हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ६ भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

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प्रकरण ६

भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

जिन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के बीच भक्ति का काव्य-प्रवाह उमड़ा उनका संक्षिप्त उल्लेख आरंभ में हो चुका है[१]। वह प्रवाह राजाओं या शासकों के प्रोत्साहन आदि पर अवलंबित न था। वह जनता की प्रवृत्ति का प्रवाह था जिसका प्रवर्तक काल था। न तो उसको पुरस्कार या यश के लोभ ने उत्पन्न किया था और न भय रोक सकता था। उस प्रवाह-काल के बीच अकबर ऐसे योग्य और गुणग्राही शासक का भारत के अधीश्वर के रूप में प्रतिष्ठित होना एक आकस्मिक बात थी। अतः सूर और तुलसी ऐसे भक्त कवीश्वरो के प्रादुर्भाव के कारणों में अकबर द्वारा संस्थापित शांति-सुख को गिनना भारी भूल है। उस शांति-सुख का परिणामस्वरूप जो साहित्य उत्पन्न हुआ। वह दूसरे ढंग का था। उसका कोई निश्चित स्वरूप न था; सच पूछिए तो वह उन कई प्रकार की रचना-पद्धतियो का पुनरुत्थान था जो पठानों के शासन-काल की अशांति और विप्लव के बीच दब-सी गई थीं और धीरे-धीरे लुप्त होने जा रही थीं।

पठान शासक भारतीय संस्कृति से अपने कट्टरपन के कारण दूर ही दूर रहे। अकबर की चाहे नीति-कुशलता कहिए, चाहे उदारता; उसने देश की परंपरागत संस्कृति में पूरा योग दिया जिससे कला के क्षेत्र में फिर से उत्साह का संचार हुआ। जो भारतीय कलावंत छोटे-मोटे राजाओं के यहाँ किसी प्रकार अपना निर्वाह करते हुए संगीत को सहारा दिए हुए थे वे अब शाही दरबार में पहुँचकर 'वाह वाह' की ध्वनि के बीच अपना करतब दिखाने लगे। जहाँ बचे हुए हिंदू राजाओ की सभाओं में ही कविजन थोड़ा बहुत उत्साहित या पुरस्कृत किए जाते थे वहाँ अब बादशाह के दरबार में भी [ १९७ ]उनका सम्मान होने लगा। कवियों के सम्मान के साथ साथ कविता का सम्मान भी यहाँ तक बढ़ा कि अब्दुर्रहीम खानखानाँ ऐसे उच्चपदस्थ सरदार क्या बादशाह तक ब्रजभाषा की ऐसी कविता करने लगे––

जाको जस है जगत में, जगत सराहै जाहि।
ताको जीवन सफल है, कहत अकबर साहि॥

साहि अकबर एक समै चले कान्ह विनोद बिलोकन बालहि।
आहट तें अबला निरख्यौ, चकि चौंकि चला करि आतुर चालहि॥
त्यों बलि बेनी सुधारि धरी सु भई छबि यों ललना अरु लालहि।
चपक चारु कमान चढ़ावत काम ज्यों हाथ लिए अहि-बालहि॥

नरहरि और गंग ऐसे सुकवि और तानसेन ऐसे गायक अकबरी दरबार की शोभा बढ़ाते थे।

यह अनुकूल परिस्थिति हिंदी-काव्य को अग्रसर करने में अवश्य सहायक हुई। वीर, शृङ्गार और नीति की कविताओं के आविर्भाव के लिये विस्तृत क्षेत्र फिर खुल गए। जैसा आरंभकाल में दिखाया जा चुका है, फुटकल कविताएँ अधिकतर इन्हीं विषयों को लेकर छप्पय, कवित्त-सवैयों और दोहों में हुआ करती थीं। मुक्तक रचनाओं के अतिरिक्त प्रबंध-काव्य-परंपरा ने भी जोर पकड़ा और अनेक अच्छे आख्यान-काव्य भी इस काल में लिखे गए।। खेद है कि नाटकों की रचना की ओर ध्यान नहीं गया। हृदयराम के भाषा हनुमन्नाटक को नाटक नहीं कह सकते। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि व्यासजी (संवत् १६२० के आसपास) के देव नामक एक शिष्य का रचा "देवमायाप्रपंचनाटक" भी नाटक नहीं, ज्ञानवार्ता है।

