हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/तुलसीदास

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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गोस्वामी तुलसीदास जी की काव्य कला अमृतमयी है। उससे वह संजीवनी धारा निकली जिसने साहित्य के प्रत्येक अङ्ग को ही नवजीवन नहीं प्रदान किया वरन मृतक प्राय हिन्दू समाज के प्रत्येक अङ्ग को वह जीवनी शक्ति दी जिससे वह बड़े संकट-काल में भी जीवित रह सकी। इसीलिये वे हिन्दी संसार के सुधाधर हैं । गोस्वामीजी की दृष्टि इतनी प्रखर थी और सामयिकता की नाड़ी उन्हों ने इस मार्मिकता से टटोली कि उनकी रचनायें आज भी रुग्न मानसों के लिये रसायन का काम दे रही हैं। यदि केवल अपने-अलौकिक ग्रन्थ राम चरित मानस का ही उन्हों ने निर्माण किया होता तो भी उनकी वह कीर्ति अक्षुण्ण रहती जो आज निर्मल कौमुदी समान भारत-वसुन्धरा में विस्तृत है। किन्तु उनके और भी कई ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें उनकी कीर्ति-कौमुदी और अधिक उज्ज्वल हो गई है और इसीलिये वे कौमुदीश हैं। ब्रजभाषा और अवधी दोनों पर उनका समान अधिकार देखा जाता है। जैसी ही अपूर्व रचना वे ब्रजभाषा में करते हैं वैसी ही अवधी में। रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में ही हुई है। किन्तु गोस्वामी जी की अवधी परिमार्जित अवधी है और यही कारण है कि जब मलिक मुहम्मद जायसी की 'पदमा- वत' की भाषा आजकल कठिनता से समझी जाती है तब गोस्वामीजी की रामायण को सर्व साधारण समझ लेते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी की भाषा के विषय में मैं ऊपर बहुत कुछ लिख आया हूं। वे भी संस्कृत [ २५५ ]तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं। किन्तु उनका संस्कृत शब्दोंका भाण्डार व्यापक नहीं था। इसलिये वे सरस, भावमय एवं कोमल संस्कृत शब्दों के चयन में उतने समर्थ नहीं बन सके जितने गोस्वामीजी। कहीं कहीं उन्होंने संस्कृत शब्दों को इतना विकृत कर दिया है कि उसकी पहचान कठिनता से होती है। जैसा 'शार्दूल' का 'सदूर'। परन्तु गोस्वामीजी इस महान दोष से सर्वथा मुक्त हैं। अवधी शब्दों और वाक्यों के विषय में भी उनकी सहृदयता नीर-क्षीर का विवेक करने में हंस की सी शक्ति रखती है। रामचरित-मानस विशाल ग्रन्थ है। परन्तु उसमें ग्रामीण भद्दे शब्द बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते। कहीं कहीं तो अवधी शब्द का व्यवहार उनके द्वारा इस मधुरता से हुआ है कि वे बड़े ही हृदयग्राही बन गये हैं। उनकी दृष्टि विशाल थी और वे इस बात के इच्छुक थे कि उनकी रचना हिन्दू संसार में नवजीवन का संचार करे। अतएव उन्होंने हिन्दी-भाषा के ऐसे अनेक शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान दिया है जो अवधी भाषा के नहीं कहे जा सकते। उनकी इस दूरदर्शिनी द्दष्टि का ही यह फल है कि आज उनके महान ग्रन्थ की उतनी व्यापकता है, कि उसके लिये 'गेहे गेहे जने जने' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।

