अपनी यात्राओंका वर्णन लिखकर प्रकाशित किया है और उस प्रदेशमें रहनेवाली स्कीमो नामक मनुष्य-जातिके विषयमें भी अनेक ज्ञातव्य बातें लिखी हैं। क्योंकि इन लोगोंकी सहायताके बिना अन्यदेशवासी ध्रुव-प्रदेशमें अधिक दूरतक नहीं जा सकते। इन्हीं लोगोंके वर्णनोंके आधारपर, नीचे, हम उत्तरी ध्रुवकी यात्रा और वहाँके निवासियोंके विषयमें कुछ बातें लिखते हैं— पृथ्वीके उत्तरी छोरको उत्तरी ध्रुव कहते हैं। उसके आप-पास ज़मीन बिलकुल नहीं; चारों तरफ़ समुद्र-ही-समुद्र है। पर उसमें प्रायः पानी नहीं। बहुत करके सर्वत्र जमी हुई बर्फकी राशियाँ-ही-राशियों हैं। यह बर्फ भी सब कहीं एकसी, अर्थात् सम, नहीं। कहीं वह सैकड़ों फुट ऊँची है और कहीं दो-ही-चार फुट। वहां खाद्य पदार्थका कहीं पता नहीं कोई चीज़ उत्पन्न ही नहीं होती। जो लोग ध्रुवप्रदेशकी यात्रा करने जाते हैं वे खानेपीनेका सारा सामान अपने साथ ले जाते हैं। यह सामान वे एक प्रकारकी गाड़ियोंपर ले जाते हैं। ये गाड़ियां बर्फपर फिसलती हुई चलती हैं। संसारके अन्य देशोंकी अपेक्षा ग्रीनलैंड नामका टापू उत्तरी ध्रुवके अधिक पास है। वहींके कुत्ते इन गाड़ियों को खींचते या घसीटते हैं। भूमि छोड़नेपर कोई चार-पांच सौ मील बर्फपर ही चलना पड़ता है। बीचमें यदि कहीं पानी मिल जाता है तो बड़ी दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। जबतक पानी जमकर कठोर बर्फके रूपमें नहीं हो जाता तबतक उसे पैदल पार करना असम्भव हो जाता है। [ ६० ]ध्रुव-प्रदेशमें सरदी इतनी अधिक पड़ती है कि थर्मामीटरका पारा शून्यके नीचे १० से ५५ अंश (डिग्री) तक उतर जाता है। सरदीके कारण मिट्टीका तेल तक जम जाता है और शराब गाढ़ी हो जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यात्रीलोग, सामुद्रिक पानी मिलनेपर, उसके जम जानेकी प्रतीक्षा नहीं करते। वे अपना माल-असबाब वहीं कहीं छोड़ देते हैं और तैर कर पानीको पार करते हैं। कहींकहीं बर्फकी तह बहुत पतली होती है। ऐसी जगह चलना बड़ा ही भयङ्कर है। यदि वह तह मनुष्यके बोझसे टूट जाय तो मनुष्य वहीं अथाह सागरमें समा जाय। फिर उसकी प्राण-रक्षा किसी भी तरह नहीं हो सकती।

जो लोग उत्तरी ध्रुवकी यात्राके लिये निकलते हैं वे जहाज़पर ग्रीनलैंड पहुँचते हैं। वहाँसे कुछ दूर आगेतक भी वे जहाज़पर जा सकते हैं। राहमें उन्हें पानी-ही-पानी नहीं दिखाई देता। बर्फ़ के बड़ेबड़े पहाड़ पानीपर तैरते हुए दिखाई देते हैं। कहीं-कहीं तो बर्फकी इतनी अधिकता हो जाती है कि बिना उसे तोड़े जहाज़ आगे बढ़ ही नहीं सकता। और, फिर, जो कहीं सरदीके कारण समुद्रका पानी जम गया और जहाज़ वहीं फँश गया तो जहाज़वालोंकी जान गई ही समझिये।

