हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/रामानंद

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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कबीर साहब के समकालीन कुछ ऐसे सन्त और महात्मा हैं कि जिनकी चचा हुये बिना पन्द्रहवीं इसवी शताब्दी की न तो सामयिक अवस्था पर पूरा प्रकाश पड़ेगा न साहित्यिक परिवर्तनों पर। अतएव अब मैं कुछ उनके विषय में भी लिखना चाहता हूं। किन्तु उनके यथार्थ परिचय के लिये यह आवश्यक है कि स्वामी रामानन्द के उस समय के धार्मिक पग्वित्तनों और सामाजिक सुधारों से अभिज्ञता प्राप्त करली जावे। इसलिये पहले मैं इस महापुरुष के विषय में ही कुछ लिखता हूं। जिस समय स्वामी शंकराचाय्य के अद्वैतवाद ने भारतवर्ष में वैदिक धर्म का पुनरुज्जीवन किया और और जब उसकी विजय वैजयन्ती हिमालय में कुमारी अन्तरीप तक फहरा रही थी। उस समय केवल ज्ञान मार्ग में संतोष न प्राप्त कर अनेक सन्तमहात्मा एक ऐसी भक्तिधाग की खोज में थे जो दार्शनिक जीवन को सरस बना सके। निर्गुण ब्रह्म अनुभव गम्य भले ही हो किन्तु वह सर्व साधारण का वोध गम्य नहीं था। बड़े बड़े महात्माओं की विचार-धाग जिस पंथमें चल कर पद पद पर कुण्ठिन होती थी उस पथ का पथिक होना साधारण विद्या-बुद्धि के मनुष्य के लिये असम्भव था। आध्यात्मिक आनन्द के उपभोग का अधिकारी तत्त्वज्ञ ही हो सकता है, अल्पज्ञ नहीं। इसके लिये किसी प्रत्यक्ष आधार वा अवलम्बन का होना आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि संसार की स्वाभाविकता किसी ऐसे आधार का आश्रय ग्रहण करना चाहती है जो उसका जीवन-सहचर हो। समाधि में समाधिस्थ हो कर ब्रह्मानंद-सुख का अनुभव करना लोकोत्तर हो. परन्तु उससे वह मनुष्य क्या लाभ उठा सकता है जो न तो ऐसी साधनायें कर सकता है जो सर्वसाधारणके लिये सुलभ हों और न ऐसी सिद्धि प्राप्त कर सकताहै जो उसको सांसारिक नाना कणों से छुटकारा दे सके। लोक साधारणतः परमार्थिक [ १८३ ]( १८३ ) नहीं है, वह अधिकतर स्वाथ ही का दास है। वह सुख का कामुक और कष्टों से निस्तार पाने का अधिक इच्छुक होता है। वह अपनी कामना की पुर्ति के लिये ऐसी साधनायें करना चाहता है जो सीधी और सरल हों और जिनमें पद पद पर जटिलतायें सामने न खड़ी हो जायें। परमात्मा सर्व लोक का स्वामी हो. प्राणी मात्र का लालन पालन करता हो, परन्तु उसका इतना ही होना पर्याप्त नहीं। लोक चाहता है कि वह दोनबन्धु, दुःख भंजन. आनन्दस्वरूप और विपत्ति में सहायक भी हो। मानवता की इस प्रवृत्ति को संसार की महान आत्माओं ने प्रत्येक समय समझा है और देशकालानुसार उसके संतोपउत्पादन की चेष्टा भी की है। यदि भारतवर्ष के धार्मिक परिवत्तं नो पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो उनमें इस प्रकार के अनेकशः उदाहरण प्राप्त होंगे। जब स्वामी शंकराचार्य के सर्बोच्च ज्ञान का अधिकारी मामयिक महात्माओं ने देशकालानुसार सर्वसाधारण जनता को नहीं पाया तो उन्होंने ऐमा माग ग्रहण करने की चेष्टा की जिससे उन प्राणियों का भी यथार्थहित हो सके जो तत्ववोध के उच्च सोपान पर चढ़ने की योग्यता नहीं रखते । इसी लिये निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ब्रह्म की