हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/सूरदास

विकिस्रोत से
हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ २३३ ] सोलहवीं शताब्दी में ही हिन्दी संसार के सामने साहित्य गगन के उन उज्ज्वलतम तीन तारों का उदय हुआ जिनकी ज्योति से वह आज तक ज्योतिर्मान है ! उनके विषय में चिर-प्रचलित सर्वसम्मति यह है:--- सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसव दास । अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करत प्रकास। [ २३४ ]( २३४ ) काव्य करैया तीन हैं, तुलसी केशव सूर । कविता खेती इन लुनी, सीला बिनतमजूर । यह सम्मति कहां तक मान्य है, इस विषयमें मैं विशेष तर्क वितर्क नहीं करना चाहता। परन्तु यह मैं अवश्य कहूंगा कि इस प्रकार के सर्व-साधा- रण के विचार उपेक्षा-योग्य नहीं होते, वे किसी आधार पर होते हैं । इस- लिये उनमें तथ्य होता है और उनको वहुमूल्यता प्रायः असंदिग्ध होती है। इन तीनों साहित्य-महारथियों में किसका क्या पद और स्थान है इस बात को उनका वह प्रभाव ही बतला रहा है जो हिन्दी-संसार में व्यापक होकर विद्यमान है। मैं इन तीनों महाकवियों के विषय में जो सम्मति रखता हूं उसे मेरा वह वक्तब्य ही प्रगट करेगा जो मैं इनके सम्बन्ध में यथा स्थान लिखूंगा। इन तीनों महान साहित्यकारों में काल की द्दष्टि से सूर- दास जी का प्रथम स्थान है, तुलसीदास जी का द्वितीय और केशवदास जी का तृतीय । इसलिये इसी ऋम से मैं आगे बढ़ता हूं। कविवर सूरदास ब्रजभाषा के प्रथम आचार्य हैं। उन्हों ने ही ब्रजभाषा का वह शृंगार किया जैसा शृंगार आज तक अन्य कोई कवि अथवा महाकवि नहीं कर सका। मेरा विचार है कि कविवर सूरदास जी का यह पद हिन्दी-संसार केलिये आदिम और अंतिम दोनों है। हिन्दीभाषा की वर्तमान प्रगति यह बतला रही है कि ब्रजभाषा के जिस उच्चतम आसन पर वे आसीन हैं सदा वेही उस आसन पर विराजमान रहेंगे; समय अब उनका समकक्ष भी उत्पन्न न कर सकेगा। कहा जाता है , उनके पहले का 'सेन' नामक ब्रजभाषा का एक कवि है। हिन्दी संसार उससे एक प्रकार अपरिचितसा है । उसका कोई ग्रन्थ भी नहीं बतलाया जाता। कालिदासने औरंगज़ेब के समय में हज़ारा नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी। उसमें उन्होंने 'सेन' कवि का एक कवित्त लिखा है। वह यह है । जब ते गोपाल मधुबन को सिधारे आली,

मधुबन भयो मधु दानव बिषम सों। [ २३५ ]

सेन कहै सारिका सिखंडी खंजरीट सुक
मिलि कै कलेस कीनो कालिँदो कदम सों।
जामिनी बरन यह जामिनी मैं जाम जाम
बधिक की जुगुति जनावै टेरि तम सों।
देह करै करज करेजो लियो चाहति है,
कांग भई कोयल कगायो करै हमसों।

कविता अच्छी है, भाषा भी मँजी हुई है। परन्तु इस कवि का काल संदिग्ध है । मिश्र बंधुओं ने शिवसिंहसरोज के आधार से उसका काल सन् १५०३ ई० बतलाया है। परन्तु वे हो इसको संदिग्ध बतलाते हैं। जो हो, यदि यह कविता कविवर सूरदास जी के पहले की मान भी ली जावे तो इससे उनके आदिम आचार्यत्व को बट्टा नहीं लगता। मेरा विचार है कि सूरदास जी के प्रथम व्रजभाषा का कोई ऐसा प्रसिद्ध कवि नहीं हुआ कि जिसकी कृति ब्रजभाषा कविता का साधारण आदर्श बन सके। दो चार कवित्त लिख कर और छोटा मोटा ग्रन्थ बना कर कोई किसी महाकवि का मार्गं- दर्शक नहीं बन सकता। सूरदास जी से पहले कबीरदास, नामदेव, रविदास आदिसन्तों की बानियों का प्रचार हिन्दू संसार में कुछ न कुछ अवश्य था। संभव है कि ब्रज-भाषा के ग्राम्यगीत भी उस समय कुछ अपनी सत्ता रखते हों। परन्तु वे उल्लेख-योग्य नहीं। मैं सोचता है कि सूरदास जी की रचनायें अपनी स्वतंत्र सत्ता रखती हैं और वे किसी अन्य की कृति से उतनी प्रभावित नहीं हैं जो वे उनका आधार बन सकें । खुसरो की कविताओं में भी व्रजभाषा की रचनाएं मिली हैं। और ये रचनायें भी थोड़ी नहीं हैं। यदि उनकी रचनाओं का आधार हम ब्रजभाषा की किसी प्राचीन रचना को मान सकते हैं तो सूरदास जी की रचनाओं का आधार किसी प्राचीन रचना को क्यों न माने ? मानना चाहिये और मैं मानता हूं। मेग कथन इतना ही है कि सूरदास जी के पहले ब्रजभाषा की कोई ऐसी उल्लेख-योग्य रचना नहीं थी जो उनका आदर्श बन सके।