गोस्वामी जी जिस समय साहित्य-क्षेत्र में उतरे उस समय निर्गुण-धारा बड़े बेग से बह रही थी। जो जनता को परोक्ष सत्ता की ओर ले जा कर उसके मनों में सांसारिकता से विराग उत्पन्न कर रही थी। विराग वैदिकधर्म का एक अङ्ग है। उसको शास्त्रीय भाषा में निवृत्ति मार्ग कहते हैं। अवस्था विशेष के लिये ही यह मार्ग निर्दिष्ट है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रवृत्ति मार्ग की उपेक्षा कर अनधिकारी भी निवृत्ति-मार्गी बन जाये। निवृत्ति मार्ग का प्रधान गुण है त्याग, जो सर्वसाधारण के लिये सुलभ नहीं। इसीलिये अधिकारी पुरुष ही निवृत्ति मार्गी बन सकता है क्योंकि जो तत्वज्ञ नहीं वह निवृत्ति-मार्ग के नियमों का पालन नहीं कर सकता। निवृत्ति मार्ग का यह अर्थ नहीं कि मनुष्य घर बार और बाल बच्चों का त्याग कर अकर्मण्य बन जाये और तमूरा खड़का कर अपना पेट पालता फिरे। त्याग मानसिक होता है और [ २५६ ]उसमें वह शक्ति होती है जो देश, जाति, समाज और मानवीय आत्मा को बहुत उन्नत बना देती है। जो अपने गृह को, परिवार को, पड़ोस को, ग्राम को अपनी सहानुभूति, सत्यव्यवहार और त्याग बल से उन्नत नहीं बना सकता उसका देश और जाति को ऊँचा उठाने का राग अलापना अपनी आत्मा को ही प्रतारित नहीं करना है, प्रत्युत दूसरों के सामने ऐसे आदर्श उपस्थित करना है जो लोक संग्रह का वाधक है। निर्गुणवादियों ने लोक संग्रह की ओर दृष्टि डाली ही नहीं। वे संसार की असारता का राग ही गाते और उस लोक की ओर जनता को आकर्षित करने का उद्योग करते देखे जाते हैं जो सर्वथा अकल्पनीय है। वहां सुधा का स्रोत प्रवाहित होता हो, स्वर्गीय गान श्रवणगत होता हो, सुर दुर्लभ अलौकिक पदार्थ प्राप्त होते हों। वहां उन विभूतियों का निवास हो जो अचिन्तनीय कही जा सकती हैं। परन्तु वे जीवों के किस काम की जब उनको वे जीवन समाप्त करके ही प्राप्त कर सकते हैं? मरने के उपरान्त क्या होता है, अब तक इस रहस्य का उद्घाटन नहीं हुआ। फिर केवल उस कल्पना के आधार पर उसको असार कहना जिसका हमारे जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है क्या बुद्धिमत्ता है? यदि संसार असार है और उसका त्याग आवश्यक है तो उस सार वस्तु को सामने आना चाहिये कि जो वास्तव में कार्य-क्षेत्र में आकर यह सिद्ध कर दे कि संसार की असारता में कोई सन्देह नहीं। हमारे इन तर्कों का यह अर्थ नहीं कि हम परोक्षवाद का खण्डन करते हैं, या उन सिद्धान्तों का विरोध करने के लिये कटिवद्ध हैं जिनके द्वारा मुक्ति, नरक, स्वर्ग आदि की सत्ता स्वीकार की जाती है। यह बड़ा जटिल विषय है। आज तक न इसकी सर्वसम्मति निष्पत्ति हुई न भविष्य काल में होने की आशा है। यह विषय सदा ही रहस्य बना रहेगा। मेरा कथन इतना ही है कि सांसारिकता की समुचित रक्षा करके ही परमार्थ-चिन्ता उपयोगी बन सकती है, वरन् सत्य तो यह है कि सांसारिक समुन्नत त्यागमय जीवन ही परमार्थ है। हम आत्म-हित करते हुये जब लोकहित-साधन में समर्थ हों तभी मानव जीवन सार्थक हो सकता है। यदि विचार दृष्टि से देखा जावे तो यह स्पष्ट हो जावेगा [ २५७ ]कि जो आत्म-हित करने में असमर्थ है वह लोक हित करने में समर्थ नहीं हो सकता । आत्मोन्नति के द्वारा ही मनुष्य लोक-हित करने का अधिकारी होता है। देखा जाता है कि जिसके मुख से यह निकलता रहता है कि 'अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम' 'दास मलूका यों कहै,सब के दाता राम', वह भी हाथ पाँव डाल कर बैठा नहीं रहता। क्योंकि पेट उसको बैठने नहीं देता। हाँ. इस प्रकार के विचारों से समाज में अकर्मण्यता अवश्य उत्पन्न हो जाती है, जिससे अकर्मण्य प्राणी जाति और समाज के बोझ बन जाते हैं । उचित क्या है ? यही कि हम अपने हाथ पाँव आदि को उन कर्मों में लगावें कि जिनके लिये उनका सृजन है। ऐसा करने से लाभ यह होगा कि हम स्वयं संसार से लाभ उठायेंगे और इस प्रवृत्ति के अनुसार साँसारिक अन्य प्राणियों को भी लाभ पहुँचा सकेंगे प्रयोजन यह है कि सांसारिकता की रक्षा करते हुये, लोक में रहकर लोक के कर्तव्य का पालन करते हुये. यदि मानव वह विभूति प्राप्त कर सके जो अलौकिक बतलायी जाती है। तब तो उसकी जीवन यात्रा सुफल होगी,अन्यथा सब प्रकार की असफलता ही सामने आवेगी। रहा यह कि परलोक में क्या होगा उसको यथा तथ्य कौन बतला सका ?

निर्गुणवाद की शिक्षा लगभग ऐसी ही है जो संसार से विराग उत्पन्न करती रहती है। घर छोड़ो, धन छोड़ो विभव छोड़ो, कुटुब-परिवार छोड़ो करो क्या ? जप, तप और हरि भजन । जीवन चार दिन का है, संसार में कोई अपना नहीं। इसलिये सबको छोड़ो और भगवान का नाम जप कर अपना जन्म बनाओ। इस शिक्षा में लोक संग्रह का भाव कहाँ ? इन्हीं शिक्षाओं का यह फल है कि आज कल हिन्दू समाज में कई लाख ऐसे प्राणी हैं जो अपने को संसार त्यागी समझते हैं और आप कुछ न कर दूसरों के सिर का बोझ बन रहे है। उनके बाल बच्चे अनाथ हों, उनकी स्त्री भूखों मरे उनकी बला से। वे देश के काम आवें या न आवें, जाति का उनसे कुछ भला हो या न हो, समाज उनसे छिन्न-भिन्न होता है तो हो. उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं, क्योंकि वे भगवान के भक्त बन गये हैं और उनको इन पचड़ों से कोई काम नहीं । संसार में रह कर [ २५८ ]
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कैसे जीवन व्यतीत करना चाहिये ? कैसे दूसरों के काम आना चाहिये ? कैसे कष्ठितों को कष्ट-निवारण करना चाहिये ? कैसे प्राणीमात्र का हित करना चाहिये ? मानवता किसे कहते हैं ? साधुचरित्र का क्या महत्व है ?महात्मा किसका नाम है ? वे न इन बातों को जानते और न इन्हें जानने का उद्योग करते हैं। फिर भी वे हरि भक्त हैं और इस बात का विश्वास रखते हैं कि उनके लेने के लिये सोधे सत्य लोक से बिमान आयेगा । जिस के ऐसे संस्कार हैं उससे लोक-संग्रह की क्या आशा है? किन्तु कष्ट की बात है कि अधिकांश हमारा संसार-त्यागी-समाज ऐसा ही है। क्योंकि उसने त्याग और हरि-भजन का मर्म समझा ही नहीं, और क्यों समझता जब परोक्ष सत्ता ही से उसको प्रयोजन है और संसार से उसका कोईसम्बन्ध नहीं।

