हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/प्रथम खंड/तीसरा प्रकरण- अन्य प्राकृत भाषाएँ और हिन्दी

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ ३० ]ज्योति दान करनेवाली बिजली आर्यजाति की प्राचीन और आदिम भाषा संस्कृत है" २

तीसरा प्रकरण।

अन्य प्राकृत भाषायें और हिन्दी

मैं पहले लिख आया हूं, मूल प्राकृत अथवा आर्ष प्राकृत का अन्यतम रूप पाली है, अतएव सबसे प्राचीन अथवा पहली प्राकृत पाली कही जा सकती है। आर्ष प्राकृत में उल्लेख योग्य कोई साहित्य नहीं है, कारण इसका यह है कि आर्षप्राकृत, परिवर्तनशील वैदिक भाषा के उस आदिम रूप का नाम है, जब उसमें देशज शब्दों का मिश्रण आरम्भ हो गया था, उसके शब्द टूटने फूटने लग गये थे और उनका अन्यथा व्यवहार होने लगा था। काल पाकर यह विकृति दृष्टि देने योग्य हो गई, और इतनी बढ़ गई, कि भिन्न रूपमें प्रकट हुई। उस समय उसका नाम पाली पड़ा। यथा समय यह पाली साहित्य की भाषा भी बनी, और उसका व्याकरण भी तैयार हुआ। कुछ काल तक अनेक विद्वानों का यह विचार था कि गाथा से पाली की उत्पत्ति हुई। और इस गाथा की भाषा ही आर्ष प्राकृत है। परन्तु आजकल यह विचार नहीं माना जाता है। यदि गाथा को वैदिक भाषा और पाली की मध्यवर्तिनी मान लें, तो आर्ष प्राकृत में भी साहित्यका

2. The languages as have been very beautifully described by Max Muller, floated about "like islands oa the ocean of human speech, they did not shoot together to form themselves into larger continent. This is the most critical period in the history of every science, and if it had not been for a happy accident, which like an electric spark caused the floating elements to crystalize into a regular form it is more than doubtful whether the long list of languages and dialec's enumarated and described in the work of Harnes and Adelung could long have sustained the interest of the students of languages. The electric spark was the discovery of Sanskrit the ancient language of the Hindus". [ ३१ ]अभाव न रह जावेगा, और ऐसी अवस्था में पहली प्राकृत वही होगी, वोल चाल पर दृष्टि रखकर उसको एक पृथक् भाषा स्वीकार करना पड़ेगा। किन्तु प्रायः विद्वानों ने उसके अन्यतम रूप पाली को ही आदि और सब से प्राचीन प्राकृत होने का गौरव दिया है, अतएव मैं भी इसको स्वीकार कर लेता हैं । पाली भाषा का साहित्य बडा विस्तृत है प्राकृत भाषा का पहला व्याकरण पाली में ही है, और वह कात्यायन का बनाया हुआ है । पालि प्रकाशकार कहते हैं (पृ० १०१) कि पालि व्याकरण समूह संस्कृत के आदर्श पर ही रचित है, कात्यायन व्याकरण के अनेक सूत्र, कातन्त्र के संस्कृत व्याकरण के सूत्रों के साथ अधिकतर सम्बन्ध रखते हैं। अनेक सूत्र उसमें पाणिनि के भी लिये गये हैं। इस दृष्टि से भी पालि भाषा को पहली प्राकृत कहा जा सकता है, क्योंकि वह अधिकतर संस्कृतानुवर्तिनी है।

अशोक के जितने स्तम्भ प्राप्त हुये हैं, उनमें से अधिकांश की भाषा पाली ही है। यद्यपि स्तम्भ के लेखों में कहीं कहीं भाषा भेद दृष्टिगत होता है, और इसलिये कुछ विद्वानों की सम्मति है, कि अशोक के समय में ही पालीभाषा में परिवर्तन होने लग गया था, क्योंकि यह अनुमान किया जाता है कि प्रत्येक स्तम्भ की भाषा उस स्थान के प्रचलित भाषा से सम्बन्ध रखती है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ता है. कि उस समय प्रधानता पाली को ही थी। चाहे वह दो प्रकार की हो, चाहे चार प्रकार की। मैं पहले कह आया हूं कि पाली का दूसरा नाम मागधी भी है, यद्यपि यह कथन सर्वसम्मत नहीं, फिर भी अधिकांश भाषा मर्मज्ञ यही स्वीकार करते हैं। अर्द्धमागधी का नाम ही उसको मागधी का अन्यतम रूप बतलाता है, इसलिये अशोक के जो शिला लेख मागधी अथवा अर्द्धमागधी में लिखे माने जाते हैं, उनको पालीभाषा का रूपान्तर कहना असंगत न होगा। ऐसी अवस्था में शिला लेखों पर विचार करने से भी पाली को ही पहली प्राकृत मामना पड़ेगा।

पाली के अनन्तर हमारे सामने कुछ ऐसी प्राकृत भापायें आती हैं, जिनका नाम देश परक है। वे हैं, मागधी. अर्द्धमागधी, महाराष्ट्री और [ ३२ ]शौरसेनी, इनको हम दूसरी प्राकृत कह सकते हैं। यदि हम पाली को ही मागधी मान लें तो मागधी के विषय में कुछ लिखना आवश्यक नहीं, क्योंकि पाली को हम पहली प्राकृत कह चुके हैं। किन्तु हमें यह न भूलना चाहिये कि मागधी नाम देशपरक है, मगध प्रान्त की भाषा का नाम ही मागधी हो सकता है, इसलिये यह स्वीकार करना पड़ेगा कि मागधी की उत्पत्ति मगध देश में ही हुई। फिर पाली का नाम मागधी कैसे पड़ा ? इसका उत्तर हम बाद को देंगे, इस समय देखना यह है कि पाली और मागधी में कोई अन्तर है या नहीं ? पालि प्रकाशकार (प्रवेशिका पृ० १३, १४) लिखते हैं

“प्राकृत व्याकरण और संस्कृत के दृश्यकाव्य समूह में मागधी नाम से प्रसिद्ध एक प्राकृत भाषा पाई जाती है, आलोच्य पाली से यह भाषा इतनी अधिक विभिन्न है, कि दोनों की भिन्नता उनके देखते ही प्रकट हो जाती है। पाठकगणों को दोनों मागधी का भेद जानना आवश्यक है, इसलिये उनके विषय में यहां कुछ आलोचना की जाती है। आलोचना की सुविधा के लिये हम यहां पाली को वौद्ध मागधी और दूसरी को प्राकृत मागधी कहेंगे"

“प्राकृत लक्षणकार चण्ड ने प्राकृत मागधी का इतना ही विशेषत्व दिखलाया है, कि इसमें रकार के स्थान पर लकार और सकार के स्थान पर शकार होता है। जैसे-संस्कृत का निर्झर प्राकृत मागधी में निज्झल होगा, इसी प्रकार माष होगा माश और विलास होगा विलाश । परन्तु वौद्धमागधी में इनका रूप यथाक्रम, निज्झर, मास, विनास होगा। प्राकृत मागधी में अकारान्त प्रातिपदिक पुल्लिङ्ग के प्रथमा विभक्ति का एक वचन एकारयुक्त होता है, जैसे-माषः-माशे विलासः -- विलासे निझरः--निज्झले । वौद्ध मागधी में इसका रूप यथाक्रम मासो, विनासो, और निज्झरो होगा।"

