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दिसम्बर की निर्वाचित पुस्तक
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सप्ताह की पुस्तक
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दुखी भारत लाला लाजपत राय का द्वारा किया गया अनुवाद है जिसका प्रकाशन सन् १९२८ ई॰ में प्रयाग के इंडियन प्रेस, लिमिटेड द्वारा किया गया था।


"राष्ट्रीय दृष्टिकोण से कहा जाय तो एक जाति के ऊपर दूसरी जाति की ग़ुलामी से बढ़कर और कोई शाप नहीं हो सकता। लूट-मार करने और देश जीतने के इरादे से जो राजा अपना दल लेकर निकल पड़ता है उसका प्रभाव जिस देश को रौंदते हुए वह जाता है उसके लिए नाशकारी होता है। पर यदि उसकी तुलना किसी देश की स्वाधीनता की उस क्षति से की जाय जो उसकी जातियों को पूर्णरूप से पराधीन करके उस पर विदेशी सेना की सङ्गीनों का भय दिखाकर शासन करने से क्रमशः होती है, तो वह कुछ भी न ठहरेगा। आक्रमणकारी तूफान की तरह आता है, लूट-मार करता है, उखाड़-पछाड़ करता है और बात की बात में सारे देश को तहस-नहस कर देता है।..."(पूरा पढ़ें)


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पूर्ण पुस्तक
पूर्ण पुस्तकें

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साहित्य सीकर महावीर प्रसाद द्विवेदी के निबंधों का संग्रह है जिसका प्रकाशन १९२९ ई॰ में प्रयाग के तरुण-भारत-ग्रन्थावली द्वारा किया गया था।


"वेद शब्द 'विद्' धातु से निकला है। इस धातु से जानने का अर्थ निकलता है। अतएव वेद वह धर्म-ग्रन्थ है जिसकी कृपा से ज्ञान की प्राप्ति होती है—जिससे सब तरह की ज्ञान की बातें जानी जाती हैं।
वेद पर सनातनधर्मावलम्बी हिन्दुओं का अटल विश्वास है। वेद हम लोगों का सब से श्रेष्ठ और सबसे पुराना ग्रन्थ है। वह इतना पुराना है कि किरिस्तानों का बाइबिल, मुसलमानों का क़ुरान, पारसियों का जेन्द-आवेस्ता और बौद्धों के त्रिपिटक आदि सारे धर्म-ग्रन्थ प्राचीनता में कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकते। ..."(पूरा पढ़ें)


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सहकार्य

रचनाकार
रचनाकार

अनुपम मिश्र (1948 — 19 दिसम्बर 2016), लेखक, पत्रकार और पर्यावरणविद् थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ :

  1. राजस्थान की रजत बूँदें (1995)
  2. आज भी खरे हैं तालाब (2004)
  3. साफ़ माथे का समाज (2006)

आज का पाठ

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आधुनिक काल (प्रकरण १) काव्य खंड रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास का एक अंश है जिसके दूसरे संस्करण का प्रकाशन काशी के नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १९४१ ई॰ में किया गया।

"गद्य के आविर्भाव और विकास-काल से लेकर अब तक कविता की वह परंपरा भी चलती आ रही है जिसका वर्णन भक्ति-काल और रीति-काल के भीतर हुआ है। भक्ति-भाव के भजनों, राजवंश के ऐतिहासिक चरित-काव्यों, अलंकार और नायिकाभेद के ग्रंथों तथा शृंगार और वीर-रस के कवित्त-सवैयों और दोहों की रचना बराबर होती आ रही है। नगरों के अतिरिक्त हमारे ग्रामों में भी न जाने कितने बहुत अच्छे कवि पुरानी परिपाटी के मिलेंगे। ब्रजभाषा-काव्य की परम्परा गुजरात से लेकर बिहार तक और कुमाऊँ-गढ़वाल से लेकर दक्षिण भारत की सीमा तक बराबर चलती आई है।..."(पूरा पढ़ें)

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