हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/केशवदास

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
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हिन्दी संसार ने सूरदास जी और गोस्वामी जी के बाद का स्थान कविवर केशवदास जी को ही दिया है। मैं भी इसी विचार का हूं।

   उनको 'उडुगन' कहा गया है ।यदि वे उडुगन हैं तो प्रभात कालिक शुक्र (कवि) के समान प्रभा-विकीर्णकारी हैं । कविकर्म शिक्षाकी पूर्ण ज्योति रीति काल के प्रभात काल में केशवदासजीसे ही हिन्दी संसार को मिली। सब बातों पर विचार करने से यह स्वीकार करना पड़ता है कि साहित्य सम्बन्धी समस्त अंगों की पूर्ति पहले पहल केशव दास जी ने ही की। इनके पहले कुछ विद्वानों ने रीति ग्रन्थों की रचना का सूत्रपात किया था किन्तु यह कार्य केशवदास जी की प्रतिभा से ही पूर्णता को प्राप्त हुआ। इतिहास बतलाता है कि आदि में कृपाराम ने ही 'हित-तरंगिणी' नामक रस-ग्रन्थ की रचना की। इनका काल सोलहवीं शताब्दी का पूर्वाद्ध है।

इन्होंने अपने ग्रन्थ में अपने समय के पहले के कुछ सुकवियों की कुछ रचनाओं की भी चर्चा की है । किन्तु वे ग्रन्थ अप्राप्य हैं। ग्रन्थकारों के नाम तक का पता नहीं मिलता। इन्हीं के समसामयिक गोप नामक कवि और मोहन लाल मिश्र थे। इनमें से गोप नामक कवि ने, रामभूषण और

Punjab and from the Himalaya to the Narmada is surely worthy of note. It 11has been interwoven into the life, character, and speech of the Hindu population for more than three hundred years, and is not only loved and admired by them for its poetic beauty, but is reverened by them as their scriptures. It is the bible of a hundred millions of people, and is looked upon by them as much inspired as the bible is considered by the English clergymen. Pandits may talk of the vedas and of the Vpnishadas and a few may even study them;others may say they pin their faith on tha puranas: but to the vast majority of the people of Hindustan, learned and unlearned alike, their soul room of conduct is the so called Tulsikrit Ramayan. It is indeed fortunate that this is so, for it has saved the country from the tantric obscenities of Shaivism Ram chandra was the original saviour of Upper India from the late which has befallen Bengal, but Tulsidas was the great aposle who carried his doctrine eastand west and made it anabiding faih.-

Modern Vernacular Literature of Hindustan, 42 43. P. [ २७६ ]
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अलंकार चन्द्रिका नामक ग्रन्थों की रचना की है। नाम से ज्ञात होता है कि ये दोनों ग्रन्थ अलंकार के होंगे। किन्तु ये ग्रन्थ भी नहीं मिलते। इस लिये यह नहीं कहा जा सकता कि ये ग्रन्थ कैसे थे, साधारण या विशद । मेरा बिचार है कि वे साधारण ग्रंथ ही थे । अन्यथा इतने शीघ्र लुप्त न हो जाते : मोहन लाल मिश्र ने 'शृंगार सागर' नामक ग्रंथ की रचना की थी। ग्रन्थ का नाम बतलाता है कि वह रस-सम्बन्धी ग्रन्थ होगा। इन लोगों के उपरान्त केशवदास जी ही कार्य-क्षेत्र में आते हैं। वे संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे। वंश-परम्परा से उनके कुल में संस्कृत के उद्भट विद्वान होते आते थे। उनके पितामह पं० कृष्णदत्त मिश्र संस्कृत के प्रसिद्ध नाटक 'प्रबोध-चन्द्रोदय' के रचयिता थे। उनके पिता पं० काशी नाथ भी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध विद्वान् थे। उनके बड़े भाई पं० वलभद्र मिश्र संस्कृत के विद्वान तो थे ही, हिन्दी भाषा पर भी बड़ा अधिकार रखते थे। इनका बनाया हुआ नखशिख-सम्बन्धी ग्रन्थ अपने विषय का अद्वितीय ग्रन्थ है। ऐसे साहित्य-पारंगत विद्वानों के वंश में जन्म ग्रहण कर के केशवदास जी का हिन्दी भाषा के रीति-ग्रन्थों के निर्माण में विशेष सफलता लाभ करना आश्चर्यजनक नहीं। वे संकोच के साथ हिन्दी क्षेत्र में उतरे, जैसा निम्न लिखित दोहे से प्रकट होता है:--

भाषा बोलि न जानहीं, जिनके कुल के दास । तिन भाषा कविता करी, जड़मति केशवदास

परन्तु जिसविषय को उन्होंने हाथ में लिया उसको पूर्णता प्रदान की। उनके बनाये हुए' 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' नामक ग्रन्थ रीति ग्रन्थों के सिरमौर हैं। पहले भी साहित्य विषय के कुछ ग्रन्थ बने थे और उनके उपरान्त भी अनेक रीति ग्रन्थ लिखे गये परन्तु अबतक प्रधानता उन्हीं के ग्रन्थों को प्राप्त है । जब साहित्य शिक्षा का कोई जिज्ञासु हिन्दी-क्षेत्र में पदार्पण करता है. तब उसको रसिक-प्रिया' का रसिक और कविप्रिया' का

