लेखाञ्जलि/७—सौर जगत्‌ की उत्पत्ति

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७—सौर जगत्‌की उत्पत्ति।

यह विषय बहुत पुराना है, पर है बड़ा मनोरञ्जक। इसपर आजतक बहुत कुछ लिखा भी जा चुका है। अँगरेज़ी-भाषामें तो इसपर न मालूम कितने ग्रन्थ बड़े-बड़े विद्यमान हैं। फिर भी इस विषयमें नईनई खोज होती ही जाती है और नये-नये सिद्धान्त अस्तित्वमें आते ही जाते हैं। हिन्दीमें इस विषयकी कोई सर्वमान्य पुस्तक अबतक नहीं प्रकाशित हुई। लेख अलबत्ते कई निकल चुके हैं। पर उनमें कुछ जटिलता है। कुछ समय हुआ, बंगलाभाषाके 'प्रवासी' नामक मासिक पत्रमें, बाबू अपूर्वचन्द्र दत्तका एक लेख, बहुत अच्छा, निकला था। उसमें जटिलता कम है। अतएव इस लेखमें उसीका आशय दिया जाता है।

सृष्टिके आरम्भमें यह जगत्, अनन्त आकाशमें, परमाणुओंके रूपमें विद्यमान था। अपरिमेय कालतक वह इसी रूपमें था। जब विधाताने इस सृष्टिकी रचना करनी चाही तब उसने इन परमाणुओंके [ ४८ ]समूहमें शक्तिका सञ्चार कर दिया। उस शक्तिके बलसे परमाणुपिण्डमें गति उत्पन्न हो गई। पर यह शक्ति कैसी थी, इसकी व्याख्या करनेमें विज्ञान अबतक समर्थ नहीं हुआ। इसीके द्वारा गति उत्पन्न होती है। अतएव इस शक्तिको हम गतिका "कारण" अवश्य कह सकते हैं। इस शक्तिके प्रभावसे परमाणुओंमें गतिका सञ्चार होनेपर वे परमाणु कुण्डलाकार होकर, आकाशमें, चक्कर काटने लगे। जैसे परमाणु जड़-जगत्‌की आदिम अवस्थाकी तसवीर या प्रतिकृति है, वैसे ही कुण्डलाकार गति भी जड़-पदार्थों की गतिकी शैशवावस्था है। जड़-जगत्‌में गतिका पहला काम केवल घूमने—केवल चक्कर लगाने—की चेष्टामात्र है, और कुछ नहीं। एक परमाणुके ऊपर दूसरा परमाणु रखकर, और दूसरेपर तीसरा रखकर ही, इस विशाल विश्वकी सृष्टि हुई है। यह ब्रह्माण्ड परमाणुओंहीके एकत्रीकरणका फल है। इस काममें कितने करोड़-कितने अरब-खरब वर्ष-बीत चुके हैं, यह जान लेना कठिन ही नहीं, नितान्त असम्भव भी है। सृष्टिके आदि कारण परमाणुओंने अभीतक अपनी पुरानी कुण्डलाकार गतिका परित्याग नहीं किया। सृष्टि-रचनाके व्यापारमेंजगत्‌को प्रकट करनेके उद्योगमें यह कुण्डलाकार गति ही विश्वविधाताका पहला काम है। निरुद्यम और निश्चेष्ट जड़-जगत् में शक्तिका यही प्राथमिक आविर्भाव है।

कुण्डलाकार गतिमें यह नहीं भासित होता कि गतिको प्राप्त वस्तु एक जगहसे दूसरी जगह जा रही है। और, एक प्रकारसे वह जाता भी नहीं। साँपकी पूँछ यदि उसके मुँहमें डाल दी जाय तो वह [ ४९ ]स्थानपरिवर्तन न कर सकेगा। वह केवल उसी जगह रहकर चक्कर लगाता फिरेगा। यही गति कुण्डलाकार कही जाती है। पर इसके द्वारा जगत्‌की उत्पत्ति नहीं हो सकतो। इधर परमाणु भी स्वयं उद्यमहीन अतएव निश्चेष्ट हैं; उनमें स्वयमेव कुछ करनेकी शक्ति नहीं। सृष्टिकी इस अवस्थामें परमात्माने परमाणुओंको एक गुण देनेकी कृपा की। इस गुणको हम आसक्ति कह सकते हैं।