प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी अपना आदर्श आप थे। वे स्वयं-प्रकाश थे। [ २३६ ] ( २३६ ) ज्ञात होता है इसो लिये वे हिन्दी संसार के सूय्यृ क जाते हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य उनको सागर कहा करते थे । इसी आधार पर उनके विशाल ग्रन्थका नाम सूर सागर है । वास्तवमें वे सागर थे और सागर के समान ही उत्तालतरंग-माला-संकुलित । उनमें गम्भीरता भी वैसी ही पायो जातो है । जैसा प्रवाह, माधुर्य, सोन्दर्य उनकी कृतिमें पाया जाता है अत्यन्त दुर्लभ है। वे भक्ति-मार्गी थे, अतएव प्रेम- मार्ग का जैसा त्यागमय आदर्श उनकी रचनाओं में द्दष्टिगत होता है वह अभूतपूर्व है। प्रेममार्गी सूफ़ी सम्प्रदाय- वालों ने प्रेम-पंथ का अवलंबन कर जैसी रस धारा बहाई उससे कहीं अधिक भावमय मर्मस्पर्शी और मुग्धकारिणीप्रेम की धारायें सूरदासजी ने अथवा उनके उत्तराधिकारियों ने बहाई हैं । यही कारण है कि वे धारायें अंत में आकर इन्हों धाराओं में लीन हो गई। क्योंकि भक्ति मार्गी कृष्णावत सम्प्रदाय की धाराओं के समान व्यापकता उनको नहीं प्राप्त हो सकी। परोक्षसत्ता- सम्बनधी कल्पनायें मधुर और हृदय ग्राही हैं और उनमें चमत्कार भी है, किन्तु वे बोध-सुलभ नहीं । इसके प्रतिकूल वे कल्पनायें बहुत ही बोध गम्य बनों और अधिकतर सव साधारण को अपनी ओर आकर्पित कर सकीं जो ऐसी सत्ता के सम्बन्ध में की गयीं जो परोक्ष-सत्तापर अवलम्बित होने पर भी संसार में अपरोक्षभाव से अलौकिक मूर्ति धारण कर उपस्थित हुई। भगवान श्री कृष्ण क्या हैं ? परोक्ष सत्ता ही की ऐसो अलौकिकतामयो मूर्ति हैं जिनमें 'सत्यम् शिवम सुन्दरम्' मूर्त होकर विराजमान है । सूफी मत के प्रेमा मागियोंकी की रचनाओं में यह बात द्दष्टिगत हो चुकी है कि वे किसी नायक अथवा नायिका का रूप वर्णन करते करते उसको परोक्ष-सत्ता ही की विभूति मान लेते हैं और फिर उसके विषय में ऐसी बातें कहने लगते हैं जो विश्व की आधार- भूत परोक्ष सत्ता ही से सम्बन्धित होती हैं । अनेक अवस्थाओं में उनका इस प्रकार का वर्णन बोध- सुलभ नहीं होता. वरन एक प्रकार से संदिग्ध और जटिल बन जाता है। किन्तु भक्ति-मार्गी महात्माओं के वर्णन में यह न्यूनता नहीं पायी जाती । क्योंकि वे पहले ही से अपनी अपरोक्ष सत्ता को परोक्ष सत्ता का ही अंश-बिशेष होने का संस्कार सर्व साधारण [ २३७ ] ( २३७ ) के हृदय में विवध युक्तियों से अंकित करते रहते हैं। क्या किसी सूफ़ी प्रेम- मार्गी कवि की रचनाओं में वह अलौकिक मुरली-निनाद हुआ, वह लोक-विमुग्ध कर गान हुआ, उस सुरदुर्लभ शक्ति का विकास हुआ, उस शिव संकल्प का समुदय हुआ और उन अचिन्तनोय सत्य भावों का आवि. र्भाव हुआ जो महामहिम सूरदास जैसे महात्माओं की महान रचनाओं के अवलम्बन हैं ? ओर यहो सब ऐसे प्रबलतम कारण हैं कि इन महापुरुषों की कृतियौं का अधिकतर आदर हुआ और वे अधिकतर व्यापक बनीं । इन सफलताओं का आदिम श्रेय हिन्दी साहित्य में प्रज्ञाचक्षु सूरदासजो ही को प्राप्त है। ___ मैं समझता हूँ', सूरदास जी का भक्ति-मार्ग और प्रेमपथ श्रीमद्भागवत के सिद्धान्तों पर अवलम्बित है और यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के सत्संग और उनकी गुरु-दीक्षा ही का फल है। सूरमागर श्रीमद्भागवत का ही अनुवाद है, परन्तु उसमें जो विशेषताये हैं व सूरदास जी की निजी सम्प- त्तियां हैं। यह कहा जाता है कि उनको प्रणालो 'भक्तवर जयदेव जी के 'गीत गोविन्द एवं मैथिलकोकिल विद्यापतिको रचनाओस भी प्रभावित है। कुछ अंश में यह बात भी स्वीकार की जा सकती है. परन्तु सूरदासजी की सो उदात्त भक्ति-भावनायें इन महाकवियों की रचनाओंमें कहां है ? मैं यह मानूंगा कि सूरदासजीकी अधिकतर रचनायें श्रृंगार ग्म-गर्भित हैं । परन्तु उनका विप्रलम्भ शृंगार ही, विशेष कर हृदय-ग्राही और गार्मिक है । कारण इसका यह है कि उसपर प्रेम-मार्ग की महत्ताओं की छाप लगी हुई है। यह सत्य है कि मैथिल काकिल विद्यापति की विप्रलम्भ शृंगार की ग्चनायें भी बड़ी ही भावमयो हैं. परन्तु क्या उनमें उतनी ही हृदय-वेद- नाओं की झलक है जितनी सूरदास जी की रचनाओं में ? क्या वे उतनी ही अश्रु-धाग से सिक्त, उतनी ही मानसोन्मादिनी और उतनो हो मर्म स्पर्शिनी और हृदयवेधिनी हैं जितनी सूरदासजोकी उक्तियां ? क्या उनमें भी वेसा ही करुण क्रन्दन सुन पड़ता है जेसा सूरदास जो को विरागमयी बचनावली में ? इन बातों के अतिरिक्त सूरदास जो की रचनाओं में और भो कई एक विशेषतायें हैं। उनका बाललीला-वणन और वालभावों का [ २३८ ] ( २३८ ) चित्रण इतना सुन्दर और स्वाभाविक है कि हिन्दी साहित्य को उसका गर्व है। कुछ लोगों की सम्मति है कि संसार के साहित्य में ऐसे अपूर्व वाल- भावों के चित्रण का अभाव है । मैं इसपर अपनी ठीक सम्मति प्रकट करने में असमर्थ हूं. परन्तु यह अधिकार के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा में ऐसा वर्णन तो है ही नहीं, परन्तु भारतीय अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी वैसा अपूर्व वर्णन उपलब्ध नहीं होता। उनकी विनय और प्रार्थना सम्बन्धी रचनायें भी आदर्श हैं और आगे चल कर परवर्ती कवियों के लिये उन्होंने मार्ग-प्रदर्शन का उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं इस प्रकार के कुछ पद नीचे लिखता हूं। उनको देखिये कि उनमें किस प्रकार हृदय खोल कर दिखलाया गया है, उनको भाषा को प्राञ्जलता और सरसता भी दर्शनीय है।