प्रेमिक अवश्य बनना पड़ता है। इससे इन दोनों ग्रन्थों की महत्ता प्रकट है । जिन्होंने इन दोनों ग्रन्थों को पढ़ा है वे जानते हैं कि इनमें कितनी प्रौढ़ता [ २७७ ]
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है। रीति-सम्बन्धी सब विषयों का विशद वर्णन थोड़े में जैसा इन ग्रन्थों में मिलता है, अन्यत्र नहीं । 'रसिक प्रिया' में श्रृंगार रस सम्बन्धी समस्त विशेषताओं का उल्लेख बड़े पाण्डित्य के साथ किया गया है। कवि-प्रिया वास्तवमें कविप्रिया है, कविके लिये जितनी बातें ज्ञातव्य हैं उनका विशद निरूपण इस ग्रन्थ में है। मेरा विचार है कि केशवदासजीकी कवि प्रतिभाका विकास जैसा इन ग्रन्थों में हुआ. दूसरे ग्रन्थों में नहीं। क्या भाषा. क्या भाव, क्या शब्दविन्यास. क्या भाव-व्यञ्जना, जिस दृष्टिसे देखिये ये दोनों ग्रन्थ अपूर्व हैं । उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त और ग्रन्थों को भी रचना की है। उनमें सर्व प्रधान रामचन्द्रिका है । यह प्रवन्ध-काव्य है । इस ग्रन्थके संवाद ऐसे विलक्षण हैं जो अपने उदाहरण आप हैं । इस ग्रन्थ का प्रकृति-वर्णन भी बड़ा ही स्वाभाविक है।

कहा जाता है कि हिन्दी संसार के कवियों ने प्रकृतिवर्णन के विषय में बड़ी उपेक्षा की है। उन्हों ने जब प्रकृति वर्णन किया है तब उससे उद्दीपनका कार्य ही लिया है। प्रकृति में जो स्वाभाविकता होती है, प्रकृतिगत जो