महाप्रभु वल्लभाचार्य ने हिन्दू समाजके इस रोग को उस समय पहचाना था और उन्होंने अपने सम्प्रदाय का यह प्रधान सिद्धान्त रक्खा कि गाह-स्थ्य धर्म में रह कर ही और सांसारिक समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुये ही परमार्थ चिन्ता करनी चाहिये, जिससे समाज लोक संग्रह के मर्म को न समझ कर अस्त-व्यस्त न हो । त्याग का विरोध उन्होंने नहीं किया, किन्तु त्याग के उस उच्च आदर्श की ओर हिन्दू समाज की दृष्टि आकर्षित की जो

मानस-सम्बन्धी सच्चा त्याग है । उनका आदर्श इस श्लोक के अनुसार था। वनेषुःदोषाः प्रभवन्ति रागिणाम् ,

    गृहेषु पंचेन्द्रिय निग्रहस्तपः

अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्त्तते,

     निवृत्त रागस्य गृहं तपोवनम् ।
रागात्मक जनों के लिये वन भी सदोप बन जाता है घर में रह कर पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना ही तप है। जो अकुत्सित कर्मों में प्रवृत्त होता है उसके लिये घर ही तपोबन है । ' महाप्रभु वल्लभाचार्य की तरह गोस्वामी जी में भी लोक-संग्रह का भाव बड़ा प्रवल था। सामयिक मिथ्या[ २५९ ]
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चारों और अयथा विचारों से वे संतप्त थे। आर्य्य मर्यादा का रक्षण ही उनका ध्येय था। वे हिन्दू जाति की रगों में वह लहू भरना चाहते थे कि जिससे वह सत्य-संकल्प और सदाचारी बन कर वैदिक धर्म की रक्षा के उपयुक्त बन सके। वे यह भली भांति जानते थे कि लोक-संग्रह सभ्यता की उच्च सीढ़ियों पर आरोहण किये बिना ठीक ठीक नहीं हो सकता,वे हिन्दू जनता के हृदय में यह भाव भी भरना चाहते थे कि चरित्र वल हो संसार में सिद्धि-लाभ का सर्वोत्तम साधन है। इस लिये उन्होंने उस ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम रामचरित मानस है और जिसमें इन सब बातों की उच्च से उच्च शिक्षा विद्यमान है। उनकी वर्णन-शैली और शब्द-विन्यास इतना प्रवल है कि उनसे कोई हृदय प्रभावित हुये बिना नहीं रहता । अपने महान् ग्रन्थ में उन्होंने जो आदर्श हिन्दू समाज के सामने रखे हैं वे इतने पूर्ण, व्यापक और उच्च हैं जो मानव समाज की समस्त आवश्यकताओं और न्यूनताओं की पूर्ति करते हैं। भगवान रामचन्द्र का नाम मर्यादा पुरुषोत्तम है। उनकी लीलायें आचार-व्यवहार और नीति भी मर्यादित है। इसलिये रामचरित मानस भी मर्यादामय है । जिस समय साहित्य में मर्यादा का उल्लंघन करना साधारण बात थी, उस समय गोस्वामी जी को ग्रन्थ भर में कहीं मर्यादा का उल्लंघन करते नहीं देखा जाता। कवि कर्म में जितने संयत वे देखे जाते हैं हिन्दी संसार में कोईकवि या महाकवि उतना संयत नहीं देखा जाता और यह उनके महान् तप और शुद्ध विचार तथा उस लगन का ही फल है जो उनको लोक-संग्रह की ओर खींच रहा था।

गोस्वामी जी का प्रधान ग्रंथ रामायण है । उसमें धर्मनीति, समाज-नीति, राजनीति का सुन्दर से सुन्दर चित्रण है । गृहमेधियों से लेकर संसार त्यागी सन्यासियों तक के लिये उसमें उच्च से उच्च शिक्षायें मौजूद हैं । कर्तव्य-क्षेत्र में उतर कर मानव किस प्रकार उच्च जीवन व्यतीत कर सकता है, जिसप्रकार इस विषय में उसमें उत्तम से उत्तम शिक्षायें मौजूद हैं उसी प्रकार परलोक-पथ के पथिकों के लिये भी पुनीत ज्ञान-चर्चा और लोकोत्तर विचार विद्यमान है। हिन्दूधर्म के विविध [ २६० ]
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मतों का समन्वय जैसा इस महान् ग्रन्थ में मिलता है वैसा किसी अन्य ग्रन्थ में दृष्टिगत नहीं होता । शैवों और वैष्णवों का कलह सर्व-जन विदित है परन्तु गोस्वामीजी ने उसका जिस प्रकार निराकरण किया उसकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है । समस्त वेद, शास्त्र और पुराणों के उच्च से उच्च भावों का निरूपण इस ग्रन्थ में पाया जाता है और अतीव प्राञ्जलता के साथ । काव्य और साहित्य का कोई उत्तम विषय ऐसा नहीं कि जिसका दर्शन इस ग्रन्थ में न होता हो । यह ग्रन्थ सरसता, मधुरता, और मनोभावों के चित्रण में जैसा अभूतपूर्व है वैसाही उपयोगिता में भी अपना उच्चस्थान रखता है । यही कारण है कि तीन सौ वर्ष से वह हिन्दूसमाज. विशेष कर उत्तरीय भारत. का आदर्श ग्रन्थ है। जिस समय मुसल्मानों का अव्याहत प्रताप था. शास्त्रों के मनन, चिन्तन का मार्ग धीरे धीरे बन्द हो रहा था, संस्कृत की शिक्षा दुर्लभतर हो रही थी और हिन्दू समाज के लिये सच्चा उपदेशक दुष्प्राप्य था । उस समय इस महान् ग्रन्थ का प्रकाश ही उस अन्धकार का नाश कर रहा था जो अज्ञात-रूप में हिन्दुओं के चारों ओर व्याप्त था। आज भी उत्तर भारत के गाँव गाँव में हिन्दू शास्त्र के प्रमाण-कोटि में रामायण की चौपाइयां गृहीत हैं । प्रायः अंग्रेज विद्वानों ने लिखा है कि योरोप में जो प्रतिष्ठा बाइबिल (Bible) को प्राप्त है भारतवर्ष में वह गौरव यदि किसी ग्रन्थ को मिला तो वह रामचरित मानस है । एक साधारण कुटी से लेकर राजमहलों तक में यदि किसी ग्रन्थ की पूजा होती है तो वह रामायण ही है । उसका श्रवण, मनन और गान सबसे अधिक अब भी होता है। व्याख्याता अपने व्याख्यानों में रामायण की चौपाइयों का आधार लेकर जनता पर प्रभाव डालने में आज भी अधिक समर्थ होता है । वास्तव बात तो यह है कि आज दिन जो महत्व इस ग्रन्थ को प्राप्त है वह किसी महान् से महान संस्कृत ग्रन्थ को भी नहीं । इन बातों पर दृष्टि रख कर जब विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि गोस्वामी जी हिन्दी साहित्य के सर्वमान्य कवि ही नहीं हैं, हिन्दू संसार के सर्वपूज्य महात्मा भी हैं।] मैं पहले कविवर सूरदास जी के विषय में अपनी सम्मति प्रकट कर [ २६१ ]चुका हूं और अब भी यह मुक्त कंठ से कहता हूँ कि सूरदास जी ने जिस विषय पर लेखनी चलायी है. उसमें उनको समकक्षता करने वाला हिन्दी साहित्य में कोई अब तक उत्पन्न नहीं हुआ। किन्तु जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा गोस्वामी जी में देखी जाती है. सूरदास जी में नहीं।

