भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/द्वितीय अंक

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ४२५ ]

द्वितीय अंक

स्थान-राजपथ

( मदारी आता है )

मदारी---अललललललल, नाग लाए सॉप लाए!

तंत्र युक्ति सब जानहीं, मंडल रचहिं बिचार।
मंत्र रक्षही ते करहिं, अहि नृप को उपकार॥

(* आकाश में देखकर ) महाराज! क्या कहा? 'तू कौन है?' महाराज! मैं जीर्ण विष नाम सँपेरा हूँ। ( फिर आकाश की ओर देखकर ) क्या कहा कि 'मैं भी सॉप का मंत्र जानता हूँ खेलूँगा?' तो आप काम क्या करते हैं, यह तो कहिए? ( फिर आकाश की ओर देखकर ) क्या कहा---'मैं राजसेवक हूँ?' तो आप तो सॉप के साथ खेलते ही है। ( फिर ऊपर देखकर ) क्या कहा 'कैसे?' मंत्र और जड़ी बिन मदारी और आँकुस बिन मतवाले हाथी का हाथीवान, वैसे ही नए अधिकार के संग्राम- विजयी राजा के सेवक---ये तीनो अवश्य नष्ट होते हैं। ( ऊपर देखकर ) यह देखते-देखते कहाँ चला गया? ( फिर ऊपर देखकर ) क्या महाराज! पूछते हो कि


  • 'आकाश में देखकर 'ऊपर देखकर' का आशय यह है कि

मानो दूसरे से बात करता है। [ ४२६ ]'इन पिटारियो में क्या है?' इन पिटरियों में मेरी जीविका के सर्प हैं। ( फिर ऊपर देखकर ) क्या कहा कि 'मै देखूँगा?' वाह-वाह महाराज! देखिए-देखिए, मेरी बोहनी हुई, कहिए इसी स्थान पर खोलूँ? परंतु यह स्थान अच्छा नहीं है। यदि आपको देखने की इच्छा हो तो आप इस स्थान में आइए मैं दिखाऊँ। ( फिर आकाश की ओर देखकर ) क्या कहा कि 'यह स्वामी राक्षस मंत्री का घर है, इसमें मैं घुसने न पाऊँगा,' तो आप जायँ, महाराज! मैं तो अपनी जीविका के प्रभाव से सभी के घर जाता-आता हूँ। अरे क्या वह गया? ( चारो ओर देखकर ) अहा, बड़े आश्चर्य की बात है, जब मैं चाणक्य की रक्षा में चंद्रगुप्त को देखता हूँ तब समझता हूँ कि चंद्रगुप्त ही राज्य करेगा, पर जब राक्षस की रक्षा में मलयकेतु को देखता हूँ तब चंद्रगुप्त का राज गया सा दिखाई देता है, क्योकि---

चाणक्य ने लै जदपि बॉधी बुद्धिरूपी डोर सों।
करि अचल लक्ष्मी मौर्यकुल में नीति के निज जोर सों।
पै तदपि राक्षस चातुरी करि हाथ में ताकों करै।
गहि ताहि खींचत आपुनी दिसि मोहि यह जानी परै।

सो इन दोनों परम नीतिचतुर मंत्रियो के विरोध में नंदकुल की लक्ष्मी संशय में पड़ी है। [ ४२७ ]

दोऊ सचिव-विरोध सो, जिमि बन जुग गजराय।
हथिनी सी लक्ष्मी बिचल, इत उत झोंका खाय॥

तो चलूँ, अब मंत्री राक्षस से मिलूँ।

( जवनिका उठती है और आसन पर बैठा राक्षस और पास प्रियंबदक नामक सेवक दिखाई देते हैं )

राक्षस---( ऊपर देखकर आँखों में आँसू भरकर ) हा! बड़े कष्ट की बात है---

गुन-नीति-बल सो जीति अरि जिमि अापु जादवगन हयो।
तिमि नंद का यह बिपुल कुल बिधि बाम सो सब नसि गयो॥
एहि सोच में मोहि दिवस अरु निसि नित्य जागत बीतहीं।
यह लाखौ चित्र विचित्र मेरे भाग के बिनु भीतहीं॥

अथवा

बिनु भक्ति भूले, बिनहिं स्वारथ हेतु हम यह पन लियो।
बिनु प्रान के भय, बिनु प्रतिष्ठा-लाभ सब अब लौं कियो॥
सब छोड़ि कै परदासता एहि हेत नित प्रति हम करैं।
जो स्वर्ग में हूँ स्वामि मम निज शत्रु हत लखि सुख भरैं॥

( आकाश की ओर देखकर दुःख से ) हा! भगवती लक्ष्मी! तू बड़ी अगुणज्ञा है क्योंकि---

निज तुच्छ सुख के हेतु तजि गुनरासि नंद नृपाल कों।
अब शूद्र में अनुरक्त है लपटी सुधा मनु ब्याल को॥

[ ४२८ ]

ज्यो मत्त गज के मरत मद की धार ता साथहिं नसै।
त्यों नंद के साथहि नसी किन? निलज, अजहूँ जग बसे॥

अरे पापिन!