सौन्दर्य होता है उसमें जो विलक्षणतायें और मुग्धकारितायें पायी जाती हैं उनका सञ्चा चित्रण हिन्दी साहित्य में नहीं पाया जाता। किसी नायिका के बिरह का अवलम्बन कर के ही हिन्दी कवियों और महाकवियों ने प्रकृति-गत विभूतियों का वर्णन किया है। सौन्दर्य-सृष्टि के लिये उन्हों ने प्रकृति का निरीक्षण कभी नहीं किया। इस कथन में बहुत कुछ सत्यता का अंश है। कवि कुलगुरु वाल्मीकि एवं कविपुंगव कालिदास की रचनाओं में जैसा उच्च कोटि का स्वाभाविक प्रकृतिवर्णन मिलता है निम्सन्देह-हिन्दी साहित्य में उसका अभाव है । यदि हिन्दी संसार के इस कलंक को कोई कुछ धोता है तो वे कविवर केशवदास के ही कुछ प्राकृतिक वर्णन हैं और वे रामचन्द्रिका ही में मिलते हैं । मैं आगे चलकर इस प्रकार के पद्य उद्धृत करूंगा । यह कहा जाता है कि प्रबंध-काव्यों को जितना सुश-ङ्खलित होना चाहिये रामचन्द्रिका वैसी नहीं है । उसमें स्थान स्थान पर कथा-भागों की श्रृंखला टूटती रहती है । दूसरी यह बात कही जाती है कि जैसी [ २७८ ]
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भावुकता और सहृदयता चाहिये वैसी इस ग्रन्थ में नहीं मिलती। ग्रन्थ क्लिष्ट भी बड़ा है । एक एक पद्यों का तीन तीन चार चार अर्थ प्रकट करने की चेष्टा करने के कारण इस ग्रन्थ की बहुत सी रचनायें बड़ी ही गूढ़ और जटिल हो गयी हैं, जिससे उनमें प्रसाद गुण का अभाव है। इन विचारों के विषय में मुझे यह कहना है कि किसी भी ग्रन्थ में सर्वाङ्ग-पूर्णता असम्भव है । उसमें कुछ न कुछ न्यूनता रह ही जाती है । संस्कृत के बड़े बड़े महाकाव्य भी निर्दोष नहीं रहे। इसके अतिरिक्त आलोचकों की प्रकृति भी एकसी नहीं होती। रुचिभिन्नता के कारण किसी को कोई बिषय प्यारा लगता है और कोई उसमें अरुचि प्रकट करता है । प्रवृत्ति के अनुसार ही आलोचना भी होती है । इसलिये सभी आलोचनाओं में यथार्थता नहीं होती । उनमें प्रकृतिगत भावनाओं का विकास भी होता है । इसीलिये एक ही ग्रन्थ के विषय में भिन्न भिन्न सम्मतियां दृष्टिगत होती हैं । केशव दास जी की रामचन्द्रिका के विषय में भी इस प्रकार की विभिन्न आलोचनायें हैं। किसी के विशेष विचारों के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है । किन्तु देखना यह है कि रामचन्द्रिका के विषय में उक्त तर्कनायें कहां तक मान्य हैं। प्रत्येक ग्रन्थकार का कुछ उद्देश्य होता है और उस उद्देश्य के आधार पर ही उसकी रचना आधारित होती है। केशवदासजीकी रचनाओं में, जिन्हें प्रसाद गुण देखना हो वे 'कविप्रिया' और 'रसिक प्रिया' को देखें। उनमें जितनी सहृदयता है उतनी ही सरसता है। जितनी सुन्दर उनकी शब्द-विन्यास-प्रणाली है उतनी ही मधुर है उनकी भाव-व्यञ्जना। रामचन्द्रिका की रचना पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिये हुई है और मैं यह दृढ़ता से कहता हूँ कि हिन्दी संसार में कोई प्रवन्ध-काव्य इतना पाण्डित्यपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूं कि वे संस्कृत के पूर्ण विद्वान थे । उनके सामने शिशुपाल-वध और' नेषध' का आदर्श था । वे उसी प्रकार का काव्य हिन्दी में निर्माण करने के उत्सुक थे। इसीलिये रामचन्द्रिका अधिक गूढ़ है। साहित्य के लिये सब प्रकार के ग्रन्थों की आवश्यकता होती है। यथा-स्थान सरलता और गूढ़ता दोनों बांछनीय हैं। यदि लघुत्रयी आदरणीय है तो वृहत्रयी भी। रघुवंश को यदि आदर की दृष्टि से देखा जाता है तो [ २७९ ]नैषध को भी । यद्यपि दोनों की रचना-प्रणाली में बहुत अधिक अन्तर है। प्रथम यदि मधुर भाव-व्यञ्जना के लिये आदरणीय है तो द्वितीय अपनी गम्भीरता के लिये । शेक्सपियर और मिलटन की रचनाओं के सम्बन्ध में भी यही बात कही जासकती है । केशवदासजी यदि चाहते तो 'कविप्रिया' और 'रसिक प्रिया' की प्रणाली ही रामचन्द्रिका में भी ग्रहण कर सकते थे। परन्तु उनको यह इष्ट था कि उनको एक ऐसी रचना भी हो जिसमें गम्भीरता हो और जो पाण्डित्याभिमानी को भी पाण्डित्य-प्रकाश का अवसर दे अथच उसकी विद्वत्ता को अपनी गम्भीरता को कसौटी पर कस सके । इस बात को हिन्दी के विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। प्रसिद्ध कहावत है - 'कवि को दोन न चहै बिदाई। पूछे केशव की कविताई।एक दूसरे कविता-मर्मज्ञ कहते हैं:-

उत्तम पद कवि गंग को, कविता को बलबीर।
केशव अर्थ गँभीरता, सूर तीन गुन धीर।

इन बातों पर दृष्टि रख कर रामचन्द्रिका की गंभीरता इस योग्य नहींषकि उस पर कटाक्ष किया जावे। जिस उद्देश्य से यह ग्रन्थ लिखा गया है. मैं समझता हूं. उसकी पूर्ति इस ग्रन्थ द्वारा होती है। इस ग्रन्थ के अनेक अंश सुन्दर, सरस और हृदय ग्राही भी है। और उनमें प्रसाद गुण भी पाया जाता है । हाँ. यह अवश्य है कि वह गंभीरता के लिये ही प्रसिद्ध है। मैं समझता हूं कि हिन्दी संसार में एक ऐसे ग्रन्थ की भी आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति करना केशवदास जी का ही काम था । अब केशवदास जी के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूं। इसके बाद भाषा और विशेषताओं के विषय में आप लोगों की दृष्टि उनकी ओर आकर्षित करूँगाः--

१-भूषण सकल घनसार ही के घनश्याम,
कुसुम कलित केश रही छवि छाई सी।
मोतिन की लरी सिरकंठ कंठमाल हार,
और रूप ज्योति जात हेरत हेराई सी

[ २८० ]

चंदन चढ़ाये चारु सुन्दर शरीर सब,
राखी जनु सुभ्र सोभा बसन बनाई सी।
शारदा सी देखियत देखो जाइ केशो राइ,
ठाढ़ी वह कुँवरि जुन्हाई मैं अन्हाई सी।

२—मन ऐसो मन मृदु मृदुल मृणालिका के,

सूत कैसो सुर ध्वनि मननि हरति है।
दार्यो कैसो बीज दाँत पाँत से अरुण ओंठ,
केशोदास देखि दृग आनँद भरति है।
एरी मेरी तेरी मोहिं भावत भलाई तातें,
बूझतहौं तोहि और बूझति डरति है।
माखन सी जीभ मुखकंज सी कोमलता में,