इसमें संदेह नहीं कि अकबर के राजत्वकाल में एक ओर तो साहित्य की चली आती हुई परंपरा को प्रोत्साहन मिला; दूसरी ओर भक्त कवियों की दिव्यवाणी का स्रोत उमड़ चला। इन दोनों की सम्मिलित विभूति से अकबर का राजत्वकाल जगमगा उठा और साहित्य के इतिहास में उसका एक विशेष स्थान हुआ। जिस काल में सूर और तुलसी ऐसे भक्ति के अवतार तथा नरहरि, गंग [ १९८ ]और रहीम ऐसे निपुण भावुक कवि दिखाई पड़े उसके साहित्यिक गौरव की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है।

(१) छीहल––ये राजपुताने की ओर के थे। संवत् १५७५ में इन्होंने पंच-सहेली नाम की एक छोटी-सी पुस्तक दोहो में राजस्थानी-मिली भाषा में बनाई जो कविता की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। इसमे पाँच सखियों की विरह-वेदना का वर्णन है। दोहे इस ढंग के है––

देख्या नगर सुहावना, अधिक सुचंगा थानु। नाउँ चँदेरी परगटा, जनु सुरलोक समान॥
ठाईं ठाईं सरवर पेखिय, सूभर भरे निवाण। ठाईं ठाईं कुँवा बावरी,सोहइ फटिक सवाँश॥
पंद्रह सै पचहत्तरै, पूनिम फागुण मास। पंचसहेली वर्णई कवि छीहल परगास॥

इनकी लिखी एक 'बावनी' भी है जिसमे ५२ दोहे है।

(२) लालचदास––ये रायबरेली के एक हलवाई थे। इन्होने संवत् १५८५ में "हरि-चरित्र" और संवत् १५८७ में "भागवत दशम स्कंध भाषा" नाम की पुस्तक अवधी-मिली भाषा में बनाई। ये दोनों पुस्तकें काव्य को दृष्टि से सामान्य श्रेणी की हैं और दोहे चौपाइयो में लिखी गई है। दशम स्कंध भाषा का उल्लेख हिंदुस्तानी के फ्रांसीसी विद्वान् गार्सा द तासी ने किया है और लिखा है कि उसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में हुआ है। "भागवत भाषा" इस प्रकार की चौपाइयों में लिखी गई है––

पंद्रह सौ सत्तासी जहिया। समय बिलंबित बरनौं तहिया॥
मास असाढ़ कथा अनुसारी। हरिबासर रजनी उजियारी॥
सकल संत कहँ नावौं माथा। बलि बलि जैहौं जादवनाथा॥
रायबरेली बरनि अवासा। लालच रामनाम कै आसा॥

(३) कृपाराम––इनको कुछ वृत्तांत ज्ञात नही। इन्होंने संवत् १५९८ में रस-रीति पर 'हिततरंगिणी' नामक ग्रंथ दोहो में बनाया। रीति या लक्षण-ग्रंथों में यह बहुत पुराना है। कवि ने कहा है कि और कवियों ने बड़े छंदों के विस्तार में शृंगार-रस का वर्णन किया है पर मैने 'सुघरता' के विचार से दोहों में वर्णन किया है। इससे जान पड़ता है कि इनके पहले और लोगों ने भी रीति-ग्रंथ लिखे थे जो अब नही मिलते है। 'हिततरंगिणी' के कई दोहे बिहारी के [ १९९ ]दोहों से मिलते जुलते हैं। पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि यह ग्रंथ बिहारी के पीछे का है, क्योंकि ग्रंथ में निर्माण-काल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है––