"इसी प्रकार के कुछ और उदाहरण देकर पालि प्रकाशकार लिखते हैं (पृ० १६-१७) वौद्ध मागधी और प्राकृत मागधी में परस्पर और अनेक भेद हैं। वाहुल्य भयसे उन सबको पूर्णतया यहां नहीं दिखलाया गया। किन्तु जितना दिखलाया गया, उसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों भाषायें परस्पर कितनी भिन्न हैं" [ ३३ ]"मृच्छ कटिक नाटक में शकार का अधिकतर कथन विशुद्ध प्राकृत मागधी में रचित है। प्राकृत मागधी का मूल शौरसेनी है, इसलिये उसमें शौरसेनो तो मिलती ही है, स्थान स्थान पर महाराष्ट्री के शब्द भी देखे जाते हैं। इसीलिये कहीं कहीं शकार की भाषा को अर्द्धमागधी कहा गया है। अभिज्ञानशाकुन्तल में रक्षिपुरुष और धीवर की भाषा प्राकृत मागधी है। वेणीसंहार नाटक और उदात्तराघव के राक्षस को भाषा भी प्राकृत मागधी है। मुद्राराक्षस आदि में भी इसका व्यवहार देखा जाता है। किन्तु प्रायः इसके साथ भिन्न जातीय प्राकृत का सम्मिलन पाया जाता है”।

इन सब बातों को लिखकर पालिप्रकाशकार १८ पृष्ट में यह लिखते हैं-

"जो कुछ कहा गया उसको पढ़कर हृदय में स्वभावतः यह प्रश्न उदय होता है, कि 'मागधी, नाम से प्रसिद्ध होकर भी पाली, (वौद्धमागधी), एवं प्राकृतमागधी में परस्पर इतना भेद क्यों है ? ए एकही स्थान की भाषायें हैं, यह बात इनका साधारण नाम ही स्पष्ट भाव से बतलाता है । तो क्या ए दोनों भाषायें, विभिन्न प्रदेश की हैं ? अथवा दोनों के मध्य में दीर्घकाल का व्यवधान होनेके कारण एकही अन्य रूप में परिवर्तित हो गई है। या विस्तृत मगध प्रदेश के अंश विशेष में एक, और अन्य विभाग में दूसरी प्रचलित थी ? इनका परस्पर सम्बन्ध क्या है ?

इन प्रश्नों का उत्तर ६६ पृष्ट में वे यह देते हैं ...

"पहले हमने वौद्धमागधी, और प्राकृतमागधी के स्थान और काल के सम्बन्ध में प्रश्न उठाया था। यह प्रश्न पाठकों के निकट इसी रूप में रहा । विषय इतना गुरुतर है, कि इस सम्बन्ध में मैंने जो अनुसन्धान किया है, वह इस समय प्रकाश योग्य नहीं है । समयान्तर में में इसका उत्तर देने की चेष्टा करूंगा"

कम से कम इन पंक्तियों को पढ़ कर यह तो स्पष्ट हो गया, कि मागधी दो प्रकार की है, और उनमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर है । इन पंक्तियों. द्वारा यह भी विदित होता है, कि बौद्धमागधी ही पाली है, और बुद्धदेव ने [ ३४ ]इसी भाषा में अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। अशोक के शिलालेख अधिकतर इसी मागधी अथवा उसके अन्यतम भेद अर्द्धमागधी में लिखे पाये जाते हैं। इसलिये यदि पहली प्राकृत हो सकती है, तो वौद्धमागधी । प्राकृत मागधी को ऐसी अवस्था में दूसरी प्राकृत मान सकते हैं। देशपरक नाम निस्सन्देह वौद्धमागधी को भी निर्विवाद रूप से पाली मानने का वाधक है, और इसी विचार से ज्ञात होता है कि एक वौद्ध विद्वान् ने मागधी की यह व्युत्पत्ति की है, 'सोच भगवा मागधो मगधे भवत्ता साच भासामागधी। अर्थ इसका यह है कि मगध में उत्पन्न होने कारण भगवान बुद्ध को मागध कह सकते हैं, इसलिये उनकी भाषा को मागधी कहा जा सकता है। किन्तु इस विचार का खण्डन यह कह कर किया गया है कि भाषा का नाम देशपरक होता है. व्यक्ति विशेष परक नहीं । क्योंकि ऐसा कहना अस्वाभाविक और उस प्रत्यक्ष सिद्धान्त का वाधक है, जिसके आधार से अन्य देशभाषाओं का नामकरण हुआ १ । यह बहुत बड़ा विवाद है, अबतक छानबीन हो रही है, इसलिये मैं स्वयं इस विषय में कुछ निश्चितरूप से कहने में असमर्थ हूं। बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान डाकर सुनीति कुमार चटर्जी की सम्मति आपलोगोंके अवलोकन के लिये यहां उद्धृत करता हूं-वे लिखते हैं-

"महाराज अशोक के समय में एक नई साहित्यिक भाषा भारत से सिंहल में फैली, यह पालि भाषा है। पहले पण्डित लोग सोचते थे कि पालि की जड़ पूर्व में- मगध में थी, क्योंकि इसका एक और नाम मागधी है । अब पालि के सम्बन्ध में पण्डितों की गय बदल रही है। अब विचार है कि पालि पूर्व की नहीं, बल्कि पछांह की-अर्थान मध्य देश की ही बोली थी। वह शौरसेनी प्राकृत का प्राचीन रूप थी । बुद्धदेव के उपदेश पूर्व की बोली प्राच्य प्राकृत में हुये, जो कोशल काशी और मगध में प्रचलित थी। फिर वे इस प्राच्य प्राकृत से और प्राकृतों में अनुदित हुये। मथुरा और उज्जैन की भाषा में जो अनुवाद हुआ, उसका नाम दिया गया 'पालि' । सिंहल में जब इस अनुवाद का प्रचार हुआ, तब वहां के लोग भूल

१ देखिये पालि प्रकाश पृष्ट १३ [ ३५ ]से इसे मागधी के नाम से पुकारने लगे, क्योंकि पालि वुद्ध वचन था, और भगवान बुद्ध ने मगध में अपने जीवन का बहुत अंश बिताया। इस कारण वुद्ध वचन या पालि से मगध का सम्वन्ध सोचकर उसका नाम मागधी रखा। सिंहल से ब्रह्मदेश, तथा श्याम और कम्बोज में यह पालि भाषा फैली। इस प्रकार दो हजार वर्ष से पहले मध्यदेश की भाषा, वहिर्भारत के बौद्धों की धार्मिक भाषा बनी”२ डाक्टर सुनीति कुमार चटर्जी 'ओरिजन एण्ड डिवलेपमेंट आफ् दी बंगाली लांगवेज, नामक प्रसिद्ध और विशाल ग्रन्थ के रचयिता और आर्यभाषा शास्त्र के पण्डित हैं, उनको डी० लिट् की उपाधि भी प्राप्त हो चुकी है, इसलिये उन्हों ने जो कुछ लिखा है, उसकी प्रामाणिकता अधिकतर ग्राह्य एवं निर्विवाद है । परन्तु उनके लेख के कुछ अंश ऐसे हैं, जो तकरहित नहीं । वे कहते हैं."बुद्धदेव के उपदेश पूर्व की वोली (प्राच्य प्राकृत) में हुये. जो कोशल काशी और मगध में प्रचलित थी” इसके बाद वे यह लिखते हैं “फिर वे (उपदेश) इस प्राच्य प्राकृत से और प्राकृतों में अनुदित हुये, मथुरा और उज्जैन की भाषा में जो अनुवाद हुआ उसका नाम दिया गया पालि" उनके कथन के इन अंगों को पढ़कर यह प्रश्न होता है कि जिस प्राच्य प्राकृत में वुद्धदेव ने उपदेश दिये, उसका क्या नाम था ? उसका नाम 'पालि, तो हो नहीं सकता, क्योंकि 'पालि, तो प्राच्य प्राकृत के उस अनुवाद का नाम है, जो मथुरा और उज्जैन में वोली जानेवाली भाषा (प्राकृत) में हुआ। क्या उसका नाम मागधी था ! निसन्देह उसका नाम मागधी होगा, और उस समय यह भाषा कोशल और काशी में भी बोली जाती होगी। यह बात निश्चित. है कि बुद्धदेव ने अपने उपदेश देशभाषा में ही दिये, उनका उपदेश मगध, कोशल और काशी में ही अधिकतर हुआ है, इसलिये उनकी भाषा का नाम मागधी होना ही निश्चित है । वौद्ध लोग इसीलिये कहते हैं-