का जग में कुलवंत नृप जीवत रह्यौ न कोय।
जो तू लपटी शूद्र सो नीच-गामिनी होय?॥

अथवा

बारबधू जन को अहै सहजहिं चपल सुभाव।
तजि कुलीन गुनियन करहिं अोछे जन सो चाव॥

तो हम भी अब तेरा आधार ही नाश किए देते हैं। ( कुछ सोचकर ) हम मित्रवर चंदनदास के घर अपना कुटुंब छोड़कर बाहर चले पाए सो अच्छा ही किया। क्योंकि एक तो अभी कुसुमपुर को चाणक्य घेरा नहीं चाहता, दूसरे यहाँ के निवासी महाराज नंद में अनुरक्त हैं, इससे हमारे सब उद्योगों में सहायक होते हैं। वहाँ भी विषादिक से चंद्रगुप्त के नाश करने को और सब प्रकार से शत्रु का दॉव-घात व्यर्थ करने को बहुत सा धन देकर शकटदास का छोड़ ही दिया है। प्रतिक्षण शत्रुओं का भेद लेने को और उनका उद्योग नाश करने को भी जीव-सिद्धि इत्यादि सुहृद नियुक्त ही हैं। सो अब तो---

विष-वृक्ष-अहिसुत-सिंहपोत-समान जा दुखरास कों।
नृपनंद निज सुत जानि पाल्यौ सकुल निज असु-नास कों॥

[ ४२९ ]

ता चंद्रगुप्तहि बुद्धि-सर मम तुरत मारि गिराइहै।
जो दुष्ट दैव न कवच बनिकै असह आड़ै आइहै॥

( कंचुकी आता है )

कंचुकी---( आप ही आप )

नृपनंद काम-समान चानक-नीति-जर जरजर भयो।
पुनि धर्म-सम नृप चंद्र तिन तन पुरहु क्रम सो बढ़ि लयो॥
अर्धकास लहि तेहि लोभ राक्षस जदपि जीतन जाइहै।
पै सिथिल बल भे नाहिं कोऊ विधिहु सो जय पाइहै॥

( देखकर ) मंत्री राक्षस है। ( आगे बढ़कर ) मंत्री! आपका कल्याण हो।

राक्षस---जाजलक! प्रणाम करता हूँ। अरे प्रियंबदक! आसन ला।

प्रियंबदक---( आसन लाकर ) यह आसन है, आप बैठें।

कंचुकी---( बैठकर ) मंत्री, कुमार मलयकेतु ने आपको यह कहाँ है कि "आपने बहुत दिनों से अपने शरीर का सब श्रृङ्गार छोड़ दिया है इससे मुझे बड़ा दुःख होता है। यद्यपि आपको अपने स्वामी के गुण नहीं भूलते और उनके वियोग के दुःख में यह सब कुछ नहीं अच्छा लगता तथापि मेरे कहने से आप इनको पहिरें।" ( आभरण दिखाता है ) मंत्री! आभरण कुमार ने अपने अंग से उतारकर भेजे हैं, आप इन्हें धारण करें।

भा० ना०--२१
[ ४३० ]राक्षस---जाजलक! कुमार से कह दो कि तुम्हारे गुणों के आगे

मैं स्वामी के गुण भूल गया। पर---

इन दुष्ट बैरिन सो दुखी निज अंग नाहिं सँवारिहौं।
भूषन बसन सिंगार तब लौं हौं न तन कछु धारिहौं॥
जब लौं न सब रिपु नासि, पाटलिपुत्र फेर बसाइहौं।
हे कुँवर! तुमको राज दै, सिर अचल छत्र फिराइहौं॥

कंचुकी---अमात्य! आप जो न करो सो थोड़ा है, यह बात कौन कठिन है? पर कुमार की यह पहिली बिनती तो मानने ही के योग्य है।

राक्षस---मुझे तो जैसी कुमार की आज्ञा माननीय है वैसी ही तुम्हारी भी, इससे मुझे कुमार की आज्ञा मानने में कोई विचार नहीं है।

कंचुकी---( आभूषण पहिराता है ) कल्याण हो महाराज! मेरा काम पूरा हुआ।

राक्षस---मैं प्रणाम करता हूँ।

कंचुकी---मुझको जो आज्ञा हुई थी सो मैंने पूरी की। [ जाता है

राक्षस---प्रियंबदक! देख तो मेरे मिलने को द्वार पर कौन खड़ा है।

प्रियं०---जो आज्ञा। ( आगे बढकर सँपेरे के पास आकर ) आप कौन हैं?