इस आसक्तिकी प्रेरणासे सारे जड़ कुण्डल घूमते-घूमते एक दूसरेकी तरफ खिंचने लगे। जड़वादी वैज्ञानिकोंका मत है कि यह आसक्ति और कुछ नहीं, कुण्डलाकार-गतिका फल या परिणाम-मात्र है। इससे यह सूचित हुआ कि कुण्डलाकर गतिकी कार्य-कारिणी शक्ति एकमात्र आसक्तिपर अवलम्बित। इस आसक्तिके द्वारा सारे जड़ कुण्डल घूमते-घूमते एक दूसरेकी तरफ आकृष्ट होने लगे। वे ज्यों-ज्यों समीप आते गये, त्यों-त्यों परस्पर संलग्न होते गये। इस तरह जब बहुतसे परमाणु संलग्न हो गये तब उनसे एकएक अणुकी उत्पत्ति होने लगी। यहाँपर एक विशेषता हुई। परमाणु तो सब एक ही जातिके थे। पर संलग्नता होनेपर जो अणुओंकी सृष्टि हुई उनमें भिन्नता आ गई। यह बात संलग्नताके न्यूनाधिक्यके कारण हुई। इसीसे जड़ कुण्डलोंकी स्थितिमें भिन्नता और उनके समावेशमें विचित्रता हो गई। अणुओंमें परमाणुओंकी भिन्न-भिन्न स्थितिके वैचित्र्यके कारण ही अणुओंकी जातियाँ भिन्न-भिन्न प्रकारकी होती हैं।

भिन्न-भिन्न परमाणुओं की आसक्तिक समुदायके द्वारा ही पणुओं [ ५० ]की आसक्ति जानी जा सकती है। पर यह समुदाय या समष्टि केवल परमाणुओंकी आसक्तिका योग-फल नहीं है। परमाणुओंकी स्थितिके भेदसे अणुओंकी आसक्तिके परिमाणमें न्यूनाधिकता होती है। इस कारण समान संख्यावाले परमाणुओंके द्वारा संघटित अणुओंकी भी आसक्ति एक-सी नहीं होती। जिस अणुकी आसक्ति जितनी ही अधिक होती है वह थोड़ी आसक्तिवाले अपने निकटवर्ती अणुको उतना ही अधिक अपनी तरफ खींच लेता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानोंमें बहुतसे अणुओंका एकत्र समावेश होकर भिन्न भिन्न पदार्थोंकी उत्पत्ति हुई है। निर्मल आकाशमें, देखते ही देखते, भाफके परमाणु घने होकर जैसे मेघोंकी सृष्टि करते हैं, जड़-जगत्‌की आदिम उत्पत्तिका ढंग या क्रम भी वैसा ही है।

परन्तु पदार्थोंको उत्पन्न करने या बनानेमें जड़ परमाणु अपनी स्वतन्त्रताको नहीं खो देते; उनकी कुण्डलाकार गति हमेशा जैसीकी तैसी ही बनी रहती है। यही कारण है कि सब पदार्थोंमें, जन्महीसे, स्वभावतः, एक प्रकारकी अखण्डनीय गतिकी आकांक्षा पाई जाती है।