काठ सी कठेठी बात कैसे निकरति है।
३—किधौं मुख कमल ये कमला की ज्योति होति

किधौं चारु मुखचन्द्र चन्द्रिका चुराई है।
किधौं मृगलोचन मरीचिका मरीचि कैधौं,
रूप की रुचिर रूचि सुचि सों दुराई है।
सौरभ की सोभा की दलन घन दामिनी की,
केशव चतुर चित ही की चतुराई है।
एरी गोरी भोरी तेरी थोरी थोरी हांसी मेरे,

मोहन की मोहिनी की गिरा की गुराई है।
४—बिधि के समान हैं विमानी कृत राजहंस,
बिबुध बिवुध जुत मेरु सो अचल है।
[ २८१ ]( २८१ )

दीपत दिपत अति साता दीप दीपियत, दूसरो दिलीप सो सुदक्षिणा को बल है। सागर उजागर को वहु बाहिनी को पति, छनदान प्रिय किधौं सूरज अमल है। सब विधि समरथ राजै राजा दशरथ, भगीरथ पथ गामी गंगा कैसो जल है। ५-तरु तालीस तमाल ताल हिंताल मनोहर । मंजुल बंजुल लकुच बकुल कुल केर नारियर । एला ललित लवंग संग पुंगीफल साहै। सारी शुक कुल कलित चित्त कोकिल अलि माहै । शुभ राजहंस कलहंस कुल नाचत मत्त मयूर गन । अति प्रफुलित फलित सदारहै केशवदास विचित्र बन, द-चढ़ा गगन तरुधाय, दिनकर बानर अरुण मुख । कीन्हों झुकि झहराय, सकल तारका कुसम बिन । ७-अरुण गात अति प्रात, पद्मिनी प्राणनाथ भय । मानहुं केशवदास, काकनद कोक प्रेममय । परिपूरण सिंदर पूर, कैधौं मंगल घट । किंधों शक्र का क्षत्र, मढ़यो माणिक मयूख पट । कैशोणित कलित कपाल यह किल कापालिक कालको, यह ललित लाल कैघों लसत दिग्भामिनि के भाल को, ८-श्रीपुर में बनमध्य हौं, तृमग करी अनीति । कहि मुंदरी अब तियन की का करि है परतीति । [ २८२ ]( २८२ ) ९-फलफूलन पूरे तरुवर रूरे कोकिल कुल कलरव वोलैं। अति मत्त मयूरी पियरस पूरी बनवनप्रति नाचत डोलैं, सारी शुक पंडित गुनगन मंडित भावनमय अर्थ बखानैं देखे रघुनायक सीय सहायक मनहुँ मदन रति मधुजानैं। १०-मन्द मन्द धुनि सों घन गाजै। तूर तार जनु आवझ बाजै ।' ठोर ठौर चपला चमक यों। इन्द्रलोक तिय नाचति है ज्यों। सोहैं धन स्यामल चार घने । मोहे तिनमें वक पाँति मने । शंखावलि पी बहुधा जलस्यों । मानो तिनको उगिले बलस्यों । शोभा अति शक शरासन में । नाना दुति दीसति है घन में। रत्नावलि सी दिवि द्वार भनो । वरखागम बांधिय देव मनो। घन चोर घने दसह दिमि छाये। __ मघवा जनु सूरज पै चढ़ि आये। अपराध बिनो छिति के तन ताये। तिनपीड़न पीड़ित है उठि धाये । अति गाजत बाजत दुदुभि मानो। निरघात सबै पविपात बखानो । धनु है यह गौरमदाइन नाहीं ।

सर जाल बहै जलधार बृथाहीं। [ २८३ ]
( २८३ )