"मागधिकाय सभाव निरुत्तिया, अथवा 'सा मागधी मूलभासा, इत्यादि।

ऐसी अवस्था में वौद्धमागधी को ही पहली प्राकृत मानना पड़ेगा, और

२ देखो विशालभारत भाग ७ अंक ६ का पृष्ट ८४० [ ३६ ]पाली को स्थानच्युत होना पड़ेगा। आज दिन भी मागधी और उसके थोड़े परिवर्तित रूप अर्धमागधी को प्राच्य प्राकृत ही माना जाता है, स्थान भी उनका अबतक वही है. जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है। अशोककाल के शिलालेख भी अधिकतर इन्हीं भाषाओं में पाये जाते हैं, इसलिये एक प्रकार से यह वात निर्विवाद रूप से स्वीकृत होती है कि बुद्धदेव ने जिस भाषा में उपदेश दिये, वह मागधी ही थी। रहा पाली का स्थान च्युत होना मेरा विचार यह है कि पाली' शब्द के नामकरण पर विचार करने से इस जटिल विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ जाता है। पालि प्रकाशकार प्रवेशिका के पृष्ट ३ में लिखते हैं-

"उल्लिखित उदाहरण समूहद्वारा यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि पालि शब्द से पहले बौद्धधर्मशास्त्र की पंक्ति अथवा मूलशास्त्र त्रिपिटक, समझा जाता। इसके बाद कालक्रम से धीरे धीरे त्रिपिटक के साथ सम्वद्ध अर्थकथा, और साक्षात अथवा परम्परा सम्बन्ध से उससे सम्बद्ध कोई ग्रन्थही पालि शब्द से अभिहित होने का सुयोग पा सका। जैसे मूल संहिता और उससे सम्बन्धित ब्राह्मण ग्रन्थ दोनों ही वेद माने जाते हैं, और जैसे प्राचीन मनु इत्यादिक धर्मशास्त्र और उससे सम्बद्ध आधुनिक ग्रन्थकार का ग्रन्थ, दोनों ही स्मृति कहकर गृहीत होते हैं, उसी प्रकार वौद्धसाहित्य में पहले त्रिपिटक, उसके उपरांत अर्थ-कथा और तदनन्तर उससे सम्बद्ध अपर ग्रन्थसमूह 'पालि' नाम से प्रसिद्ध हुये किन्तु जिन ग्रन्थों के साथ ‘पालि' (त्रिपिटक आदिक) का कोई सम्बन्ध नहीं था, उस समय वे पालि नाम से अभिहित नहीं हुये। केवल ग्रन्थ कहलाकर ही वे परिचित होते थे । मूलशास्त्र को पालि कहते थे, इसीलिये उसकी भाषा का नाम भी पालिभाषा अथवा कालक्रम से संक्षेप में केवल “पालि" हुआ। इन सब वातों पर विचार करने से यह वात स्पष्ट हो जाती है कि पालि भाषा का आदिम अर्थ 'पालि' की अर्थात वौद्धधर्म के मूल शास्त्र की भाषा है।"

ज्ञात होता है कि इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर किसी पाश्चात्य विद्वान ने पालि को कृत्रिम अथवा साहित्यिक भाषा लिखा है, परन्तु पालि प्रकाशकार [ ३७ ]उनके इस विचार का खण्डन करते हैं. वे प्रवेशिकाके पृष्ट ९८ में लिखते हैं -

"किसी पाश्चात्य विद्वान् ने पालि को विल्कुल कृत्रिम भाषा बतलाया है, किन्तु यह सर्वथा असंगत है, यह कहना ही बाहुल्य है"

वे ऐसा कहते तो हैं, परन्तु उन्हों ने जो पहले स्वयं लिखा है, वही उनके इस उत्तर कथन का विरोधी है । डाक्टर चटर्जी महोदय ने जो कथन किया है, उसे आप पहले पढ़ चुके हैं, वे कहते हैं, 'पाली' मथुराप्रान्त की भापा है, जो शौरसेनी का पूर्वरूप है, और जिसे भूल से सिंहलवालों ने मागधी कहा । लेख इच्छा के विरुद्ध बहुत विस्तृत हो गया, किन्तु मतभिन्नता का निराकरण न हो सका। तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि आदि अथवा पहली प्राकृत वह है, जिसके उपरान्त देशपरक नामवाली प्राकृतों की रचना हुई । इस पहली प्राकृत को पाली कहिये चाहे वौद्धमागधी अथवा आर्ष प्राकृत ।

देशपरक नाम की दृष्टि से मागधी को दूसरी ही प्राकृत मानना पड़ेगा, चाहे वह बौद्धमागधी न होकर प्राकृतमागधी ही क्यों न हो। ऐसी दशा में वौद्ध मागधी को प्राकृत मागधी का पूर्वरूप मानना पड़ेगा। जैसा मैं पहले दिखला आया हूं, उससे यह बात स्पष्ट हो गई है, कि वौद्धमागधी ही बाद को पाली कहलाई। पाली नाम की कल्पना बौद्धोंद्वारा ही हुई है, वे ही इस नाम के उद्भावक हैं, और वौद्धशास्त्र की पंक्ति उसका आधार है। यह जान लेने पर यह वात समझ में आ जाती है कि क्यों पाली का पर्यायवाची नाम मागधी है। यह में स्वीकार करूंगा कि डाक्टर चटजों महोदय का कथन इस उक्ति का विरोधी है, और जैसा उन्हों ने बतलाया है. उससे पाया जाता है, कि वर्तमानकाल के विद्वानों का मन ही उनका मत है। तथापि सब बातों पर दृष्टि रख कर यह स्वीकार करना ही पड़ेगा, कि इन दोनों नामों का जो अभिन्न सम्बन्ध है, उसके पक्ष में ही प्रवल प्रमाण हैं। और यह मान लेनेसे ही सब विचारों का समन्वय हो जाता है, कि वौद्धमागधी अथवा पाली पहली प्राकृत है. और प्राकृतमागधी दुसरी प्राकृत ।

अर्द्धमागधी भी दूसरी प्राकृत है । जो भाषा मगध प्रान्त में बोली जाती [ ३८ ]थी वह मागधी कहलाई, किन्तु काशी और कोशल प्रदेश की भाषा अर्द्ध- मागधी कही गई है । अर्द्धमागधी शब्द ही बतलाता है, कि इस भाषा की शब्द सम्पत्ति इत्यादि का अख़्श मागधी है । यहाँ प्रश्न यह होगा कि दूसग अद्धांश क्या है ? इसका उत्तर क्रमदीश्वर यह देते हैं, 'महाराष्ट्री मिश्राद्ध मागधी, अर्थात जिस मागधी में महागष्ट्री शब्दों का मिश्रण हो गया है, वह अर्द्धमागधी है। किन्तु मारकण्डेय यह कहते हैं-

