हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/प्रथम खंड/६ - हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ सर्वनाम और क्रियाएँ

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छठा प्रकरण।
हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ, सर्वनाम, और उसकी क्रियायें

हिन्दी विभक्तियों के विषय में कुछ विद्वानों ने ऐसी बातें कही हैं, जिससे यह पाया जाता है, कि वे विदेशीय भाषाओं से अथवा द्राविड़ भाषा से उसमें गृहीत हुई हैं, इसलिये इस सिद्धान्त के विषय में भी कुछ लिखने की आवश्यकता ज्ञात होती है। क्योंकि यदि हिन्दी भाषा वास्तव में शौरसेनी अपभ्रंश से प्रसूत है, तो उसकी विभक्तियों का उद्गम भी उसी को होना चाहिये। अन्यथा उसकी उत्पत्ति का सर्वमान्य सिद्धान्त संदिग्ध हो जावेगा। किसी भाषा के विशेष अवयव और उसके धातु किसी मुख्य भाषा पर जब तक अवलम्बित न होंगे, उस समय तक उससे उसकी उत्पत्ति स्वीकृत न होगी। ऐसी अनेक भाषायें हैं, जिनमें विदेशी भाषाओं की बहुत सी संज्ञायें पाई जाती हैं परिवर्तित रूप में उनमें उन भाषाओं की कुछ क्रियायें भी मिल जाती हैं। यदि केवल उनके आधार से हम विचार करने लगेंगे तो उस विदेशी भाषा से ही उनकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी, किंतु यह बात वास्तविक और युक्तिसंगत न होगी। दूसरी बात यह कि एक ही भाषा में विभिन्न भाषाओं के अनेक व्यवहारिक शब्द मिलते हैं, विशेष करके आदान-प्रदान अथवा खान पान एवं व्यवहार सम्बन्धी। यदि ऐसे कुछ शब्दों को ही लेकर कोई यह निर्णय करे कि इस भाषा की उत्पत्ति उन सभी भाषाओं से है, जिनके शब्द उसमें पाये जाते हैं, तो कितनी भ्रान्ति जनक बात होगी, और इस विचार से तथ्य का अनुसंधान कितना अव्यवहारिक हो जावेगा। इन्हीं सब बातों पर दृष्टि रख कर किसी भाषा का मूल निर्धारण करने के लिये उससे सम्बन्ध रखनेवाले मौलिक आधारों की ही मीमांसा आवश्यक होती है। बिभक्तियों और प्रत्ययों की गणना भाषा के मौलिक अंगों में ही की जाती है। इस लिये विचारणीय यह है कि हिन्दी भाषा की विभक्तियां कहां से आई हैं, और उनका आधार क्या है।

"डाक्टर 'के, कहते हैं कि हिन्दी का 'को' (जैसे-हमको) और [ ७९ ] बंगला का 'के, (जैसे राम के), तातार देशीय अन्त्यवर्ण 'क, से आगत हुआ है। डाक्टर 'काल्डवेल, अनुमान करते हैं कि द्राविड़ भाषा के 'कु, से हिन्दी भाषा का 'को' लिया गया है। वे यह भी कहते हैं कि हिन्दी प्रभृति देशी भाषायें द्राविड़ भाषा से उत्पन्न हुई हैं। डाक्टर हार्नली और राजा राजेन्द्र लाल मित्र ने इन सबमतों का अयुक्त होना सिद्ध किया है।" डाक्टर हार्नली की सम्मति यहां उठाई जाती है—

"डाक्टर 'काल्डवेड, का कथन है कि आर्यगण, आर्यावर्त जय करके जितना आगे बढ़ने लगे, उतना ही देश में प्रचलित अनार्य भाषा संस्कृत शब्दों के ऐश्वर्य द्वारा पुष्टि लाभ करने लगी। इसलिये यह भ्रम होता है, कि अनार्य भाषायें संस्कृत से उत्पन्न हैं। किन्तु संस्कृत का प्रभाव कितना ही प्रबल क्यों न हो, इन सब भाषाओं का व्याकरण उसके द्वारा परिवर्तित न हो सका। इसके उत्तर में डाकर हार्नली कहते हैं, आर्यगण बहुत समय तक आर्यावर्त में रह कर सहसा अनार्य गणों की भाषा ग्रहण कर लेंगे, यह बात विश्वास योग्य नहीं। उनलोगों ने चिरकाल तक संस्कृत जातीय पालि और प्राकृतभाषा का व्यवहार किया था, यह बात विशेष रूप से प्रमाणित हो गई है। नाटकादिकों के प्राकृत द्वारा यह भी दृष्टिगत होता है कि विजित अनार्यों ने भी अपने प्रभुओं की भाषा को ग्रहण कर लिया था। इतने समय तक हिन्दुलोग अपनी भाषा और व्याकरण को अनार्यगण में प्रचलित रख कर भी अन्त में क्यों अनार्य व्याकरण के शरणागत होंगे, यह विचारणीय है। दूसरी बात यह कि देशभाषाओं की उत्पत्ति के समय (आर्यभाषा की दीर्घकाल व्यापी आखण्ड राजत्व के उपरान्त) विजित अनार्यगण की भाषा देश में प्रचलित थी। इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। इतिहासमें अवश्य कभी कभी यह भी देखा गया है, कि विजेता जातियों ने विजित जातियों का व्याकरण ग्रहण कर लिया है, जैसे नार्मन लोगों ने इंग्लैंड में और अरब एवं तुर्की लोगों ने आर्यावर्त में तथा फ्रान्सवालों ने गल में। किन्तु इन सब स्थानों में विजेता लोग विजित लोगों की अपेक्षा अल्प शिक्षित थे। उपनिवेश स्थापना के प्रारम्भ काल से ही भाषाग्रहण का सूत्रपात उन्होंने कर दिया था। विजयी जाति बहुकाल पर्यन्त अपनी भाषा और स्वातन्त्र्य [ ८० ]