१-जनम सिरानो ऐसे ऐसे।
  कै घरघर भरमत जदुपति बिन कै सोवत के बैसे ।
  कै कहुँ खान पान रसनादिक कै कहुँ बाद अनैसे।
  कै कहुँ रंक कहं ईसरता नट बाजीगर जैसे।
  चेत्यो नहीं गयो टरि अवसर मीन बिना जल जैसे।
  अहै गति भई सूर की ऐसी स्याम मिलैं धौं कैसे।
'२-प्रभु मोरे औगुन चित न धरो।
  समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो।
  एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।
  जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो।
  एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो।
  पारस गुन औगुन नहिं चितवै कंचन करत खरो ।
  यह माया भ्रम जाल कहावै सूरदास सगरो।
  अबकीबार मोहिं पार उतारो नहिं प्रन जात टरो।

[ २३९ ] ( २३९ )

३-अपनपो आपन हीं बिसरो।
  जैसे स्वान काँच के मंदिर भ्रमि भ्रमि भूंकि मरो।
  ज्यों केहरि प्रतिमा के देखत बरबस कूप परो।
  मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्हीं घरघर द्वार फिरो।
  सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो।
४-मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
  जैसे उड़ी जहाज को पच्छी फिरि जहाजपै आवै ।
  कमल नयन को छाडि महातम और देव को ध्यावै ।
  पुलिन गंग को छाडि पियासो दुरमति कूप खनावै।
  जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फलखावै।
  सूरदास प्रभु काम धेनु तजि छेरी कौन दुहावै ।
      कुछ पद्य वाल भाव-वर्णन के भी देखिये :-
५-मैया मैं नाहीं दधि खायो।
  ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो ।
  देखु तुही छीके पर भाजन ऊँचे घर लटकायो।
  तुही निरखु नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो।
  मुख दधि पोंछ कहत नँदनंदन दोना पीठि दुरायो।
  डारि साँट मुसकाइ तबहिं गहि सुत को कंठ लगायो।
६-जसुदा हरि पालने झुलावै ।
  हलरावै दुलराइ मल्हावै जोई सोई कछु गावै ।
  मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुआवै ।
  तू काहें न बेगही आवै तोको कान्ह बुलावै ।

[ २४० ] ( २४० )

कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुँ अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन है हैं रहि करि करि सैन बतावै ।
येहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै ।
जो सुख सर अमर मुनिदुरलभ सो नँदभामिनिपावै।

७-सोभित कर नव नीत लिये।
घुटुरुन चलत रेनु-मंडित तनु मुख दधि लेप किये।
चारु कपोल लोल लोचन छवि गोरोचन को तिलक दिये।
लर लटकत मनोमत्त मधुपगन माधुरि मधुर पिये।
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत हैं सखि रुचिर हिये।
धन्य सूर एको पल यह सुख कहा भये सत कल्प जिये।

मैं ऊपर लिख आया हूँ कि सूरदासजो का श्रृंगार-रस वर्णन बड़ा
विशद है और विप्रलम्भ श्रृंगार लिखने में तो उन्हों ने वह निपुणता दिख-लायी जैसी आज तक द्दष्टिगत नहीं हुई । कुछ पद्य इस प्रकार के भी देखिये:-

८-मुनि राधे यह कहा बिचारै।
वे तेरे रंग तृ उनके रँग अपनो मुख काहे न निहारै ।
जो देखे ते छाँह आपनी स्याम हृदय तव छाया ।
ऐसी दसा नंद नंदन की तुम दोउ निरमल काया।
नीलाम्बर स्यामल तन की छवि तुव छवि पीत सुवास॥
घन भीतर दामिनी प्रकासत दामिनि घन चहुँ पास।
सुनरी सखी विलच्छ कहौं तो सों चाहति हरिको रूप।
सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप ।

[ २४१ ]( २४१ )