भट चातक दादुर मोर न बोले ।

      चपला चमकै न फिरै खँग खोले ।

दुति वन्तन को विपदा बहु कीन्हीं।

       धरनी कहं चन्द्रवधू धर दीन्हीं। 

११-सुभ सर सोभै । मुनि मन लोभै।

         सर सिज फूले । अलि रस भूले।

जलचर डोलौं वहु खग वोलैं।

        वरणि न जाहीं । उर उरझाहीं ।

१२--आरक्त पत्रा सुभ चित्र पुत्री

          मनो विराजै अति चारु भेषा।

सम्पूर्ण सिंदूर प्रभा बसै धौं

        गणेश भाल स्थल चन्द्र रेखा ।

केशवदासजी की भाषा के विषय में विचार करने के पहले मैं यह प्रगट कर देना चाहता हूं कि इनके ग्रन्थ में जो मुद्रित हो कर प्राप्त होते हैं, यह देखा जाता है कि एकही शब्द के भिन्न भिन्न रूप हैं। इससे किसी सिद्धान्त पर पहुँचना बड़ा दुस्तर है। फिर भी सब बातों पर विचार करके ओर व्यापक प्रयोग पर दृष्टि रख कर मैं जिस सिद्धान्त पर पहुंचा हूं उसको आपलोगों के सामने प्रकट करता हूं। केशवदासजी के ग्रन्थों की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है। परन्तु बुन्देलखण्डी शब्दों का प्रयोग भी उनमें पाया जाता है। यह स्वभाविकता है। जिस प्रान्त में वे रहते थे उस प्रान्त के कुछ शब्दों का उनकी रचना में स्थान पाना आश्चर्यजनक नहीं। इस दोष से कोई कवि या महाकवि मुक्त नहीं । बुदेलखण्डी भाषा लगभग ब्रजभाषा ही है और उसकी गणना भी पश्चिमी हिन्दी में ही है। हां, थोड़े से शब्दों या प्रयोगों में भेद अवश्य है। परन्तु इससे [ २८४ ]( २८४ ) ब्रजभाषा की प्रधानता में कोई अन्तर नहीं आता । केशवदासजी ने यथा स्थान बुदेलखण्डो शब्दों का जो अपने ग्रंथ में प्रयोग किया है मेरा विचार है कि इसी दृष्टि से। ब्रजभाषा के जो नियम हैं वे सव उनकी रचना में पाये जाते हैं। इसलिये उन नियमों पर उनकी रचना को कसना व्यर्थ विस्तार होगा। मैं उन्हीं बातों का उल्लेख करूंगा जो व्रजभाषा से कुछ भिन्नता रखती हैं। मैं पहले कह चुका हूं कि केशवदासजी संस्कृत के पंडित थे । ऐसी अवस्था में उनका संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुद्ध रूप में लिखने के लिये सचेष्ट रहना स्वाभाविकता है। वे अपनी रचनाओं में यथा शक्ति संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुद्ध रूप में लिखना ही पसन्द करते हैं। यदि कोई कारण-बिशेष उनके सामने उपस्थित न हो जावे । एक बात और है। वह यह कि बुदेलखण्ड में णकार और शकार का प्रयोग प्रायः बोलचाल में अपने शुद्ध रूप में किया जाता है। इसलिये भी उन्हों ने संस्कृत के उन तत्सम शब्दों को जिनमें णकार और शकार आते हैं प्रायः शुद्ध रूप में हो लिखने की चेष्टा की है । उसी अवस्था में उनको बदला है जब उनके परिवत्त न से या तो पद्य में कोई सौन्दर्य आता है या अनुप्रास को आवश्यकता उन्हें विवश करती है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने व्रजभाषा और अवधी के नियमों का पूरा पालन किया किन्तु जब उन्होंने किसी अन्य प्रान्त का शब्द लिया। तो उसको उसी रूप में लिखा। वे रामायण के अग्ण्य कांड में एक स्थान पर गवन के विषय में लिखते हैं: 'इत उत चितै चला भणिआई'। भणिआ शब्द बुदेलखण्डी है। उसका अर्थ है चोर भणिआई' का अर्थ है चोगे' । गोस्वामीजी चाहते तो उसको 'भनिआई अवधी के नियमानुसार बना लेते, परन्तु ऐसा करने में अर्थ-बोध में वाधा पड़ती। एक तो शब्द दूसरे प्रान्त का दूसरे यदि वह अपने वास्तव रूप में न हो तो उसका अर्थ बोध सुलभ कैसे होगा ? इसलिये उसका अपने मुख्य रूप में लिखा जाना ही युक्ति-संगत

था। गोस्वामीजी ने ऐसा ही किया। केशवदासजी की दृष्टि भी [ २८५ ]
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इसी बात पर थी. इसीलिये उन्होंने वह मार्ग ग्रहण किया जिसकी चर्चा मैंने अभी की है। कुछ पद्य मैं लिख कर अपने कथन को पुष्ट करना चाहता हूं। देखियेः- १- "सब शृंगार मनोरति मन्मथ मोहै। २- सवै सिँगार सदेह सकल सुख सुखमा मंडित। ३-मनो शची विधि रची विविध विधि वर्णत पंडित । ४-जानै को केसव केतिक बार मैं सेस के सीसन दीन्ह उसासी।