गोस्वामीजी नवरस-सिद्ध महाकवि हैं। सूरदासजी को यह गौरव प्राप्त नहीं। कलाकी दृष्टि से सूरदासजी तुलसीदासजीसे कम नहीं हैं। दोनों एक दूसरेके समकक्ष हैं। किन्तु उपयोगिता दृष्टि से तुलसीदासजीका स्थान अधिक उच्च है। दूसरी विशेषता गोस्वामी जी में यह है कि उनकी रचनायें बड़ी ही मर्यादित हैं। वे श्रीमती जानकी जी का वर्णन जहाँ करते हैं वहां उनको जगज्जननी के रूप में ही चित्रण करते हैं। उनकी लेखनी जानकी जी की महत्ता जिस रूप में चित्रित करती है वह बड़ी ही पवित्र है। जानकी जी के सौन्दर्य-वर्णन की भी उन्होंने पराकाष्ठा की है। किन्तु उस वर्णन में भी उनका मातृ पद सुरक्षित है। निम्न लिखित पंक्तियों को देखियेः-

१-जो तट तरिय तीय समसोया।
जग अस जुवति कहाँ कमनीया।
गिरा मुखर तनु अरध भवानी।
रति अति दुखित अतनुपति जानी।
विष वारुनी वन्धु प्रिय जेही ।
कहिय रमा सम किमि वैदेही।
जो छवि सुधा पयोनिधि होई ।
परम रूपमय कच्छप सोई।
सोभा रजु मंदर सिंगारू ।
मथै पानि पंकज निज मारू ।
येहि विधि उपजै लच्छि जव, सुंदरता सुख मूल।
तदपिसकोच समेत कवि, कहहिं सीय सम तूल।

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सूरदास जी में यह उच्च कोटि की मर्यादा दृष्टिगत नहीं होती । वे जब श्री मती राधिका के रूप का वर्णन करने लगते हैं तो ऐसे अंगों का भी वर्णन कर जाते हैं जो अवर्णनीय हैं। उनका वर्णन भी इस प्रकार करते हैं जो संयत नहीं कहा जा सकता। कभी कभी इस प्रकार का वर्णन अश्लील भी हो जाता है। मैं यह मानूंगा कि प्राचीन काल से कवि-परम्परा कुछ ऐसी ही रही है । संस्कृत के कवियों में भी यह दोष पाया जाता है। कवि-कुल-गुरु कालिदास भी इस दोष से मुक्त न रह सके । रधुवंश में वे इन शब्दों में पार्वती और परमेश्वर की बंदना करते हैं:-"वागर्थमिव सम्पृक्ती वागर्थ प्रतिपत्तये ! जगतः पितरौ वंदे, पार्वती परमेश्वरौ"। परन्तु उन्होंने ही कुमार सम्भव के अष्टमसर्ग में भगवान शिव और जगज्जननी पार्वती का विलास ऐसा वर्णन किया है जो अत्यन्त अमर्यादित है । संस्कृत के कई विद्वानों ने उनकी इस विषयमें कुत्सा की है। यह कवि-परम्परा ही का अन्धानुकरण है कि जिससे कवि-कुल-गुरु भी नहीं बच सके. फिर ऐसी अवस्था में सूरदास जी का इस दोष से मुक्त न होना आश्चर्यजनक नहीं । यह गोस्वामीजी की ही प्रतिभा की विशेषता है कि उन्होंने चिरकाल-प्रचलित इस कुप्रथाका त्याग किया और यह उनकी भक्तिमय प्रवृत्ति का फल है । इस भक्ति के बल से ही उनकी कविता के अनेक अंश अभूत- पूर्व और अलौकिक हैं । इस प्रवृत्ति ने ही उन को बहुत ऊँचा उठाया और इस प्रवृत्ति के बल से ही इस विषय में वे सूरदास जी पर विजयी हुये । आत्मोन्नति. सदाचार-शिक्षा, समाज-संगठन, आर्य जातीय उच्च भावों के