“शौरसेन्याविदृरत्वादियमेवार्धमागधी” अर्थात शौरसेनी के सन्निकट होने के कारण इसका नाम अर्द्धमागधी है। प्रयोजन यह कि जिस मागधी पर शौरसेनी का प्रभाव पड़ गया है, वह अर्द्धमागधी है । इन दोनों सिद्धान्तों में प्रथम सिद्धान्त के पोषक अधिक लोग हैं, और वे कहते हैं कि अर्द्धमागधी पर अधिक प्रभाव महागष्ट्री का ही है। मागधी भाषा में यदि वौद्धों के धर्मग्रन्थ हैं, तो अद्धमागधी में जैनों के। वह यदि वुद्धदेव के प्रभाव से प्रभावित है, तो यह महावीर स्वामी के गौरव से गौरवित । कहा जाता है कि अशोक के समय में यदि मागधी गजभाषा होने कारण विशेष सम्मानित थी, तो अद्धमागधी का समादर भी कम न था, पूर्ण सम्मान का अद्धांश उसको भी प्राप्त था। अशोक के स्तम्भों पर पाली अथवा मागधी को यदि स्थान दान किया गया है, तो अर्द्धमागधी भी इस सम्मानसे वंचित नहीं हुई, अनेक शिलालेख अद्धमागधी में लिखे पाये गये हैं। महाराष्ट्री भी देशपरक नाम है, और यह भी दुसरी प्राकृत है। परन्तु स्वर्गीय पण्डित बदरीनारायण चौधरी ने अपने व्याख्यान में लिखा है

"महाराष्ट्री शब्द से प्रयोजन दक्षिण देश से नहीं किन्तु भारतरूपी महागष्ट्र से है" 'प्राकृत प्रकाशकार' वररुचि भी इसी विचार के हैं । किसी समय यह प्राकृत देशव्यापिनी थी, कहा जाता है महाराष्ट्र शब्द से ही. महाराष्ट्री का नामकरण हुआ है। कुछ लोगों ने सर्व प्राकृतों में इसी को प्रधान माना है, क्योंकि प्राकृत भाषा के व्याकरण रचयिताओं ने उसी के विषयमें विशेष रूप से लिखा है। प्रायः व्याकरणों में देखा जाता है कि अन्य प्राकृतों के कुछ विशिष्ट नियमों को लिखकर शेष के विषय में लिख दिया [ ३९ ]गया है, कि महाराष्ट्री के समान उनका आदेशादि होगा। इसका साहित्य भी विस्तृत है।

शौरसेनी के विषय में श्रीयुत डाक्टर सुनीतिकुमार चटर्जी महोदय यह लिखते हैं-

."सारे उत्तर भारत में जिस समय प्राकृत या प्रादेशिक बोलियाँ प्रचलित हुई, तब प्रान्तीय प्राकृतों में अन्तर्वेद--विशेषतया ब्रह्मर्पि देश या कुरु पंचाल की प्राकृत शौरसेनी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी। संस्कृत नाटकों में श्रेष्ठ सवंशज पात्र बात करने में इस शौरसेनी ही का प्रयोग करते थे । इससे यह साबित होता है कि प्राकृतयुग में शौरसेनी का स्थान क्या था । गाने में महाराष्ट्रीय प्राकृत का प्रयोग था, यह ठीक है, परन्तु इसका कारण इतना ही मालूम होता है कि महाराष्ट्रीय प्राकृत में म्वर बहुत होने से वह शौरसेनी से श्रुतिमधुर मानी जाती थी, और गाने में शायद इसीलिये लोग इसे अधिक पसन्द करते थे ।”

"ईस्वी सदी के प्रारम्भ से संस्कृत के बाद उत्तग्में शौरसेनी भद्र समाज में बोली जाती थी, इसका प्रभाव दूसरी प्राकृत बोलियों पर भी पड़ा। भाषातत्व के विचार से ग्रियसन आदि पण्डितों ने, गजस्थान, गुजरात, पंजाब और अवध की प्राकृत बोलियों पर शोरसनी का विशेप प्रभाव स्वीकार किया है। गजस्थानी, गुजराती, पंजाबी और अवधी के विकास में शौरसेनी ने बहुत काम किया है।

शौरसेनी की गणना भी दूसरी प्राकृत में ही है, यह कहना वाहुल्यमात्र है । 'प्राकृत लक्षण' कार ‘चण्ड' ने चार प्राकृत मानी है 'प्राकृत, 'अपभ्रंश, 'पैशाचिकी, और मागधी। प्राकृत लक्षण के टीकाकार पड्भापा मानते हैं, वे उपर्युक्त चार नामों के साथ संस्कृत और शौरसेनी का नाम और बढ़ाते हैं । वररुचि महाराष्ट्री, पैशाची, मागधी और शौरसेनी, चार और हेमचन्द्र 'मूलप्राकृत, शौरसेनी, मागधी. पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश छः प्राकृत बतलाते हैं। अध्यापक लासेन यह कहते हैं [ ४० ]“वररुचि वर्णित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची, इन चार प्रकार के प्राकृतों में शौरसेनी और मागधी ही वास्तव में स्थानीय भाषायें हैं । इन दोनों में शौरसेनी एक समय में पश्चिमाञ्चल के विस्तृत प्रदेश की बोलचाल की भाषा थी। मागधी अशोक की शिलालिपि में व्यवहृत हुई है, और पूर्व भारत में यही भाषा किसी समय में प्रचलित थी। महाराष्ट्री नाम होने पर भी यह महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा नहीं कही जा सकती। पैशाची नाम भी कल्पित मालूम होता है"विश्वकोष पृ॰ ४३८

ऊपर के वर्णन में जहां प्राकृतों में केवल 'प्राकृत; और 'मूल प्राकृत' लिखा गया है, मेरा विचार है वहां उनका प्रयोग आप-प्राकृत अथवा पाली के अर्थ में किया गया है। जिनके विषय में पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। अपभ्रंश तीसरी प्राकृत है, उसका वर्णन आगे होगा। शेष रही चूलिका पैशाची उसका वर्णन थोड़े में किया जाता है ।

'संस्कृत साहित्य में पिशाच शब्द का प्रयोग अधिकतर दानवों के अर्थ में हुआ है, क्योंकि वे मांसाशी थे, परन्तु वास्तव में भारत के पश्चिमोत्तर में रहनेवाली एक विशेष जाति पिशाच कहलाती है । संस्कृत अथवा प्राकृत के वेयाकग्णा ने पैशाची को प्राकत का एक रूप बतलाया है, हेमचन्द्र ने उसका वर्णन विशेषतया किया है, उन्होंने कहा है यह मध्य प्रान्त की भाषा थी, और उसका साहित्य भी है। मारकण्डेय ने वृहत्कथा से शब्द उद्धृत करके यह कहा कि वह केकय प्रान्त की भाषा है, जो भारत के पश्चिमोत्तर में स्थित है। परन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि पैशाची वास्तव में उस प्रदेश में बसनेवाली पिशाचों की भाषा थी या क्या ? हेमचन्द्र की पैशाची विल्कुल भारतीय भाषा है, उत्तर पश्चिम की वर्तमान पिशाचभाषा इस प्राकत से भिन्न है। यह संभव हो सकता है कि पिशाच जव मध्यएशिया से आये तो अभारतीय (अर्थात ईगनियन इत्यादि) विशेषताओं को भूल गये और उन विशेषताओं को सुरक्षित रखा जिससे पैशांची प्राकृत मानी जा सके।

वर्तमान पिशाच भाषायें शुद्ध भारतीय नहीं हैं, उनमें उच्चारण के बहुत [ ४१ ]

( ४१ )

