"अमर बेलि बिन मूल की, प्रति-पालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि॥१॥
अधम बचन तैं को फल्यो, बैठि तार की छाहिं।
रहिमन काम न आवहीं, जे नीरस जग माहिं॥२॥
अनुचित-उचित रहीम लघु, करहिं बड़ेन के जोर।
ज्यों ससि के संयोग[१] तैं, पचवत[२] आगि चकोर॥३॥
अनुचित बचन न मानिए, यदपि गुराइस[३] गाढ़ि।
है रहीम रघुनाथ तैं, सुजस भरत को बाढ़ि॥४॥
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे तैं तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥५॥
अमी[४] पियावत मान बिन, रहिमन मोहिं न सुहाइ।
प्रेम सहित मरिबो भलो, जो बिष देइ बुलाइ॥६॥[५]..."
"माइ लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भङ्गडको बुलबुला का बड़ा चाव था। गांवमें कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे। बालक शिवशम्भु शर्म्मा बुलबुलें लड़ानेका चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुलको हाथपर बिठा कर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मणकुमारकों बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालकको बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथसे बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोधसे यदि पिता ने किसी मित्रकी बुलबुल किसी दिन ला भी दी, तो वह एक घण्टे से अधिक नहीं रह पाती थी। वह भी पिताकी निगरानी में!..."(पूरा पढ़ें)
"धर्म ने हज़ारों वर्ष से मनुष्य जाति को नाको चने चबाऐ हैं। करोड़ों नर नाहरों का गर्म रक्त इसने पिया है, हज़ारों कुल बालाओं को इसने जिन्दा भस्म किया है, असंख्य पुरुषों को इसने ज़िन्दा से मुर्दा बना दिया है। यह धर्म पृथ्वी की मानव जाति का नाश करेगा कि उद्धार—आज इस बात पर विचारने का समय आगया है।
धर्म के कारण ही धर्म के पुत्र युधिष्ठिर ने जुआ खेला, राज्य हारा, भाइयों और स्त्री को दाव पर लगा कर गुलाम बनाया, धर्म ही के कारण द्रौपदी को पांच आदमियों की पत्नी बनना पड़ा। धर्म ही के कारण अर्जुन और भीम के सामने द्रौपदी पर अत्याचार किये गये और वे योद्धा मुर्दे की भांति बैठे देखते रहे। धर्म ही के कारण भीष्मपितामह और गुरुद्रोण ने पांडवों के साथ कौरवों के पक्ष में युद्ध किया, धर्म ही के कारण अर्जुन ने भाइयों और सम्बन्धियों के खून से धरती को रङ्गा, धर्म ही के कारण भीष्म आजन्म कुंवारे रहे, धर्म ही के कारण कुरुओं की पत्नियो ने पति से भिन्न पुरुषों से सहवास करके सन्तान उत्पन्न कीं।"...(पूरा पढ़ें)
अमावस्या की रात्रिप्रेमचंद द्वारा रचित कहानी है, जो बनारस के सरस्वती प्रेस द्वारा १९४८ ई. में प्रकाशित कहानी-संग्रह "नव-निधि" में संग्रहित है।
"दिवाली की सन्ध्या थी। श्रीनगर के घूरों और खडहरों के भी भाग्य चमक उठे थे। कस्बे के लड़के और लड़कियाँ श्वेत थालियों में दीपक लिये मन्दिर की ओर जा रही थीं। दीपों से अधिक उनके मुखारविन्द प्रकाशवान् थे। प्रत्येक गृह रोशनी से जगमगा रहा था। केवल पण्डित देवदत्त का सतघरा भवन काली
घटा के अन्धकार में गंभीर और भयंकर रूप में खड़ा था। गंभीर इसलिए कि उसे अपनी उन्नति के दिन भूले न थे। भयंकर इसलिए कि यह जगमगाहट मानो उसे चिढ़ा रही थी। एक समय वह था जब कि ईर्ष्या भी उसे देख-देखकर हाथ मलती थी और एक समय यह है जब कि घृणा भी उस पर कटाक्ष करती है। ..."(पूरा पढ़ें)
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