सँपेरा---मैं जीर्णविष नामक सँपेरा हूँ और राक्षस मंत्री के साम्हने मैं साँप खेलना चाहता हूँ। मेरी यही जीविका है। [ ४३१ ]प्रियं०---तो ठहरो, हम अमात्य से निवेदन कर लें। ( राक्षस के पास जाकर ) महाराज! एक सँपेरा है, वह आपको अपना करतब दिखलाया चाहता है।

राक्षस---( बाईं आँख का फड़कना दिखाकर, आप ही आप ) हैं, आज पहिले ही सॉप दिखाई पड़े। ( प्रकाश ) प्रियंबदक! मेरा सॉप देखने को जी नहीं चाहता सो इसे कुछ देकर बिदा कर।

प्रियं०---जो आज्ञा। ( सॅपेरे के पास जाकर ) लो, "मंत्री तुम्हारा कौतुक बिना देखे ही तुम्हें यह देते हैं, जाओ।

सँपेरा---मेरी ओर से यह बिनती करो कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ किंतु भाषा का कवि भी हूँ, इससे जो मंत्रीजी मेरी कविता मेरे मुख से न सुना चाहें तो यह पत्र ही दे दो पढ लें। ( एक पत्र देता है )

प्रियं०---( पत्र लेकर राक्षस के पास आकर ) महाराज! वह सँपेरा कहता है कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ, भाषा का कवि भी हूँ। इससे जो मंत्रीजी मेरी कविता मेरे मुख से सुनना न चाहें तो यह पत्र ही दे दो, पढ़ लें। ( पत्र देता है )

राक्षस---( पत्र पढ़ता है )

सकल कुसुम-रस पान करि मधुप रसिक-सिरताज।
जो मधु त्यागत ताहि लै होत सबै जगकाज॥

[ ४३२ ]( आप ही आप ) अरे!!---"मैं कुसुमपुर का वृत्तांत

जाननेवाला आपका दूत हूँ" इस दोहे से यह ध्वनि निकलती है। अह! मैं तो कामो से ऐसा घबड़ा रहा हूँ कि अपने भेजे भेदिया लोगो को भी भूल गया। अब स्मरण आया। यह तो सँपेरा बना हुआ विराधगुप्त कुसुमपुर से आया है। ( प्रकाश ) प्रियंबदक! इसको बुलाओ यह सुकवि है, मैं भी इसकी कविता सुना चाहता हूँ।

प्रियं०---जो आज्ञा। ( सँपेरे के पास जाकर ) चलिए, मंत्रीजी आपको बुलाते हैं।

सँपेरा---( मंत्री के साम्हने जाकर और देखकर आप ही आप )

अरे यही मंत्री राक्षस है! अहा!---

लै बाम बाहु-लताहि राखत कंठ सौं खसि खसि परै।
तिमि घरे दच्छिन बाहु कोहू गोद में बिच लै गिरै॥
जा बुद्धि के डर होइ संकित नृप हृदय कुच नहिं धरै।
अजहूँ न लक्ष्मी चंद्रगुप्तहि गाढ़ आलिंगन करै॥

( प्रकाश ) मंत्री की जय हो।

राक्षस---( देखकर ) अरे विराध---( संकोच से बात उड़ाकर ) प्रियंबदक! मैं जब तक सर्पों से अपना जी बहलाता हूँ तब तक सबको लेकर तू बाहर ठहर। [ ४३३ ]प्रियं०-जो आज्ञा।

( बाहर जाता है )

राक्षस---मित्र विराधगुप्त! इस आसन पर बैठो।

विराधगुप्त---जो आज्ञा। ( बैठता है )

राक्षस---( खेद-सहित निहारकर ) हा! महाराज नंद के आश्रित लोगो की यह अवस्था! ( रोता है )