अणुओंके परस्पर संलग्न होनेपर जगह-जगहपर उनका आकार बढ़कर क्रमशः बड़े से बहुत बड़ा होने लगा। इस प्रकार सारा जड़ जगत् अविच्छिन्न खण्ड-खण्ड नीहारिकाके रूपमें इधर-उधर फिरने लगा। इन नीहारिका-खण्डोंकी गतिका अन्त न था। दिन-पर-दिन अधिकाधिक अणुओंके समावेशसे उनकी गतिकी आकांक्षा और आसक्ति भी बहुत अधिक बढ़ने लगी। इसका फल यह हुआ कि [ ५१ ]नीहारिका-खण्ड अधिकाधिक शक्तिशाली होने लगे। बिना जड़का आधार पाये शक्ति प्रकट नहीं होती; इसीसे जड़को शक्तिका वाहन या आधार कहते हैं। इसके सिवा जहाँपर जड़ पदार्थ जितना ही अधिक है वहाँपर शक्तिके प्रकटीकरणका सुभीता भी उतना ही अधिक है। आकाशमें छोटे छोटे मेघखण्डोंके परस्पर सम्मेलनसे एक बड़ी भारी घटाकी उत्पत्ति होते देखा जाता है। वैसी ही घटना नीहारिका-खण्डोंमें भी हुई। नीहारिकाओंका आकार जितना ही अधिक बढ़ने लगा, गति और आसक्ति भी उनके अणुओंमें उतनी ही अधिक प्रबल होने लगी। धीरे-धीरे वे नीहारिका-खण्ड घनीभूत होकर अन्तको एक विशाल पदार्थखण्डके रूपमें परिणत होगये और आकाशमें बड़े वेगसे चक्कर काटने लगे।

धीरे-धीरे परमाणुओंकी कुण्डलाकार गतिमें परिवर्तन हो गया। समग्र नीहारिका-निचयकी चाल चर्ख़ीकी चालके सदृश प्रकट हुई। अणुओंमें जैसे-जैसे आसक्ति बढ़ती गई वैसे-ही-वैसे वे अधिकसे अधिक परस्पर पास आते गये। इसके अवश्यम्भावी फलके कारण नीहारिका-समूहका घेरा सङ्कुचित होने लगा। इस सिमटनेका परिणाम यह हुआ कि वह नीहारिका-चक्र घना होगया। इस सिमटनेका परिणाम यह हुआ कि वह नीहारिका चक्र घना होगया। फिर वह नीहारिका कुहासेकी अवस्थासे घनी भाफके रूपमें परिणत होगई। तदनन्तर उसने तरल, फिर कीचड़की तरह और अन्तमें कठिन पदार्थका आकार धारण किया। यही जड़-जगत्‌की उत्पत्ति या रचनाका क्रम है। [ ५२ ]किसी तरल या लचीले पदार्थको आप घुमाइए। यदि आप घुमानेका वेग थोरे-धीरे बढ़ाते जायँगे तो देखेंगे कि उसका मध्य-भाग क्रमशः फूलता जाता है और अन्तको गोलक छोड़कर अलग होने—दूर जाने की—चेष्टा करता है। इसी नियमके अनुसार नीहारिका-खण्ड जितने ही अधिक घनीभूत होने लगे उतने ही वे अपनी गोलाकार गतिके कारण क्रमशः गोल होने लगे। इस समय भी जड़-जगत्‌में ऐसे नीहारिका-खण्ड देख पड़ते हैं जो अभीतक इतने घने नहीं हुए कि एक अखण्डित पदार्थके रूपमें घूम सकें।