कल्पना होती आई है। और इसी हेतु से एक अनिर्वचनीय शक्ति के स्थान पर ऐसी शक्ति की उद्भावना महजन करते आये हैं जो वोध गम्य हो और मानव-जीवन का स्वाभाविक सहचर बन सके। ज्ञानमें गहनता है, साथ ही जटिलता भी। भक्ति में सरलता और सहृदयता है। इसी लिये ज्ञान से भक्ति अधिकतर बोधमुलभ है अपने अपने स्थान पर दोनों ही का महत्व है। इसी लिये हिन्दू धर्म में अधिकारी भेद की व्यवस्था है। ज्ञानाश्रयी सिद्धान्त जब व्यवहारिक बनते हैं तो उनको भक्ति को साथ लेना पड़ता है. क्योंकि संसार अधिकतर क्रियामय जीवन का प्रेमिक है। जिन महात्माओं ने इन रहस्यों को समझ कर यथाकाल दोनों की व्यवस्था उचित रूप में की उन्हीं महात्माओं में स्वामी गमानुज का स्थान है। उन्होंने म्वामी शंकराचार्य के ज्ञान-मार्ग को भक्तिमय बना दिया और उनके अद्वैतवाद को विशिष्टाद्वैत का रूप दिया। उन्हों ने निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करते हुये भी उसके सगुण रूप को ग्रहण किया [ १८४ ]( १८४ ) और बतलाया कि यदि यह सत्य है कि सर्व खल्विदं ब्रह्मनेहनानास्ति किंचन' तो विश्व को हम ब्रह्म का स्वरूप क्यों न मानें और क्यों न भक्ति से आई होकर उसकी उचित परिचर्या में लगे ? उन्होंने इस विश्वात्मक सत्ता को विष्णु-स्वरूप बतलाया जिसकी सहकारिणी शक्ति लक्ष्मी है, विष्णु त्रिगुणात्मक हैं और उनमें सृजन, पालन और संहार तीनों शक्तियां विद्यमान हैं। वे कोटि काम कमनीय और अव्यक्त होने पर भी नील नभोमण्डल-समान श्याम हैं। वे चतुर्भुज अर्थात् चार हाथ से सृष्टिकार्य-परायण हैं और अनन्त ज्ञानमय होने के कारण चतुर्वेदजनक हैं । वे सत्यावलम्वी के रक्षक और पापपरायण प्राणियों के शासक हैं। उनकी दीन-वत्सलता जहाँ अलौकिक है वहीं विपत्ति निवारण उनका स्वाभाविक धर्म । वेशरणागतपालक और पतित जन-पावन हैं । उनका स्थान वैकुण्ठ है जो सर्वदेव अकुण्ठ रहता है और जिसमें वे उन लोगों को स्थान देते हैं जो प्रेम के पावन पथ पर चलने में कुण्ठित नहीं होते । उनकी सहधर्मिणी लोक-विमोहिनी शक्ति रमा है जो उन्हों के समान सांसारिक प्रत्येक कार्य में रमणशीला है। परमात्मा के ऐसे सगुण रूप को सांसारिक प्राणियों के सामने लाकर स्वामी रामानुज ने समयानुसार भारतीय जन का जो हित-साधन किया उसका प्रमाण उनके धर्म की व्यापकता है, जो आजकल भारतवसुंधरा में विस्तृत रूपमें व्यात है। उनका आविर्भावकाल ग्यारहव ईस्वी शताब्दी है। स्वामी रामानन्द उनकी गद्दी के पांचवें अधिकारी थे। स्वामी रामानन्द ने वैष्णव धर्म को कुछ विशेष नियमों से नियमित बनाया। इसका कारण तात्कालिक समान था । स्वामी गमानंद का आविर्भाव-काल चौदहवीं शताब्दी है । इस समय मुसल्मान धर्म वर्द्धनोन्मुख था। मुख्यतः नीच जातियों में उसका प्रचार बड़े वेग से हो रहा था। वैदिक धर्म में समदर्शिता की पर्याप्र शिक्षा होने पर भी कुछ रूढ़ियों के कारण इस भाव का विकास नहीं हो पाता था। इसके विरुद्ध मुसल्मान पीर वचन-द्वारा ही नहीं, आचरण द्वारा भी यह दिखला रहे थे कि किस प्रकार मनुष्य मात्र परस्पर भाई हैं। स्वधर्मी होने पर धम-क्षेत्र में वे किसी से कोई भिन्नता नहीं रखते थे। स्वामी रामानन्द ने बैष्णव धर्म की इस न्यूनता को समझा [ १८५ ]( १८५ ) और शास्त्रोंकी उन आज्ञाओंको व्यवहारिक रूप दिया जो इस प्रकारकी थीं- 'शुनी चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः' आत्मवत् सर्व भूतेषु यः पश्यति स पण्डितः' उनके विशाल हृदय ने वैष्णव धर्म को समयानुसार बहुत उदार बनाया और उन बंधनों को दृढ़ता के साथ तोड़ा जो मानव-मात्र के परस्पर सम्मि- लन में बाधक थे । वे उस समय मुक्त कंठ से यही कथन करते दृष्टिगत होते हैं कि- 'जाति पांति पूछ नहिं कोई। हरि को भजै सोहरि का होई।' उन्होंने विष्णु के अव्यक्त रूप को व्यक्त रूप दिया और भगवान रामचन्द्र में विष्णु भगवान के समस्त गुणों का आरोप कर उन्हें विष्णु भगवान का अवतार बतलाया। पहले जो विष्णु भगवान कल्पना-क्षेत्र में विराजमान थे उनको गम रूप में लाकर उन्होंने जिज्ञासुओं के सम्मुख उपस्थित किया और उनके उदार चरित्रों के आधार से मानव जाति को, विशेष कर हिन्दू जाति को, उस लोक धम की शिक्षा दी जो काल पाकर उसके लिये संजी- वनी शक्ति बन गई । वैष्णव धर्म में जितनी जटिलतायें थीं उनको उन्होंने इस प्रकार व्यवहार-मुलभ बनाया कि उसकी ओर लोग बड़े उल्लास के साथ अर्पित हो गये । उनके हृदय की विशालता देग्विये कि जो जातियां ठुकगई हुई थी उन्हीं में से उन्होंने ऐसे लोगों का चुना जो हिन्दृ-संसार- गगन में चमकते तारे बन कर चमके। उन्हीं के आध्यात्मिक बल का वह महत्व है कि जिसमें कबीर कवीर बन गये। ये थे कोन ? एक जुलाहे, हिन्दू भी नहीं ,, मुसल्मान । गविदास का जन्म चमार के घर में हुआ था। संन नाई और धन्ना जाट थे । परन्तु स्वामी गमानन्द के प्रभाव से हो आज दिन सन्त समाज में इनको उच्चस्थान प्राप्त है। सिक्खों के ग्रन्थ साहव में जिन सोलह प्रधान भक्तों की बानी संग्रहीत है उनमें ये लोग भी हैं। कहा जाता है, उन्होंने अपने बारह शिष्य ऐसी ही जातियों में से चुन लिये जिनको पनितों में गणना थी। इस पन्द्रहवीं शताब्दी में स्वामी रामानन्द ने ही वह भक्ति स्रोत बहाया जिसमें प्रवाहित होकर ऐसे [ १८६ ]( १८६ ) लोग भी उस स्थान पर पहुँचे जिस स्थान पर पहुँच कर लोग सन्तपद के अधिकारी होते हैं । स्वामी रामानन्द जी के प्रधान शिष्य कबीर साहब की रचनाओं को मैं उपस्थित कर चुका हूं। अब उनके अन्य शिष्यों की कुछ रचनायें भी देखियेः- १- नरहरि चंचल है मति मेरी। कैसे भगति करूँ मैं तेरी । तू मोहिं देखै हौं तोहिं देखू , प्रीति परस्पर होई। तू मोहिं देखे तोहि न देखू, यह पति सब विधि खोई । सब घट अन्तर रमसि निरन्तर, मैं देखन नहिं जाना। गुन सब तोर मोर सब अवगुन, कृत उपकार न माना। मै तें तोर मोर असमझिमों, कैसे करि निस्तारा। कह रैदास कृष्ण करुणा मय, जय जय जगत अधारा । २-फल कारन फूलै( १८६ ) लोग भी उस स्थान पर पहुँचे जिस स्थान पर पहुँच कर लोग सन्तपद के अधिकारी होते हैं । स्वामी रामानन्द जी के प्रधान शिष्य कबीर साहब की रचनाओं को मैं उपस्थित कर चुका हूं। अब उनके अन्य शिष्यों की कुछ रचनायें भी देखियेः१- नरहरि चंचल है मति मेरी । कैसे भगति करूँ मैं तेरी । तू मोहिं देखे हों तोहिं देखू , प्रीति परस्पर होई। तू मोहिं देखे तोहि न देखू, यह पति सब विधि खोई । सब घट अन्तर रमसि निरन्तर, मैं देखन नहिं जाना। गुन सब तोर मोर सब अवगुन, कृत उपकार न माना। मै ते तोर मोर असमझिसों, कैसे करि निस्तारा। कह रैदास कृष्ण करुणा मय, जय जय जगत अधारा। २-फल कारन फूलै बनराई। उपजै फल तब पुहुप बिलाई । राखहिं कारन करम कराई। उपजै ज्ञान तो करम नसाई। जल में जैसे तूंया तिरै। परिचै पिंड जीव नहिं मरै 1