गौरव की रक्षा करके अन्त में असभ्य जातियों के निकट उसको विसर्जित कर दे, इतिहास में कहीं यह बात दृष्टिगत नहीं होती ।"१

देशीय भाषाओं को समस्त विभक्ति प्राकृत से ही प्राप्त हुई है, इस बात को डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र, हार्नली, और अन्य जर्मन पण्डितोंने दिखलाने की चेष्टा की है। और विद्वानों ने भी इस सिद्धान्त को पुष्ट किया है। मैं क्रमशः प्रत्येक विभक्तियों के विषय में उन लोगों के विचारों का उल्लेख करता हूं।

(१) कर्ता कारक में भूतकालिक सकर्मक क्रिया के साथ ब्रजभाषा एवम् खड़ी बोली में 'ने' का प्रयोग होता है, किन्तु अवधी में ऐसा नहीं होता ब्रज भाषा में भी प्रायः कवियों ने इस प्रयोग का त्याग किया है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अवधी के समान ब्रजभाषा में 'ने' का प्रयोग होता ही नहीं । प्रथमा एक बचन में कहीं कहीं कर्ता के साथ 'ए' का प्रयोग देखा जाता है। यथा- “शु अणेहु शिञ्चाण कम्पके शामीए निदणके बिशोहेदि) मृ० क० ३ अंक” बँगला भाषा में भी पहले इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है --- यथा

कदाचित ना दे सिद्धहेनो रूप ठान

कोन मते विधाताए करिछे निर्माण । रामेश्वरी महाभारत पृ० ८६ “किन्तु अब बँगलामें भी प्रथम एक वचन में इस 'ए' का अभाव है, अब बंगला में प्रथमा का रूप संस्कृत के समान होता है, किन्तु अनुस्वार अथवा बिसर्ग वर्जित" । २ प्रश्न यह है कि प्राकृत भाषा के उक्त 'ए' का सम्बन्ध क्या हमारी हिन्दी भाषा के 'ने' से है ?

'एक विद्वान् की सम्मति है कि यह 'ने' वास्तव में करण कारक का चिन्ह है. जो हिन्दी में गृहीत कर्मवाच्य रूप के कारण आया है, 'संस्कृत में करण कारक का 'इन' प्राकृत में 'एण' हो जाता है, इसी 'इन का वर्ण विपरीत हिन्दी रूप में 'ने' है" ३

१ बंगभाषा और साहित्य-पृ० ३६

२-वंगभाषा और साहित्य ३८ पृष्ट ।

३-दे० हिन्दी भाषा और साहित्य का पृ० १३८ । [ ८१ ] (२) कम और सम्प्रदान । टम्पका अनुमान है कि बँगला कर्म और सम्प्रदान कारक का के' संस्कृत के सप्तमी में प्रयुक्त 'कृते' शब्द से आया है। इस ‘कृते' के निमित्तार्थक प्रयोग का उदाहरण स्थान स्थान पर मिलता है---यथा

वालिशो वत कामात्मा राजा दशरथो भृशम् । .प्रस्थापयामास वनं स्त्रीकृते यः प्रियंसुतम् ॥

यह कृते शब्द प्राकृत में 'किते' किउ एवं 'को' इन तीनों रूपों में ही व्यवहृत हुआ है। इसी लिये टम्प का यह अनुमान है कि शेषोक्त 'को' के साथ हिन्दी के को' और बँगला के 'के' का सम्बन्ध है' १

बँगभाषा और साहित्य,नामक ग्रन्थ के रचयिता टम्प की सम्मति से सहमत न होकर अपनी सम्मति यों प्रकट करते हैं--