सिधि निधि सिव मुख चंद्र लखि माघ सुद्दि तृतियासु।
हिततरंगिनी हौं रची कवि हित परम प्रकासु॥

दो में से एक बात हो सकती है––या तो बिहारी ने उन दोहों को जान बूझकर लिया अथवा वे दोहे पीछे से मिल गए। हिततरंगिणी के दोहे बहुत ही सरस, भावपूर्ण तथा परिमार्जित भाषा में हैं। कुछ नमूने देखिए––

लोचन चपल कटाच्छ सर, अनियारे विषपूरि।
मन-मृग बेधैं मुनिन के, जगजन सहत बिसूरि॥
आजु सवारे हौं गई, नंदलाल हित ताल।
कुमुद कुमुदिनी के भटू निरखे और हाल॥
पति आयो परदेस तें, ऋतु बसंत को मानि।
झमकि झमकि निज महल में, टहलैं करै सुरानि॥

(४) महापात्र नरहरि बंदीजन––इनका जन्म संवत् १५६२ और मृत्यु संवत् १६६७ में कही जाती है। महापात्र की उपाधि इन्हे अकबर के दरबार से मिली थी। ये असनी-फतेहपुर के रहनेवाले थे और अकबर के दरबार में इनका बहुत मान था। इन्होंने छप्यय और कवित्त कहे है। इनके बनाए दो ग्रंथ परंपरा से प्रसिद्ध है––'रुक्मिणीमंगल' और 'छप्पय-नीति'। एक तीसरा ग्रंथ 'कवित्त-संग्रह' भी खोज में मिला है। इनका वह प्रसिद्ध छप्पय नीचे दिया जाता है जिसपर, कहते है कि, अकबर ने गोवध बंद कराया था––

अरिहु दंत तिनु धरै, ताहि नहिं नहिं मारि सकत कोइ।
हम संतत तिनु चरहिं, वचन उच्चरहिं दीन होइ॥
अमृत-पय नित स्रवहिं, बच्छ महि थंभन जावहिं।
हिंदुहि मधुर न देहिं, कटुक तुरकहि न पियावहिं॥
कह कवि नरहरि अकबर सुनौ बिनवति नउ जोरे करन।
अपराध कौन मोहिं मारियत, मुएहु चाम सेवइ चरन॥

[ २०० ](५) नरोत्तमदास––ये सीतापुर जिले के बाड़ी नामक कसबे के रहने वाले थे। शिवसिंह-सरोज में इनका संवत् १६०२ में वर्तमान रहना लिखा है। इनकी जाति का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। इनका 'सुदामा-चरित्र' ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसमे घर की दरिद्रता का बहुत ही सुंदर वर्णन है। यद्यपि यह छोटा है पर इसकी रचना बहुत ही सरस और हृदयग्राहिणी है और कवि की भावुकता का परिचय देती है। भाषा भी बहुत ही परिमार्जित और व्यवस्थित है। बहुतेरे कवियो के समान भरती के शब्द और वाक्य इसमें नहीं है। कुछ लोगों के अनुसार इन्होंने इस प्रकार का एक और खंड-काव्य 'ध्रुवचरित्र' भी लिखा है। पर वह कहीं देखने में नहीं आया। 'सुदामा-चरित्र' का यह सवैया

बहुत लोगो के मुँह से सुनाई पड़ता है––

सीस पगा न झगा तन पै, प्रभु! जानें को आहि, बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी सी, लटी दुपटी अरु पायँ उपानह को नहिं सामा॥
द्वार खडों द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सो बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बँसावत आपनो नाम सुदामा॥

कृष्ण की दीनवत्सलता और करुणा का एक यह और सवैया देखिए––

कैसे बिहाल बिवाइन सों भए, कंटक जाल गडें पग जोए।
हाय महादुख पाए सखा! तुम आए इतै न, कितै दिन खोए॥
देखि सुदामा की दीन दसा करुना करिकै करुनानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन वे जल सों पग धोए॥