विराध०---आप कुछ सोच न करें, भगवान की कृपा से शीघ्र ही वही अवस्था होगी।

राक्षस---मित्र विराधगुप्त! कहो, कुसुमपुर का वृत्तांत कहो।

विराध०---महाराज! कुसुमपुर का वृत्तांत बहुत लंबा-चौड़ा है, इससे जहाँ से आज्ञा हो वहाँ से कहूँ।

राक्षस---मित्र! चंद्रगुप्त के नगर-प्रवेश के पीछे मेरे भेजे हुए विष देनेवाले लोगो ने क्या-क्या किया यह सुना चाहता हूँ।

विराध०----सुनिए-शक, यवन, किरात, कांबोज, पारस, वाह्रीकादिक देश के चाणक्य के मित्र राजों की सहायता से, चंद्रगुप्त और पर्वतेश्वर के बलरूपी समुद्र से कुसुमपुर चारो ओर से घिर गया है।

राक्षस---( कृपाण खींचकर क्रोध से ) हैं! मेरे जीते कौन कुसुमपुर घेर सकता है? प्रवीरक! प्रवीरक!

चढ़ौ लै सरै धाइ घेरौ अटा कों।
धरौ द्वार पै कुंजरैं ज्यों घटा कों॥

[ ४३४ ]

कहौ जोधनै मृत्यु को जीति धावै।
चलै संग भै छाँड़ि के कीर्ति पावै॥

विराध०---महाराज! इतनी शीघ्रता न कीजिए, मेरी बात सुन लीजिए।

राक्षस---कौन बात सुनूँ? अब मैंने जान लिया कि इसी का समय आ गया है। ( शस्त्र छोड़कर आँखों में आँसू भरकर ) हा! देव नंद! राक्षस को तुम्हारी कृपा कैसे भूलेगी?

हैं जहँ झुंड खड़े गज मेघ के अज्ञा करौ तहाँ राक्षस! जायकै।
त्यों ये तुरंग अनेकन हैं, तिनहूँ के प्रबंधहि राखौ बनायकै॥
पैदल ये सब तेरे भरोसे हैं, काज करौ तिनको चित लायकै।
यों कहि एक हमैं तुम मानत हे, निज काज हजार बनायकै॥

हॉ फिर?

विराध०---तब चारो ओर से कुसुमनगर घेर लिया और नगरवासी बिचारे भीतर ही भीतर घिरे-घिरे घबड़ा गए। उनकी उदासी देखकर सुरंग के मार्ग से सर्वार्थसिद्धि तपोवन में चला गया और स्वामी के विरह से आपके सब लोग शिथिल हो गए। तब अपने जय की डौंड़ी सब नगर में शत्रु लोगों ने फिरवा दी, और आपके, भेजे हुए लोग सुरंग में इधर-उधर छिप गए, और जिस विषकन्या को आपने चंद्रगुप्त के नाश-हेतु भेजा था उससे तपस्वी पर्वतेश्वर मारा गया। [ ४३५ ]राक्षस---अहा मित्र! देखो, कैसा आश्चर्य हुआ---

जो विषमयी नृप-चंद्र-वध-हित नारि राखी लाय कै।
तासो हत्यो पर्वत उलटि चाणक्य बुद्धि उपाय कै॥
जिमि करन-शक्ति अमोघ अर्जुन-हेतु धरी छिपाय कै।
पै कृष्ण के मत सो घटोत्कच पै परी घहराय कै॥

विराध०---महाराज! समय की सब उलटी गति है---क्या कीजिएगा?

राक्षस---हाँ! तब क्या हुआ?

विराध०---तब पिता का वध सुनकर कुमार मलयकेतु नगर से निकलकर चले गए और पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक पर उन लोगो ने अपना विश्वास जमा लिया। तब उस दुष्ट चाणक्य ने चंद्रगुप्त का प्रवेश-मुहूर्त्त प्रसिद्ध करके नगर के सब बढई और लोहारो को बुलाकर एकत्र किया और उनसे कहा कि महाराज के नंद-भवन में गृहप्रवेश का मुहूर्त ज्योतिषियो ने आज ही आधी रात का दिया है, इससे बाहर से भीतर तक सब द्वारो को जॉच लो। तब उससे बढई-लोहारो ने कहा कि 'महाराज! चंद्रगुप्त का गृह-प्रवेश जानकर दारुवर्म ने प्रथम द्वार तो पहले ही सोने की तोरनों से शोभित कर रखा है, भीतर के द्वारों को हम लोग ठीक करते हैं।' यह सुनकर चाणक्य ने कहा कि बिना कहे ही दारुवर्म ने बड़ा काम किया [ ४३६ ]इससे उसको चतुराई का पारितोषिक शीघ्र ही मिलेगा।

राक्षस---( आश्चर्य से ) चाणक्य प्रसन्न हो यह कैसी बात है? इससे दारुवर्म का यत्न या तो उलटा होगा या निष्फल होगा, क्योकि इसने बुद्धि-माह से या राजभक्ति से बिना समय ही चाणक्य के जी में अनेक संदेह और विकल्प उत्पन्न कराए। हाँ फिर?