"मैक्समूलर कहते हैं कि संस्कृत के स्वार्थे 'क' से बँगला का के (हिन्दी का को) आया है। पिछले समय में संस्कृत में स्वार्थे 'क' का प्रयोग अधिकतर देखा जाता है । मैं मैक्समूलर के मत को ही समीचीन समझता हूंं। २

श्रीमान पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं---

"पुरानी संस्कृत का एक शब्द कृते,' है जिसका अर्थ है (लिये) होते होते इसका रूपान्तर 'कहुं' हुआ, वर्तमान 'को' इसीका अपभ्रंश है” हिन्दी-भाषा की उत्पत्ति पृ० ७०

एक विद्वान की सम्मति और सुनिये--

"संस्कृत रूप ‘कृते' प्राकृत में किते हो गया, और नियमानुसार त का लोप होने से 'किये' हुआ, और फिर वही के में परिणत हो गया। 'को' प्रत्यय संस्कृत के कर्मकारक के नपुंसक ‘कृतं' से हुआ । प्राकृत में 'कृतं' बदल, कर 'कितो' हुआ, और न के लोप होने से 'किओ' बना, और अन्त में उसने 'को' का रूप धारण कर लिया" ३

१, २ वंगभाषा और साहित्य पृ० ३९ ।

३-देखिये (ओरिजन) आफ़ दी हिन्दी लैंग्वेज पृ० ११ । [ ८२ ]

(८२)

आपलोगों ने सब सम्मतियाँ पढ़ लों, अधिकांश सम्मति यही है कि 'को' की उत्पत्ति 'कृते' से है। 'को' का प्रयोग कर्मकारक में तो होता ही है, संप्रदान के लिये भी होता है, संप्रदान की एक विभक्ति 'केलिये' भी है। कृते' में यह निमित्तार्थक भाव भी है. जैसा कि ऊपर दिखलाया गया है । इस लिये मैं भी ‘कृते' से ही 'को' की उत्पत्ति स्वीकार करता हूं ।

(३) करण और अपादान कारक की विभक्ति हिन्दीभाषा में 'से' है। करण कारक के साथ 'से' प्राय: उसी अर्थ का द्योतक है, जिसको संस्कृत का 'द्वारा' शब्द प्रकट करता है, इस 'से' में एक प्रकार से सहायक होने अथवा सहायक बनने का भाव रहता है। यदि कहा जाये कि 'वाण से मारा' तो इसका यही अर्थ होगा कि वाण द्वारा अथवा वाण के सहारे से या वाण की सहायता से मारा। परन्तु अपादान का 'से, इस अर्थ में नहीं आता, उसके 'से' में अलग करने का भाव है। जब कहा जाता है 'घर से निकल गया' तो यही भाव उससे प्रकट होता है कि निकलने वाला घर से अलग हो गया। जब कहते हैं 'पर्वत से गिरा' तो भी वाक्य का 'से' पर्वत से अलग होने का भाव ही सूचित करता है। 'से' एक विभक्ति होने पर भी करण और अपादान कारकों में भिन्न भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है । 'बंगभाषा और साहित्य' कार लिखते हैं--"प्राकृत में 'हिंतो' शब्द पञ्चमी के बहुवचन में व्यवहृत होता है. इसी 'हिंतो' शब्द से बँगला 'हइते' की उत्पत्ति हुई है" उन्होंने प्रमाण के लिये वररुचि का यह सूत्रभी लिखा है 'भावो हितो सुतो'। ब्रजभाषा में 'से' का प्रयोग नहीं मिलता उसमें तें का प्रयोग 'से' के स्थान पर देखा जाता है। 'से' के स्थान पर कबीर दास को 'सेती' अथवा 'सेंती' औ चंदवरदाई को 'हुंत' लिखते पाते हैं। इससे अनुमान होता है कि जैसे बँगला में 'हिंतो' से हइते बना उसी प्रकार हिन्दी में 'हुंत' और 'तें'। और ऐसे ही 'सुंतो' के आधार से 'सेंती' और से। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि संस्कृत के 'सह' अथवा सम से 'से' की उत्पत्ति हुई है। करण में सहयोग का भाव पाया जाता है, ऐसी अवस्था में उसकी विभक्ति की उत्पत्ति 'सह' से होने की कल्पना स्वाभाविक [ ८३ ]

(८३)

है। इसी प्रकार 'सम' से 'से' की उत्पत्ति का विचार इस कारण से हुआ पाया जाता है कि प्राचीन कवियों को सम को 'से' के स्थान पर प्रयोग करते देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यों को देखिये