(६) आलम––ये अकबर के समय के एक मुसलमान कवि थे जिन्होने सन् ९९१ हिजरी अर्थात् संवत् १६३९-४० में "माधवानल कामकंदला" नाम की प्रेमकहानी दोहा-चौपाई में लिखी। पाँच पाँच चौपाइयों (अर्द्धालियो) पर एक एक दोहा या सोरठा है। यह शृंगार रस की दृष्टि से ही लिखी जान पड़ती है, आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं। इसमें जो कुछ रुचिरता है वह कहानी की है, वस्तु-वर्णन, भाव-व्यंजना आदि की नहीं। कहानी भी प्राकृत या अपभ्रंश-काल से चली आती हुई कहानी है। [ २०१ ]कवि ने रचना-काल का उल्लेख इस प्रकार किया है––

दिल्लीपति अकबर सुरताना। सप्तदीप में जाकी आना॥
धरमराज सब देस चलावा। हिंदू तुरुक पंथ सब लावा॥

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सन नौ सै इक्कानबे आही। करौं कथा औ बोलौं ताही‍॥

(७) महाराज टोडरमल––ये कुछ दिन शेरशाह के यहाँ ऊँचे पद पर थे, पीछे अकबर के समय में भूमिकर-विभाग के मंत्री हुए। इनका जन्म संवत् १५८० में और मृत्यु संवत् १६४६ में हुई। ये कुछ दिनों तक बंगाल के सूबेदार भी थे। ये जाति के खत्री थे। इन्होंने शाही दफ्तरों में हिंदी के स्थान पर फारसी का प्रचार किया जिससे हिंदुओं का झुकाव फारसी की शिक्षा की ओर हुआ। ये प्रायः नीतिसंबंधी पद्य कहते थे। इनकी कोई पुस्तक तो नहीं मिलती, फुटकल कवित्त इधर-उधर मिलते है। एक कवित्त नीचे दिया जाता है––

जार को विचार कहा, गनिका को लाज कहा,
गदहा को पान कहा, आँधरे को आरसी।
निगुनी को गुन कहा, दान कहा दारिद को,
सेवा कहा सूम की अरंडन की डार सी॥
मदपी को सुचि कहाँ, साँच कहाँ लंपट को,
नीच को बचन कहा स्यार की पुकार सी।
टोडर सुकवि ऐसे हठी तौ न टारे टरै,
भावै कहौ सूधी बात भावै कहौ फारसी॥

(८) महाराज बीरबल––इनकी जन्मभूमि कुछ लोग नारनौल बतलाते हैं और इनका नाम महेशदास। प्रयाग के किले के भीतर जो अशोक-स्तंभ है। उस पर यह खुदा है––"संवत् १६३२ शाके १४९३ मार्ग बदी ५ सोमवार गंगादास-सुत महाराज बीरबल श्रीतीरथराज प्रयाग की यात्रा सुफल लिखितं।" यह लेख महाराज बीरबल के सबंध में ही जान पड़ता है क्योकि गंगादास और महेशदास नाम मिलते जुलते है जैसे, कि पिता पुत्र के हुआ करते है।

बीरबल का जो उल्लेख भूषण ने किया है उससे इनके निवासस्थान का पता चलता है–– [ २०२ ]

द्विज कनौज कुल कस्यपी रतनाकर-सुत धीर। बसत त्रिविक्रम पुर सदा, तरनि-तनूजा तीर॥
बीर बीरवल से जहाँ उपजे कवि अरु भूप। देव बिहारीश्वर जहाँ, विवेश्वर तद्रूप॥

इनका जन्मस्थान तिकवाँपुर ही ठहरता है; पर कुल का निश्चय नहीं होता। यह तो प्रसिद्ध ही है कि ये अकबर के मंत्रियों में थे और बड़े ही वाक्चतुर और प्रत्युत्पन्नमति थे। इनके और अकबर के बीच होने वाले विनोद और चुटकुले उत्तर भारत के गाँव गाँव में प्रसिद्ध हैं। महाराज वीरबल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और कवियों का बड़ी उदारता से सम्मान करते थे। कहते हैं, केशवदासजी को इन्होने एक बार छः लाख रुपए दिए थे और केशवदास, की पैरवी से ओरछा-नरेश पर एक करोड़ का जुरमाना मुआफ करा दिया था। इनके मरने पर अकबर ने यह सोरठा कहा था––