९-काहे को रोकत मारग सूधो। सुनहु मधुप निरगुन कंटक सों राजपंथ क्यों रुँधो। याको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधो । सूर मूर अक्रूर ले गये ब्याज निबेरत ऊधो । १०-बिलग मत मानहु ऊधो प्यारे । यह मथुरा काजर को ओबरी जे आवहिं ते कारे। तुम कारे सुफलक सुत कारे कारे स्याम हमारे । मानो एक माँठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे । ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम गुन न्यारे । ११-अरी मोहिं भवन भयानक लागै माई स्याम बिना। देखहिं जाइ काहि लोचन भरि नंद महरि के अँगना। लै जो गये अक्रूर ताहि को ब्रज के प्रान धना। कौन सहाय करै घर अपने मेरे विघन घना । काहि उठाय गोद करि लीजै करि करि मन मगना । सूरदास मोहन दरसनु बिनु सुख संपति सपना । १२-खंजन नैन रूप रस माते। अतिसै चारु चपल अनियारे पल पिंँजरा न समाते। चलि चलि जात निकट स्रवननि के उलटि पलटि ताटंक फंँदाते। सूरदास अंजन गुन अटके नतरु अबहिं उडि जाते। १३-ऊधो अँखिया अति अनुरागी। एक टक मग जोवति अरु रोवति भूलेहुँ पलक न लागी। [ २४२ ]( २४२ ) बिनु पावस पावस रितु आई देखत हैं बिमान । अवधौ कहा कियौ चाहति है छाइहु निरगुन ज्ञान । सुनि प्रिय सखा स्याम सुंदर के जानत सकल सुभाय। जैसे मिलैं सूर के स्वामी तैसी करहु उपाय । १४-नैना भये अनाथ हमारे । मदन गोपाल वहां ते सजनी सुनियत दूरि सिधारे । वे जलसर हम मीन बापुरी कैसे जिवहिं निनारे । हम चातकी चकोर स्याम घन वदन सुधा निधि प्यारे । मधुवन बसत आस दरसन की जोइ नैन मग हारे। सूर के स्याम करी पिय ऐसी मृतक हुते पुनि मारे । १५-सखीरी स्याम सबै एकसार । मीठे बचन सुहाये बोलत अन्तर जारन हार । भवर कुरंग काम अरु कोकिल कपटिन की चटसार । सुनहु सखोरी दोष न काहू जो विधि लिखो लिलार । उमड़ी घटा नाखि कै पावस प्रेम की प्रीति अपार । सूरदास सरिता सर पोषत चातक करत पुकार । भाषा कविवर सूरदास के हाथों में पड़कर धन्य हो गई। आरम्भिक- काल से लेकर उनके समय तक आपने हिन्दी भाषा का अनेक रूप अवलो- कन किया। परन्तु जो अलौकिकता उनको भाषा में दृष्टिगत हुई वह असाधारण है। जैसी उसमें प्राञ्जलता है वैसी ही मिठास है । जितनी ही वह सरस है उतनी ही कोमल । जैसा उसमें प्रवाह है वेसा ही ओज । भावमूर्ति मन्त होकर जैसा उसमें दृष्टिगत होता है, वैसे ही व्यंजना भी उसमें अठखेलियाँ करतो अवगत होती है । जैसा शृंगार-रस उसमें सुविकसित दिखलाई पड़ता है, वैसा हो वात्सल्य-रस छलकता मिलता है । [ २४३ ]( २४३ ) जैसी प्रेम को विमुग्धकरी मूर्ति उसमें आविर्भूत होती है वैसाहो आन्तरिक वेदनाओं का मर्म-स्पर्शी रूप सामने आता है। ब्रजभाषा के जो उल्लेख- नीय गुण अबतक माने जाते हैं और उसके जिस माधुर्य्य का गुणगान अबतक किया जाता है, उसका प्रधान अवलम्बन सुरदासजो का हो कवि कर्म है। एक प्रान्त-विशेप की भाषा समुन्नत होकर यदि देश-व्यापिनी हुई तो वह ब्रजभाषा ही है और ब्रजभाषा को यह गौरव प्रदान करनेवाले कविवर सूरदास हैं। उनके हाथों से यह भाषा जैसी मँजो, जितनी मनोहर बनो, ओर जिस सरसता को उसने प्राप्त किया वह हिन्दी संसार के लिये गौरव की वस्तु है । मैंने ब्रजभाषा की जो विशेषतायें पहले बतलायो हैं वे सब उनकी भाषा में पाई जाती हैं, वरन् यह कहा जा सकता है कि उनको भाषा के आधार से हो व्रजभाषा को विशेषताओं की कल्पना हुई। मेरा विचार है कि उन्हों ने इस बात पर भी दृष्टि रखी है कि कोई भाषा किस प्रकार व्यापक बन सकती है। उनकी भाषा में व्रजभाषा का सुन्दर से सुन्दर रूप देखा जाता है। परन्तु ग्रामीणता दोप से वह अधि- कतर सुरक्षित है। उसमें अन्य प्रान्तिक भाषाओं के शब्द भी मिल जाते हैं। किन्तु इनकी यह प्रणाली बहुत मर्यादित है । गुरु को लघु और लघु को गुरु करने में उनको अधिक संयत देखा जाता है । वे शब्दों को कभी कभी तोड़ते मरोड़ते भी हैं। किन्तु उनका यह ढंग उद्वेजक नहीं होता। उसमें भी उनकी लेखनी को निपुणता दृष्टिगत होती है । व्रजभाषा के जो नियम और विशेषतायें में पहले लिख आया हूं उनकी रचनाओं में उनका पालन किस प्रकार हुआ है. मैं नीचे उसको उद्धृत पद्यों के आधार से लिखता हूं- १-उनको रचनाओंमें कोमल शब्द-विन्यास होता है । इसलिये उनमें संयुक्त वर्ण बहुत कम गये जाते हैं जो वैदर्भी वृत्ति का प्रधान लक्षण है। यदि कोई संयुक्त वर्ण आ भी जाता है तो वे उसके विषय में युक्त-विकर्ष सिद्धान्त का अधिकतर पालन करते देखे जाते हैं। जैसे, 'समदरसी', 'महातम', 'दुरलभ', 'दुरमति' इत्यादि । वर्गों के पञ्चम वण के स्थान पर [ २४४ ]( २४४ ) उनको प्रायः अनुस्वार का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे, 'रंक', 'कंचन', 'गंग', 'अंबुज', 'नंदनंदन', 'कंठ' इत्यादि । २–णकार, शकार, क्षकार के स्थान पर क्रमशः 'न', 'स', और 'छ' वे लिखते हैं। 'ड' के स्थान पर 'ड', और 'ल' के स्थान पर 'र' एवं संज्ञाओं के आदिके य' के स्थान पर 'ज' लिखते उनको प्रायः देखा जाता है। ऐसा वे ब्रज प्रान्त की बोलचाल की भाषा पर दृष्टि रखकर ही करते हैं। 'बरन', 'रेनु', 'गुन', 'ओगुन', 'निरगुन', 'सोभित', 'सत', 'स्याम', 'दसा', 'दरसन', 'अतिसै', 'जसुमति', 'जसुदा', 'जदुपति', 'बिलछि', और 'पच्छी' आदि शब्द इसके प्रमाण हैं। ___३-गुरु के स्थान पर लघु और लघु के स्थान पर गुरु भो वे करते हैं। किन्तु बहुत कम । ‘माधुरि', 'गँग', 'नहिं', 'दामिनि', 'केहरि', 'मनो', 'भामिनि', 'बिन' इत्यादि शब्दों में गुरु को लघु कर दिया गया है । 'धन', 'मगना', इत्यादि में ह्रस्व को दीर्घ कर दिया गया है, अर्थात् 'धन' और मगन' के न' को ना' बनाया गया है । ___ यह बात भो देखी जाती है कि वे कुछ कारक चिन्हों और प्रत्ययों आदि को लिखते तो शुद्ध रूप में हैं, परन्तु पढ़ने में उनका उच्चारण ह्रस्व होता है। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो छन्दोभंग होगा। निम्न- लिखित पंक्तियों में इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है। चिन्हित कारक चिन्हों और शब्दगत वर्गों को देखियेः- १-'काहे को रोकत मारग सूधो' २–'मेरे लालको आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै' ३-'सखीरी स्याम सवै एक सार' ४-'सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप' ५-'सूर के स्याम करी पुनि ऐसी मृतक हुते पुनि मारे'। ६-मानो एक मोठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे'। [ २४५ ]( २४५ ) ७-'समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो' । ८-'जब दोनों मिलि एक वरन भये सुरसरि नाम परो' ___ यह प्रणाली कहां तक युक्ति-संगत है, इसमें मत भिन्नता है। किन्तु जिस मात्रा में विशेष स्थलों पर सूरदासजी ने ऐसा किया है, मेरा विचार है कि वह ग्राह्य है। क्योंकि इससे एक प्रकार से विशेष शब्द- विकृति की रक्षा होती है। दूसरी बात यह कि यदि कुछ शब्दों को हस्त्र कर दिया जाय तो उसका अर्थ ही दूसरा हो जाता है। जैसे ‘भये' को भय' लिख कर यदि छन्दोमंग की रक्षा की जाय तो अर्थापत्ति सामने आती है। प्राकृत भाषा में भी यह प्रणाली गृहीत देखी जाती है । उर्दू कविताओं की पंक्ति पंक्ति में इस प्रकार का प्रयोग मिलता है। हिन्दी में विशेष अवस्था ओर अल्प मात्रा ही में कहीं ऐसा किया जाता है। यह पिंगल नियमावली के अन्तर्गत भी है। जैसे विशेष स्थानों में हस्व को दीर्घ और दीर्घ को हस्व लिखने का नियम है उसी प्रकार संकीर्ण स्थलों पर हस्व को दीर्घ और दीर्घ को हस्व पढ़ने की प्रणाली भी है। ४-प्राकृत और अपभ्रंश में प्रायः कारक चिन्हों का लोप देखा जाता है। सूरदासजी की रचनाओं में भी इस प्रकार की पंक्तियां मिलती हैं। कुछ तो कारकों का लोप साधन बोलचाल की भाषा पर अवलम्बित है और कुछ कवितागत अथवा साहित्यिक प्रयोगों पर, नीचे लिखे हुये वाक्य इसी प्रकार के हैं :- ___ जो विधि लिखो लिलार', 'मधुकर अंबुज रस चाख्यो', 'मैं कैसे करि पायो' इन वाक्यों में कर्ता का ने चिन्ह लुप्त है । कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावे', 'प्रभु मोरे औगुन चित न धरो', 'मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्हीं', 'सरिता सरपोपत' इन वाक्यों में कर्म का चिन्ह ‘को' अन्त-हित है । 'नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो' इस वाक्य में करण का 'से' चिन्ह लुप्त है। 'जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ' में सम्प्रदान का चिन्ह ‘को' या 'केलिये' का लोप किया गया है। बरबस कूप परो', 'मेरे मुख लपटायो' [ २४६ ] 'ऊँचे घर लटकायो', पालने झुलावे', 'कर नवनीत लिये' इन वाक्यों में अधिकरण के में चिन्ह का अभाव है।