कहि सनकादिक इन्द्र सम ।
बलि लागौ जुध इन्द्र सम ।

पृथ्वीराज रासो।

अवधी में, कहीं ब्रजभाषा में भी 'से' के स्थान पर 'सन का प्रयोग किया जाता है । इस 'सन' के स्थान पर 'सें' और सों भी होता है । इसलिये कुछ भाषा मर्मज्ञों ने यह निश्चित किया है कि 'सम' से 'सन' हुआ और 'सन' से सों और फिर 'से' हुआ। ऊपर लिख आया हूं कि प्राकृत में पंचमी वहुवचन में 'हिंतो' होता है। अनुमान किया गया है कि 'हिंतो' से ही पञ्चमी का 'ते' बना, परन्तु 'से का ग्रहण पंचमी में कैसे हुआ, यह बात अब तक यथार्थ रूप से निर्णीत नहीं हुई।

(४) सम्बन्ध कारक की विभक्ति के विषय में अनेक मत देखा जाता है-मिस्टर बप् अनुमान करते हैं कि हिन्दी का 'का' और बँगलाभाषा की पष्ठी विभक्ति का चिन्ह, संस्कृत पाठो बहुबचन के 'अस्माकम' एवं युष्माकम्' इत्यादि के ‘क से गृहीत है। १ किन्तु हार्नली साहब ने बप् के अनुमान के विरुद्ध अनेक युक्तियाँ दिखलाई हैं, उनके मत से संस्कृत के 'कृते' के प्राकृत रूपान्तर से ही बँगला ओर हिन्दी के षष्ठी कारक का चिन्ह ,का' अथवा विभक्ति ली गई है २ कृते' से प्राकृत 'केरक' उत्पन्न हुआ है । इस 'केरक' का अनेक उदाहरण पाया जाता है, जहां यह 'केरक, शब्द प्रयुक्त हुआ है, वहां उसका कोई स्वकीय अर्थ दृष्टिगत नहीं होता, वहां वह केवल षष्ठी के चिन्ह स्वरूप ही व्यवहृत हुआ है-यथा .

"तुमम् पि अप्पणो केरिकम् जादि मसुमरेसि"
"कस्स केरकम् एदम् पर्वणम्" मृ-क-षष्ठ अंक

इसी केरक अथवा केरिक से हिन्दी 'कर' 'केर' और 'केरी' की उत्पत्ति हुई है। ३

१, २ और ३-बंगभाषा और साहिन्य पृ० ४३, ४४ [ ८४ ]
( ८४ )

पहले लिखा गया है कि मैक्समूलरकी यह सम्मति है कि संस्कृत का स्वार्थे 'क' ही बदल कर कर्मकारक का 'को' हो गया है, 'बंगभाषा और साहित्य' के रचयिता ने इसको स्वीकार भी किया है, मेरा विचार है कि इसी स्वार्थे 'क' से षष्ठी विभक्ति के 'का' की उत्पत्ति हुई है। केरक के स्थान में प्राकृत भाषा में केरओ प्रयोग मिलता है. यही केरओ काल पाकर केरो बन गया, कर, केर और केरी भो हुआ परन्तु सम्बन्ध का चिन्ह 'का' 'की' 'के' भी यही बन गया, यह कुछ क्लिष्ट कल्पना ज्ञात होती है । जैसे केरो, केरी, और कर का प्रयोग हिन्दी साहित्य में मिलता है-यथा

बंदों पदसरोज सब केरे- तुलसी

क्षत्र जाति कर रोष- तुलसी

हौं पंडितन केर पछलगा- जायसी

उसी प्रकार 'क' का प्रयोग भी देखा जाता है--यथा

बनपति उहै जेहि क संसारा--
बनिय क सखरज ठकुर क हीन ।
वैद क पूत व्याध नहिँ चोन ।
जव सम्बन्ध में क का प्रयोग देखा जाता है, तो यह विचार होता है कि क्या यही स्वार्थे क बदल कर सम्बन्ध की विभक्ति तो नहीं बन गया है ? जो कहीं अपने मुख्यरूप में और कहों 'का' के 'की' बन कर प्रकट होता है ! यदि वह कर्म का चिन्ह मैक्समूलर के कथनानुसार हो सकता है, तो सम्बन्ध का चिन्ह क्यों नहीं बन सकता। पहला विचार यदि विवाद ग्रस्त हो तो हो सकता है, परन्तु यह विचार उतना वादग्रस्त नहीं वरन अधिकतर संभव परक है। यदि कहा जावे कि स्वार्थे क का अर्थ वही होता है, जो उस शब्द का होता है, जिसके साथ वह रहता है, इसका अलग अर्थ कुछ नहीं होता जैसे संस्कृत का वृक्षक, चारुदत्तक, अथवा . पुत्रक आदि. एवं हिन्दी का बहुतक, कबहुंक एवं कछुक आदि। तो जाने दीजिये उसको, निम्नलिखित सिद्धान्त को मानिये---[ ८५ ]
( ८५ )