दीन देखि सब दीन, एक न दीन्हों दुसह दुख।
सो अब हम कहँ दीन, कछु नहिं राख्यो बीरबल॥

इनकी कोई पुस्तक नहीं मिलती है, पर कई सौ कवित्तों का एक संग्रह भरतपुर में है। इनकी रचना अलंकार आदि काव्यागों से पूर्ण और सरस होती थी। कविता में ये अपना नाम ब्रह्म रखते थे। दो उदाहरण नीचे दिए जाते है––

उछरि उछरि केकी झपटै उरग पर,
उरग हू केकिन पै लपटैं लहकि हैं।
केकिन के सुरति हिए की ना कछु हैं, भए
एकी करि केहरि, न बोलत बहकि है॥
कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं,
बैहर बहत बडे़ जोर सों जहकि है।
तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही,
दसहू दिसान में दवारि सी बहकि है॥

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पूत कपूत, कुलच्छनि नारि, लराक परोसि, लजायन सारो।
बंधु कुबुद्धि, पुरोहित लंपट, चाकर चोर, अतीय धुतारो॥

[ २०३ ]

साहब सूम, अड़ाक तुरंग, किसान कठोर, दिवान नकारो।
ब्रह्म भनै सुनु साह अकबर बारहौ बाँधि समुद्र में ढारो॥

(९) गंग––ये अकबर के दरबारी कवि थे और रहीम खानखानँ इन्हें बहुत मानते थे। इनके जन्म-काल तथा कुल आदि का ठीक वृत्त ज्ञात नहीं। कुछ लोग इन्हे-ब्राह्मण कहते है पर अधिकतर ये ब्रह्मभट्ट ही प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जाता है कि किसी नवाब या राजा की आज्ञा से ये हाथी से चिरवा डाले गए थे और उसी समय मरने के पहले इन्होंने यह दोहा कहा था––

कबहूँ न भँडुवा रन चढ़े, कबहुँ ने बाजी बंब।
सकल सभाहि प्रनाम करि, विदा होत कवि गंग॥

इसके अतिरिक्त कई और कवियों ने भी इस बात का उल्लेख व संकेत किया है। देव कवि ने कहा है––

"एक भए प्रेत, एक मींजि मारे हाथी"।

ये पद्य भी इस संबंध में ध्यान देने योग्य है––

सब देवन को दरबार जुरयो, तहँ पिंगल छंद बनाय कै गायो।
जब काहू तें अर्थ कह्यो न गयो, तब नारद एक प्रसंग चलायो॥
मृतलोक में है नर एक गुनी, कवि गंग को नाम सभा में बतायो।
सुनि चाह भई परमेसर को, तब गंग को लेन गनेस पठायो॥


'गंग ऐसे गुनी को गयद सो चिराइए'।

इन प्रमाणों से यह घटना ठीक ठहरती हैं। गंग कवि बहुत निर्भीक होकर बात कहते थे। ये अपने समय के नर-काव्य करने वाले कवियों में सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे। दासजी ने कहा है––

तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार।

कहते हैं कि रहीम खानखानँ ने इन्हें एक छप्पय पर छत्तीस लाख रुपए में डाले थे। वह छप्पय यह है––

चकित भँवरि रहि गयो, गम नहिं करत कमलवन।
अहि फन मनि नहिं लेत, तेज नहिं बहत पवन वन॥

[ २०४ ]

हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति।
बहु सुंदरि पद्मिनी पुरुष न चहै, न करै रति॥

खलभलित सेस कवि गंग भन, अमित तेज रविरथ खस्यो।
खानान खान बैरम-सुवन, जवहिं क्रोध करि तँग कस्यो॥