५-ब्रजभाषा में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग में आते हैं जिनमें विभक्ति या प्रत्यय शब्द के साथ सम्मिलित होते हैं, अलग नहीं लिखे जाते। कविता में इससे बड़ी सुविधा होती है। इस प्रकार के प्रयोग अधिकतर बोलचाल पर अवलम्वित हैं। पूर्व कालिक क्रिया का चिन्ह 'कर' अथवा 'के' है। ब्रजभाषा में प्रायः विधि के साथ इकार का प्रयोग करदेने से भी यह क्रिया बन जाती है । जैसे, 'टरि','मिलि','करि', इत्यादि। संज्ञा के साथ जब ओकार सम्मिलित कर दिया जाता है तो वह प्रायः 'भी' का काम देता है जैसे 'एको','दूधो' इत्यादि। 'जमुमति मधुरे गावै' में 'मधुर' के साथ मिला हुआ एकार भाव वाचकता का सूचक है। 'दोना पीठि दुरायो' में 'पीठि' के साथ मिलित इकार अधिकरण के 'में' चिन्ह का द्योतक है इत्यादि।

६-वैदर्भी वृत्ति का यह लक्षण है कि उसमें समस्त पद आते ही नहीं। यदि आते हैं तो साधारण समस्त पद आते हैं लम्बे नहीं। कविवर सुरदास जी की रचना में यह विशेषता पाई जाती है। जैसे कमल नयन', 'अम्बुज रस', करीलफल इत्यादि।