अद्भुत सहन-शक्ति रखनेवाले बलवान् मनुष्य ही ध्रुव-प्रदेशकी यात्रा कर सकते हैं। साधारण सरदीसे भी बीमार हो जानेवाले मनुष्य इस यात्राके योग्य नहीं। लोमश चमड़ेके मोटे-मोटे कपड़े ही वहाँ काम दे सकते हैं। उनके भी ऊपर, पानीसे बचनेके लिए, एक ऐसा [ ६१ ]ओवरकोट (Overcoat) पहनना पड़ता है जिसके भीतर पानी न प्रवेश कर सके। फिर भी यदि शरीरका कोई भाग खुला रह गया तो सरदी अपना काम किये बिना नहीं रहती और मनुष्यकी जानके लाले पड़ जाते हैं। यदि राहमें जूता फट जाय। और दूसरा जूता पास न हो तो भी खै़र नहीं। जब बर्फका तूफ़ान ज़ोरोंसे चलता है तब यात्रियोंकी नाकसे खून बहने लगता है। हवा बहुत ज़ियादह ठण्डी होने और तेज़ीसे चलनेसे भी कभी-कभी मनुष्य मर जाता है। जब आदमीको सरदी लग जाती है तब उसे नींद बहुत आती है। उस समय यदि वह सो जाय तो उसके शरीरवर्ती रुधिरकी गति बन्द हो जाय और वह मर जाय।

प्रतिदिन यात्री कोई २० मीलकी यात्रा कर सकता है, अधिक नहीं। जहाँ ठहरना होता है वहां बर्फके झोंपड़े बना लिये जाते हैं। उनके भीतर यात्री तेल और स्पिरिट (spirit) की सहायतासे आग जलाते और उसपर चाय तैयार करते हैं। वहाँ पानी तो मिलता ही नहीं। आगसे बर्फ गलाकर ही पानी बनाया जाता है। रहनेके लिए बनाया गया बर्फका झोंपड़ा भी निरापद नहीं। उसे भी विपत्तिका घर ही समझना चाहिये। उसके नीचे यदि समुद्र हो और उसके ऊपरकी बर्फकी तह पतली हो, तो उसके फटनेका डर रहता है। यदि वह फट पड़े तो झोंपड़ोंके भीतर विश्राम करनेवाले यात्रियोंका फिर कहीं पता न मिले। ध्रुव-प्रदेशमें हमारे यहाँकी तरह दिन और रात नहीं होती। सालभरमें केवल एक ही दिन और एक ही रात होती है—अर्थात् छः [ ६२ ]महीनेका दिन और छः महीनेकी रात। घड़ी देखकर ही वहाँ समयका अन्दाजा लगाया जाता और दिन-रातका अनुमान किया जाता है। सूर्यके प्रकाशसे चारों ओर फैली हुई बर्फकी राशियां जगमगाया करती हैं। यदि यात्री हरे रङ्गके ऐनक लगाकर इस चमकसे अपने नेत्रोंकी रक्षा न करे तो वह अन्धा हो जाय।

उत्तरी ध्रुवके पास पहुँच जानेवालेको दिशाओंका ज्ञान नहीं होता। उसको उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम, सभी दिशाएँ एकसी जान पड़ती हैं। वह जिस ओर जायगा उसे वह दक्षिण ही कहेगा। बात यह है कि सूर्य आकाशके मध्यबिन्दुके पास गोलाकार घूमा करता है। इसी कारण उत्तरी ध्रुवके पास पहुँचनेवाले यात्रीको सभी दिशाएं दक्षिण-ही-सी जान पड़ती हैं।

उत्तरी ध्रुवमें जब दिन होता है तब सर्वत्र प्रकाश-ही-प्रकाश दिखाई पड़ता है, और जब रात होती है तब भयङ्कर अन्धकारके अतिरिक्त और कुछ नहीं नज़र आता।