से नियम ऐसे हैं, जो कि इण्डोएरियन भाषाओं से उनको अलग करते हैं। जैसे वर्तमान पिशाची में 'र' का उच्चारण । यद्यपि अन्य विषयों में वे साधारणतः इण्डोएरियन भाषाओं के समान हैं, तथापि कभी कभी उनमें ईरानियन विशेषतायें भी झलक जाती हैं। इनमें से कुछ ईरानी विशेषतायें ऐसी हैं, कि जिनको देखकर 'कोनो' ने यह विचार प्रगट किया कि पैशाची में वशगली भाषा ईरानी भाषा की वर्तमानकालिक प्रतिनिधि है। इस बात का विचार करते हुए कि कुल पिशाची भाषाओं में कुछ ईरानियन विशेष- ताओं का अभाव है, मेरी राय यह है कि पिशाच भाषायें न तो शुद्ध भारतीय हैं और न शुद्ध ईरानियन । शायद उन्हों ने इण्डोएरियन भाषाओं की उत्पत्ति के बाद आर्यभाषा को जो उसके मा बाप हैं छोड़ दिया। परन्तु ज्ञात होता है कि अवेस्ता के ईरानियन विशेषताओं के विकास होने के पहले ही ऐसा हुआ। आर. जी. भाण्डारकर की राय यद्यपि अन्य शब्दों में प्रकट की गई है, परन्तु उससे भी यही भाव प्रकट होता है। वे कहते हैं “यह पैशाची प्राकृत शायद आर्य-जाति की उस शाखा की भाषा है जो कि अपनी जातिवालों के साथ बहुत दिन तक रही, परन्तु भारत में पीछे आई, और किनारे पर बस गई। या यह भी हो सकता है कि वह अपनी जाति. वालों के साथ ही भारत में आई, परन्तु किनारे के पहाड़ी प्रदेशों में स्वतंत्रतापूर्वक बस जाने के कारण अपनी भाषा सम्बन्धी उच्चारण विशेष- ताओं का ऐसा विकास किया कि जिससे मैदान की सभ्य भाषा से घनिष्टता प्राप्त कर सकी। इसी कारण उनकी भाषाओं के उच्चाग्ग में वे परिवर्तन नहीं हुये, जो कि संस्कृत से उत्पन्न होनेवाली प्राकृतों में हो सके" अन्त में मैं यह सोचता हूं कि वर्तमान पिशाच भापा कुछ विषयों में तलवह भापासे मिलती जुलती है, जिससे यह अनुमान होता है कि इसके बोलनेवाले अपने वर्तमान स्थान पर भारत के मैदान से नहीं वरन सीधे पामीर से आये । और दूसरे लोग जो कि शुद्ध इण्डोएग्यिन के बोलनेवाले थे भारत के मैदान में पश्चिम से पहुंचे। यदि वास्तविक घटना ऐसी ही है, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आर्य्यो के मुख्य दलाें से इनका दल अलग था ।*

Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institute

(S36)Hi-74-75. [ ४२ ]

(४२)

तीसरी प्राकृत अपभ्रंश है। संसार परिवर्तनशील है, जैसे यथाकाल उसके समस्त पदार्थों में परिवर्तन होता है, वैसे ही भाषा में । . मागधी, अर्द्धमागधी, महाराष्ट्री और शौरसेनी में जब अधिक परिवर्तन हुये, और एक प्रकार से उनका व्यवहार सर्व साधारण के लिये असंभव हो गया, तब अपभ्रंश भाषा सामने आई। यह कोई अन्य भाषा नहीं थी, पूर्व कथित भाषायें ही बदल कर अपभ्रंश बन गई। इस समय भारतवर्ष के उत्तरीय प्रदेश और महाराष्ट्र प्रान्त में जितनी आर्य भाषा सम्बन्धिनी भाषायें बोली जाती हैं, उनमें से अधिकांश भाषाओं का आधार अपभ्रंश ही है। अपभ्रंश ही रूप बदल कर अब देशभाषा के रूप में विराजमान है । प्रायः यह कहा जाता है कि जब कोई भाषा साहित्यिक हो जाती है, अर्थात जब उसमें साहित्यिक विशेषतायें आ जाती हैं, तो वह बोलचाल की भाषा नहीं रह जाती। यह कारण निर्देश युक्तिसंगत नहीं मालूम होता। किसी भाषा का साहित्य में गृहोत हो जाना, उसके बोलचाल से वहिष्कृत होने का हेतु नहीं है। यह प्राकृतिक नियम है कि चिरकाल तक किसी भाषा का एक रूप ही नहीं रहता, विशेष कारणों से उसमें यथा समय ऐसा परिवर्तन हो जाता है, कि वह लगभग उससे इतनी दूर पड़ जाती है, कि उसका उससे कोई सम्बन्ध ही नहीं ज्ञात होता। भाषामर्मज्ञ लोग भले ही सूक्ष्म- दृष्टि से उनके पारस्परिक सम्बन्ध को देखते रहें, परन्तु यह सम्बन्ध सर्व साधारण का वोधगम्य नहीं रह जाता । इसीलिये बोलचाल की भाषा स्वयं उससे अलग हो जाती है, और पूर्ववर्ती भाषा का रूप साहित्य में रह जाता है । ऐसा सहस्रो वर्ष के उपरान्त ही होता है, परन्तु होता है अवश्य । अपभ्रंश भाषा ऐसे ही परिवर्तनों का फल था। यह वात स्पष्ट है कि जो भाषा बोलचाल की होती है, जनता की शिक्षा की दृष्टि से बाद को उसमें ही ग्रन्थ-रचना होने लगती है, और धीरे धीरे बोलचाल की भाषा ही साहित्य का रूप ग्रहण कर लेती है। अपभ्रंश भाषा भी ज्यों ज्यों पुष्ट होती गई, त्यों त्यों उसको साहित्यिक रूप मिलने लगा। इस भाषा में बहुत अधिक साहित्य है।

कोषकारों ने अपभ्रंश का अर्थ कुत्सित अथवा अपभापा किया है --[ ४३ ]

( ४३ )

एक स्थान से भ्रंश होकर जिसका पतन होता है, वही अपभ्रंश कहलाता है (दे० पृकृतिवाद पृ० ४२) आर्ष शब्दों के बिगड़ने से ही, प्राकृत-भाषा, और अपभ्रंश की उत्पत्ति हुई है. इसीलिये उनका उल्लेख संस्कृत ग्रन्थों में इसी रूप में किया गया है। गरुड़ पुराण में तो यहां तक लिख दिया गया है-

(पूर्व खण्ड ६८, १७ --

• लोकायतम् कुतर्कश्च प्राकृतं म्लेच्छभाषितम् ।

न श्रोतव्यं द्विजेनैतद्धोनयति तद् द्विजम् ॥

एक स्थान पर अपभ्रंश के लिये यह लिखा गया है....

आभीरादि गिरः काव्ये अपभ्रंशगिरः स्मृताः ।

परन्तु स्वाभाविक नियम का प्रत्याख्यान नहीं हो सकता । अपभ्रंश का बहुत अधिक प्रचार हुआ, और उसमें रचनायें भी हुई। कुछ काल तक उसकी ओर पठित समाज की अच्छी दृष्टि नहीं रही, परन्तु ज्यों ज्यों उसका प्रसार होता गया, त्याें त्याें दृष्टिकोण भी बदलना गया, और उसको साहित्य में स्थान मिलने लगा। कुछ विद्वानों का विचार है कि दूसरी शताब्दी में उसकी रचना आरम्भ हो गई थी, और उस काल की कुछ प्राकृत रचनाओं में वह मिलती है, परन्तु अधिक लोग इस सम्मति को नहीं मानते। इन लोगों का कथन है कि अपभ्रंश की साहित्यिक रचनायें छठी शताब्दी से ही प्रारम्भ होती है। श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी डाक्टर ग्रियर्सन के लेखों के आधार पर बनी अपनी 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति' नामक पुस्तक में यह लिखते हैं-

"छठे शतक में अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी। ग्यारहवें शतक के आरम्भ तक इस तरह की कविताके प्रमाण मिलते हैं । इस पिछले अर्थात् ग्यारहवें शतक में अपभ्रंश भाषाआ का प्रचार प्रायः बन्द हो चुका था।"

• “सम्वत् ६६० में देवसेन नामक एक जैन ग्रन्थकार हो गये हैं, दोहों में उनके बने दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, एक का नाम है 'श्रावकाचार' और दूसरे