सारांश यह कि गंग अपने समय के प्रधान कवि माने जाते थे। इनकी कोई पुस्तक अभी नहीं मिली है। पुराने संग्रह ग्रंथों में इनके बहुत से कवित्त मिलते है। सरस हृदय के अतिरिक्त वाग्वैदग्ध्य भी इनमे प्रचुर मात्रा में था। वीर और शृंगार रस के बहुत ही रमणीय कवित्त इन्होंने कहे है। कुछ अन्योक्तियाँ भी बड़ी मार्मिक हैं। हास्यरस का पुट भी बड़ी निपुणता से ये अपनी रचना में देते थे। घोर अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तु-व्यग्य-पद्धति पर विरहताप का वर्णन भी इन्होंने किया है। उस समय की रुचि को रंजित करने वाले सब गुण इनमें वर्त्तमान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। इनका कविता-काल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का अंत मानना चाहिए। रचना के कुछ नमूने देखिए––

बैठी ती सखिन संग, पिय को गवन सुन्यौ,
सुख के समूह में वियोग-आगि भरकी।
गंग कहै त्रिविध सुगंध लै पवन बह्यो,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की॥
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहँ,
लागत ही औरै गति भई मानसर की।
जलचर चरे औ सेवार जरि छार भयो,
जल जरि गयो, पंक सूख्यो, भूमि दरकी॥


झुकत कृपान मयदान ज्यों दोत भान,
एकन तें एक मानो सुषमा जरद की।
कहै कवि गंग तेरे बल को बयारि लगे,
फूटी गजघटा धनघटा ज्यों सरद की॥
एते मान सोनित की नदियाँ उमड़ चलीं,

[ २०५ ]

रही न निसानी कहूँ महि में गरद की।
गौरी गह्यो गिरिपति, गनपति गह्यो गौरी,
गौरीपति गही पूँछ लपकि बरद की॥


देखत कै वृच्छन में दीरध सुभायमान,
कीर चल्यो चाखिबे को, प्रेम जिय जग्यो है।
लाल फल देखि कै जटान मँडरान लागे,
देखत बटोही बहुतेरे डगमग्यो है।
गंग कवि फल फूटै भुआ उधिरानै लखि,
सबही निरास ह्वै कै निज गृह भग्यो है।
ऐसो फलहीन वृच्छ वसुधा में भयो,यारो,
सेंमर बिसासी बहुतेरन को ठग्यों है॥

(१०) मनोहर कवि––ये एक कछवाहे सरदार थे जो अकबर के दरबार में रहा करते थे। शिवसिंह-सरोज में लिखा है कि ये फारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे और फारसी कविता में अपना उपनाम 'तौसनी' रखते थे। इन्होंने 'शत प्रश्नोत्तरी' नाम की पुस्तक बनाई है तथा नीति और शृंगाररस के बहुत से फुटकल दोहे कहे हैं। इनका कविता-काल संवत् १६२० के आगे माना जा सकता है। इनके शृंगारिक दोहे मार्मिक और मधुर है पर उनमे कुछ फारसी- पन के छींटे मौजूद है। दो चार नमूने देखिए––

इंदु बदन नरगिस नयन सबुलवारे बार। उर कुंकुम, कोकिल बयन, जेहि लखि लाजत मार॥
बिथुरे सुथुरे चीकने घने घने घुघुवार। रसिकन को जंजीर से बाला तेरे बार॥
अचरज मोहिं हिंदू तुरुक बादि करत संग्राम। इक दीपति सों दीपियत काबा काशीधाम॥