इस प्रदेशमें मनुष्यका नाम नहीं और वृक्षों तथा वनस्पतियोंका कहीं निशान तक नहीं। चारों ओर बर्फ और, दिन हुआ तो, प्रकाशके सिवा और कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। अतिशय शीत और बर्फ के विकट तूफ़ानोंका सदा राज्य रहता है। पर पाश्चात्य देशोंके उत्साही, साहसी और कष्ट-सहिष्णु अनुसन्धान-कर्त्ताओंके वर्षों के निरन्तर परिश्रमकी बदौलत यह प्रदेश अब पहलेकी तरह दुर्भेद्य और दुर्गम नहीं रह गया। अब तो, कुछ समयसे, खोज करनेवालोंका एक-न-एक दल वहां जाया ही करता है। [ ६३ ]

उत्तरी ध्रुव-प्रदेशका समुद्र बहुत गहरा है। पांच-पांच सात-सात सौ गज़ नीचेतक भूमिका कहीं पता नहीं। यदि वहां समुद्र न होता, भूमि होती, तो वहाँकी यात्रा इतनी कठिन न होती। जब जाड़ा ख़ूब पड़ने लगता है तब समुद्र जम जाता है। इसीसे जाड़ोंहीमें यात्रा करना सुभीतेका होता है। गरमियोंमें यात्रा करना जान खतरेमें डालना है। गरमीके दिनोंमें बर्फ गलकर पानी हो जाती है और जहाँ नहीं भी गलती वहाँ इतनी पतली पड़ जाती है कि थोड़ा भी बोझ या दबाव पड़नेपर टूट जाती है।

ध्रुव-प्रदेशमें २३ सितम्बरको सूर्य्य अस्त हो जाता है और २१ मार्चतक अस्त रहता है। इस समय, एक-दो-महीने आगे-पीछे सायङ्कालके सदृश अस्तकाल और अरुणोदय रहता है। अर्थात् उसी तरहका धूमिल प्रकाश रहता है जिस तरहका कि अन्यत्र सायं-प्रातः देखा जाता है। हाँ, बीचके तीन महीनोंमें बिलकुल ही अन्धकार रहता है। तबतक उत्तरी ध्रुवमें जाड़ेका मौसिम समझा जाता है। लोग इसी जाड़े के पिछले भागमें ध्रुव-यात्रा करते हैं। उन्हें सब काम अधिकतर अँधेरेहीमें करना पड़ता है। उस समय उनको घड़ीसे बड़ी सहायता मिलती है। जिस मनुष्यने अंधेरेमें दो-चार दिन भी बिताये हों वही सूर्य्यके प्रकाशका महत्त्व अच्छी तरह समझ सकता है। ध्रुवके आस-पास, स्वच्छ आकाशमें तारोंका प्रकाश भी भयदायक मालूम होता है। हर महीने सिर्फ़ दस-बारह दिन निशानायकके दर्शन होते हैं। इतने दिन वह अस्त नहीं होता; हाँ, घटता-बढ़ता ज़रूर रहता है। वहीं चांदनीमें इधर-उधर घूमना भी खतरेसे खाली [ ६४ ]नहीं। कहीं बादल घिर आये तो चन्द्रिका छिप जाती है और घूमनेवालोंको रास्ता भूल जानेका बड़ा डर रहता है। चन्द्रके आस-पास बहुधा परिधि-मण्डल और कहीं-कहीं इन्द्रधनुष भी देख पड़ते हैं। कभी-कभी एक नहीं अनेक—सात-सात, आठ-आठ—झूठे चन्द्रमा भी दिखाई दे जाते हैं। चन्द्रमाकी किरणें बर्फ़ पर ठेढ़ी होकर पड़नेसे ये अलीक चन्द्र दिखाई पड़ते हैं।