जब नीहारिका-निचय एक अखण्डित पदार्थ के रूपमें घूमने लगा तब उसमें एक केन्द्र, अर्थात् स्थान-विशेष या बिन्दु-विशेषकी उत्पत्ति हुई और उसके घने होनेका क्रम उसी केन्द्रकी तरफ़ प्रबल होने लगा। इसी कारण कैन्द्रिक अर्थात् केन्द्र-सम्बन्धी आकर्षणकी उत्पत्ति हुई। यही कैन्द्रिक आकर्षण इस समय माध्याकर्षणके नामसे प्रसिद्ध है। वास्तवमें यह माध्याकर्षण भिन्न-भिन्न अणुवोंके आकर्षणकी समष्टिके सिवा और कुछ नहीं है। परमाणुओंकी आसक्तिका यही परिणाम है। इसीसे सारे अणु केन्द्रकी तरफ खिंचकर और उसे घरकर उसके चारों तरफ चक्कर लगाते हैं। इस तरह चक्कर लगानेसे नीहारिकायें जितनी ही घनी होती हैं उतनी ही, लचीले गोलेकी तरह, बीचमें फूल उठती हैं। अन्तको जब उस फूले हुए अंशमें गतिका वेग इतना प्रबल हो जाता है कि वहाँका जड़ अंश, अपनी जड़ताके कारण, गतिके आगे चलनेकी चेष्टा करता है और उस चेष्टाके वेगसे कैन्द्रिक आकर्षणकी मात्रा बिखर जाती है तब वह फूला हुआ अंश दूर छँटकर [ ५३ ]अलग हो जाता है। ऐसी अवस्थामें वह छँटा हुआ अंश, मूल नीहारिकाके केन्द्रसे दूर जाकर, आप-ही-आप जड़ और घनीभूत होनेकी चेष्टा करता है। इस घने होनेकी अवस्थामें फिर वह गोलाकार रूप धारण करता है। वह अपने लिए एक अन्य स्वतन्त्र केन्द्रकी सृष्टि करता है और स्वयं ही एक स्वतन्त्र पदार्थ-खण्ड बन जाता है।

मूल-नीहारिका-खण्डसे, ऊपर लिखे हुए ढंगसे, एक खण्ड अलग होकर एक स्वतन्त्र गोलककी उत्पत्ति होना जड़ पदार्थोंके स्वाभाविक धर्मकी प्रक्रियामात्र है। परन्तु इस विच्युतिके कारण मूल-गोलक और खण्ड-गोलकका पारस्परिक सम्बन्ध विच्छिन्न नहीं होता। एक दूसरेकी तरफ़ उनकी आसक्ति, परस्परके केन्द्रकी दूरीके अनुसार कम होनेपर भी, एकदम नष्ट नहीं होती। इस कारण खण्ड-गोलक अपने मूलगोलकको घेरकर घूमा करता है। ऐसी स्थितिमें मूल-गोलकको सूर्य और खण्ड-गोलकको ग्रह कहते हैं। सूर्यको घेरकर घूमते-घूमते ग्रह जितना ही अधिक घना हो जाता है, उसके केन्द्रके चारों ओर चक्कर लगानेवाली उसकी गति उतनी ही प्रबल हो उठती है। इस गतिके क्रमशः बढ़नेके कारण वह ग्रह, लचीले गोलेकी तरह, बीचमें फूलने लगता है। इसी तरह ग्रहसे, कुछ दिनोंमें, छोटे-छोटे अन्य ग्रहों अर्थात् उपग्रहोंकी सृष्टि होती है।

ऊपर लिखे अनुसार, क्रमशः, बहुतसे ग्रहों और उपग्रहोंकी उत्पत्ति होनेपर यथासमय एक-एक सूर्यके चारों तरफ एक-एक बड़े परिवारकी सृष्टि हो जाती है। उस ग्रह-परिवारको सौर जगत् कहते हैं। इस प्रकार अनन्त समयमें सूर्य, ग्रह और उपग्रह क्रमशः घने हुए हैं, और [ ५४ ]घने होनेकी अवस्थामें क्रमशः गाढ़ी भाफ, तरल पदार्थ, कीचड़ आदिकी अवस्थाओंको पार करके कठिन और ठोस अवस्थाओंको पहुँचे हैं। जो गोलक जितना ही कठिन होता जाता है, उसके भीतर जो अणु हैं उनकी पारस्परिक रगड़से उसकी आणविक अर्थात् कुण्डलाकार गतिका ह्रास भी उतना ही होता जाता है। विज्ञान हमको बतलाता है कि गर्मी और प्रकाश इसी आणविक गतिके फल हैं। इस कारण उक्त पदार्थ-खण्ड जितने ही घने होते जाते हैं उतनी ही गर्मी, वे अपनी आणविक गतिकी रगड़से, उत्पन्न करते हैं। जब वे कठिन अर्थात् ठोस पदार्थका रूप धीरे-धीरे धारण करते हैं तब गर्मी उत्पन्न करने और प्रकाश फैलानेकी उनकी शक्ति चली जाती है।