विराध०---फिर उस दुष्ट चाणक्य ने बुलाकर सब को सहेज दिया कि आज आधी रात को प्रवेश होगा, और उसी समय पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक और चंद्रगुप्त का एक आसन पर बिठाकर पृथ्वी का आधा-आधा भाग कर दिया।

राक्षस---क्या पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक को आधा राज मिला, यह पहले ही उसने सुना दिया?

विराध०---हाँ, तो इससे क्या हुआ?

राक्षस---( आप ही आप ) निश्चय यह ब्राह्मण बड़ा धूर्त है, कि इसने उस सीधे तपस्वी से इधर-उधर की चार बात बनाकर पर्वतेश्वर के मारने के अपयश-निवारण के हेतु यह उपाय सोचा। ( प्रकाश ) अच्छा कहो तब?

विराध०---तब यह तो उसने पहले ही प्रकाश कर दिया था कि आज रात को गृह-प्रवेश होगा, फिर उसने वैरोधक को अभिषेक कराया और बड़े-बड़े बहुमूल्य स्वच्छ मोतियों [ ४३७ ]का उसको कवच पहिराया और अनेक रत्नो से जड़ा सुंदर मुकुट उसके सिर पर रखा और गले में अनेक सुगंध के फूलों की माला पहिराई, जिससे वह एक ऐसे बड़े राजा की भॉति हो गया कि जिन लोगों ने उसे सर्वदा देखा है वे भी न पहिचान सकें। फिर उस दुष्ट चाणक्य की आज्ञा से लोगो ने चंद्रगुप्त की चंद्रलेखा नाम की हथिनी पर बिठाकर बहुत से मनुष्य साथ करके बड़ी शीघ्रता से नंद-मंदिर में उसका प्रवेश कराया। जब वैरोधक मंदिर में घुसने लगा तब आपका भेजा दारुवर्म बढई उसको चंद्रगुप्त समझकर उसके ऊपर गिराने को अपनी कल की बनी तोरन लेकर सावधान हो बैठा। इसके पीछे चंद्रगुप्त के अनुयायी राजा सब बाहर खड़े रह गए और जिस बर्बर को आपने चंद्रगुप्त के मारने के हेतु भेजा था वह भी अपनी सोने की छड़ी की गुप्ती जिसमें एक छोटी कृपाण थी लेकर वहाँ खड़ा हो गया।

राक्षस---दोनों ने बेठिकाने काम किया। हाँ फिर?

विराध०---तब उस हथिनी को मारकर बढाया और उसके दौड़ चलने से कल की तोरण का लक्ष, जो चंद्रगुप्त के धोखे वैरोधक पर किया गया था, चूक गया और वहाँ बर्बर जो चंद्रगुप्त का आसरा देखता था, वह बेचारा उसी कल की तोरन से मारा गया। जब दारुवर्मा ने देखा कि लक्ष [ ४३८ ]तो चूक गए, अब मारे जायहींगे तब उसने उस कल के लोहे की कील से उस ऊँचे तोरन के स्थान ही पर से चंद्रगुप्त के धोखे तपस्वी वैरोधक को हथिनी ही पर मार डाला।

राक्षस---हाय! दोनो बात कैसे दुःख की हुई कि चंद्रगुप्त तो काल से बच गया और दोनो बिचारे बर्बर और वैरोधक मारे गए। ( आप ही आप ) दैव ने इन दोनों को नहीं मारा हम लोगो का मारा!! ( प्रकाश ) और वह दारुवर्म बढई क्या हुआ?

विराध०---उसको वैरोधक के साथ के मनुष्यों ने मार डाला।

राक्षस---हाय! बड़ा दुःख हुआ! हाय प्यारे दारुवर्म का हम लोगो से वियोग हो गया। अच्छा! उस वैद्य अभयदत्त ने क्या किया?

विराध०---महाराज! सब कुछ किया।

राक्षस---( हर्ष से ) क्या चंद्रगुप्त मारा गया?

विराध०---दैव ने न मरने दिया।

राक्षस---( शोक से ) तो क्या फूलकर कहते हो कि सब कुछ किया?