७ कोमलता उत्पादन के लिये वे प्रायः 'ड़' और 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग करते हैं। जैसे 'घोड़ो' के स्थान पर 'घोरा',तोड़ो के स्थान पर 'तोरो','छाड़ों' के स्थान पर 'छोरो'। इसी प्रकार मूल' के स्थान पर 'मुर' और 'चटसाल' के स्थान पर चटसार। उनकी रचनाओं में बिक ल्प से 'ड़' का भी प्रयोग देखा जाता है। और 'ल' के स्थान पर र' का प्रयोग सब स्थानों पर ही नहीं होता। शब्द के मध्य का यकार और वकार बहुधा 'ऐ' और औ' होता रहता है। जैसा नयन','बयन','सयन' का 'नेन','बैन','सैन' इत्यादि। और 'पवन','गवन',रवन' का पौन', 'गौन','रौन' इत्यादि। परन्तु उनका तत्सम रूप भी वे लिखते हैं। प्रायः ब्रजभाषा में वह शब्द जिसके आदि में ह्रस्व इकार युक्त कोई व्यञ्जन होता [ २४७ ]( २४७ ) है. और उसके बाद ‘या’ होता है तो आदि व्यंजन का इकार गिर जाता है और वह अपने पर वर्ण य' में हलन्त हो कर मिल जाता है। जैसे 'सियार' का स्यार', 'पियास का प्यास' इत्यादि । किन्तु उनकी रचनाओं में दोनों प्रकार का रूप मिलता है । वे 'प्यास' भी लिखते हैं और 'पियास' भी, 'प्यार' भी लिग्वते हैं और 'पियार भी। ऊपर लिखे पद्यों में आप इस प्रकार का प्रयोग देख सकते हैं । ८-सूरदास जी को अपनी रचनाओं में मुहावरों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। परन्तु चुने हुये मुहावरे ही उनकी रचना में आते हैं, जिससे उनकी उक्तियां बड़ी ही सरस हो जाती हैं । ऊपर के पद्यों में निम्न- लिखित मुहावरे आये हैं। जिस स्थान पर ये मुहावरे आये हैं उन स्थानों को देख कर आप अनुमान कर सकते हैं कि मेरे कथनमें कितनी सत्यताहै:- १-गोद करि लीजै २-कैसे करि पायो ३-बिलग मत मानहु ४-लोचन भरि ५-ख्याल परे ९-देखा जाता है कि सूरदास जी कभी-कभी पूर्वी हिन्दी के शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान देते हैं। बैस', 'पियासो' इत्यादि शब्द ऊपर के पद्यों में आप देख चुके हैं। 'सुनो' और मेरे' इत्यादि खड़ी बोली के शब्द भी कभी कभी उनको रचना में आ जाते हैं। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि वे इन शब्दों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार खपाते हैं कि वे उनकी मुख्य भाषा (व्रजमापा) के अंग बन जाते हैं। अनेक अवस्थाओं में तो उनका परिचय प्राप्त होना भी दुस्तर हो जाता है । जिस कवि में इस प्रकार को शक्ति हो उसका इस प्रकार का प्रयोग तक-योग्य नहीं कहा जा सकता । जो अन्य प्रान्त को भाषाओं के शब्दों अथवा प्रान्तिक बोलियों के वाक्यों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार स्थान देते हैं कि जिनसं वे [ २४८ ]( २४८ ) भद्दी बन जाती हैं अथवा जो उनकी मुख्य भाषा को मुख्यता में वाधा पहुंचाती हैं उनकी ही कृति तर्क-योग्य कही जा सकती है। दूसरी बात यह है कि जब किसी प्रान्तिक भाषा को व्यापकता प्राप्त होती है तो उसे अपने साहित्य को उन्नत बनाने के लिये संकोणता छोड़ कर उदारता ग्रहण करनी पड़ती है। जिस भाषा ने इस प्रकार की उदारता ग्रहण की वही अपनी परिधि से निकल कर व्यापकता प्राप्त कर सकी। आज गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास को रचनायें जो उत्तरीय भारत को छोड़ कर दक्षिणीय भारत के कुछ अंशों में भो आद्रित हो रही हैं तो उसका कारण यही है कि उन्होंने अपनी भाषाको उदार बनाया और उसके निजत्व को सुरक्षित रख कर अन्य भाषाओं के शब्दों को भी उसमें स्थान दिया। इस दृष्टि से देखने पर सूरदास जी ने इस विषय में जो कुछ स्वतंत्रता ग्रहण को है वह इस योग्य नहीं कि उस पर उँगली उठाई जा सके। १०-प्राकृत भाषा के जो शब्द सुन्दर और सरस होने कारण प्रज- भाषा की बोलचाल में गृहीत रहे । सूरदास जी को रचनाओं में भी उनका प्रयोग उसी रूप में पाया जाता है। ऐसे शब्द 'सायर', 'लोयन' 'नाह', 'केहरि' इत्यादि हैं। वे अपभ्रंश भाषा के अनुसार कुछ प्रातिपदिक और प्रत्ययों को भी उकार युक्त लिखते हैं जैसे तपु, मुहु, आजु बिनु इत्यादि । ब्रजभाषा और अवधी में अपभ्रंश अथवा प्राकृत भाषा की अनेक विशेष- तायें पायी जाती हैं। ऐसी अवस्था में यदि उसके कुछ शब्द अपने मुख्य रूप में इन भाषाओं में आते हैं तो उनका आना युक्ति संगत है, क्योंकि इस प्रकार की विशेषतायें और शब्दावली ही उस घनिष्टता का परिचय देती रहती हैं जो कि व्रजभाषा अथवा अवधी का प्राकृत अथवा अपभ्रंश के साथ है। भाषा-शास्त्र की दृष्टि से इस प्रकार की घनिष्टता अधिक बांछनीय है । ११-व्रजभाषा की बोलचाल में कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका उच्चारण कुछ ऐसी विशेषता से किया जाता है कि वे बहुत मधुर बन जाते हैं। इन शब्दों के अन्त में एक वर्ण अथवा 'आ' इस प्रकार बढ़ा दिया जाता है [ २४९ ]. ( २४९ ) कि जिससे उसका अर्थ तो वही रह जाता है कि जिसमें वह मिलाया जाता है परन्तु ऐसा करने से उसमें एक विचित्र मिठास आ जाती है । 