का 'दब्बसहावपयास' इन दोनों ग्रन्थों की भापा अपभ्रंश कही जा [ ४४ ]

(४४)

सकती है। अपभ्रंश की अधिकांश रचना दोहों में ही मिलती है।

वौद्धमत के महायान सम्प्रदाय की एक 'सहजिया' नामक शाखा है. यह शाखा विक्रमी चौदहवें शतक में मौजूद थी, उनकी कुछ पुरानी पोथियों का संग्रह महा० म० श्रीहर प्रसाद शास्त्री ने “वौद्धगानओ दोहा” नाम से निकाला है, उसमें कन्ह और सरह के दोहे अपभ्रंश भाषा में लिखे गये प्रतीत होते हैं।

हेमचन्द्र प्राकृत भाषा के बहुत बड़े वैयाकरण हो गये हैं, वे विक्रमी बारहवें शतक में मौजूद थे, उन्हों ने 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन, नामक प्राकृत भाषा का एक बड़ा व्याकरण बनाया है, उसमें अपभ्रंश भाषा के अनेक दोहे उदाहरण में लिखे गये हैं, उन दोहों में से कुछ उनके पहले के भी हैं।

विक्रमी तेरहवें शतक में (१२४१) सोमप्रभसूरि नामक एक जैन विद्वान् ने 'कुमार प्रतिबोध' नामक एक ग्रन्थ लिखा है, उसमें भी अपभ्रंश भाषा के दोहे मिलते हैं, जिनमें से कुछ उनके बनाये हैं और कुछ प्राचीन हैं।

विक्रमी चौदहवं शतक (१३६१) में जैनाचार्य मेरुतुग ने 'प्रवन्ध- चिन्तामणि' नामक एक संस्कृत ग्रन्थ बनाया, इसमें भी वीच वीच में अपभ्रंश भाषा के दोहे मिलते हैं । स्थान स्थान पर मालवराज मुजके रचे अपभ्रंश दोहे भी इसमें देखे जाते हैं।

नलसिंह भट्ट भी चौदहवें शतक में हुआ है, इसका बनाया 'विजयपाल रासो' अपभ्रंश में लिखा गया है । पन्द्रहवें शतक में मैथिल कोकिल विद्या- पति ने भी दो ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा में लिग्वे, 'कीर्तिलता, एवं 'कीर्तिपताका' परन्तु इनकी रचनाओं में उनके समय में प्रचलित देशभापा का ढंग भी पाया जाता है, उसमें प्रायः संस्कृत के तत्सम शब्द भी मिल जाते हैं, जो प्राकृत परम्परा के विरुद्ध हैं।,, *

इन अवतरणों में पाया जाता है कि ग्यारहवें शतक में ही अपभ्रंश का

  • देखो हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ट ७ ता० १७
[ ४५ ]

(४५)

व्यवहार बन्द नहीं हो गया था, वरन चौदहवें शतक तक चलता रहा, और पन्द्रहवें शतक में भी उसमें पुस्तकें लिखी गई, चाहे उनकी संख्या कितनी ही अल्प क्यों न हो। यह मैं पहले लिख आया हूँ कि इस समय जितनी भाषायें भारतवर्ष में आर्य परिवार की बोली जाती हैं, वे प्रायः अपभ्रंश से ही विकसित हुई हैं, अब मैं उनका उल्लेख पृथक् पृथक् डा० जी० ए० ग्रियर्सन की सम्मति के अनुसार करता हूं। इधर जो आविष्कार हुए हैं, अथवा जो छानवीन की गई है, बाद को उनका उल्लेख भी करूगा ।

सिन्ध नदीके आस पास जो प्रदेश है, उसमें ब्राचड़ा नाम की अपभ्रंश भाषा प्रचलित थी, आधुनिक सिन्धी एवं लहँडा की उत्पत्ति उसी से हुई। कोहिस्तानी और काश्मीरी भापा जिस अपभ्रंश से निकली, यह पता नहीं, परन्तु ब्राचड़ा अपभ्रंश से वह अवश्य प्रभावित होगी।

दाक्षिणात्य प्रदेश में बोली जानेवाली भाषाओं का सम्वन्ध वैदर्भी और महाराष्ट्री अपभ्रंश से बतलाया जाता है, इसी प्रकार उत्कली अपभ्रंश उड़िया भाषा की जननी कही जाती है।

मागधी अपभ्रंश मगही आदि वर्त्तमान विहारी भापाओं का आधार है, यही मागधी बंगाल में पहुंच कर प्राच्या अथवा गौड़ी कहलाई, और उसी के अपभ्रंश से बंगला भाषा और आसामी की उत्पत्ति हुई। मागध अपभ्रंश का बड़ा विस्तृत रूप देखा जाता है, उत्कल अपभ्रंश भी उसी के प्रभाव से प्रभावित है, और पूर्व में ढक्की भाषा पर भी उसका अधिकार दृष्टिगत होता है। वह उत्तर दक्षिण और पूर्वमें ही नहीं बढ़ी, उसने पश्चिम में भी अपना विकास दिखलाया और अर्द्धमागधी कहलाई । कि जिसके अपभ्रंश ने अवधी, वघेलखण्डी, और छत्तीसगढ़ी को सृजन किया।

पश्चिमी भारत की वर्त्तमान भाषाओं का सम्बन्ध नागर अपभ्रंश से है, उसका एक रूप शौरसेनी है और दूसग आवन्ती। शौरसेनी का विस्तार पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी में देखा जाता है। और आवन्ती का प्रभाव राजस्थानी और गुजराती में। कहा जाता है पंजाब से लेकर नेपाल तक

के पहाड़ी प्रदेशों में जो भाषा इस समय बोली जाती है, उसका सम्बन्ध भी [ ४६ ]

(४६)

उज्जैन प्रान्त की आवन्ती भाषा के अपभ्रंश से ही है, क्योंकि राजस्थानो भाषाओं का जनक वही है, और राजस्थानी भाषाओं का ही अन्यतम रूप इन पहाड़ी भाषाओं में पाया जाता है।

श्रीयुत् डाक्टर सुनोतिकुमार चटर्जी महोदय इस अपभ्रंश भाषा के विषय में क्या कहते हैं, उसे भी सुनिये-*

"ईस्वी प्रथम सहस्र वर्षों के बीच में प्राचीन भारतवर्ष में एक नवीन राष्ट्र या साहित्यिक भाषा का उद्भव हुआ । यह अपभ्रंश भाषा थी, जो शौरसेनी प्राकृत का एक रूप थी। अपभ्रंश भाषा-अर्थात् यह शौरसेनी अपभ्रंश पंजाब से बंगाल तक और नैपाल से महाराष्ट्र तक साधारण शिष्टभाषा और साहित्यिक भाषा बनी। लगभग ईस्वी सन् ८०० से १३ या १४ सौ तक शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचारकाल था। गुजरात और राजपुताने . के जैनों के द्वारा इस में एक बड़ा साहित्य बना। बंगाल के प्राचीन बौद्ध सिद्धाचार्यगण इसमें पद रचते थे, जो अन्नमें भोट (तिब्वती) भाषामें उल्था किये गये। इसके अतिरिक्त भारत में इस अपभ्रंश में एक विराट लोक- साहित्य बना। जिसके टूटे फूटे पद और गीत आदि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण और प्राकृत पिंगल और छन्दोग्रन्थ में पाये जाते हैं। शौरसेनी अपभ्रंश के प्रतिष्ठा के कई कारण थे । ईस्वी प्रथम सहस्रक की अन्तिम सदियों के राजपूत राजाओं की सभा में यह भाषा बोली जाती थी, क्योंकि यह भाषा उसी समय मध्यदेश और उसके संलग्न प्रान्तों में-आधुनिक पछांह में-सधारणतः घरेलू भापास्वरूप में इस्तेमाल होती थी। द्वितीय कारण यह है कि इस समय गोरखपंथी आदि अनेक हिन्दू समुदाय के गुरु लोग जो पंजाब और हिन्दुस्तान से नवजाग्रत हिन्दूधर्म की वाणी लेकर भारत के अन्य प्रदेश में गये, वे भी इसी भाषा को बोलते थे, इसमें पद आदि बनाते थे, और इसी में उपदेश देते थे। उसी समय उत्तर भारत के कन्नौजिया आदि ब्राह्मण बंगाल आदि प्रदेश में ब्राह्मण आचार और संस्कृति ले उपनिविष्ट हुये। इन सब कारणों से आज से लगभग एक हजार साल --