ऊपर की दो पंक्तियों में एक में 'शृंगार और दूसरे में सिँगार' आया है। शृंगार' संस्कृत का तत्सम शब्द है। अतएव अपने सिद्धान्तानुसार उसको उन्होंने शुद्ध रूप में लिखा है. क्योंकि शुद्ध रूप में लिखने से छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ी । परन्तु दूसरी पंक्ति में उन्होंने उसका वह रूप लिखा है जो व्रजभाषा का रूप है । दोनों पंक्तियां एक ही पद्य की हैं । फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ? कारण स्पष्ट है । 'शृंगार' में पांच मात्रायें हैं और सिंगार में चार मात्रायें हैं। दूसरे चरण में शृंगार' खप नहीं सकता था। क्योंकि एक मात्रा अधिक हो जाती। इस लिये उन्हें उसको व्रजभाषा ही के रूप में रखना पड़ा अपने अपने नियमानुसार दोनों रूप शुद्ध हैं । चौथे पद्य में उन्होंने अपने नाम को दन्त्य स' से ही लिखा, यद्यपि वे अपने नाम में तालव्य 'श' लिखना ही पसन्द करते हैं, यहां भी यह प्रश्न होगा कि फिर कारण क्या ? इसी पंक्ति में सेस' और 'सीसन' शब्द भी आये हैं जिनका शुद्ध रूप शेष' और 'शीशन' है । इस शुद्ध रूप में लिखने में भी छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ती। क्योंकि मात्रा में न्यूनाधिक्य नहीं । फिर भी उन्होंने उसको व्रजभाषा के रूप में ही लिखा । इसका कारण भी विचारणीय है वास्तव बात यह है कि उनके कवि हृदय ने अनुमान का लोभ संवरण नहीं किया। अतएव उन्होंने उनको ब्रजभाषा के रूप ही में लिखना पसंद किया। केसव' 'सेस' और 'सीसन' ने दन्त्य 'स' के सहित “उसासी' के साथ आकर जो स्वारस्य [ २८६ ]उत्पन्न किया है वह उन शब्दों के तत्सम रूप में लिखे जाने से नष्ट हो जाता । इस लिये उनको इस पद्य में तत्सम रूप में नहीं देख पाते। ऐसी हो और बातें बतलायी जा सकती हैं कि जिनके कारण से केशवदास जी एक हो शब्द को भिन्न रूपों में लिखते हैं। इससे यह न समझना चाहिये कि उनका कोई सिद्धान्त नहीं, वे जब जिस रूप में चाहते हैं किसी शब्द को लिख देते हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने जो कुछ किया हे नियम के अन्तर्गत ही रह कर किया है। दो ही रूप उनको रचना में आते हैं या तो संस्कृत शब्द अपने तत्सम रूप में आता है अथवा ब्रज- भाषा के तद्भव रूप में, और यह दोनों रूप नियम के अन्तर्गत हैं। ऐसी अवस्था में यह सोचना कि शब्द व्यवहार में उनका कोई सिद्धान्त नहीं, युक्ति-संगत नहीं।

मैंने यह कहा है कि उनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है । इसका प्रमाण समस्त उद्घृत पघों में मौजूद है। उनमें अधिकांश ब्रजभाषा के नियमों का पालन है। युक्त-विकर्प, कारकलोप 'णकार', 'शकार', 'क्षकार' के स्थान पर न', 'स', और छ' का प्रयोग, प्राकृत भाषा के प्राचीन शब्दों का व्यवहार. पञ्चम वर्ण के स्थान पर अधिकांश अनुस्वार का ग्रहण इत्यादि जितनी विशेप बानं ब्रजभापा की हैं वे सब उनकी रचना में पायी जाती हैं । उद्धृत पद्यों में से पहले, दूसरे और तीसरे नम्वर पर लिखे गये कबित्तों में तो ब्रजभाषा की सभी विशेषतायें मूर्तिमन्त हो कर विराजमान हैं । हां. चुछ तत्सम शब्द अपने शुद्ध रूप में अवश्य आये हैं। इसका हेतु मैं ऊपर लिम्व चुका हूं। उनकी रचना में गौरमदाइन', 'स्या','बोक'. 'बारोठा', समदौ, भाँड्यो' आदि शब्द भी आते हैं ।

नीचे लिखी हुई पंक्तियां इसके प्रमाण हैं:-

१--देवन स्यों जनु देवसभा शुभ सीय स्वयम्बर देखन आई।
२--"दुहिता समदौ सुख पाय अबै।"
३--कहूं भांड़ भांड़यो करैं मान पावै ।
४--कहूं बोक बाँके कहूं मेष सूरे । [ २८७ ]५- धनु है यह गौरमदाइन नाहीं ।

६- 'बारोठे को चार कहि करि केशव अनुरूप' । ये बुन्देलखण्डी शब्द हैं। उनके प्रान्त की बोलचाल में ये शब्द प्रचलित हैं। इस लिये विशेष स्थलों पर उनको इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते देखा जाता है। किन्तु फिर भी इस प्रकार के प्रयोग मर्यादित हैं और संकीर्ण स्थलों पर ही किये गये हैं। इस लिये मैं उनको कटाक्ष योग्य नहीं मानता। उनकी रचना में एक विशेषता यह है कि वे तत्सम शब्दों को यदि किसी स्थान पर युक्त-विकर्प के साथ लिखते हैं तो भी उसमें थोडा ही परिवर्तन करते हैं। जब उनको क्रिया का स्वरूप देते हैं तो भी यही प्रणाली ग्रहण करते हैं। देखिये:---

१- इनहीं के तपतेज तेज बढ़ि है तन तृरण।

       इनहीं के तपतेज होहिंगे मंगल पूरण।।

२- रामचन्द्र सीता सहित शोभत हैं तेहि ठौर। ३- मनोशची विधिरची विविध विधि वर्णत पंडित ।