विराध०---उसने औषधि में विष मिलाकर चंद्रगुप्त को दिया, पर चाणक्य ने उसको देख लिया और सोने के बरतन [ ४३९ ]में रखकर उसका रंग पलटा जानकर चंद्रगुप्त से कह दिया कि इस औषधि में विष मिला है, इसको न पीना।

राक्षस---अरे वह ब्राह्मण बड़ा ही दुष्ट है। हाँ, तो वह वैध क्या हुआ?

विराध०---उस वैद्य को वही औषधि पिलाकर मार डाला।

राक्षस---( शोक से ) हाय हाय! बड़ा गुणी मारा गया। भला शयनघर के प्रबंध करनेवाले प्रमोदक ने क्या किया?

विराध०---उसने सब चौका लगाया।

राक्षस---( घबड़ाकर ) क्यों?

विराध०---उस मूर्ख को जो आपके यहाँ से व्यय को धन मिला सो उससे उसने अपना बड़ा ठाट-बाट फैलाया। यह देखते ही चाणक्य चौकन्ना हो गया और उससे अनेक प्रश्न किए, जब उसने उन प्रश्नों के उत्तर अंडबंड दिए तो उस पर पूरा संदेह करके दुष्ट चाणक्य ने उसको बुरी चाल से मार डाला।

राक्षस---हा! क्या देव ने यहाँ भी उलटा हमीं लोगों को मारा! भला वह चंद्रगुप्त को सोते समय मारने के हेतु जो राजभवन में वीभत्सकादिक वीर सुरंग में छिपा रखे थे उनका क्या हुआ?

विराध०---महाराज! कुछ न पूछिए। [ ४४० ]राक्षस---( घबड़ाकर ) क्यों-क्यो! क्या चाणक्य ने जान लिया?

विराध०---नहीं तो क्या?

राक्षस---कैसे?

विराध०---महाराज! चंद्रगुप्त के सोने जाने के पहिले ही वह दुष्ट चाणक्य उस घर में गया और उसको चारो ओर से देखा तो भीतर की एक दरार से चिउँटियाँ चावल के कने लाती हैं। यह देखकर उस दुष्ट ने निश्चय कर लिया कि इस घर के भीतर मनुष्य छिपे हैं। बस, यह निश्चय कर उसने उस घर में आग लगवा दिया और धूआँ से घबड़ाकर निकल तो सके ही नहीं, इस से वे वीभत्सका- दिक वहीं भीतर ही जलकर राख हो गए।

राक्षस---( सोच से ) मित्र! देख, चंद्रगुप्त का भाग्य कि सब के सब मर गए। ( चिंता सहित ) अहा! सखा! देख दुष्ट चंद्रगुप्त का भाग्य!

कन्या जो विष की गई ताहि हतन के काज।
तासों मारयौ पर्वतक जाको आधो राज॥
सबै नसे कलबल सहित जे पठए बध हेत।
उलटी मेरी नीति सब मौर्यहि को फल देत॥

विराध०---महाराज! तब भी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए---

प्रारंभ ही नहिं विघ्न के भय अधम जन उद्यम सजै।
पुनि करहिं तौ कोउ विघ्न सो डरि मध्य ही मध्यम तजैं॥

[ ४४१ ]

धरि लात विघ्न अनेक पै निरभय न उद्यम ते टरै।
जे पुरुष उत्तम अंत में ते सिद्ध सब कारज करै॥

और भी---

का सेसहि नहिं भार पै धरती देत न डारि।
कहा दिवसमनि नहिं थकत पै नहिं रुकत विचारि॥
सजन ताको हित करत जेहि किय अंगीकार।
यहै नेम सुकृतीन को निज जिय करहु विचार॥

राक्षस---मित्र! यह क्या तू नहीं जानता कि मैं प्रारब्ध के भरोसे नहीं हूँ? हॉ, फिर।

विराध०---तब से दुष्ट चाणक्य चंद्रगुप्त की रक्षा में चौकन्ना रहता है और इधर-उधर के अनेक उपाय सोचा करता है और पहिचान-पहिचान के नंद के मित्रो को पकड़ता है।

राक्षस---( घबड़ाकर ) हाँ! कहो तो, मित्र! उसने किसे-किसे पकड़ा है?

विराध०---सबके पहिले तो जीवसिद्धि क्षपणक को निरादर करके नगर से निकाल दिया।

राक्षस---( आप ही आप ) भला, इतने तक तो कुछ चिंता नहीं, क्योंकि वह योगी है उसका घर बिना जी न घबड़ायगा। ( प्रकाश ) मित्र! उस पर अपराध क्या ठहराया?