देखिये-विशाल भारत भाग ७ अंक ६ का पृष्ट ८४१ [ ४७ ]

(४७)

आगे, जिसे हम हिन्दी का पूर्वरूप कह सकते हैं, वही शौरसेनी अपभ्रंश, ठीक उसी प्रकार जैसे आजकल हिन्दी राष्ट्रभाषा बनी है, एक राष्ट्रीय, साहित्यिक तथा धार्मिक भाषा हुई थी” ।

अब तक जो कुछ लिखा गया, उससे यह बात प्रकट हुई कि किस प्रकार प्राचीन संस्कृत अथवा वैदिक भाषा से प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति हुई. और फिर कैसे प्राकृत भाषाओं से अपभ्रंश भाषाओं का उद्भव हुआ। यह भी वतलाया जा चुका है, कि अपभ्रंश भाषाओं का परिवर्तित रूप ही बर्तमानकालिक बोलचाल की भाषायें हैं, जो आजकल भारतवर्ष के अधिकांश भाग में बोली जाती हैं। हमारो हिन्दी भाषा उन्हों भाषाओं में से बोल- चाल की एक भाषा है। अपना पूर्वरूप बदलकर वह वर्त्तमान रूप में हमारे सामने है। उसका पूर्वरूप क्या था, उसकी कुछ रचनायें देखिये-विदग्ध मुखमण्डनकार ने अपभ्रंश भाषा की निम्नलिखित कविता बतलाई है-

रसि अह केण उच्चाडण किज्जइ।
जुयदह माणसु केण उविजइ ।
तिसिय लोउ खणि केण सुहिजइ ।
एह पहो मह भुवणे विजइ ।
|

रसिकों का उच्चाटन किस प्रकार किया जा सकता है, युवतियों का मन किस प्रकार उद्विग्न होता है, तृपितलोक क्षणभर में किस प्रकार मुग्वी बनाया जा सकता है, हमारा यह प्रश्न भुवन को विदित हो ।

रसिअह=रसिकों,कॆण=क्यों, उच्चाडन=उच्चाटन, किज्जइ=किया जाय, जुयदह=युवति, माणस=मानस, उविजइ=ऊवना, तिमिय=तृपित, लोउ= लोक, खणि=क्षण, सुहिज्जइ=सुखित, रह=यह. पहो=प्रश्न, मह=मम, भुवणे=भुवने, विजइ=विदित ।

वैयाकरण हेमचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा का यह उदाहरण दिया है-

बाह बिछोड़वि जाहि तुई हउँ तेवई को दोसु।
हिय पट्टिय जद नीसरहिं जाणउँ मुज सरोसु॥

[ ४८ ]

( ४८ )

बिछोडवि=छुड़ाना, जाहि=जाते हो, तुहुँ=तू, हऊँ=हौं=हम, तेवई= तिवई=त्रिया, को=कौन, दोसु=दोष, पट्टिय=पट्टी, जद=यदि, नीसरहिं= निकले, जाणउँ=जानू, सरोसु=सरोष ।

ज्ञात होता है हिन्दी भाषा का निम्नलिखित दोहा, इसी पद्य को आधार मानकर रचा गया है, देखिये दोनों में कितना साम्य है

बाँह छुड़ाये जात हो निबल जानि कै मोहि ।
हियरे सों जब जाहुगे सबल बखानी तोहि ।

दोनों दोहों का भाव लगभग एक है, परन्तु शब्द विन्यास में अन्तर है। पहले दोहे के जितने शब्द हैं, सभी परिचित से ज्ञात होते हैं। उसके अनेक शब्द ऐसे हैं, जो अबतक हिन्दीमें प्रयुक्त होते हैं, विशेष कर व्रजभाषा की कविता में।

एक पद्य और देखिये-

अग्गिएं उपहउ होइ जगु वाएं सीअलु तेंव ।
जो पुणु अग्गिं सीअला तसु उपहत्तणु केंव ।

जग अग्नि से ऊष्ण और वायु से शीतल होता है। जो अग्नि से शीतल होता है, वह फिर ऊष्ण कैसे होगा।

अग्गिएं=अग्नि से, उपहउ=उष्ण, होइ=होता है, जग=जगत, वाएं=वायु सीअलु=शीतल, तेंव=त्यों, पुणु=पुनि तसु=सो, केवँ-क्यों।

अपभ्रंश भाषा की रचनाओं को पढ़कर उसके शब्दों का मैंने जो अर्थ लिख दिया है, उनको देखकर आपलोगों को यह ज्ञात हो जावेगा कि किस प्रकार हिन्दी का विकास अपभ्रंश भाषा से धीरे धीरे हुआ। इस समय हिन्दी भाषा का रूप बहुत विस्तृत है, उसका प्रसार बिहार से पंजाब तक और हिमालय से मध्यप्रदेश तक है । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि उस पर दूसरी प्राकृतों के अपभ्रंश का कुछ प्रभाव नहीं है, परन्तु

यह निश्चित है कि उसकी उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। चिरकाल [ ४९ ]

(४९)

तक हिन्दी भाषा का परिचय केवल भाषा कहकर ही दिया जाता रहा । हिन्दी भाषा के प्राचीन साहित्य ग्रन्थों में उसका भाषा नाम ही मिलता है, गोस्वामीजी रामायण में लिखते हैं 'भासाभणिति मोरि मत थोरी, अब भी पुराने विचार के लोग और प्रायः संस्कृत के पण्डित उसे भाषा ही कहते हैं । नागरी यद्यपि लिपि है, परन्तु पहले क्या अब भी बहुत से लोग 'हिन्दी' को नागरी कहते हैं, और नागरी शब्द को हिन्दी का पर्यापवाची शब्द मानते हैं । परन्तु हिन्दी संसार का पठितसमाज कम से कम पचास वर्ष से उसको 'हिन्दी' ही कहता है, और साधारणतया हिन्दी संसार क्या अन्यत्र भी अब वह इसी नाम से परिचित है। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि इस हिन्दी नाम की कल्पना क्या आधुनिक है ! वास्तव में यह कल्पना आधुनिक नहीं है, चिरकाल से उसका यही नाम है. परन्तु यह सत्य है कि इस नाम के प्रयोग में भ्रान्ति होती आई है, और अव भी कभी कभी वह अपना प्रभाव दिखलाये बिना नहीं रहती। मुसल्मान जब भारतवर्ष में आये, और उन्हों ने जब दिल्ली एवं आगरे को अपनी राजधानी बनाई तो अनेक कार्य सूत्रसे उनको अपने आसपास की देशी भाषा का नाम करण करना पड़ा । क्योंकि फारसी, अरबी, अथवा संस्कृत तो देशभाषा को कह नहीं सकते थे और वास्तव में वह फारसी, अरबी अथवा संस्कृत थी भी नहीं, इसलिये उन्हों ने देशभाषा का नाम 'हिन्दी' रखा। यह नाम रखने का हेतु यह हुआ कि वे भारतवर्षको 'हिन्द' कहते थे, इसलिये इस देशकी भाषा को उन्होंने 'हिन्दी' कहना ही उचित समझा। कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दू शब्द से ही हिन्दी शब्द बना, किन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि हिन्दू शब्द भी हिन्द शब्द से ही बना है । यद्यपि कुछ लोग यह बात नहीं मानते, और अन्य प्रकार से हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं, परन्तु बहुमान्य सिद्धान्त यही है कि 'हिन्द' शब्द से ही हिन्दू शब्द बना है। क्यों यह सिद्धान्त वहुमान्य है, इस विषय में अपने एक व्याख्यान का कुछ अंश यहां उठाता हूं

“हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही, हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस नस में आनन्द की धारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता

है, इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको [ ५० ]

(५०)

स्वीकार नहीं करता। हिन्दू शब्द से हिन्दी का सम्बन्ध नहीं है, वरन् हिन्द शब्द उसका जनक है--हिन्द शब्द देशपरक है, और भारतवर्ष का पर्याय- वाची शब्द है। यदि हिन्दू शब्द से ही उसका सम्बन्ध माना जावे तो भी अप्रियता की कोई बात नहीं । आज दिन हिन्दू शब्दही इक्कीस करोड़ संख्या का सम्मिलन सूत्र है, यह नाम ही ब्राह्मण से लेकर अस्पृश्य जाति के पुरुष तक को एक बन्धन में बाँधता है । आर्य नाम उतना व्यापक नहीं है, जितना हिन्दूनाम, यह कभी विष रहा हो, पर अब अमृत है। वह पुण्य सलिला सुरसरी जल विधौत, सप्तपुरी पावन रजकगपूत और पुनीत वेद मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित है क्या अब भी उसमें अपावनता मौजूद है। इतना निरा- करण के लिये कहा गया, इस विषय में मेग दूसरा सिद्धान्त है । यह सत्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों अथवा पुराणों में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है, यह सत्य है कि मेरुतंत्र का “हीनश्च दूषयत्वेव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये" और शिव रहस्य का “हिन्दूधर्म प्रलोप्तारोभविष्यन्ति कलौयुगे" आधुनिक श्लोक खण्ड हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि विजेता मुसल्मानों ने बलपूर्वक हिन्दुओं से हिन्दूनाम नहीं स्वीकार कराया। यदि वलात् यह नाम स्वीकार कराया गया होता, तो चन्दवरदाई ऐसा स्वधर्माभिमानी अब से सात सौ बरस पहले, अपने निम्न लिखित पद्य में हिन्दुवान, शब्द का प्रयोग न करता। वह लिखता है -

"हिन्दुवान रान भय भान मुखगहि य तेग चहुँ आन अब"

वास्तव बात यह है कि फ़ारस निवासी चिरकाल से भारत को हिन्द कहते आये हैं अब से लगभग पांच सहस्र वर्ष की पुरानी पुस्तक ज़िन्दाबस्ता में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है उसकी १६३वीं आयत यह है-

"चूं व्यास हिन्दी बलख आमद
गुस्तास्पज़रतुश्तरा बख्वाँद" "

यह हिन्द नाम सिन्धु के सम्बन्ध से पड़ा है, क्योंकि फ़ारसी में हमारा

'स' 'ह' हो जाता है, जैसे सप्त से हफ्त, असुर से अहुर, सोम से होम बना [ ५१ ]

( ५१ )

वैसे ही सिंध से हिंध अथवा हिन्द बन गया और इसी हिन्द से ही हिन्दू शब्द की वैसे ही उत्पत्ति है, जैसे इण्डस से इण्डिया और इण्डियन की। जब मुसल्मान जाति विजेता बनकर भारत में आई, तो वह यहां के निवा- सियों को इसी प्राचीन नाम से ही पुकारती रही, अतएव उसके संसर्ग और प्रभाव से यह शब्द सर्व साधारण में गृहीत हो गया । इस सीधी और वास्तविक बात को स्वीकार न करके यह कहना कि हिन्दू माने काफ़िर के हैं, अतएव वलात् यह नाम हिन्दुओं से स्वीकार कराया गया, अनुचित और असंगत है"।

डाक्टर जी० ए० प्रियसन क्या कहते हैं उसे भी सुनिये-

“यूरोपियन लेखकों ने 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग बड़ी लापरवाही के साथ किया है । यह फ़ारसी शब्द है, और इसका अर्थ है, भारत का अथवा भारत से सम्वन्ध रखनेवाला । परन्तु लोग इसका सम्वन्ध हिन्दू शब्द से वतलाते हैं, जो ठीक नहीं। पुराने समय में भी मध्यभारत की भाषा, भारत में सब से महत्व की होती थी। यह स्थानीय भाषा ही नहीं है, वरन् एक प्रकार से 'हिन्दुस्तानी' है - जो कि उत्तरी और पश्चिमी भारत के वोल- चाल की भाषा है" * मुसल्मान लोग हमारी देश भाषा को बहुत पहले से हिन्दी कहते आये हैं, इसका प्रमाण खुसरो की रचनाओं में मौजूद है। खुसरो ईस्वी तेरहवें शतक में हुये हैं-उन्हों ने हिन्दी भाषा में भी रचना की है । हिन्दुओं को फ़ारसी सिखलाने के लिये उन्हों ने खालिकबारी नाम की एक पुस्तक लिखी है-- उसमें वे कहते हैं---

  • The term “ Hindi " is very laxly employed by European writers. It is a Persian word, and properly means “ of or belonging to India,"as opposed to " Hindu,” a person of the Hindu religion......As alsowas the case in ancient times, the language of this tract (i.e. Madhya-desha) is by lar the most important of any of the speeches of India. It is not only a local vernacular, but in one of its forms, "Hindustani,"it is spoken over the whole of the north and west of continental India as a lingua franca......"-Bulletin of the School of Oriental Studies,London Institute. pp. 50-5 ( 6) [ ५२ ]

( ५२ )

मुश्क काफूरस्त कस्तूरी कपूर ।
हिन्दवी आनन्द शादी औसरूर ।
सोज़नो रिश्ता ब हिंदी सूई ताग।

इसका अर्थ हुआ मुश्क को कस्तूरी, काफूर को कपूर, शादी और सरूर को आनन्द, एवं सोज़न और रिश्ताको हिन्दी में सूई तागा कहते हैं।

अपनी हिन्दी रचना में एक जगह वे यह कहते हैं-

फारसी बोली आईना । तुर्की ढूंढी पाईना।
हिन्दी बोली आरसी आए । खुसरो कहे कोई न बताये।

इसका अर्थ हुआ फ़ारसी में जिसे आईना कहते हैं, हिन्दी में उसको आरसी। मालिक मुहम्मद जाईसी भी हिन्दी को हिन्दवी ही कहते हैं---

तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहि ।
जामें मारग प्रेम का सबै सराहै ताहि ।

इन पद्यों से यह स्पष्ट हो गया कि अब से छः सात सौ बरस पहले से हमारे मध्यवर्ती देश की भाषा हिन्दी कहलाती है। परन्तु यह अवश्य है कि हिन्दुओं में यह नाम बहुत पीछे गृहीत हुआ है, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूं। पहले हिन्दवी अथवा हिन्दुई को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था । हिन्दुई शब्द गँवारी बोलचाल अथवा साधारण कोटि की भाषा के लिये प्रयुक्त होता था। इसीलिये उच्च हिन्दी अथवा उसकी साहित्यिक रचनाओ का नाम भाषा था। परन्तु जब यह भापा बहुत व्यापक हुई, और उसमें अनेक अच्छे अच्छे ग्रन्थ निर्मित हुए, सुदूर प्रान्तों से सुन्दर सुन्दर समाचार-पत्र निकले तब बिचार बदला और उस समय से हिन्दी भाषा कहकर ही उसका परिचय दिया जाने लगा। आज दिन तो हिन्दी अपने नाम के अर्थानुसार वास्तव में हिन्द की भाषा बन रही है।