प्रायः तत्सम्बन्धी अर्थ में संस्कृत में एक प्रत्यय क' आता है-जैसे-मद्रक=मद्र देशका, रोमक=रोमदेशका । प्राचीन हिन्दी में का के स्थान में क पाया जाता है, जिस से यह जान पड़ता है कि हिन्दी का 'का', संस्कृत के क प्रत्यय से निकला है। १

जो कुछ अब तक कहा गया उससे इस सिद्धान्त पर उपनीत होना पड़ता है कि प्राकृतभाषा का 'केरक, केरओ', आदि से 'केरा, केरी, और केरो', आदि की और सम्बन्ध सूचक संस्कृत के 'क' प्रत्यय से “का, के," की उत्पत्ति अधिकतर युक्ति संगत है।

(५) अधिकरण कारक का चिन्ह हिन्दी में 'मैं' 'मांहि' 'मांझ' इत्यादि है। साथ ही “पै, पर" आदि का प्रयोग भी सप्तमी में देखा जाता है, जैसे कोठे पर है। केवल “ए का प्रयोग भी संस्कृत के समान ही हिन्दी में भी देखा जाता है-जैसे, आप का कहा सिर माथे, में थे का “ए" । सप्तमी में इस प्रकार का जो कचित् प्रयोग खड़ी बोलचाल में देखा जाता है, वह विल्कुल संस्कृत के गहने कानने आदि सप्रम्यन्त प्रयोग के समान है, ब्रजभाषा और अवधो में इस प्रकार का अधिक प्रयोग मिलता है - जैसे घरे गैलै, आदि। “पर और पै" का प्रयोग संस्कृत के “उपरि” शब्दसे हिन्दी में आया है। एक विद्वान को यह सम्मति है--

"हिन्दी के कुछ रूपों में अधिकरण कारक के ‘में' चिन्ह के स्थान पर 'पै' का प्रयोग होता है, इसकी उत्पत्ति संस्कृत के उपरि शब्द से हुई है। पहले पहल उपरि का पर हुआ, जैसे मुख पर ----बाद को पै बन गया" २

मैं, माँहि, माँझ इत्यादिकी उत्पत्ति कहा जाता है कि मध्य से हुआ है। ब्रजभाषा और, अवधी दोनों में माँहि औ• माँझ का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु खड़ी बोली में केवल 'में' का व्यवहार होता है। ब्रजभाषा में 'में' के स्थान पर 'मैं' ही प्रायः लिखा जाता है। प्राकृत भाषा का यह नियम है कि पद के आदि का 'ध्य' 'झ' और अन्त का 'व्य' 'ज्झ' हो जाता है ३।

१-देखो 'हिन्दी भाषा और साहित्य' का पृष्ट १४३ ।

२-देखो 'ओरिजन आफ दी हिन्दी लैग्वेज का पृष्ट १२ ।

३-देखो ‘पालिप्रकाश' मुख्य ग्रन्थ का पृष्ट १९ [ ८६ ]
( ८६ )

इस नियम के अनुसार मध्य शब्द का अन्त्य 'ध्य' जब 'ज्झ' से बदल जाता है, तो मज्झ शब्द बनता है, यथा-बुध्यते, वुझते, सिध्यतिसिन्झति इत्यादि । यही मज्झ शब्द ब्रजभाषा और अवधी में माँझ, और अधिक कोमल होकर माँह, माहिँ आदि बनता है। इसी माँह, माँहि से मैं और में की उत्पत्ति भी बतलाई जाती है । प्राकृत की सप्तमी एक वचन में "स्मि' का प्रयोग होता है कुछ लोगों की सम्मति है कि प्राकृत के स्मि अथवा म्मि से में अथवा मैं की उत्पत्ति है १

विभक्तियों के विषय में यद्यपि यह निश्चित है कि वे संस्कृत अथवा प्राकृत से ही हिन्दी अथवा अन्य गौड़ीय* भाषाओं में आई हैं। परन्तु कभी कभी विरुद्ध बातें भी सुनाई पड़ती हैं, जैसे—यह कि द्राविड़ भाषा के सम्प्रदान कारक के 'कु विभक्ति से हिन्दी भाषा के 'को अथवा बँगला भाषा के 'के' की उत्पत्ति हुई। ऐसी बातों में प्रायः अधिकांश कल्पना ही होती है। इसलिये, उनमें वास्तंवता नहीं होती, विशेष विवेचन होने पर उनका निराकरण हो जाता है। तो भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अबतक निर्विवाद रूप से विभक्तियों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। जितनी बातें ज्ञात हो सकी हैं, उनका ही उल्लेख यहां किया जा सका।