विराध०---कि इसी दुष्ट ने राक्षस को भेजी विषकन्या से पर्वतेश्वर को मार डाला। [ ४४२ ]राक्षस---( आप ही आप ) वाह रे कौटिल्य वाह! क्यो न हो?

निज कलंक हम पै धरयौ, हत्यौ अर्द्ध बँटवार।
नीतिबीज तुव एक ही फल उपजवत हजार॥

( प्रकाश ) हॉ, फिर?

विराध०---फिर चद्रगुप्त के नाश को इसने दारुर्मादिक नियत किए थे यह दोष लगाकर शकटदास को शूली दे दी।

राक्षस---( दुःख से ) हा मित्र शकटदास! तुम्हारी बड़ी अयोग्य मृत्यु हुई। अथवा स्वामी के हेतु तुम्हारे प्राण गए। इससे कुछ सोच नहीं है, सोच हमीं लोगो का है कि स्वामी के मरने पर भी जीना चाहते है।

विराध०---मत्री! ऐसा न सोचिए, आप स्वामी का काम कीजिए।

राक्षस---मित्र!

केवल है यह सोक, जीव लोभ अब लौं बचे।
स्वामि गयो परलोक, पै कृतघ्न इतही रहे॥

विराध०---महाराज! ऐसा नहीं। ('केवल है यह' ऊपर का छंद फिर से पढ़ता है )*

राक्षस---मित्र! कहो, और भी सैकड़ो मित्रों का नाश सुनने को ये पापी कान उपस्थित हैं।


  • अर्थात् जो लोग जीवलोम से बचे हैं, वे कृतघ्न हैं, आप तो

स्वामी के कार्य-साधन को जीते हैं, आप क्यों कृतन हैं। [ ४४३ ]विराध०---महाराज! होनहार जो बचाया चाहे तो कौन मार सकता है?

राक्षस---प्रियंबदक! अरे जो सच ही कहता है तो उनको झटपट लाता क्यों नहीं?

प्रियं०---जो आज्ञा।

[ जाता है

( सिद्धार्थक के संग शकटदास आता है )

शकटदास---( देखकर आप ही आप )

वह सूली गड़ी जो बड़ी दूढ कै,
सोइ चंद्र को राज थिलो प्रन ते।
लपटी वह फॉस की डोर सोई,
मनु श्री लपटी वृषलै मन तें॥
बजी डौंड़ी निरादर की नृप नंद के,
सोऊ लख्यो इन ऑखन तें।
नहिं जानि परै इतनोहू भए,
केहि हेतु न प्रान कढ़े तन तें॥

( राक्षस को देखकर ) यह मंत्री राक्षस बैठे हैं। अहा!

नंद गए हू नहिं तजत प्रभुसेवा को स्वाद।
भूमि बैठि प्रगटत मनहुँ स्वामिभक्त-मरजाद॥

( पास जाकर ) मंत्री की जय हो।

राक्षस---( देखकर आनंद से ) मित्र शकटदास! आओ, मुझसे [ ४४४ ]मिल लो, क्योंकि तुम दुष्ट चाणक्य के हाथ से बच के आए हो।

शकट०---( मिलता है )

राक्षस---( मिलकर ) यहाँ बैठो।

शकट०---जो आज्ञा। ( बैठता है )

राक्षस---मित्र शकटदास! कहो तो यह आनंद की बात कैसे हुई?

शकट०---( सिद्धार्थक को दिखाकर ) इस प्यारे सिद्धार्थक ने सूली देनेवाले लोगों को हटाकर मुझको बचाया।

राक्षस---( आनंद से ) वाह सिद्धार्थक! तुमने काम तो अमूल्य किया है, पर भला! तब भी यह जो कुछ है सो लो।

( अपने अंग से आभरण उतारकर देता है )

सिद्धा०---( लेकर आप ही आप ) चाणक्य के कहने से मैं सब करूँगा। ( पैर पर गिरके प्रकाश ) महाराज! यहाँ मैं पहिले-पहल आया हूँ, इससे मुझे यहाँ कोई नहीं जानता कि मैं उसके पास इन भूषणो को छोड़ जाऊँ। इससे आप इसी अँगूठी से इस पर मोहर करके अपने ही पास रखें, मुझे जब काम होगा ले जाऊँगा।

राक्षस---क्या हुआ? अच्छा शकटदास! जो यह कहता है वह करो।

भा० ना०--२२
[ ४४५ ]शकट०---जो आज्ञा। ( मोहर पर राक्षस का नाम देखकर धीरे से ) मित्र! यह तो तुम्हारे नाम की मोहर है।

राक्षस---( देखकर बड़े सोच से आप ही आप ) हाय-हाय इसको तो जब मैं नगर से निकला था तो ब्राह्मणी ने मेरे स्मरणार्थ ले लिया था, यह इसके हाथ कैसे लगी? ( प्रकाश ) सिद्धार्थक! तुमने यह कैसे पाई?