'सुअना', 'नैना', 'नदिया', 'निदरिया', 'जियरा', 'हियरा' आदि ऐसे ही शब्द हैं । सूरदासजी इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में इस सरसता के साथ करते हैं कि उसका छिपा हुआ रस छलकने लगता है। देखिये- १-'सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो' । २-नैना भये अनाथ हमारे । ३-एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो। ४-'मेरे लाल को आउ निदरिया काहे न आनि सुआवै'। अवधी भाषा के इसी प्रकार के शब्द कर जवा' 'बदरवा' इत्यादि हैं। जैसे संस्कृत में स्वार्थे क' आता है जैसे 'पुत्रक', 'वालक' इत्यादि । इन दोनों शब्दों में जो अर्थ 'पुत्र' और 'वाल' का है वही अर्थ सम्मिलित 'क' का है, उसका कोई अन्य अर्थ नहीं। इसी प्रकार 'मुखड़ा', 'बछड़ा', 'हियरा', 'जियरा', 'करेजवा', 'बदरवा', 'अमुवा', 'नदिया', 'निदरिया' के डा', 'ग', 'वा', और या' आदि हैं। जो अन्त में आये हैं और अपना पृथक अर्थ नहीं रखते । केवल 'आ' भी आता है, जैसे 'नैना', 'बैना', 'बदरा', 'अँचरा' का 'आ' १२ ब्रज भाषा में बहुबचन के लिये शब्द के अन्त में 'न' और नि' आता है। इकारान्त शब्दों में पूर्ववती वर्ण को ह्रस्व करके याँ और अकारान्त शब्दों के अन्त में 'ऐं' आता है। सूरदास जी की रचनाओं में इन सब परिवर्तनों के उदाहरण मिलते हैं, जिनसे उनकी व्यापक दृष्टि का पता चलता है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखियेः - 'कछुक खात कछु धरनि गिरावत छवि निरखत नँदरनियां' 'भरि भरि जमुना उमड़ि चलत है इन नैनन के तीर' [ २५० ]( २५० ) 'लोगन के मन हाँसी' 'सूर परागनि तजति हिये ते श्री गुपाल अनुरागी। 'अँखिया हरिदरसन की प्यासी' 'जलसमूह बरसत दोउ आँखैं हूं कत लीने नाउँ ' १३-सूरदास की रचना में यह मुख्य बात पाई जाती है कि वे संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं। परन्तु विशेषता यह है कि उनके शब्द चुने हुये और ऐसे होते हैं जिनको काव्योपयुक्त कहा जा सकता है। संयुक्त वणौ को तो मुख्य रूप में वे कभी कभी संकीर्ण स्थलों पर ही लेते हैं। परन्तु, कोमल, ललित और सरस तत्सम शब्दों को वे निस्संकोच ग्रहण करते हैं और इस प्रकार अपनी भाषा को मधुर- तम बना देते हैं। उद्घृत पद्यों में से सातवें पद्य को देखिये। उनकी रचना में जो शब्द जिस भाव की व्यंजना के लिये आते हैं वे ऐसे मनोनीत होते हैं जो अपने स्थान पर बहुत ही उपयुक्त जान पड़ते हैं। अनुप्रास अथवा वर्णमैत्री जैसो उनकी कृति में मिलती है, अन्यत्रदुर्लभ है। जो शब्द उनकी रचना में आते हैं, प्रवाह रूप से आते हैं। उनके अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि वे प्रयत्न पूर्वक नहीं. स्वाभाविक रीति से आकर अपने स्थान पर विराजमान हैं। रसानुकूल शब्द-चयन उनकी रचना की विशेष सम्पत्ति है। अधिकतर उनकी रचनायें पद के स्वरूप हो में हैं, अतएव झंकार और संगीत उनके व्यवहृत शब्दों का विशेष गुण है । इतना होने पर भी जटिलता का लेश नहीं। सब ओर प्राञ्जलता और सरलता ही द्दष्टिगत होती है। १४-किसी भाव को यथातथ्य अंकित करना और उसका जीता जागता चित्र सामने लाना सूरदास जी की प्रतिभा का प्रधान गुण है । जिस भाव का चित्र वे सामने रखते हैं उनकी रचनाओं में वह मूर्तिमन्त होकर द्दष्टिगत होता है । प्रार्थना और विनय के पदों में उनके मान- सिक भाव किस प्रकार ज्ञान-पथ में विचरण करते हैं और फिर कैसे बिश्व- सत्ता के सामने वे विनत हो जाते हैं इस बात को उनके विनय के पद्यों की पंक्ति पंक्ति बड़ी ही सरसता से अभिव्यंजित करती पाई जाती है। उद्धृत [ २५१ ]( २५१ ) पद्मों में से संख्या एक से चार तक के पद्य देखिये उनमें एक ओर यदि मानवों के स्वाभाविक अज्ञान, दुर्वलताओं और भ्रम-प्रमाद पर हृदय मर्माहत होता देखा जाता है तो दूसरी ओर मानसिक करुणा अपने हाथों में विनय की पुष्पांजलि लिये किसी करुणासागर की ओर अग्रसर होती दिखलाई पड़ती है । वालभाव का वर्णन जिन पद्यों में है, देखिये संख्या ५ से ७ तक उनमें वालकों के भोले भाले भाव जिस प्रकार अंकित हैं वे बड़े ही ममं-स्पर्शी हैं। उनके देखने से ज्ञात होता है कि कवि किस प्रकार हृदय की सरल से सरल वृत्तियों और मन के सुकुमार भावों के यथातथ्य चित्रण की क्षमता रखता है। वाल-लीला के पदों को पढ़ते समय ऐसा ज्ञात होने लगता है कि जिस समय की लीला का वर्णन है उस समय कवि खड़ा होकर वहां के क्रिया-कलाप को देख रहा था। इन वर्णनों के पढ़ते हो आँखों के सामने वह समाँ आ जाता है जो उस समय वहाँ मौजूद रह कर कोई देखनेवाली आँखें ही देख सकतीं। इस प्रकार का चित्रण सूरदास के ऐसे सहृदय कबि हो कर सकते हैं, अन्यों के लिये यह बात सुगम नहीं। उनका शृंगार-वणन पराकाष्ठा को पहुंच गया है। उतना सरस और स्वाभाविक वर्णन हिन्दी साहित्य में नहीं मिलता. यह मैं कहूंगा कि शृंगार रस के कुछ वर्णन ऐसे हैं कि यदि वे उस रूप में न लिखे जाते नो अच्छा होता. किन्तु कला की दृष्टि से वे वहुमूल्य हैं। उनका विप्रलम्भ शृंगार ऐसा है जिसके पद पद से रस निचुड़ता है। संसार के साहित्य- क्षेत्र में प्रेम-धाराये विविध रूप से बहीं. कहीं वे बडो ही वेदनामयो हैं, कहीं उन्मादमयी और रोमांचकारो, और कहीं उनमें आत्मविस्मृति और तन्मयता की ऐसी मूर्ति दिखलायी पड़ती है जो अनुभव करने वाले को किसी अलौकिक संसार में पहुंचा देती है। फिर भी सूरदास की इस प्रकार की ग्चनायें पढ़ कर यह भावनायें उत्पन्न होने लगती हैं कि क्या ऐसी ही सरसता और मोहकता उन सब धाराओं में भी होगी ? प्रेम-लीलाओं के चित्रण में