सर्वनाम भी भाषाके प्रधान अंग हैं, और किसी भाषाकं वास्तविक स्वरूप ज्ञान के लिये क्रिया सम्बन्धी प्रयोगों का अवगत होना भी आवश्यक है, इसलिये यहां पर कुछ उनकी चर्चा भी की जाती है। उत्तम पुरुष एक वचन में 'मैं और बहुवचन में 'हम' होता है, संस्कृतके 'अस्मद्' शब्द से दोनों की उत्पत्ति बतलाई जाती है। प्राकृत में तृतीया के एकवचन का रूप ‘मया, और बहुवचन का रूप 'अम्हेहि, और 'अम्हेभि होता है । प्रथमा के बहुवचन का रूप 'अम्हे, है २ अपभ्रंश में यह "मया'

१-देखिये पालि प्रकाश पृ० ८४ हिन्दीभाषा और साहित्य पृ० १४७,

  • हार्नली साहब ने निम्नलिखित भाषाओं को गौड़ीयभाषा कहा है सुविधा के लिये इन भापाओं को हमभी कभी कभी इसी नाम से स्मरण करेंगे। उड़िया, बँगला, हिन्दी, नैपाली, महाराष्ट्री,गुजराती, सिंधी, पंजाबी, और काशमीरी ।

२–देखिये पालिप्रकाश पृ० १५३ . [ ८७ ]'मइ' मइँ हो जाता है। यथा-'ढोला मई तुहुँ वारिया, इसी मइँ से हिन्दी के मैं की और वहुवचन "अम्हेहि" अथवा "अम्हे" से हम की उत्पत्ति बतलाई जाती है । मृच्छ कटिक नाटक में “अस्मद् का प्राकृत रूप आम्हि भी. मिलता है, कहा जाता है इसी आम्हि से बँगला के आमि को उत्पत्ति हुई है १ बँगला के आमि से हमारे मैं और हम की बहुत कुछ समा- नता है। आगे चल कर इसी मैं से 'मुझे' 'मुझको' और 'मेरा' आदि और हम से "हमको और हमारा" आदि रूप बनते हैं। एक विद्वान की सम्मति है कि अहम् से हम' की उत्पत्ति वैसे ही है. जैसे अ के गिर जाने से अहै से है की।

मध्यम पुरुष का तू, तुम सँस्कृत् युश्मत से बनता है। प्राकृत में प्रथमा का एकवचन त्वं और तुवं और बहुवचन 'तुम्ह' होता है। चतुर्थी और षष्टी का एकवचन 'तुम्हं" बनता है २ इन्हीं के आधार से तू और तुम की उत्पत्ति हुई है। बँगला में तुमको तुमि लिखते हैं, दोनों में बहुत अधिक समानता है, कहा जाता है कि इस तुमि की उत्पत्ति भी 'तुम्हि' से ही हुई है ३ इसी तुमसे "तुझ” और तुम्हारा एवं तेग आदि रूप आगे चल कर बने । हिन्दी में अबतक 'तुम्ह” का प्रयोग भी होता है। मध्यम पुरुष के लिये आप शब्द भी प्रयुक्त होता है, इस शब्द का आधार संस्कृत का 'आत्मन्' शब्द है । इसका प्राकृत रूप अप्पा और अप्पि है ४ इसी से आप शब्द निकलता है, बँगला में आप के स्थान पर आपनि और बिहार में आपुन बोला जाता है, जिसमें, आत्मन की पूरी झलक है ।

अन्य पुरुष के शब्द वह और वे संस्कृत के ( अदस ) शब्द से बने हैं. यह कुछ लोगों की सम्मति है । प्रथमा एक वचन में इसका प्राकृतरूप असु और वहुबचन में अमू होता है । ५ संस्कृत के प्रथमा एकवचन में असौ होता है. प्राकृत में यही असौ, असु होजाता है। अपभ्रंश में प्रायः वह के स्थान पर सु प्रथमा एकवचन में आता है - यथा 'अन्नु सुघण थण हार"

१-देखिये 'वंगभाषा और साहित्य' पृ० २५ २--देखिये पालिप्रकाश पृ० १५२

३–देखिये बंगभाषा और साहित्य प्०२६। ४--देखिये 'बंगभाषा और साहित्य प्० २४

५--देखिये पालिप्रकाश पृ० १४७ । [ ८८ ]
( ८८ )

"सु गुण लायण निधि" ऐसी अवस्था में कहा जा सकता है कि इसी 'सु' से वह की उत्पत्ति है । परन्तु यहाँ स्वीकार करना पड़ेगा कि अ गिर गया है । यह क्लिष्ट कल्पना है। एक दूसरे विद्वान् भी संस्कृत के असौ सेही वह और वे कि उत्पत्ति मानते हैं--१ तदू के प्रथमा एकबचन का रूप 'स' और बहुवचन का रूप ते होता है पुल्लिंग में । स्त्रीलिंग में यही सा और ता हो जाता है । तद् के द्वितीया का एकबचन पुल्लिंग में तं और स्त्रीलिंग में ताम् होगा। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों में इनका व्यवहार देखा जाता है।