प्रदर्शन. सद्भाव. सत् शिक्षा के प्रचार एवं मानव प्रकृति के अध्ययन में जो पद तुलसी दास जी को प्राप्त है उस उच्च पद को सूरदास जी नहीं प्राप्त कर सके । दृष्टि-कोण की व्यापकता में भी सूरदास का वह स्थान नहीं है जो स्थान गोस्वामी जी का है । मैं यह मानूंगा कि अपने वर्णनीय विषयों में सूरदास जी की दृष्टि बहुत व्यापक है । उन्होंने एक एक विषय को कई प्रकार से वर्णन किया है । मुरली पर पचासों पद्य लिखे हैं तो नेत्रों के वर्णन में सैकड़ों पद लिख डाले हैं । परन्तु सर्व विषयों में अथवा शास्त्रीय सिद्धान्तों के निरूपण में जैसी विस्तृत दृष्टि गोस्वामीजी की है उनकी [ २६३ ]
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नहीं । सूरदास जी का मुरली निनाद विश्व विमुग्धकर है। उनको प्रेम-सम्बन्धी कल्पनायें भी बड़ी ही सरस एवं उदात्त हैं । परन्तु गोस्वामी जी की मेघ-गम्भीर गिरा का गौरव विश्वजनीन है और स्वर्गीय भी। उनकी भक्ति भावनायें भी लोकोत्तर हैं। इसीलिये मेरा विचार है कि गोस्वामीजी का पद सूरदास जी से उच्च है।

मैंने पहले यह लिखा है कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर उनका समान अधिकार था। मैं अपने इस कथन को सत्यता प्रतिपादन के लिये उनकी रचनाओं में से दोनों प्रकार के पद्यों को नीचे लिखता हूं। उनको पढ़ कर आपलोग स्वयं अनुभव करेंगे कि मेरे कथन में अत्युक्ति नहीं है ।

१--फोरइ जोग कपारु अभागा ।

       भलेउ कहत दुख रउरेहिं लागा।

कहहिं झूठि फुरि बात बनाई।

      ते प्रिय तुम्हहिं करुइ मैं माई ।

हमहुँ कहब अब ठकुर सोहाती ।

      नाहिँ त मौन रहब दिन राती ।

करि कुरूप विधि परबस कीन्हा।

     बवा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा ।

कोउ नृप होइ हमै का हानी।

      चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी।

जारइ जोग सुभाउ हमारा ।

       अनभल देखि न जाइ तुम्हारा ।

तातें कछुक बात अनुमारी।

       छमिय देवि बड़ि चूक हमारी।

तुम्ह पूंछउ मैं कहत डराऊँ।

       धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ । [ २६४ ]( २६४ )

रहा प्रथम अब ते दिन बीते । समउ फिरे रिए हो पिरीते । जर तुम्हारि चह सवति उखारी। सँधहु करि उपाइ बर बारी। तुम्हहि न सोच सोहाग बल, निज बस जानहु राउ । मन मलीन मुंहु मीटु नृप, राउर सरल सुभाउ । जौ असत्य कछु कब बनाई। तो विधि देइहि हमहिं सजाई । रेख बँचाइ कहहुँ बल भाखी । भामिनि भइहु दूध कै माखी । काह करउँ सखि सूध मुभाऊ। ___ दाहिन बाम न जानउँ काऊ । नैहर जनम भरव बरु जाई । जिअत न करब सवति सेवकाई। रामायण २-मोकहँ झूठहिं दोष लगावहिं । मइया इनहिं बान परगृह को नाना जुगुति बनावहिं। इन्ह के लिये खेलियो छोरो तऊन उबरन पावहिं । भाजन फोरि बोरि कर गोरस देन उरहनो आवहिं । कबहुंकबाल रोवाइ पानि गहि एहि मिस करि उठि धावहिं। [ २६५ ]करहिं आप सिर धरहिं

     आन के बचन बिरंचि हरावहिं ।

मेरी टेव बूझ हलधर सों संतत संग खेलावहिं । जे अन्याउ करहिँ काहू को तेसिसु मोहिं न भावहिं ।

   सुनि सुनि बचन-चातुरी
     ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं ।

बाल गोपाल केलि कल कीरति ।

  तुलसि दास मुनि गावहिं

३-अबहिं उरहनो दै गई बहुरो फिरि आई। सुनि मइया तेरी सौं करौं याकी टेव लरन की सकुच बेंचि सी खाई। या व्रज में लरिका घने हौं हो अन्याई ।

  मुँह लाये मूँडहिं चढ़ी अन्तहु

अहिरिनि तोहिं सूधी करि पाई।

                    कृष्ण गोतावली।
रामायण का पद्य अवधी बोल चाल का बड़ा ही सुन्दर नमूना है। उसमें भावुकता कितनी है और मानसिक भाव का कितना सुन्दर चित्रण है इसको प्रत्येक सहृदय समझ सकता है। स्त्री-सुलभ प्रकृति का इन पद्यों में ऐसा सच्चा चित्र है कि जिसको बारबार पढ़ कर भी जी नहीं भरता । कृष्ण गीतावली के दोनों पद भी अपने ढंग के बड़े ही अनूठे हैं । उनमें व्रजभाषा-शब्दों का कितना सुन्दर व्यवहार है और किस प्रकार महावरों की छटा है वह अनुभव की वस्तु है। बालभाव का जैसा चित्र दोनों पदों में है उसकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है । गोस्वामी जी की लेखनी का यही महत्व है कि वे जिस भाव को लिखते हैं उसका यथातथ्य चित्रण कर देते हैं और यही महाकवि का लक्षण है। गोस्वामी [ २६६ ]
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जी ने अपने ग्रन्थों में से रामायण की मुख्य भाषा अवधी रखी है । जानकी मंगल, राम लला नहछू, बरवै रामायण और पार्वती मंगल की भाषा भी अवधी है । कृष्ण गीतावली को उन्होंने शुद्ध व्रजभाषा में लिखा है। अन्य ग्रन्थों में उन्होंने बड़ी स्वतंत्रता से काम लिया है। इनमें उन्होंने अपनी इच्छा के अनुसार यथावसर व्रजभाषा और अवधी दोनों के शब्दों का प्रयोग किया है।