'तूरण', पूरण', शोभत . 'वणत'. इत्यादि शब्द इसके प्रमाण हैं । ब्रजभाषा के नियमानुसार इनको 'तूरन'. पूरन, ‘सोभत'. बरनत', लिखना चाहिये था। किन्तु उन्होंने इनको इस रूप में नहीं लिखा। इसका कारण भी उनका सँस्कृत तत्सम शब्दानुराग है।बुन्देलखण्डी भाषा में'हतो' एक वचन पुल्लिंग में और हते बहुवचन पुल्लिंग में बोला जाता है। इनका स्त्रीलिंग रूप हतीं'. और हती होगा। ब्रजभाषा में ए दोनों तो लिखे जाते ही हैं. 'हुतो' और हुती' भी लिखा जाता है। वे भी दोनों रूपों का व्यवहार करते हैं । जैसे ‘सुता बिरोचन को हुतो दीग्ध जिह्वा नाम ।'

उनको अवधी के 'इहाँ', 'उहाँ. 'दिखाउ 'रिझाउ'. दीन', 'कीन, इत्यादि का प्रयोग करते भी देखा जाता है। वे होइ' भी लिखते हैं. होय'भी देखिये :[ २८८ ]

१- एक इहाँऊं उहाँ अतिदीन सुदेत दुहृंदिसि के जनगारी
२- प्रभाउ आपनो दिखाउ छोंड़ि वालि भाइ कै।
३- रिझाउ रामपुत्र मोहिं राम लै छुड़ाइ कै।
४- अन्न देइ सीख देइ।राखि लेइ प्राण जात।
५. हँसि बंधु त्यों दृगदीन।श्रु तिनासिका विनु कीन।
६. कीधौं वह लक्षमण होइ नहीं।

इसका कारण यही मालूम होता है कि उस काल हिन्दी भाषा के बड़े बड़े कवियों का विचार साहित्यिक भाषा को व्यापक बनाने की ओर था।इस लिये वे लोग कम से कम अवधी और ब्रजभाषा में कतिपय आवश्यक और उपयुक्त शब्दों के व्यवहार में कोई भेद नहीं रखना चाहते थे। इस काल के महाकवि सूर तुलसी और केशव को इसी ढंग में ढला देखा जाता है। उन्होंने अपनी रचना एक विशेष भाषा में ही अर्थात् अवधी या ब्रज- भाषा में की है। परन्तु एक दूसरे में इतना विभेद नहीं स्वीकार किया कि उनके प्रचलित शब्दों का व्यवहार विशेष अवस्थाओं और संकीर्ण स्थलों पर न किया जावे। इन महाकवियों के अतिरिक्त उस काल के अन्य कवियों का झुकाव भी इस ओर देखा जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से यह बात ज्ञात होगी।

केशव दास जी की रचनाओं में पांडित्य कितना है.उसके परिचय के लिये आप लोग उद्धृत पद्यों में से चौथे पद्य को देखिये। उस में इस प्रकार के वाक्यों का प्रयोग है जो दो अर्थ रखते हैं। मैं उनको स्पष्ट किये देता हूं। चौथे पद्म में उन्होंने महाराज दशरथ को विधि के समान कहा है, क्योंकि दोनों हो 'विमानी कृत राजहंस' हैं । इसका पहल अर्थ जो विधिपरक है यह है कि राजहंस उनका वाहन (विमान) है । दूसरा अर्थ जो महाराज दशरथ परक है. यह है कि उन्होंने राजाओं की आत्मा(हंस को मानरहित बना दिया. अर्थात् सदा वे उनके चित्त पर चढ़े रहते हैं। सुमेरु पर्वत अचल है। दूसरे पद्य में उसी के समान उन्होंने महाराज दशरथ को भी अचल बनाया। भाव इसका यह है कि वे स्वकर्तव्य-पालन [ २८९ ]में दृढ़ हैं। दूसरी बात यह है कि यदि वह विविध विवुध-जुत' है, अर्थात विविध देवता उस पर रहते हैं तो महाराज दशरथ जी के साथ विविध विद्वान रहते हैं । 'विवुध' का दोनों अर्थ है देवता और विद्वान् । दूसरे चरण में 'सुदक्षिणा' शब्द का दो अर्थ है । राजा दशरथ को अपने पूर्व पुरुष दिलीप' के समान बनाया गया है। इस उपपत्ति के साथ कि यदि उनके साथ उनकी पत्नी सुदक्षिणा थीं, जिनका उनको बल था, तो उनको भी सुन्दर दक्षिणा का अर्थात् सत्पात्र में दान देने का बल है। तीसरे चरण में उनको सागर समान कहा है, इस लिये कि दोनों ही'बाहिनी' के पति और गम्भीर हैं। 'बाहिनी' का अर्थ सरिता और सेना दोनों है। इसी चरण में उनको सूर्य के समान अचल कहा है । इस कारण कि 'छनदान प्रिय' दोनों हैं। इस लिये कि महाराज दशरथ को तो क्षण क्षण अथवा पर्व पर्व पर दान देना प्रिय है और सूर्य 'छनदा' (क्षणदा) न-प्रिय है अर्थात् रात्रि उसको प्यारी नहीं है। चौथे चरण में महाराज दशरथ को उन्होंने गंगा-जल बनाया है, क्योंकि दोनों भगीरथ-पथ गामी हैं ।महाराज दशरथ के पूर्व पुरुष महाराज भगीरथ थे अतएव उनका भगीरथ पथावलम्वी होना स्वाभाविक है। इस अंतिम उपमा में बड़ी ही सुन्दर व्यंजना है। गंगा-जल का पवित्र और उज्ज्वल अथच सद्भाव के साथ चुपचाप भगीरथ पथावलम्वी होना पुराण-प्रसिद्ध बात है । इम व्यंजना द्वारा महाराज दशरथ के भावो को व्यंजित करके कवि ने कितनी भावुकता दिखलायी है, इसको प्रत्येक हृदयवान भलीभांति समझ सकता है। अन्य उपमाओं में भी इसी प्रकार की व्यंजना है, परन्तु उनका स्पष्टीकरण व्यर्थ विस्तार का हेतु होगा। इस प्रकार के पद्यों से ‘रामचन्द्रिका' भरा पड़ा है। कोई पृष्ट इस ग्रन्थ का शायद ही ऐसा होगा कि जिसमें इस प्रकार के पद्य न हो । दो अर्थ वाला, आप ने देखा, उसमें कितना विस्तार है। तीन तीन चार चार अर्थ वाले पद्य कितने विचित्र होंगे उनका अनुभव आप इस पद्य से ही कर सकते हैं। मैं उन पद्यों में से भी कुछ पद्य आप लोगों के सामने रख सकता था । परन्तु उसकी लम्बी-चौड़ी व्याख्या से आप लोग तो घबरायेंगे ही, मैं भी घबराता हूं। इस लिये उनको छोड़ता हूं। केशवदासजी के [ २९० ]पांडित्य के समर्थक सब हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ हैं। इस दृष्टि से भी मुझे इस विषय का त्याग करना पड़ता है॥