सिद्धा०---महाराज! कुसुमपुर में जो चंदनदास जौहरी हैं उनके द्वार पर पड़ी पाई।

राक्षस---तो ठीक है।

सिद्धा०---महाराज! ठीक क्या है?

राक्षस---यही कि ऐसे धनिकों के घर बिना यह वस्तु और कहाँ मिले?

शकट०---मित्र! यह मंत्रीजी के नाम की मोहर है, इससे तुम इसको मंत्री को दे दो, तो इसके बदले तुम्हें बहुत पुरस्कार मिलेगा।

सिद्धा०---महाराज! मेरे ऐसे भाग्य कहाँ कि आप इसे लें।

( मोहर देता है )

राक्षस---मित्र शकटदास! इसी मुद्रा से सब काम किया करो।

शकट०---जो आज्ञा।

सिद्धा०---महाराज! मैं कुछ बिनती करूँ?

राक्षस---हाँ हाँ! अवश्य करो। [ ४४६ ]सिद्धा०---यह तो आप जानते ही हैं कि उस दुष्ट चाणक्य की बुराई करके फिर मैं पटने में घुस नहीं सकता, इससे कुछ दिन आप ही के चरणों की सेवा किया चाहता हूँ।

राक्षस---बहुत अच्छी बात है। हम लोग तो ऐसा चाहते ही थे, अच्छा है, यहीं रहो।

सिद्धार्थक---( हाथ जोड़कर ) बड़ी कृपा हुई।

राक्षस---मित्र शकटदास! ले जाओ, इसको उतारो और सब भोजनादिक का ठीक करो।

शकट०---जो आज्ञा।

( सिद्धार्थक को लेकर जाता है )

राक्षस---मित्र विराधगुप्त! अब तुम कुसुमपुर का वृत्तांत जो छूट गया था सो कहो। वहाँ के निवासियों को मेरी बातें अच्छी लगती हैं कि नहीं?

विराध०---बहुत अच्छी लगती हैं, वरन वे सब तो आप ही के अनुयायी हैं।

राक्षस---ऐसा क्यों?

विराध०---इसका कारण यह है कि मलयकेतु के निकलने के पीछे चाणक्य को चंद्रगुप्त ने कुछ चिढ़ा दिया और चाणक्य ने भी उसकी बात न सहकर चंद्रगुप्त की आज्ञा भंग करके उसको दुःखी कर रखा है, यह मैं भली भाँति जानता हूँ। [ ४४७ ]राक्षस---( हर्ष से ) मित्र विराधगुप्त! तो तुम इसी सँपेरे के भेस से फिर कुसुमपुर जाओ और वहाँ मेरा मित्र स्तनकलस नामक कवि है उससे कह दो कि चाणक्य के आज्ञाभंगादिकों के कवित्त बना-बनाकर चंद्रगुप्त को बढ़ावा देता रहे और जो कुछ काम हो जाय वह करभक से कहला भेजे।

विराध०---जो आज्ञा।

[ जाता है

( प्रियंबदक आता )

प्रियं०--जय हो महाराज! शकटदास कहते है कि ये तीन आभूषण बिकते हैं, इन्हे आप देखें।

राक्षस---( देखकर ) अहा यह तो बड़े मूल्य के गहने हैं। अच्छा शकटदास से कह दो कि दाम चुकाकर ले लें।

प्रियं०---जो आज्ञा।

[ जाता है

राक्षस---तो अब हम भी चलकर करभक को कुसमपुर भेजें। ( उठता है ) अहा! क्या उस मृतक चाणक्य से चंद्रगुप्त से बिगाड़ हो जायगा? क्यों नहीं? क्योंकि सब कामो को सिद्ध ही देखता हूँ।

चंद्रगुप्त निज तेज बल करत सबन को राज।
तेहि समझत चाणक्य यह मेरो दियो समाज॥
अपनो अपनो करि चुके काज रह्यो कछु जौन।
अब जौ अापुस में लड़ैं तो बड़ अचरज कौन॥

[ जाता है