जैसी निपुणता देखी जाती है, वैसी प्रवीणता उनकी अन्य रचनाओं में नहीं पाई जाती। उनका विप्रलम्भ शृंगार-सम्बन्धी वर्णन वड़ा ही उदात्त है। उनमें मन के सुकुमार भावों का जैसा अंकन है, जैसी [ २५२ ]( २५२ ) उनमें हृदय को द्रवित करने वाली विभूतियाँ हैं, यदि वे अन्य कहों होंगी तो इतनी ही होंगी। वे किसो सच्चे प्रेम-पथिक की ही अनुभवनीय हैं, अन्य की नहीं। कोई रहस्यवादी बनता है, और अपरोक्ष सत्ता को लेकर निगुण में गुण की कल्पना करता है। परन्तु कल्पना कल्पना ही है, उसमें मानसिक वृत्तियों का वह सच्चा विकास कहां जो वास्तव में किसी सगुण से सम्बन्ध रखती हैं ? जो आन्तरिक आनंद हम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के अनुभूत विभवों से प्राप्त कर सकते हैं. पञ्चतन्मात्राओं से नहीं, क्यों कि उनमे सांसारिकता है इनमें नहीं। हम विचारों को दौड़ा लें, पर विचार किसी आधार पर ही अवलम्बित हो सकते हैं। सांसारिकों को सांसारिकता ही सुलभ हो सकती है। संसार से परे क्या है ? उसकी कल्पना वह भले ही कर ले, किन्तु उसका मन उन्हीं में रम सकता है जो सांसारिक विषय हैं। यही कारण है कि जो निगुणवादी बनने का दावा करते हैं वे जब आनन्दमय जोवन की कामना करते हैं तो सगुण भावों का ही आश्रय लेते हैं। सूरदास जी इसके मर्मज्ञ थे। इस लिये उन्होंने सगुण भावों को ले कर ऐसे मोती पिरोये हैं कि जिनको बहुमूल्यता चिन्त- नीय है कथनीय नहीं। उन्होंने अपने लक्ष्य को प्रकाश में रखा है. अन्ध- कार में नहीं। इसी लिये उनकी रचनायें प्रेममार्गी अन्य कवियों से सरसता और मोहकता में अधिकतर स्वाभाविक हैं । उनका यह रंग इतना गहरा था कि वे कभी कभी अपनी धुन में मस्त हो कर निर्गुण पर भी कटाक्ष कर जाते हैं। यह उनका प्रमाद नहीं है. वरन उनकी सगुण परायणता का अनन्य भाव है । मेग विचार है कि प्रेममाग में उनकी विप्रलम्भ शृंगार की रचनायें बड़ा महत्व रखती हैं। यह कहना कि संसार के साहित्य में उनका स्थान सर्वोच्च है, कदाचित् अच्छा न समझा जावं. परन्तु यह मानना पड़ेगा कि संसार के साहित्य की उच्चतम कृतियों में वे भी समान स्थान लाभ करने की अधिकारिणी हैं। १५-व्रजभाषा की अधिकांश क्रियायें अकारान्त या ओकारान्त हैं। उसके सर्वनामों और कारक चिन्हों प्रत्ययों एवं प्रातिपदिक शब्दों के प्रयोगों में भी विशेषता है । जो उसको अन्य भाषाओं अथवा प्रान्तिक [ २५३ ]( २५३ )बोलियों से अलग करती है। सूरदास जी ने अपनी रचना में इनके शुद्ध प्रयोगों का बहुत अधिक ध्यान रखा है। उद्धृत पद्यों के ऐसे अधिकांश शब्दों और क्रियाओं पर चिन्ह बना दिये गये हैं। उनके देखने से ज्ञात हो जावेगा कि वे ब्रजभाषा पर कितना प्रभाव रखते थे। उनको रचना में फारसो अरबी के शब्द भी, सामयिक प्रभाव के कारण आये हैं। परन्तु, उनको भी उन्होंने ब्रजभाषा के रंग में ढाल दिया है। इन सब विषयों पर अधिक लिखने से व्यर्थ विस्तार होगा। इस लिये मैं इस वाहुल्य से बचता हूं। थोड़ा सा उन पर विचार-दृष्टि डालने से ही अधिकांश बात स्पष्ट हो जाँयगी। पहले लिख आया हूं कि सूरदास जी ही ब्रजभाषा के प्रधान आचार्य हैं। वास्तव बात यह है कि उन्होंने ब्रजभाषा के लिये जो सिद्धान्त साहित्यिक दृष्टि से बनाये और जो मार्ग-प्रदर्शन किया आज तक उसी को अवलम्बन करके प्रत्येक व्रजभाषा का कवि साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर होता है। उनके समय से जितने कवि और महाकवि ब्रजभाषा के हुये वे सब उन्हीं को प्रवर्तित-प्रणाली के अनुग हैं। उन्हीं का पदानुसरण उस काल से अब तक कवि-समूह करता आया है. उनके समयसे अब तक का साहित्य उठा लीजिये, उसमें स्वयं-प्रकाश सूर को ही प्रभा विकोण होती दिखलायी पड़ेगी । जो मार्ग उन्होंने दिखलाया वह आजतक यथातथ्य सुरक्षित है। उसमें कोई साहित्यकार थोड़ा परिवर्तन भी नहीं कर सका। कुछ कवियों ने प्रान्त-विशेष के निवासी होने के कारण अपनी रचना में प्रान्तिक शब्दों का प्रयोग किया है। परन्तु वह भी परिमित है। उन्होंने उस प्रधान आदर्श से मुह नहीं मोड़ा जिसके लिये कविवर सूरदास कवि-समाज में आज तक पूज्य दृष्टि से देखे जाते हैं। ___ डाकर जीः ए: ग्रियसन ने उनके विषय में जो कुछ लिखा है आप लोगों के अवलोकनके लिये उसे भी यहां उद्धृत करता हूं। वे लिखते हैं:- “साहित्य में सूरदास के स्थान के सम्बन्ध में मैं यही कह सकता हूँ कि वह बहुत ऊँचा है। सब तरह की शैलियों में वे अद्वितीय हैं । आव[ २५४ ]आवश्यकता पड़ने पर वे जटिल से जटिल शैली में लिख सकते थे और फिर दूसरे ही पद में ऐसी शैली का अवलम्वन कर सकते थे जिसमें प्रकाश की किरणों की सी स्पष्टता हो। किसी गुण विशेष में अन्य कवि भले हो उनकी बराबरी कर सके हों. किन्तु सूरदास में अन्य समस्त कवियों के सर्वोत्कृष्ट गुणों का एकत्री भाव है।[१]

  1. "Regarding Surdas's place in literature, I commonly add that he justly holds a high one. He excelled in all styles. He could, if occasion required, be more obscure than the sphynu and in the next verse he as clear as a ray of light. Other poets may have equalled him in someparticular quality, but he combined the best qualities of all."