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मार्च की निर्वाचित पुस्तक
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सप्ताह की पुस्तक
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आकाश-दीप लीडर प्रेस, इलाहाबाद द्वारा १९२९ ई. में प्रकाशित जयशंकर प्रसाद का कहानी संग्रह है। इसमें १९ कहानियाँ हैं- आकाश-दीप, ममता, स्वर्ग के खँड़हर में, सुनहला साँप, हिमालय का पथिक, भिखारिन, प्रतिध्वनि, कला, देवदासी, समुद्र-संतरण, वैरागी, बनजारा, चूड़ीवाली, अपराधी, प्रणय-चिह्न, रूप की छाया, ज्योतिष्मती, रमला तथा बिसाती।


""बन्दी! "
"क्या है? सोने दो।"
"मुक्त होना चाहते हो?"
"अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।"
"फिर अवसर न मिलेगा।"
"बड़ा शीत है, कहीं से एक कम्बल डाल कर कोई शीत से मुक्त करता।"
"आँधी की सम्भावना है। यही अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।”
“तो क्या तुम भी बन्दी हो?"
“हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।”
“शस्त्र मिलेगा?”
"मिल जायगा। पोत से सम्बद्ध रज्जु काट सकोगे?”
"हाँ। "
समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे। पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। दूसरे का बंधन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक दूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा--स्नेह का असम्भावित आलिंगन। दोनों ही अन्धकार में मुक्त हो गये। दूसरे बंदी ने हर्षातिरेक से, उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बंदी ने कहा--“यह क्या? तुम स्त्री हो?"
"क्या स्त्री होना कोई पाप है?"--अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।..."(पूरा पढ़ें)


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स्कंदगुप्त जयशंकर प्रसाद द्वारा १९२८ ई. में लिखा गया नाटक है। गुप्त-काल (२७५ ई०---५४० ई० तक) अतीत भारत के उत्कर्ष का मध्याह्न था। उस समय आर्य्य-साम्राज्य मध्य-एशिया से जावा-सुमात्रा तक फैला हुआ था। समस्त एशिया पर भारतीय संस्कृति का झंडाफहरा रहा था। इसी गुप्तवंश का सबसे उज्ज्वल नक्षत्र था---स्कंदगुप्त। उसके सिंहासन पर बैठने के पहले ही साम्राज्य में भीतरी षड्यंत्र उठ खड़े हुए थे। साथ ही आक्रमणकारी हूणों का आतंक देश में छा गया था और गुप्त-सिंहासन डाँवाडोल हो चला था। ऐसी दुरवस्था में लाखों विपत्तियाँ सहते हुए भी जिस लोकोत्तर उत्साह और पराक्रम से स्कंदगुप्त ने इस स्थिति से आर्य साम्राज्य की रक्षा की थी---पढ़कर नसों में बिजली दौड़ जाती हैं। अन्त में साम्राज्य का एक-छत्र चक्रवर्तित्व मिलने पर भी उसे अपने वैमात्र एवं विरोधी भाई पुरगुप्त के लिये त्याग देना, तथा, स्वयं आजन्म कौमार जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा करना---ऐसे प्रसंग हैं जो उसके महान चरित पर मुग्ध ही नहीं कर देते, बल्कि देर तक सहृदयों को करुणासागर में निमग्न कर देते हैं। ( स्कंदगुप्त पूरा पढ़ें)


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रचनाकार
रचनाकार

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (१५ अप्रैल, १८६५ - १६ मार्च, १९४७) हिन्दी के कवि, निबंधकार तथा संपादक थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ:


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आज का पाठ

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अलग्योझा प्रेमचंद द्वारा रचित कहानी-संग्रह मानसरोवर १ का एक अंश है जिसका प्रकाशन अप्रैल १९४७ में बनारस के सरस्वती प्रेस बनारस द्वारा किया गया था।

"भोला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने के बाद दूसरी सगाई की, तो उसके लड़के रग्घू के लिए बुरे दिन आ गये। रग्घू की उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी। चैन से गाँव में गुल्ली-डंडा खेलता फिरता था। माँ के आते ही चक्की में जुतना पड़ा। पन्ना रूपवती स्त्री थी और रूप और गर्व में चोली-दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई मोटा काम न करती। गोबर रग्घू निकालता, बैलों को सानी रग्घू देता। रग्घू ही जूठे बरतन माँजता। भोला की आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब रग्धू में सब बुराइयाँ-ही-बुराइयाँ नज़र आतीं। पन्ना की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आँखें बन्द करके मान लेता था।.."(पूरा पढ़ें)


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