 गोस्वामीजी की यह विशेषता भी है कि उनका हिन्दी के उस समय के प्रचलित छन्दों पर समान अधिकार देखा जाता है। यदि उन्होंने दोहा-चौपाई में प्रधान-ग्रन्थ लिख कर पूर्ण सफलता पायी तो कवितावली को कवित्त और सवैया में गीतावली और विनय-पत्रिका को पदों में लिख कर मुक्तक विषयों के लिखने में भी अपना पूर्ण अधिकार प्रकट किया। उनके बरवे भी बड़े सुन्दर हैं और उनकी दोहावली के दोहे भी अपूर्व हैं। इस प्रकार की क्षमता असाधारण महाकवियों में ही दृष्टिगत होती है। मैं इन ग्रन्थों के भी थोड़े से पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ। उनको पढ़िये और देखिये कि उनमें प्रस्तुत विषय और भावों के चित्रण में कितनी तन्मयता मिलती है और प्रत्येक छन्द में उनकी भाषा का झंकार किस प्रकार भावों के साथ झंकृत होता रहता है । विषयानुकूल शब्द-चयन में भी वे निपुण थे। नोचे के पद्यों को पढ़ कर आप यह समझ सकेंगे कि भाषा पर उनका कितना अधिकार था। वास्तव में भाषा उनकी अनुचरी ज्ञात होती है। वे उसे जब जिस ढंग में ढालना चाहते हैं ढाल देते हैं:-

४.-बर दंत की पंगति कुद कली

       अधराधर पल्लव खोलन की ।

चपला चमकै घन बीच जगै

       छबि मोतिन माल अमोलन की।

घुंघरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर

      कुण्डल लोल कपोलन की । [ २६७ ]( २६७ )

निवछावर प्रान करै तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलन को। ५-हाट बाट कोट ओट अटनि अगार पौरि खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्हों अति आगि है। आरत पुकारत सँभारत न कोऊ काहू व्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चल्यो भागि है। बालधी फिरावै बार बार झहरावै झरें दियाँसी लंक पघिराई पाग पागि है । तुलसी विलोकि अकुलानी जातुधानी कहै चित्रहूं के कपिसों निसाचर न लागि है। कवितावली ६-पौढ़िये लाल पालने हो झुलावी। बाल बिनोद मोद मंजुल मनि किलकनि खानि खुलावौं । तेइ अनुराग ताग गुहिये कहूँ। मति मृगनैनि बुलावौं । तुलसी भनित भली भामिनि उर सो पहिराइ फुलावी । चारु चरित रघुवर तेरे तेहि मिलि गाइ चरन चित लायौं। ७-बैठी सगुन मनावति माता। कब अइहैं मेरे बाल कुमल घर कहहु काग फुरि बाता । [ २६८ ]( २६८ ) दूध भात की दोनी दैहों सोने चोंच महौं । जब सिय सहित बिलोकि । नयन भरि राम लखन उर लै हौ। अवधि समीप जानि जननी जिय अति आतुर अकुलानी । गनक बुलाइ पाय परि पूछत प्रेम मगन मृदु बानी । तेहि अवसर कोउ भरत निकट ते समाचार लै आयो । प्रभु आगमन सुनत तुलसी मनो मरत मीन जल पायो । गीतावली ८-यावरो रावरो नाह भवानी। दानि बड़ो दिन देत दये । बिनु बेद बड़ाई भानी । निज घर की बर बात बिलोकहु हो तुम परम सयानो । सिवकी दई संपदा देखत श्री सारदा सिहानी । जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नहीं निसानी। तिन रंकन को नाक सँवारत हौं आयों नकवानी । [ २६९ ]( २६९ ) दुख दीनता दुखी इनके दुख जाचकता अकुलानी । यह अधिकार सौ पिये औरहि भीख भली मैं जानी। प्रेम प्रसंसा विनय व्यंग जुत - सुनि विधि की बर बानी । तुलसी मुदित महेस मनहि मन जगत मातु मुसकानी । ९-अबलौं नसानी अब ना नसैहौं । राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डमैहौं । पायो नाम चारु चिंतामनि ____उर कर ते न खसैहौं । स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनाहिँ कसैहौं । परवस जानि हस्यों इन इन्द्रिन निज बस ह न हंसैहीं । मन मधु कर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल वसैहौं। विनयपत्रिका १०-गरब करहु रघुनन्दन जनि मन माँह । देखहु आपनि मूरति सिय के छाँह । डहकनि है उँजियरिया निसि नहिं घाम

जगत जरत अस लागइ मोहि बिनु राम। [ २७० ]
( २७० )

अब जीवन कै है कपि आस न कोई। कनगुरिया कै मुँदरी कंकन होइ । स्याम गौर दोउ मूरति लछिमन राम । इनते भई सित कीरति अति अभिराम । विरह आग उर ऊपर जब अधिकाइ । ए अँखिया दोउ बैरिन देहिं बुताइ । सम सुवरन सुखमाकर सुखद् न थोर । सीय अंग सखि कोमल कनक कठोर ।

                        बरवै गमायण

११-तुलसी पावस के समै धरी कोकिला मौन । अबतो दादुर बोलि हैं हमै पूछि है कौन । हृदय कपट बर बेष धरि बचन कहैं गढ़ि छोलि। अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिये मन खोलि। आवत ही हरखै नहीं नैनन नहीं सनेह । तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसै मेह । तुलसी मिटै न मोह तम किये कोटि गुन ग्राम । हृदय कमल फूलै नहीं बिनु रवि कुल रवि राम । अमिय गारि गारेउ गरल नारि करी करतार । प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुध न गँवार ।

                              दोहावली
ब्रजभाषा और अवधी के विशेष नियम क्या हैं. मैं इसे पहले विस्तार से लिख चुका हूं। मलिक मुहम्मद जायसी और सूरदास की भाषा में उक्त भाषाओं के नियमों का प्रयोग भी दिखला चुका हूं । गोस्वामी जी की रचना में भी अवधी और व्रजभाषा के नियमों का पालन पूरा पूरा [ २७१ ]
( २७१ )