ग्रीनलेंडके उत्तरी किनारेकी सरदी और गरमीसे ही उत्तरी ध्रुव की सरदी और गरमीका अन्दाज़ा किया जाता है। वहाँ कम-से-कम दिसम्बरमें शून्यके नीचे ५३ अंशतक सरदी और ज़ियादहसे ज़ियादह जूनमें शून्यके ऊपर ५२ अंशत गरमी पड़ती है। यह गरमी हमारे देशमें कड़ाकेके जाड़ोंके दिनोंकी-सी होती है। जाड़ोंमें यात्रियों को विशेष कष्ट नहीं होता परन्तु सरदीमें रहनेके कारण गरमियोंमें उन्हें ज़रा-सी भी गरमी बरदाश्त नहीं होती।

ध्रुव-प्रदेशमें वर्षा नहीं होती। न कभी बादल गरजते हैं और न कभी बिजली ही चमकती है। बर्फके तूफ़ान अलबत्ते खूब आया करते हैं।

इस प्रदेशमें कोई भी खाद्य-पदार्थ नहीं होता। जो लोग वहाँ जाते हैं वे चाय, जमा हुआ दूध, मांस, बिसकुट और अन्य पदार्थ सब अपने साथ ले जाते हैं। शराब पीनेसे वहाँ बड़ी हानि पहुँचती है। वहाँ हर मनुष्यको प्रतिदिन कोई आध सेर मांस, आध सेर बिसकुट, आध पाव जमा हुआ दूध और एक तोले चाय दरकार होती है। कुत्तों के लिए मांस और आग जलानेके लिए तेलकी भी ज़रूरत होती है। [ ६५ ]भोजनका ठीक प्रबन्ध न होनेके कारण यात्रियोंको बहुधा बड़ी-बड़ी विपत्तियोंका सामना करना पड़ता है। खाद्य पदार्थ चुक जानेसे कितने ही यात्रियों को अपने प्राणोंतकसे हाथ धोना पड़ता है। ऐसा भी हुआ है कि भूखके मारे लोग अपने कुत्तेतक मारकर खा गये हैं।

उत्तरी ध्रुवके पास ही, ग्रीनलैंडमें, स्कीमो नामकी एक मनुष्यजाति रहती है। यात्रामें इस जातिके मनुष्योंसे यात्रियों को बहुत सहायता मिलती है। बात तो यह है कि इन लोगों की सहायता बिना, सभ्य संसारका कोई मनुष्य इस प्रदेशकी यात्रा कर ही नहीं सकता। ये लोग उसी प्रदेशके रहनेवाले हैं और यहांकी भूमिके एक एक टुकड़ेसे जानकारी रखते हैं। इन लोगोंकी रहन-सहनका ढङ्ग बड़ा ही विचित्र है। सुनिये—

स्कीमो एक जगह टिककर कभी नहीं रहते। वे इधर-उधर घूमते ही फिरते हैं। आज यहाँ हैं तो कल वहाँ। माल-असबाब भी उनके पास बहुत नहीं होता। उनका रूप-रङ्ग मङ्गोल-जातिके आदमियोंसे कुछ-कुछ मिलता है। अन्तर इतना ज़रूर है कि वे रङ्गमें उतने गोरे नहीं होते। पुरातत्त्ववेत्ता लोगोंका ख़याल है कि स्कीमो लोग वहाँ किसी समय साइबेरियासे आये होंगे। जाड़ोंमें वे लोग मिट्टी और पत्थरके घर बनाते और उन्हींमें रहते हैं। परन्तु शीत कम होते ही वे अपने घर छोड़ देते और सील-नामक मछलीके चमड़ेके बने हुए तम्बुओंमें रहने लगते हैं। ग्रीनलैंडमें कस्तूरी-वृष (Musk Oxen) नामका एक जानवर होता है। वे उसका तथा वहाँके सफेद रीछ, खरगोश, हिरन आदि जानवरोंका शिकार करते [ ६६ ]और उन्हींके मांससे अपना उदर-पोषण करते हैं। वे वालरस (Wallrus) और ह्वेल नामके समुद्री जीवोंका भी शिकार खेलते और उनका भी मांस खाते हैं। उस मांसको वे अपने कुत्तोंको भी खिलाते हैं।