'सा दिसि जोइ म रोइ' 'सामालइ देसन्तरिअ'

'तंतेवड्डउँ समरभर' 'सो च्छेयहु नहिलाहु' तं तेत्तिउ जलु सायर हो सो ते वहुवित्थारू' 'जइ सो वड़दि प्रयावदी' 'ते मुग्गडा हराविआ'

'अन्ने ते दीहर लोअण'

इससे पाया जाता है कि सः से 'सो' और वह की और 'ते' से 'वे' की उत्पत्ति है । ब्रजभाषा और अवधी दोनों में वह के स्थान पर 'सो' का और वे के स्थान पर ते का बहुत अधिक प्रयोग है। गद्य में अब भी 'वह' के स्थान पर 'सो' का प्रयोग होते देखा जाता है । यदि ते से वे की उत्पत्ति मानने में कुछ आपत्ति हो तो उसको वह का वहुबचन मान सकते हैं।

प्राकृत भाषा का यह सिद्धान्त है कि तवर्ग; 'ण '; 'ह', और 'र' के अतिरिक्त जब किसी दूसरे व्यंजनवर्ण के बाद यकार होता है तो प्रायः उसका लोप हो जाता है, और तत संयुक्तवर्ण को द्वित्व प्राप्त होता है २ इस सिद्धान्त के अनुसार कस्य का कस्स और यस्य का जस्य और तस्य का तस्स प्राकृत में होता है, और फिर उनसे क्रमशः किस, कास, कासु+जास, जासु और

. १-पालि प्रफाश पृ० २१

२-ओरिजन आफ दि हिन्दी लोंगवेज पृ० १२ । [ ८९ ]
( ८६ )

तास, तासु आदि रूप बनते हैं । ऐसे ही संस्कृत कः से प्राकृत को और हिन्दी कौन- सँस्कृत यः से प्राकृत में जो बनता है । जो हिन्दी में उसी रूप में गृहीत हो गया है । सँस्कृत किम् से हिन्दी का क्या और कोपि से हिन्दी का कोई निकला है । अपभ्रंश में किम् का रूप काँइ और कोपि का रूप कोबि पाया जाता है यथा “अम्हे निन्दहु कोबिजण अम्हे बप्णउ कोबि”, “काइँ न दूरे देक्खइ”

हिन्दी भाषा की अधिकांश क्रियायें संस्कृत से ही निकली हैं । संसकृत में क्रियाओं के रूप ५०० से अधिक पाये जाते है, उन सब के रूप हिन्दी में नहीं मिलते, फिर भी जो क्रियायें संस्कृत से हिन्दी में आई हैं, उनकी संख्या कम नहीं है। हिन्दी में कुछ क्रियायें, अन्य भाषाओं से भी बना ली गई हैं, परन्तु उनको संख्या बहुत थोड़ी है । उनकी चर्चा आगे के प्रकरण में की जायगी । संस्कृत क्रियाओं का विकास हिन्दी में किस रूप में हुआ है, और हिन्दी में किस विशेषता से वे ग्रहण की गई हैं, केवल इसी विषय का वर्णन थोड़े में यहां करूंगा प्रत्येक विषयों का दिग्दर्शन मात्र ही इस ग्रन्थ में हो सकता है, क्योंकि अधिक विस्तार का स्थान नहों । विशेष उल्लेख योग्य खड़ी बोली की क्रियायें हैं। जिनका मार्ग अपनी पूर्ववर्ती भाषाओं से सर्वथा भिन्न है।

खड़ी बोलचाल की हिन्दी में 'है' का एकाधिपत्य है 'था' का व्यवहार भी उसमें अधिकता से देखा जाता है। बिना इनके अनेक वाक्य अधूरे रह जाते हैं, और यथार्थ रीति से अपना अर्थ प्रकट नहीं कर पाते । 'है' की उत्पत्ति के विषय में मतभिन्नता है । कोई कोई इसकी उत्पत्ति अस् धातु से बतलाते हैं और कोई भू धातु से। ओरिजन आफ दि हिन्दी लांगवेज के रचयिता यह कहते हैं

"संस्कृत में भू-भवामि-भव, भोमि के स्थान पर वररुचि ने भू-हो-हुआ. आदि रूप दिया है. दो सहस्त्र वर्ष से 'हो' का प्रयोग होने पर भी ब्रजभाषा के भूतकाल में भू-धातु का रूप भया-भये-भयो आदि का प्रयोग अबतक [ ९० ] होता है। 'हो' का प्राकृत रूप होमे' और हिन्दी रूप 'हूं' है।"[१]

इस अवतरण से यह स्पष्ट है कि वररुचि ने भू धातु से ही होना, धातु की उत्पत्ति मानी है, इसी होनाका एक रूप 'है' है। अवधी में 'है' के स्थान पर 'अहै का प्रयोग भी होता है। यथा