केशवदासजी का प्रकृति वर्णन कैसा है, इसके लिये मैं आप लोगों से उद्धृत पद्यों में से नम्बर ५, ६, ७, ९, १०, ११ की रचनाओं को विशेष ध्यान-पूर्वक अवलोकन करने का अनुरोध करता हूं। इन पद्यों में जहां स्वाभाविकता है वहां गम्भीरता भी है। कोई कोई पद्य बड़े स्वाभाविक हैं और किसी किसी पद्य का चित्रण इतना अपूर्व है कि वह अपने चित्रों को आंख के सामने ला देता है॥

'रामचन्द्रिका' अनेक प्रकार के छन्दों के लिये भी प्रसिद्ध है। इतने छन्दों में आज तक हिन्दी भाषा का कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया। नाना प्रकार के हिन्दी के छन्द तो इस ग्रन्थ में हैं ही। केशवदासजी ने इसमें कई संस्कृत वृत्तों को भी लिखा है। संस्कृत वृत्तों की भाषा भी अधिकांश संस्कृत गर्भित है, वरन उसको एक प्रकार से संस्कृत की ही रचना कही जा सकती है। उद्धृत पद्यों में से बारहवां पद्य इसका प्रमाण है। भिन्न तुकान्त छन्दों की रचना का हिन्दी साहित्य में अभाव है। परन्तु केशवदास जी ने रामचन्द्रिका में इस प्रकार का एक छन्द भी लिखा है जो यह

मालिनी


गुणगण मणि माला चित्त चातुर्य शाला।
जनक सुखद गीता पुत्रिका पाय मीता।
अखिल भुवन भर्त्ता ब्रह्म रुद्रादि कर्त्ता।
थिरचर अभिरामी कीय जामातु नामी।

संस्कृत वृत्तों का व्यवहार सबसे पहले चन्द बरदाई ने किया है। उनका वह छन्द यह है:—

"हरित कनक कांति कापि चंपेव गौरा।
रसित पदुम गंधा फुल्ल राजीव नेत्रा।

[ २९१ ]

उरज जलज शोभा नाभि कोषं सरोजं।
चरण कमल हस्ती लीलया राजहंसी।

इसके बाद गोस्वामी जी को सँस्कृत छन्दों में सँस्कृत गर्भित रचना करते देखा जाता है। विनय पत्रिका का पूर्वार्द्ध तो सँस्कृत-गर्भित रचनाओं से भरा हुआ है। गोस्वामी जी के अनुकरण से अथवा अपने सँस्कृत साहित्य के प्रेम के कारण केशवदासजी को भी सँस्कृत गर्भित रचना सँस्कृत वृत्तों में करते देखते हैं। इनके भी कोई कोई पद्य ऐसे हैं जिनको लगभग सँस्कृत का ही कह सकते हैं। इन्होंने ३०० वर्ष पहले भिन्न तुकान्त छन्द की नींव भी डाली, और वे ऐसा संस्कृत वृत्तों के अनुकरण से ही कर सके।