स्कीमो-जातिके लोगोंका कोई धर्म नहीं। हाँ, भूत-प्रेतोंको वे ज़रूर मानते और उनसे डरते भी बहुत हैं। अपने बच्चों और बूढ़ोंकी वे खूब सेवा करते हैं। साफ रहना तो वे जानते ही नहीं। वे शायद ही कभी नहाते हों। जब शरीरपर बहुत मैल जम जाता है तब तेल मलकर उसे थोड़ा-थोड़ा करके उखाड़ डालते हैं। यात्रीलोग वस्त्र, तम्बू, बर्तन आदि चीज़ोंका प्रलोभन देकर उनसे अपना काम निकालते हैं। उन्हें अन्य चीज़ोंकी ज़रूरत भी नहीं। उनकी भाषा विचित्र है। वह किसी भी अन्य भाषासे नहीं मिलती।

स्कीमो लोग अपने ही बनाये हुए घरपर अपना हक़ नहीं समझते। कोई भी जाकर उसमें रह सकता है। ज़मीन खोदकर उसके भीतर घर बनाये जाते हैं। घरके भीतर ज़मीनपर सूखी घास डाल दी जाती है। उसपर सील-मछलीका चमड़ा बिछा दिया जाता है। वही उनका बिछौना है। वे हिरनका चमड़ा पहनते हैं और चिरागमें तेलकी जगह चर्बी जलाते हैं। चिराग एक प्रकारके नरम पत्थरके बनते हैं। उस पत्थरकी चमक चिराग़की लौसे मिलकर इतनी गरमी पैदा कर देती है कि ऐसे चिरागसे भोजन तक पकाया जा सकता है। जिस घरमें एक भी चिराग़ जलता है उसमें रहने वालोंको बहुत कम सरदी लगती है। [ ६७ ]

गरमीके दिनोंमें स्कीमो लोग तम्बू तानकर मैदानों में रहते हैं। उस ऋतुमें घरोंकी छतें उखाड़ दी जाती हैं। इससे सूर्यका प्रकाश भीतर पड़ता है और नमी दूर हो जाती है।

स्कीमो जातिकी स्त्रियां पुरुषोंकी बहुत मदद करती हैं। वे एकको छोड़कर दूसरा पति कर सकती हैं। इस काममें उन्हें किसी तरहकी तलाक़की ज़रूरत नहीं होती। यदि एक स्त्रीके दो प्रेमी हुए तो उन दोनोंमें कुश्ती होती है। जो जीत जाता है वही उस स्त्रीका पति बनता है। पुरुष भी, इस विषय में, स्वतन्त्र हैं। वे भी एकको छोड़कर दूसरी स्त्री कर सकते हैं। ऐसी अवस्थामें स्त्री या तो अपने माता-पिताके घर चली जाती है या अपने किसी प्रेमीके यहाँ। लड़कियोंका विवाह बारह-तेरह वर्षकी उम्र में हो जाता है।