हुआ है। मैं उनकी रचना की पंक्तियों को ले कर इस बात को प्रमाणित कर सकता हूं। किन्तु यह वाहुल्य मात्र होगा। गोस्वामी जी की उद्धृत रचनाओं को पढ़ कर आप लोग स्वयं इस बात को समझ सकते हैं कि उन्होंने किस प्रकार दोनों भाषाओं के नियमों का पालन किया-मैं उसका दिग्दर्शन मात्र ही करूंगा। युक्तिविकर्ष के प्रमाण भूत ये शब्द हैं, गरब, अरध, मूरति । कारकों का लोप इन वाक्यांश में पाया जाता है 'बोरि कर गोरस', 'बाल गेवाइ'. सिर धरहि आन के'. 'वचन विरंचि हरावहिं', 'पालने पौढ़िये'. किलकनि खानि. 'तुलसी भनिति , सोनेचोंच मढ़ैहों',रामलखन उर लैहों', बेद बड़ाई' जगत मानु। 'श', ण'. 'क्ष इत्यादि के स्थान पर 'स', 'न'. 'छ'का व्यवहार सिंगारू','प्रससा', 'परबस','सिसु', 'पानि' भग्न'. 'गनक'.लच्छि', आदि में है। पञ्चम वर्ण की जगह पर अनुस्वार का प्रयोग मंजुल'. 'विरंचि'. 'कंचनहि' आदि में मिलेगा। शब्द के आदि के 'य' के स्थान पर 'न' का व्यवहार जुवति,जागु, जुगुति आदि में आप देखेंगे। संज्ञाओं और विशेषणों के, अपभ्रंश के अनुसार, उकारान्त प्रयोग के उदाहरण ये शब्द हैं. कपारु. मुहुं. मीठु,आदि। ह्रस्व का दीर्घ और दीर्घ का ह्रस्व प्रयोग कमनोया', बाता', जुवति', रेख' इत्यादि शब्दों में हुआ है। प्राकृत शब्दों का उसी के रूप में ग्रहण तीय, नाह इत्यादि में है । ब्रजभाषा की रचना में आप को संज्ञायें क्रियायें दोनों अधिकतर ओकारान्त मिलेंगी। और इसी प्रकार अवधी की संज्ञायें और क्रियायें नियमानुकूल अकारान्त पायी जायेंगी। उराहनो, बहुरो, पायो, आयो, बड़ो कहब. रहब. हाय. देन. गउर इत्यादि इसके प्रमाण हैं। अधिकतर तद्भव शब्द ही दोनों भाषाओं में आये हैं।परन्तु जहां भाषा तत्सम शब्द लाने से ही सुंदर बनती है वहां गोस्वामी जी ने तत्सम शब्दों का प्रयोग भी किया है। जैसे 'प्रिय', 'कुरूप', रिपु',

'असत्य'. 'पल्लव' इत्यादि। मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने अधिकता से किया है। परन्तु विशेषता यह है कि जिस भाषा में मुहावरे आये हैं उनको उसी भाषा के रूप में लिखा है जस ‘नयनभरि', 'मुँह लाये, 'मूढहिं चढ़ी','जनम भरब', 'नकवानी आयो'. ठकुरसुहातो. बवा सो लुनिय' इत्यादि । [ २७२ ]
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अवधी में स्त्रीलिंग के साथ सम्बन्ध का चिन्ह सदा 'कै" आता है।गोस्वामी जी की रचनाओं में भी ऐसा ही किया गया है, 'दूध कै माखो','कै छाँह'. इत्यादि इसके सबूत हैं । क्रिया बनाने में विधि के साथ इकार का संयोग किया जाता है उनको कवितामें भी यह बात मिलती है जैसे 'भरि','फोरी', 'बोरि' इत्यादि ।अनुप्रास के लिये तुकान्त में इस इ' को दोर्घ भी कर दिया जाता है । उन्होंने भी ऐसा किया है । देखिये 'जानी', 'होई'इत्यादि। ऐसे ही नियम-सम्बन्धी अन्य बातें भी आप लोगों को उनमें दृष्टिगत होंगी।

सूरदासजी के हाथों में पड़ कर ब्रजभाषा और गोस्वामीजी की लेखनी से लिखी जा कर अवधी प्रौढ़ता को प्राप्त हो गयी। इन दोनों भाषाओं का उच्च से उच्च विकास इनदोनों महाकवियों के द्वारा हुआ। साहित्यिक भाषा में जितना सौन्दर्य-सम्पादन किया जा सकता है इन दोनों महापुरुषों से इनकी रचनाओं में उसकी भी पराकाष्टा हो गई। अनुप्रासों और रस एवं भावानुकूल शब्दों का विन्यास जैसा इन कवि-कर्मनिपुण महाकवियों की कृति में पाया जाता है वैसा आज तक की हिन्दी भाषा की समस्त रचनाओं में नहीं पाया जाता भविष्य में क्या होगा. इस विषय में कुछ कहना असम्भव है । "जिनको सजीव पंक्तियाँ कहते हैं" वे जितनी इन लोगों की कविताओं में मिलती हैं उतनी अबतक की किसी कविता में नहीं मिल सकी। यदि इन लोगों की शब्द माला में लालित्य नर्तन करता मिलता है तो भाव सुधा-वर्षण करते हैं। जब किसी भाषा की कविता प्रौढ़ता को प्राप्त होती है उस समय उसमें व्यंजना की प्रधानता हो जाती है। इन लोगों की अधिकांश रचनाओं में भी यही बात देखी जाती हैं ।

  गोस्वामी जी के विषय में योरोपीय या अन्य विद्वानों को जो सम्मतियां हैं उनमें से कुछ सम्मतियों को मैं नीचे लिखता हूं। उनके पढ़ने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि गोस्वामी जी के विषय में विदेशी विद्वान् भी  कितनी उत्तम सम्मति और कितना उच्च भाव रखते हैं। प्रोफेसर

मोल्टन यह कहते हैं। [ २७३ ]