(११) बलभद्र मिश्र––ये ओरछा के सनाढ्य ब्राह्मण पंडित काशीनाथ के पुत्र और प्रसिद्ध कवि केशवदास के बड़े भाई थे। इनका जन्म-काल संवत् १६०० के लगभग माना जा सकता है। इनका 'नखशिख' शृंगार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिसमें इन्होंने नायिका के अंगों का वर्णन उपमा, उत्प्रेक्षा, संदेह आदि अलंकारों के प्रचुर विधान द्वारा किया है। ये केशवदासजी के समकालीन या पहले के उन कवियों में थे जिनके चित्त में रीति के अनुसार काव्य-रचना की [ २०६ ]प्रवृत्ति हो रही थी। कृपाराम ने जिस प्रकार रसरीति का अवलंबन कर नायिकाओं का वर्णन किया उसी प्रकार बलभद्र नायिका के अंगों को एक स्वतंत्र विषय बनाकर चले थे। इनका रचनाकाल संवत् १६४० के पहले माना जा सकता है। रचना इनकी बहुत प्रौढ़ और परिमार्जित है, इससे अनुमान होता है कि नखशिख के अतिरिक्त इन्होंने और पुस्तके भी लिखी होगी। संवत् १८९१ में गोपाल कवि ने बलभद्रकृत नखशिख की एक टीका लिखी जिसमें उन्होंने बलभद्र-कृत तीन और ग्रथों का उल्लेख किया है––बलभद्री व्याकरण, हनुमन्नाटक और गोवर्द्धनसतसई टीका। पुस्तकों की खोज में इनका 'दूषण विचार' नाम का एक और ग्रंथ मिला है जिसमें काव्य के दोषों का निरूपण है। नखशिख के दो कवित्त उद्धृत किए जाते है––

पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ,
बलभद्र बासर उनीदी लखो बाल मैं।
सोभा के सरोवर में बाडव की आभा कैधौं,
देवधुनी भारती मिली है पुन्यकाल मैं॥
काम-कैवरत कैधौं नासिका-उडुप बैठो,
खेलत सिकार तरुनी के मुख-ताल मैं।
लोचन सितासित में लोहित लकीर मानो,
बाँधे जुग मीन लाल रेशम की डोर मैं॥


मरकत के सूत, कैधौं पन्नग के पूत, अति
राजत अभूत तमराज कैसे तार हैं।
मखतूल-गुनग्राम सोभित सरस स्याम,
काम-मृग-कानन कै कुहू के कुमार हैं॥
कोप की किरन, कै जलज-नाल नील तंतु,
उपमा अनंत चारु चँवर सिंगार हैं।
कारे सटकारे भींजे सोंधे सों सुगंध बास,
ऐसे बलभद्र नवबाला तेरे बार हैं॥


[ २०७ ](१२) जमाल-ये भारतीय काव्य-परंपरा से पूर्ण परिचित कोई सहृदय मुसलमान कवि थे जिनका रचना-काल संवत् १६२७ अनुमान किया गया है। इनके नीति और शृंगार के दोहे राजपूताने की ओर बहुत जनप्रिय हैं। भावों की

व्यंजना बहुत ही मार्मिक पर सीधे-सादे ढंग पर की गई है। इनका कोई ग्रंथ तो नहीं मिलता, पर कुछ संगृहीत दोहे मिलते हैं। सहृदयता के अतिरिक्त इनमें शब्दक्रीड़ा की निपुणता भी थी, इससे इन्होंने कुछ पहेलियाँ भी अपने दोहों में रखी हैं। कुछ नमूने दिए जाते है-

पूनम चाँद, कुसूँभ रँग नदी-तीर द्रुम-डाल। रेत भीत, भुस लीपणो, ए थिर नहीं जमाल॥
रंग जो चोल मजीठ का, संत वचन प्रतिपाल। पाहण-रेख रुकरम गत, ए किमि मिटैं जमाल॥
जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी केस कराय। कै काला, कै ऊजला, जब तक सिर स्यूँ जाय॥
मनसा तो गाहक भए, नैना भए दलाल। धनी बसत बेचै नहीं, किस बिध बनै जमाल॥
बालपणे धौला भया, तरुणपणे भया लाल। वृद्धपणे काला भया, कारण कोण जमाल॥
कामिण जावक-रँग रच्यो, दमकत मुकता-कोर। इम हंसा मोती तजे, इम चुग लिए चकोर॥

  1. देखो पृ॰ ६०––६२।