स्कीमो लोगोंको अपनी ज़िन्दगीकी स्थिरताका कुछ भी विश्वास नहीं। इसीसे शायद वे बहुत उद्दण्ड होते हैं। वे नम्रताका बर्ताव जानते ही नहीं। भूतोंसे वे बहुत डरते हैं। चलते-फिरते, खाते-पीने, सभी कामोंमें और सभी जगह उन्हें भूतोंका डर लगा रहता है। वे भूतोंको प्रसन्न करनेके लिए बलिदान देते हैं और उनको वशमें रखनेके लिए मन्त्र-यन्त्र, टोटके आदि भी करते हैं। जब एक घर छोड़कर दूसरेमें जाते हैं तब पहले घरके किवाड़ इसलिए तोड़ देते हैं कि भूत घरको उजड़ा समझकर उसमें प्रवेश न करे। पुराना हो जानेपर जब वे किसी वस्त्रको छोड़ते हैं तब उसकी चिन्धी-चिन्धी करके कल करते हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि पहनने लायक समझकर कहीं उसके भी भीतर भूत न घुस जाय। भूतोंको शान्त रखनेके लिए वे पितरों[ ६८ ]की भी पूजा करते हैं। वालरसके गलेकी तांतसे वे एक बाजा और उसीकी हड्डीसे खँजड़ी बनाते हैं। खँजड़ीपर वालरसकाही चमड़ा मँढ़ते हैं। फिर उनको बजाकर उन्मत्तकी तरह खूब नाचते-कूदते हैं।

स्कीमो-जातिके आदमी मुर्देको घरसे बहुत दूर ले जाकर गाड़ते है। उसके कपड़े-लत्ते भी उसीके साथ गाड़ देते हैं। यदि मृत मनुष्यका कोई कुत्ता हुआ तो मारकर वह भी उसीके साथ दफना दिया जाता है। जब कोई स्त्री मरती है तब उसकी आत्माको सुखी करनेके लिए उसका दीपक, सीने-पिरोनेका सामान, थोड़ीसी चर्बी और कभी-कभी उसके छोटे-छोटे बच्चोंतकको मारकर, घरवाले, उसीके साथ गाड़ देते हैं। मृत-व्यक्तिके लिए अधिक समय तक शोक नहीं किया जाता।

स्कीमो लोगोंके देशमें रातें बड़ी लम्बी होती हैं। पर वे तारोंको पहचानते हैं। उन्हींको देखकर वे समयका हिसाब लगाते हैं। सप्तर्षियोंके समुदायको वे लोग हिरनोंकी टोली और कृत्तिकाको कुत्तोंकी टोली कहते हैं। सूर्य्यको पुरुष और चन्द्रको वे स्त्री समझते हैं।

स्कीमो लोग सील मछलीके चमड़ेकी छोटी-छोटी डोंगियाँ बनाते हैं। उन्हीं डोंगियोंपर सवार होकर वे ह्वेल और वालरसका शिकार करते हैं। ज़मीनपर शिकार खेलनेमें वे कुत्तोंसे बड़ी मदद लेते हैं। उनके कुत्ते खूब मज़बूत और चालाक होते हैं। वे थोड़ा भी खाकर कोई रोजतक अच्छी तरह काम कर सकते हैं। वे पानी नहीं पीते। उसके बदले बर्फ़ खाते हैं। बर्फ़ ही उनका पानी है। बर्फ पर गाड़ियां घसीटनेमें उनसे बढ़कर और कोई जानवर काम नहीं दे सकता। इन्हीं कुत्तों और इनके स्वामी स्कीमो लोगोंकी सहायतासे अमेरिकाका कमाँडर [ ६९ ]पीरी पहले-पहल उत्तरी ध्रुवके बहुत पास तक पहुँच सका था। यदि स्कीमो लोगों और उनके कुत्तोंने उसकी तथा उसके पूर्ववर्ती अन्य यात्रियोंकी, जिनमें से बहुतोंको हिम-राशियोंने अपनी गोदमें सदाके लिए सुला लिया और जिनमेंसे कितने ही इन राशियोंके गुप्त रहस्यको प्रकट करने में भी बहुत कुछ समर्थ हुए, सहायता न की होती तो आज अमेरिकाके स्वातन्त्र्य और समताका सूचक झण्डा, अनन्त स्वतन्त्रताकी अधिष्ठात्री प्रकृति देवीके दुर्गम दुर्ग, उत्तरी ध्रुव-प्रदेश, के केन्द्रके बहुत पास न फहराता होता।

[दिसम्बर १९२२]