'मानव प्रकृति की अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर ग्रहणशीलता, करुणा से लेकर आनन्द तक के सम्पूर्ण मनोविकारों के प्रति संवेदनशीलता, स्थान-स्थान पर मध्यश्रेणी का भाव जिस पर हँसते हुये महासागर के अनन्त बुड्ढदों की तरह परिहास क्रीड़ा करता है; कल्पना-शक्ति का स्फुरण जिसमें अनुभव और सृष्टि दोनों एक ही मानसिक क्रिया जान पड़ती हैं, सामञ्जस्य और अनुपात की वह धारणा जो जिसे ही स्पर्श करेगी कलात्मक बना देगी; भाषा पर वह अधिकार जो विचार का अनुगामी है और वह भाषा जो स्वयं ही सौन्दर्य है; ये सब काव्य-स्फूर्ति के पृथक् पृथक् तत्व जिनमें से एक भी विशेष मात्रा में विद्यामान हो कर कवि की सृष्टि कर सकता है। तुलसीदास में सम्मिलित रूप से पाये जाते'?[१]

एक दुसरे सज्जन की यह सम्मति हैं—

हम पैग़म्बर (ईश्वरीय दूत) के उसके कार्यों के परिणामों की कसौटी पर ही कसते हैं। जब मैं यह कहता हूं कि पूरे नौ करोड़ मनुष्य अपने नैतिक और धार्मिक आचार-सम्बन्धी सिद्धांतों को तुलसीदास कृति [ २७४ ]
( २७४ )

ही से ग्रहण करते हैं तो अत्युक्ति नहीं करता, मेरा यह अनुमान साधारण जन संख्या से कुछ कम ही है।वर्तमान समय में उनका जितना प्रभाव है यदि उसके आधार पर हम अपना निर्णय स्थिर करें तो वे एशिया के तीन या चार महान लेखकों में परिगणित होंगे" १

    डाकर जो० ए० प्रियर्सन का यह कथन है:-

"भारतवर्ष के इतिहास में तुलसीदास का बहुत अधिक महत्व है। उनके काव्य की साहित्यिक उत्कृष्टता की ओर न भी ध्यान दें तो भागलपुर से लेकर पंजाब तक और हिमालय से लेकर नर्मदा तक समस्त श्रेणियों के लोगों का उन्हें आदर पूर्वक ग्रहण करना ध्यान देने योग्य बात है। तीन सौ से भी अधिक वर्षों से उनके काव्यका हिन्दू जनता की बोलचाल, तथा उसके चरित्र और जीवन से सम्बन्ध है। वह उनकी कृति को केवल उसके काव्य-गत सौन्दर्य के लिये ही नहीं चाहती है. उसे श्रद्धा की दृष्टि से ही नहीं देखती है, उसे धार्मिक ग्रंथ के रूप में पूज्य समझती है । दस करोड़ जनता के लिये वह बाइबिल (Bible) के समान है और वह उसे उतना ही ईश्वरप्रेरित समझती है जितना अंग्रेज़ पादड़ी बाइबिल को समझता है। पंडित लोग भले ही वेदों को चर्चा और उनमें से थोड़े से लोग उनका अध्ययन भी करें, भले ही कुछ लोग पुराणों के प्रति श्रद्धा भक्ति भी प्रदर्शित करें किन्तु पठित वा अपठित विशाल जनसमूह तो तुलसी कृत रामायण ही से अपने आचार-धर्म की शिक्षा ग्रहण करता है। हिन्दु-स्थान के लिये यह वास्तव में सौभाग्य की बात है, क्योंकि इसने देश को शैव धर्म के अनाचरणीय क्रिया-कलाप से सुरक्षित रक्खा है। बंगाल जिस दुर्भाग्य के चक्कर में पड़ गया उससे उत्तरी भारत के मूल त्राण करनेवाले तो रामानन्द थे, किन्तु महात्मा तुलसी दास ही का यह काम था कि उन्होंने पूर्व और पश्चिम में उनके मत का प्रचार किया और उसमें स्थायिता का संचार कर दिया।" १]] | "The importance of Tulsidas in the history of India can not be overrated. Pulling the literary merits of his work out of the question,the fact of its universal acceptance by all classes, from Bhagalpur to the

  1. Grasp of human nature the most profound, the most subtle; responsivenesi to emotion throughout the whole scale from tragic pathes to rollicking jollity, with a middle range, over which plays a humour like the innumerable twinklings of a laughing ocean; powers of imagination so instinctive that to percieve and create seem the same mental act; a sense of symmetry and proportion that that will make everything it touches into art; mastery of language that is the servant of thought and language that is the beauty in it self; all these separate elements of poelic force, any one of which in consicuous degrce might make a poet, are in Tulsidasa fourd in complete combination "Prof Moultons 'World Literature' P. 166.
    1 "We judge of a prophet by his fruits and I give much less than usual estimate when I say that fully ninty millions of people have heard the or theories of moral and religious conduct upon his writtings.ls we take the iufluence exercised by him at present time as our test, he in one of the three or four great writers of Asia." Punjab and from the Himalaya to the Narmada is surely worthy of note. It has been interwoven into the life, character, and speech of the Hindu population for more than three hundred years, and is not only loved and admired by them for its poetic beauty, but is reverened by them as their scriptures. It is the bible of a hundred millions of people, and is looked upon by them as much inspired as the bible is considered by the English clergymen. Pandits may talk of the vedas and of the Vpnishadas and a few may even study them; others may say they pin their faith on the puranas: but to the vast majority of the people of Hindustan, learned and unlearned alike, their soul room of conduct is the so called Tulsikrit Ramayan. It is indeed fortunate that this is so, for it has saved the country from the tantric obscenities of Shaivism Ram chandra was the original saviour of Upper India from the late which has befallen Bengal, but Tulsidas was the great aposle who carried his doctrine eastand west and made it anabiding faih."—
    Modern Vernacular Literature of Hindustan, 42 43. P.