"सांची अहै कहनावतिया अरीऊँचीदुकानकी फीकी मिठाई"

इसलिये यह विचार अधिकता से माना जाता है कि अस् से ही है की उत्पत्ति है। अस् से अहै स् के ह हो जाने कारण बना, और व्यवहाराधिक्य से के गिर जाने के कारण केवल है का प्रयोग होने लगा। दोनों सिद्धान्तों में कौन माननीय है, यह बात निश्चित रीति से नहीं कही जा सकती, दोनों ही पर तर्क वितर्क चल रहे हैं, समय ही इसकी उचित मीमांसा कर सकेगा। 'था' की उत्पत्ति 'स्था' धातु से मानी जाती है, ओरिजन आफ दि हिन्दी लांगवेज के रचयिता भी इसी सिद्धान्त को मानते हैं।[२]

इस है, और था के आधार से बने कुछ हिन्दी क्रियाओं के प्रयोग की विशेषताओं को देखिये। संस्कृत चलति का अपभ्रंश एवं अवधी में चलइ और ब्रजभाषा में चलय अथवा चलै रूप वर्त्तमानकाल में होगा। परन्तु खड़ी बोलचाल की हिन्दी में इसका रूप होगा चलता है। संस्कृत में प्रत्यय न तो शब्द से पृथक् है, न अवधी में, ब्रजभाषा में भी नहीं जो कि पश्चिमी हिन्दी ही है। इनके शब्द संयोगात्मक हैं, उनमें है का भाव मौजूद है। परन्तु खड़ी बोली का काम बिना है के नहीं चला, उसमें है लगा और बिल्कुल अलग रह कर। खड़ी बोली की अधिकांश क्रियायें हैं से युक्त हैं। था के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं। खड़ी बोली के प्रत्ययों और विभक्तियों को प्रकृति से मिलाकर लिखने के लिये दस बरस पहले बड़ा आन्दोलन हो चुका है। कुछ लोग इस विचार के अनुकूल थे और कुछ प्रतिकूल। संयोगवादी प्राचीन प्रणाली की दुहाई देते थे, और [ ९१ ]कहते थे कि वैदिककाल से लेकर आज तक आर्यभाषा की जो सर्वसम्मत रीति प्रचलित है, उसका त्याग न होना चाहिये। प्रकृति से प्रत्ययों और विभक्तियों को अलग करने से पहले तो शब्दों का अयथा विस्तार होता है, दूसरे उनके स्वरूप पहचानने और प्रयोग में बाधा उपस्थित होती है। वियोगवादी कहते संयोग जटिलता का कारण है, संयुक्त वर्ण जिसके प्रमाण हैं। इसलिये सरलता जन साधारण की सुबिधा और बोलचाल पर ध्यान रखकर जो नियम आजकल इस बारे में प्रचलित हैं, उनको चलते रहना चाहिये । जीत वियोग वादियों की ही हुई अब भी कुछ लोग प्रकृत और प्रत्ययों को मिलाकर लिखते हैं, परन्तु साधारणतया वे अलग ही लिखे जाते हैं। कहा जाता है हिन्दी भाषा में यह प्रणाली फ़ारसी भाषा से आई है। फ़ारसी में प्रायः इस प्रकार के शब्द अलग लिखे जाते हैं। और उर्दू उन्हीं अक्षरों में लिखी जाती है जिन अक्षरों में फ़ारसी । इस लिये जैसे हिन्दी के क्रिया आदि उर्दू में लिखे जाते हैं, वैसे ही हिन्दी में भी लिखे जाने लगे । १ इस कथन में बहुत कुछ सत्यता है, परन्तु मैं इस विवाद में पड़ना नहीं चाहता। मेरा कथन इतना ही है कि विभक्तियां अथवा प्रत्यय प्रकृति के साथ मिलाकर लिखे जायें या न लिखे जायें। परन्तु ये ही हिन्दी भाषा के वे सहारे हैं, जिनके आधार से वह संसार को अपना परिचय दे सकती है । इस प्रकरण में मैंने जिन विभक्तियों, सर्वनामों, प्रत्ययों, और क्रियाओंका वर्णन किया है. वे हिन्दी भाषाके शब्दों, वाक्यों, और उनके अवयवों के ऐसे चिन्ह हैं, जो उसको अन्य भाषाओं से अलग करते हैं, इसलिये उनका निरूपण आवश्यक समझा गया ।

१-दे० ओरिजन एण्ड डेवलपमेन्ट आँफ दि बंगला लेंग्वेज पृ० १२२ ।

  1. देखो ओरिजन आफ दि हिन्दी लांगवेज पृ॰ १३
  2. देखो ओरिजन आफ़ दी हिन्दी पृ॰ १४।