पृथ्वीपर रहनेवाले हमलोग जिस सूर्यके चारों तरफ़ चक्कर लगा रहे हैं उसके सदृश और भी कितने सूर्य इस ब्रह्माण्डमें हैं, यह कोई नहीं बता सकता। यह भी कोई निश्चयके साथ नहीं कह सकता कि सूर्य किसी अन्य महा-सूर्यका खण्ड है या नहीं। पहले जो कुछ कहा जा चुका है उससे यह प्रमाणित होता है कि जो सूर्य्य किसी मूल नीहारिका-खण्डके सङ्कोचसे उत्पन्न होता है उसके लिए उस जगहसे दूसरी जगह जाना सम्भव नहीं। परन्तु गणित-शास्त्रके आधारपर यह सिद्धान्त स्थिर हुआ है कि हमारा यह सूर्य्य, शून्य आकाश-पथमें, किसी निर्द्दिष्ट स्थानकी ओर जा रहा है। अतएव जान पड़ता है कि हमारा सूर्य किसी मूल नीहारिकाके सङ्कोचसे नहीं उत्पन्न हुआ; किन्तु किसी महा-सूर्यके सङ्कोच और चक्राकार गतिके कारण, उससे च्युत होकर, उत्पन्न हुआ है। सौर जगत्‌के सब ग्रह [ ५५ ]जैसे धीरे-धीरे जमते हुए कठिन अवस्थाको प्राप्त होते जाते हैं वैसे ही हमारा यह सूर्य भी, जमते-जमते, भविष्यत्‌में कठिन पदार्थ-खण्ड बन जायगा। उस समय उसका सारा तेज नष्ट हो जायगा। वह एक अन्धकारमय गर्तके सदृश रह जायगा। अनुमान तो ऐसा ही किया जाता है। पर यह घटना कब होगी, इसका पता कोई भी शास्त्र—कोई भी विज्ञान—बतानेमें असमर्थ है।

सौर जगत्‌में कई ग्रह एकदमही बुझकर अन्धकारमय हो गये हैं—जैसे बुध और शुक्र। कुछ ग्रहोंका आवरण-भाग प्रकाशरहित हो जानेपर, उनका भीतरी भाग अब भी गर्म है—जैसे पृथ्वी और मङ्गलका। कोई-कोई ग्रह इस समय भी कुछ-ही-कुछ प्रकाश फैलानेकी शक्ति रखते हैं—जैसे बृहस्पति। इन ग्रहोंके रूप और घटन आदिकी आलोचनासे सौर जगत्‌की क्रमोत्पत्तिका नियम बहुत-कुछ जाना जा सकता है। सूर्य अमर नहीं। उसका विनाश न होनेपर भी, निर्वाणको प्राप्त होना सम्भव है। अतएव यह देखना चाहिये कि सूर्यके एक बार बुझ जानेपर फिर भी उसके दीप्तिमान होने की—जल उठनेकी—सम्भावना है या नहीं।