बनराई।

उपजै फल तब पुहुप बिलाई। राखहिं कारन करम कराई। उपजै ज्ञान तो करम नसाई। जल में जैसे तंबा तिरै। परिच पिंड जीव नहिं मरै । [ १८७ ]( १८७ ) जब लगि नदी न समुद्र समावै। तब लगि बढ़े हंकारा। जब मनमिल्यो राम सागर सों, तय यह मिटी पुकारा। रैदास। ३-एक बूंद जल कारने चातक दुख पावै । प्रान गये सागर मिलै पुनि काम न आवै ॥ प्रान जो थाके थिर नहीं कैसे बिरमाओं। बूड़ि मुये नौका मिलै कहु काहि चढ़ाओं ॥ मैं नाहीं कछु हौं नहीं कछु आहि न मोरा । औसर लज्जा राखिलेहु सदना जन तोरा ॥ सदना। ४-भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने तनु मनु धनु नहिं धीरे । लालच बिखु काम लुबध राता मन बिसरे प्रभु हीरे। विखु फल मीठ लगे मन बउरे चार विचार न जान्या । गुनते प्रीति बढ़ी अन भाँती जनम मरन फिर तान्या । जुगति जानि नहिं रिदै निवासी जलत जाल जम फंदपरे । विखु फल संचि भरे मन ऐसे परम पुरख प्रभु मन विसरे। ग्यान प्रवेसु गुरहिंधन दीया ध्यानु मानु मन एक भये । प्रेम भगतिमानी सुख जान्यात्रिपति अघाने मुकतिभये। जोति समाय समाने जाकै अछली प्रभु पहिचान्या। धन्न धन पाया धरणीधर मिलि जनसंत समान्या । धन्ना [ १८८ ]( १८८ ) ५-धूप, दीप, घृत साजि आरती वारने जाऊँ कमलापती। मंगला हरि मंगला नित मंगल राजा राम राय को । उत्तम दियरा निरमल बाती तुहीं निरंजन कमला पाती। राम भगति रामानन्दु जानै पूरन परमानंद बखाने । मदन मूरति भय तारि गुविन्दे । सैन भणय भजु परमानन्दे। सैन पीपा गागरोनगढ़ के एक गजा थे। वे भो स्वामीरामानंद के शिष्य थे। एक पद उनका भी देखिये:१-काया देवा काया देवल काया जंगम जाती। काया धूप दीप नैवेदा काया पूजौं पाती । काया बहु खंड खोजते नवनिद्वीपाई । ना कछु आइयो ना कछु जाइयो राम की दोहाई । जो ब्रह्मण्डे सोई पिंडे जो खोजे सो पावै । पीपा प्रणवै परमतत्तु है सतगुरु होय लखावै । गोविंद गोविंद गोविंद सँग नामदेव मन लीना। आठ दाम को छीपरो होइयो लाखीना। वुनना तनना त्याग के प्रीति चरन कबीरा। नीचु कुला जोलाहरा भयो गुनिय गहीरा। रविदास ढोवन्ता ढोर नित जिन त्यागी माया। परगट होआ साध सँग हरि दरसन पाया। सैनु नाई बुतकारिया ओहु घर घर सुनिया। हिरदै बसिया पारब्रह्म भक्ता महिं गनिया। यहि विधि मुनिकै जाटरो उठि भक्ती लागा। मिले प्रतक्ख गुसाइयाँ धन्ना बड़ भागा । पीपा धन्ना [ १८९ ]इन रचनाओं पर सामयिकता की छाप तो लगी ही है। परन्तु उनमें आपको स्वामी रामानन्द जी की महान शिक्षाओं का प्रभाव भी विकसित रूपमें दृष्टिगत होगा। ये रचनायें आपको यह भी बतलायेंगी कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा का विकास लगभग एक ही रूप में हुआ। इसके अतिरिक्त इनके देखने से यह भी पता चलेगा कि किस प्रकार इस शताब्दो में निगणवाद और भक्ति रस की धारायं वहीं, जो उत्तरवर्ती काल में विविध रूप में प्रवाहित होकर हिन्दू जाति के सूग्वते धर्म-भाव के पौधों को हरा भरा बनाने में समर्थ हुई।