कई वर्ष हुए, आकाशके एक किनारे एकाएक एक अत्यन्त उज्ज्वल तारका प्रकट हो गई थी। बहुत समयतक दूरबीनके द्वारा उसकी देख-भाल करनेके बाद मालूम हुआ कि उसकी तेज़ रोशनी, दिन-पर-दिन कम होती जाती है। क्रमशः वह रोशनी इतनी कम हो गई जितनी कि एक बहुत मामूली तारेकी होती है। पहले अवलोकनके [ ५६ ]आधारपर यह अनुमान किया जाता था कि कई एक तारकाएं मिलकर यह एक बड़ी तारका निर्म्मित हुई है। पर ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे त्यों-त्यों देखा गया कि उसकी चमक धीरे-धीरे कम होती जाती है। अन्तको उसने एक साधारण और स्थिर नक्षत्रका रूप धारण कर लिया। कुछ समयसे इस तारकामें कोई विलक्षणता नहीं देखी जाती। किसी अग्निकुण्डमें लकड़ी या कोयला डालकर उसमें आग लगा देनेसे जैसे उस काष्ठ या कोयलेका समूह पहले तेजीसे जल उठता है और फिर धीरे-धीरे उसकी तेज़ी कम होती जाती है—वह स्थिर भावसे जलता रहता है—वही ढङ्ग इस नवीन तारकामें देखा जाता है।

कोई-कोई ज्योतिषी समझते हैं कि आकाशमें जिस जगहपर उक्त नवीन ताराका आविर्भाव हुआ है उस जगह किसी उल्का समूहने फिरतें फिरते एक उल्काशयकी सृष्टि की थी। कोई बुझा हुआ अपरिचित सूर्य, अपनी कक्षामें चलते-चलते, उस उल्काशयमें जा गिरा। वहाँ कितनी ही उल्काओंकी रगड़से उसकी गति रुक गई और वह सहसा जल उठा। वायुके संघर्षसे उल्काओंका जल उठना प्रायः देखा ही जाता है। अतएव किसी उल्का-समुदायकी रगड़से किसी अन्ध-सूर्य्यका जल उठना कुछ विचित्र या असम्भव बात नहीं। इसके सिवा उस सूर्य्यकी टक्करसे उल्काशयके अन्तर्गत उल्का-समूहका जल उठना भी कोई आश्चर्यकी बात नहीं। इसके साथ ही यह अनुमान भी स्वाभाविक है कि पृथ्वीके पास उल्काके आनेपर जैसे वह पृथ्वीकी ओर खिंचकर पृथ्वीतलपर उल्कापातकी घटनाका कारण होती है वैसे ही उक्त अन्धसूर्य्य, उल्काशयमें गिरकर, उसकी उल्काराशिको अपनी तरफ़ खींच[ ५७ ]कर, उससे टकराया है और उस टकरानेकी रगड़से उत्पन्न हुई गर्मीके कारण उस उल्कासमूहको उसने भस्म कर दिया है। उस नवीन ताराकी पहली तेज़ रोशनीका यही कारण हो सकता है। इस समय वही बुझा हुआ सूर्य्य सम्पूर्ण गतिसे प्रज्वलित होकर एक नवीन अथवा पुनरुज्जीवित सूर्य्यके रूपमें प्रकाशित हुआ है। उसीको हम एक नवीन ताराके रूपमें देखते हैं।

यह अनुमान यदि सत्य हो तो इससे यह प्रमाणित होता है कि सूर्य्यके एक बार बुझकर निश्चेष्ट जड़-पिण्ड बन जानेहीसे उसके अस्तित्वका अन्त नहीं होता। बुझा हुआ सूर्य्य जीवित होकर फिर प्रकट हो सकता है और उसके द्वारा नवीन सौर जगत्‌की सृष्टि होनेकी सम्भावना बनी रहती है। यह पुनरुज्ज्वलित सूर्य एक-दम चाहे नीहारिका न हो जाय, पर भाफ या तारल्यभावको अवश्य धारण करेगा। तब इससे ग्रहों और उपग्रहोंकी नई सृष्टि क्रमशः हो सकती है। इसी तरह इस जगत्‌का जीर्णोद्धार प्रायः हुआ करता है और यह जीर्णोद्धार विधाताकी मङ्गलमयी अनुकम्पाहीका परिचायक जान पड़ता है—इसमें कोई सन्देह नहीं।

[मार्च १९२७]